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गीतकार तो अभिमन्यु होता है - जयदीप साहनी

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'रब ने बना दी जोड़ी' के गीत जयदीप साहनी ने लिखे हैं। वे यशराज फिल्म्स की 'चक दे' से ज्यादा चर्चा में आए। वैसे याद करें तो 'जंगल' भी उन्होंने लिखी थी। अभी तक छह फिल्में लिख चुके जयदीप साहनी ने बारह फिल्मों में गीत भी लिखे हैं। पेश है एक बातचीत :- हिंदी फिल्मों में सक्रिय चंद प्रतिभाशाली और प्रयोगशील क्रिएटिव दिमागों में से एक आप हैं। क्या आप सचमुच क्रिएटिव योगदान कर पा रहे हैं? 0 अपना क्रिएटिव योगदान कोई खुद कैसे आंक सकता है। मेरा निजी अनुभव रहा है कि प्रोडयूसर, डायरेक्टर, अभिनेता और टेक्नीशियन की तरह आपके योगदान को भी सराहा जाता है। अपने विषयों और किरदारों को फिल्म उद्योग की टेढ़ी-मेढ़ी गलियों से गुजारते हुए आम आदमी तक पहुंचाने की जिम्मेदारी आप नहीं लेंगे तो भला दूसरा कोई क्यों लेगा? - यशराज फिल्म्स के साथ ही सीमित रहने से आपकी संभावनाएं सीमित नहीं होतीं क्या? 0 खास नहीं। यशराज एक खास तरह के सिनेमा के लिए जाना जाता है। लेकिन उन्होंने 'चक दे' जैसी फिल्म जोखिम के बावजूद बनायी। 'मैंने गांधी को नहीं मारा' को बिना शोर-शराबे के फायनेंस किया और 'मा

कैफियत कैटरीना कैफ की

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रफ्ता-रफ्ता ये हुआ कैफ-ए-तसव्वुर का असर, दिल के आईने में तस्वीर उतर आई है.. किसी शायर की ये पंक्तियां आज ही हॉट अभिनेत्री कैटरीना कैफ की तारीफ में जरूर नहीं लिखी गई हैं, लेकिन उनकी कैफियत का नजारा इससे जरूर मिल जाता है। कैफ का सीधा अर्थ है आनंद और नशा। कैटरीना में ये दोनों ही खूबियां हैं। अब यदि यह कहें कि वे दर्शकों को मदहोश करने के साथ ही आनंदित भी करती हैं, तो शायद गलत नहीं होगा। यही वजह है कि कश्मीरी पिता और ब्रितानी मां की यह लाडली महज अपनी खूबसूरती से हिंदी फिल्मों के करोड़ों दर्शकों के दिलों पर राज कर रही हैं। अगर अदाकारी और टैलेंट के तराजू पर कैटरीना को तौलें, तो उनका वजन सिफर से ज्यादा नहीं होगा! फिर क्या वजह है कि वे करोड़ों दर्शकों के दिलों की मल्लिका बनी हुई हैं? कुछ बात तो जरूर होगी कि उनका नशा दर्शकों और निर्देशकों दोनों के सिर चढ़ कर बोल रहा है। हमने कैटरीना कैफ के साथ काम कर चुके निर्देशकों और कलाकारों से इस बारे में बात की। उनकी फिल्मों की रिलीज के दौरान हुई मुलाकातों में जानना चाहा कि वे क्यों अपनी फिल्मों में कैटरीना को रखते हैं और उनकी कामयाबी का राज क्या है? कैटरी

दरअसल:रामगोपाल वर्मा की ताज यात्रा

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-अजय ब्रह्मात्मज महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख के साथ राम गोपाल वर्मा ताज होटल क्या चले गए, हंगामा खड़ा हो गया! उनके हाथ से महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री की कुर्सी चली गई। हालांकि उनकी कुर्सी के जाने या रहने का सीधा ताल्लुक रामू की ताज यात्रा से नहीं होना चाहिए, लेकिन ऐसे लोगों की कमी नहीं है, जो रामू को इसके लिए जिम्मेदार मानेंगे। एक एसएमएस भी चला कि रामू ने दो बार सरकार बनाई और एक बार गिरा दी। बगैर उत्तेजित हुए हम सोचना आरंभ करें, तो महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री के साथ रामू की ताज यात्रा पर व्यक्त हो रहीं तीखी प्रतिक्रियाएं दरअसल फिल्मों के प्रति हमारी सोच की बानगी है। फिल्मों को हम सभी ने मनोरंजन का माध्यम मान लिया है। निर्माता हमारे लिए एंटरटेनर के सिवा और कुछ नहीं। समाज में फिल्मों को ऊंचा दर्जा नहीं हासिल है। हम फिल्मी चर्चाओं में इतने गैरजिम्मेदार होते हैं कि उनकी जिंदगी के बारे में चटखारे लेकर बातें करते हैं और उन्हें नीची नजर से देखते हैं। अजीब विरोधाभास दिखता है समाज में। एक तरफ तो फिल्में देखने के लिए आतुर दर्शकों की भीड़ हमें अचंभित करती है। किसी भी स्थान पर स्टार की

हिन्दी टाकीज: धरमिंदर पाजी दा जवाब नहीं-नीरज गोस्वामी

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हिन्दी टाकीज-१८ इस बार नीरज गोस्वामी.यहाँ बचपन या किशोरावस्था की यादें तो नहीं हैं,लेकिन नीरज गोस्वामी ने बड़े मन से इसे लिखा है.वे अपने नाम से एक ब्लॉग भी लिखते हैं।उन्होंने अपने ब्लॉग पर लिखा है....अपनी जिन्दगी से संतुष्ट,संवेदनशील किंतु हर स्थिति में हास्य देखने की प्रवृत्ति।जीवन के अधिकांश वर्ष जयपुर में गुजारने के बाद फिलहाल भूषण स्टील मुंबई में कार्यरत,कल का पता नहीं।लेखन स्वान्त सुखाय के लिए। बात बहुत पुरानी है शायद 1977 के आसपास की...जयपुर से लुधियाना जाने का कार्यक्रम था एक कांफ्रेंस के सिलसिले में. सर्दियों के दिन थे. दिन में कांफ्रेंस हुई शाम को लुधियाना में मेरे एक परिचित ने सिनेमा जाने का प्रस्ताव रख दिया. अंधे को क्या चाहिए?दो आँखें...फ़ौरन हाँ कर दी. खाना खाते खाते साढ़े आठ बज गए थे सो किसी दूर के थिएटर में जाना सम्भव नहीं था इसलिए पास के ही थिएटर में जाना तय हुआ. थिएटर का नाम अभी याद नहीं...शायद नीलम या मंजू ऐसा ही कुछ था. वहां नई फ़िल्म लगी हुई थी "धरमवीर". जिसमें धर्मेन्द्र और जीतेन्द्र हीरो थे. धर्मेन्द्र तब भी पंजाब में सुपर स्टार थे और अब भी हैं..."ध

भाषा से भाव बनता है: अमिताभ बच्चन

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अमिताभ बच्चन अपने पिता की रचना 'जनगीता' को स्वर देंगे.इस बातचीत में अमिताभ बच्चन ने और भी बातें बतायीं.जिस प्रकार एक सुसंस्कारित, आस्थावाहक पुत्र की तरह सदी के महानायक पिता की रचनाओं को अपना स्वर देकर उस अनमोल विरासत और परम्परा से जुड़ने के आकांक्षी है वह एक बड़ी बात है- आपने पिता द्वारा अनूदित 'ओथेलो' में कैसियो की भूमिका निभायी थी। उनकी इच्छा थी कि आप 'हैमलेट' की भी भूमिका निभाएं। क्या इसकी संभावना बनती है? अब तो नहीं बन सकती। अब तो 'हैमलेट' के पिता के रूप में जो भूत था वही बन पाऊंगा। हां, इस बात का खेद है कि उसे नहीं कर पाया। कभी अवसर नहीं मिल पाया। जब अवसर था तो व्यस्तता बढ़ गई थी। व्यस्तता के कारण इस ओर मैं ध्यान नहीं दे पाया। मैं उम्मीद करता हूं कि आने वाले दिनों में कोई न कोई इसे पढ़ेगा और इसकी बारीकी को समझेगा। कोई न कोई कलाकार इस किरदार को जरूर निभाएगा। इस सवाल का यह भी आशय था कि क्या आप निकट भविष्य में रंगमंच पर उतर सकते हैं? इस उम्र में थिएटर में वापस जाना मेरे लिए संभव नहीं होगा, क्योंकि थिएटर बड़ा मुश्किल काम है। जो लोग थिएटर करते हैं,उनको म

दरअसल: कौन जाता है देश के फेस्टिवल में?

हर साल दुनिया भर में सैकड़ों फिल्म फेस्टिवल आयोजित होते हैं। उनमें से दर्जन भर अपने देश में ही होते हैं। भारत में आयोजित फेस्टिवल में सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के अधीन कार्यरत फिल्म निदेशालय के सौजन्य से आयोजित इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल का खास महत्व इसलिए भी है, क्योंकि यह देश का सबसे बड़ा फिल्म फेस्टिवल है। पं.नेहरू के निर्देश पर इसकी शुरुआत हुई थी। फिल्म फेस्टिवल ने भारत में फिल्म संस्कृति को विकसित करने में बड़ा योगदान किया। सत्यजीत राय से लेकर अनुराग कश्यप तकअनेक निर्देशक फेस्टिवल की फिल्मों से प्रेरित होकर निजी सोच के साथ सक्रिय हुए। इन दिनों स्थानीय फिल्म सोसाइटी, प्रदेश की सरकारों और कुछ संगठनों द्वारा देश के मुख्य शहरों में अनेक फेस्टिवल आयोजित होते रहते हैं। इनके स्वरूप में थोड़ी भिन्नता जरूर है, लेकिन अगर लोग विभिन्न फेस्टिवल में प्रदर्शित फिल्मों की सूची देखें, तो पाएंगे कि कुछ फिल्म हर फेस्टिवल में शामिल की गई हैं। वास्तव में, अपने देश में फिल्म फेस्टिवल का आयोजन पंचरंगी अचार की तरह होता है। उसमें हर तरह की फिल्में शामिल की जाती हैं। आयात की गई या भेंट में मिलीं पुरस्कृत फि

फिल्म समीक्षा:दिल कबड्डी

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** 1/2 एडल्ट कामेडी अनिल सीनियर ने दिल कबड्डी में विवाहेतर संबंध के पहलुओं को एक नए अंदाज में वयस्क नजरिए से रखा है। विवाहेतर संबंध पर बनी यह कामेडी फिल्म कहीं भी फूहड़ और अश्लील नहीं होती और न ही हंसाने के लिए द्विअर्थी संवादों का सहारा लिया गया है। पति-पत्नी के रिश्तों में बढ़ती दूरी का कारण तलाशते फिल्म बेडरूम तक पहुंचती है और वहां के भेद खोलती है। हिंदी फिल्मों में सेक्स लंबे समय तक वर्जित शब्द रहा है। दिल कबड्डी इस शब्द से परहेज नहीं करती। इरफान खान और सोहा अली खान पति-पत्नी हैं। एक-दूसरे से ऊब कर दोनों अलग रहने का फैसला करते हैं। बाद में दोनों के नए संबंध बनते हैं। उनके अलग होने पर हाय-तौबा मचाने वाली कोंकणा सेन शर्मा पति को छोड़ कर एक मैगजीन के तलाकशुदा संपादक राहुल खन्ना से शादी कर लेती है। उसका पति राहुल बोस तलाक के पहले से अपनी छात्रा पर डोरे डाला करता है। फिल्म का हर किरदार अपने रिश्ते से नाखुश है। वह किसी और में सुख तलाश रहा है। मजेदार प्रसंग यह है कि इरफान और सोहा फिर साथ रहने लगते हैं। यह हमारे समय का दबाव है या रूढि़यों का टूटना है? नाखुश दंपति अवसर पाकर नए संबंधों का स

फ़िल्म समीक्षा:महारथी

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** 1/2 बेहतरीन अभिनय के दर्शन शिवम नायर की महारथी नसीरुद्दीन शाह और परेश रावल के अभिनय के लिए देखी जानी चाहिए। दोनों के शानदार अभिनय ने इस फिल्म को रोचक बना दिया है। शिवम नायर की दृश्य संरचना और उन्हें कैमरे में कैद करने की शैली भी उल्लेखनीय है। आम तौर पर सीमित बजट की फिल्मों में तकनीकी कौशल नहीं दिखता। इस फिल्म के हर दृश्य में निर्देशक की संलग्नता झलकती है। परेश रावल ने बीस साल पहले एक नाटक का मंचन गुजराती में किया था। उस नाटक के अभी तक सात सौ शो हो चुके हैं। परेश रावल इस नाटक पर फिल्म बनाना चाहते थे और निर्देशन की जिम्मेदारी शिवम नायर को सौंपी। शिवम नायर नाटक पर आधारित इस फिल्म को अलग दृश्यबंध देते हैं और सिनेमा की तकनीक से दृश्यों को प्रभावपूर्ण बना देते हैं। महारथी थ्रिलर है, लेकिन मजा यह है कि हत्या की जानकारी दर्शकों को हैं। पैसों के लोभ में एक आत्महत्या को हत्या बनाने की कोशिश में सभी किरदारों के स्वार्थ और मन के राज एक-एक कर खुलते हैं। फिल्म में सबसे सीधी और सरल किरदार निभा रही तारा शर्मा भी फिल्म के अंत में एक राज बताकर अपनी लालसा जाहिर कर देती है। हां, हम जिस तरह की नियोजित

मन में न हो खोट तो क्यों आँख चुराएँ?

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टीवी शो बिग बॉस के अंतिम दिन मंच पर शिल्पा शेट्टी के साथ अक्षय कुमार के आने की खबर से मीडिया में उत्सुकता बनी हुई थी। लोग कयास लगा रहे थे कि महज औपचारिकता निभाई जाएगी और दोनों का व्यवहार एक-दूसरे के प्रति ठंडा रहेगा। यहां अक्षय और शिल्पा दोनों की तारीफ करनी होगी कि उन्होंने शो के विजेता को जानने की जिज्ञासा बनाए रखी। अक्षय को मंच पर बुलाते समय शिल्पा की आवाज एक बार लरज गई थी। हो सकता है कि यह उस इवेंट का दबाव हो या संभव है कि पुरानी यादों से गला रुंध गया हो! मौके की नजाकत को भांपते हुए शिल्पा ने फौरन खुद को और कार्यक्रम को संभाला। बाद में दोनों ने चुहलबाजी भी की और इवेंट को रसदार बना दिया। ऐसा पहली बार नहीं हुआ था कि अंतरंग संबंध जी चुके दो व्यक्ति किसी सार्वजनिक मंच पर साथ आए हों और उन्होंने परस्पर बेरुखी नहीं दिखाई हो! औपचारिकताओं के अधीन दुश्मनों को भी हाथ मिलाते और गले लगाते हम देखते रहते हैं। ग्लैमर व‌र्ल्ड में संबंध बनते-बिगड़ते रहते हैं। कहा तो यही जाता है कि यहां यादों की गांठ नहीं बनती, लेकिन गौर करें, तो संबंध टूटने के बाद फिल्म स्टार पूर्व प्रेमियों, प्रेमिकाओं, पत्नियों और

बड़ा फासला है जीत और सफलता -महेश भट्ट

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हाल ही में मुंबई के एक पंचतारा होटल में मेरी डॉक्यूमेंट्री दि टॉर्च बियरर्स की लॉन्च पार्टी हुई। इस होटल में ज्यादातर फिल्मी पार्टियां ही होती हैं, लेकिन उस शाम मेरी दो खोजों अनुपम और इमरान हाशमी ने असम के एक नब्बे वर्षीय किसान हाजी अजमल का सम्मान किया। हाजी अजमल ने इत्र का बिजनेस किया। वे चैरिटी के काम करते हैं। उन्होंने असम के ग्रामीण इलाके में बेहतरीन अस्पताल खोला। अस्पताल खोलने का इरादा हाजी अजमल के मन में तब आया, जब उन्होंने देखा कि ग्रामीण इलाकों में प्रसव के समय कई औरतों का निधन अस्पताल के रास्ते में ही हो जाता है। उन्होंने सोचा कि क्यों न वह अपने इलाके में ही एक अस्पताल खोलें? इस तरह अस्पताल उनके जीवन का मिशन बन गया। सफलता और जीत का फर्क अनुपम खेर और इमरान हाशमी के साथ खडे हाजी अजमल तेज रोशनी की चकाचौंध में थोडे घबराए हुए थे। उस समय मुझे एहसास हुआ कि मनोरंजन उत्पादों में खुद को डुबो रही नई पीढी को यह समझाना बहुत जरूरी है कि वे रील हीरो एवं रियल हीरो में फर्क कर सकें। अपनी बातचीत में उस शाम मैंने कहा, महात्मा गांधी वास्तविक जीत के प्रतीक हैं, जबकि अमिताभ बच्चन प्रसिद्धि के प्रती

रिश्तों की बेईमानी पर ईमानदार फिल्म है दिल कबड्डी

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शुक्रवार को रिलीज हो रही फिल्म दिल कबड्डी को एक अलग विषय की फिल्म कहा जा रहा है। इस फिल्म को लेकर इरफान खान से हुई विशेष बातचीत के कुछ अंश- फिल्म 'दिल कबड्डी' के बारे में कुछ बताएं? यह नए किस्म की फिल्म है। रिश्तों में चल रही बेईमानी पर यह एक ईमानदार फिल्म है। महानगरों में ऐसे रिश्ते देखे -सुने जाते हैं। महानगरों में आदमी और औरत रहते एक रिश्ते में हैं, लेकिन पंद्रह रिश्तों की बातें सोचते रहते हैं। समय आ गया है कि हम इस पर बातें करें। [इस फिल्म की क्या खासियत मानते हैं आप? विवाहेतर संबंधों पर तो और भी फिल्में बनी हैं?] इस विषय पर इतने मनोरंजक तरीके से बनी फिल्म आपने पहले नहीं देखी होगी। मैं वैसी फिल्मों से दूर भागता हूं, जो मुद्दे पर बात करते हुए डार्क हो जाती हैं या उपदेश देने लगती हैं। मेरी समझ में आ गया है कि फिल्म मनोरंजन का माध्यम है। यह आपको सोचने पर मजबूर कर सकती है, लेकिन साथ में मनोरंजन जरूरी है। लेकिन आपने 'मुंबई मेरी जान' जैसी फिल्म भी की? वह फिल्म आपको जिम्मेदार महसूस करवाती है। उस फिल्म को मैंने इसलिए किया था, क्योंकि निशिकांत कामत की ईमानदारी पर मेरा विश्वा

दरअसल:फूहड़ कामयाबी,अश्लील जश्न

-अजय ब्रह्मात्मज मीडिया की भूख और निर्माताओं के स्वार्थ से फिल्मों की कामयाबी का जश्न जोर पकड़ रहा है। फिल्म रिलीज होने के दो हफ्तों के अंदर ऐसे जश्न का आयोजन किया जाता है। सूचना दी जाती है कि सिलेक्ट मीडिया को निमंत्रण भेजा जा रहा है। आप जश्न की जगह पहुंचेंगे, तो सड़क पर लगे ओबी वैन और अंदर कैमरों की भीड़ बता देती है कि ऐरू-गैरू, नत्थू-खैरू सभी आए हैं। हां, स्टारों से बात करने का व्यक्तिगत मौका सिलेक्ट मीडिया को दिया जाता है। बाद में सभी ग्रुप में खड़े कर दिए जाते हैं। स्टारों की इस कृपा से भी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के मजबूर पत्रकार अभिभूत और संतुष्ट नजर आते हैं। वे इस सामूहिक इंटरव्यू को संपादन कला से एक्सक्लूसिव बनाकर प्रसारित कर देते हैं। दो दिनों के अंदर मुंबई के सभी अखबारों में जश्न में आए मेहमानों और फिल्म के स्टारों की तस्वीरें छप जाती हैं। जश्न का मकसद पूरा हो जाता है। कामयाबी ठोस हो और जश्न असली हो, तो सचमुच आनंद आता है। औरों की खुशी में शरीक होने में भी एक उत्साह रहता है। पहले जश्न के ऐसे अवसरों पर मेहमानों का खास खयाल रखा जाता था। फिल्म के स्टार और निर्माता-निर्देशक संबंधित फ

लोग मुझे भूल जायेंगे,बाबूजी को याद रखेंगे,क्योंकि उन्होंने साहित्य रचा है -अमिताभ बच्चन

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अमिताभ बच्चन से उनके पिता श्री हरिवंश राय बच्चन के बारे में यह बातचीत इस मायने में विशिष्ट है कि अमित जी ज्यादातर फिल्मों के बारे में बात करते हैं,क्योंकि उनसे वही पूछा जाता है.मैंने उनके पिता जी के जन्मदिन २७ नवम्बर से एक दिन यह पहले यह बातचीत की थी। यकीन करे पहली बार अमिताभ बच्चन को बगैर कवच के देखा था.ग्लैमर की दुनिया एक आवरण रच देती है और हमारे सितारे सार्वजनिक जीवन में उस आवरण को लेकर चलते हैं.आप इस बातचीत का आनंद लें... -पिता जी की स्मृतियों को संजोने की दिशा में क्या सोचा रहे हैं? हम तो बहुत कुछ करना चाहते हैं। बहुत से कार्यक्रमों की योजनाएं हैं। बहुत से लोगों से मुलाकात भी की है मैंने। हम चाहते हैं कि एक ऐसी संस्था खुले जहां पर लोग रिसर्च कर सकें। यह संस्था दिल्ली में हो या उत्तर प्रदेश में हो। हमलोग उम्मीद करते हैं कि आने वाले वर्षो में इसे सबके सामने प्रस्तुत कर सकेंगे। आप उनके साथ कवि सम्मेलनों में जाते थे। आप ने उनके प्रति श्रोताओं के उत्साह को करीब से देखा है। आज आप स्वयं लोकप्रिय अभिनेता हैं। आप के प्रति दर्शकों का उत्साह देखते ही बनता है। दोनों संदर्भो के उत्साहों की तु

रंग रसिया:दो तस्वीरें

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केतन मेहता की फ़िल्म 'रंग रसिया' की दो तस्वीरें देखें.यह १९ वीं सदी के मशहूर पेंटर राज रवि वर्मा के जीवन से प्रेरित है.इस फ़िल्म में रणदीप हुडा ने राज रवि वर्मा की भूमिका निभाई है तो नंदना सेन उनकी प्रेमिका सुगुना बाई बनी हैं.यह फ़िल्म विदेशों में दिखाई जा चुकी है.भारत में इसका प्रदर्शन अगले साल होगा .इसे A प्रमाण पत्र मिला है.

फ़िल्म समीक्षा:ओए लकी! लकी ओए!

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हंसी तो आती है *** -अजय ब्रह्मात्मज सब से पहले इस फिल्म के संगीत का उल्लेख जरूरी है। स्नेहा खानवलकर ने फिल्म की कहानी और निर्देशक की चाहत के हिसाब से संगीत रचा है। इधर की फिल्मों में संगीत का पैकेज रहता है। निर्माता, निर्देशक और संगीत निर्देशक की कोशिश रहती है कि उनकी फिल्मों का संगीत अलग से पॉपुलर हो जाए। इस कोशिश में संगीत का फिल्म से संबंध टूट जाता है। स्नेहा खानवलकर पर ऐसा कोई दबाव नहीं था। उनकी मेहनत झलकती है। उन्होंने फिल्म में लोकसंगीत और लोक स्वर का मधुर उपयोग किया है। मांगेराम और अनाम बच्चों की आवाज में गाए गीत फिल्म का हिस्सा बन गए हैं। बधाई स्नेहा और बधाई दिबाकर बनर्जी। दिबाकर बनर्जी की पिछली फिल्म 'खोसला का घोसलाÓ की तरह 'ओए लकी।़ लकी ओए।़Ó भी दिल्ली की पृष्ठभूमि पर बनी है। पिछली बार मध्यवर्गीय विसंगति और त्रासदी के बीच हास्य था। इस बार निम्नमध्यवर्गीय विसंगति है। उस परविार का एक होशियार बच्चा लकी (अभय देओल)दुनिया की बेहतरीन चीजें और सुविधाएं देखकर लालयित होता है और उन्हें हासिल करने का आसान तरीका अपनाता है। वह चोर बन जाता है। चोरी में उसकी चतुराई देख कर हंसी आती ह

फ़िल्म समीक्षा:सॉरी भाई

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नयी सोच की फिल्म ** -अजय ब्रह्मात्मज युवा ओर प्रयोगशील निर्देशक ओनिर की 'सॉरी भाई' रिश्तों में पैदा हुए प्रेम और मोह को व्यक्त करती है। हिंदी फिल्मों में ऐसे रिश्ते को लेकर बनी यह पहली फिल्म है। एक ही लडक़ी से दो भाइयों के प्रेम की फिल्में हम ने देखी है, लेकिन बड़े भाई की मंगेतर से छोटे भाई की शादी का अनोखा संबंध 'सॉरी भाई' में दिखा है। रिश्ते के इस बदलाव के प्रति आम दर्शकों की प्रतिक्रिया सहज नहीं होगी। हर्ष (संजय सूरी)और आलिया (चित्रांगदा सिंह)की शादी होने वाली है। दोनों मारीशस में रहते हैं। हर्ष अपने परिवार को भारत से बुलाता है। छोटा भाई सिद्धार्थ, मां और पिता आते हैं। मां अनिच्छा से आई है, क्योंकि वह अपने बेटे से नाराज है। बहरहाल, मारीशस पहुंचने पर सिद्धार्थ अपनी भाभी आलिया के प्रति आकर्षित होता है। आलिया को भी लगता है कि सिद्धार्थ ज्यादा अच्छा पति होगा। दोनों की शादी में मां एक अड़चन हैं। नयी सोच की इस कहानी में 'मां कसम' का पुराना फार्मूला घुसाकर ओनिर ने अपनी ही फिल्म कमजोर कर दी है। शरमन जोशी और चित्रांगदा सिंह ने अपने किरदारों को सही

करीना कपूर:एक तस्वीर

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इस बार सिर्फ़ एक तस्वीर करीना कपूर की.आप की टिप्पणियों का स्वागत है.क्या सोचते हैं आप? कुछ तो लिखें!

आदित्य चोपड़ा लेकर आ रहे हैं'रब ने बना दी जोड़ी'

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-अजय ब्रह्मात्मज लगभग बीस साल पहले यश चोपड़ा के बड़े बेटे आदित्य चोपड़ा ने तय किया कि वे अपने पिता की तरह ही फिल्म निर्देशन में कदम रखेंगे। यश चोपड़ा 'चांदनी' के निर्देशन की तैयारी में थे। आदित्य के उत्साह को देखते हुए यश चोपड़ा ने उन्हें फिल्म कंटीन्यूटी, कॉस्ट्यूम और कलाकारों को बुलाने की जिम्मेदारी दे दी। शूटिंग में शामिल होने के पहले आदित्य चोपड़ा ने भारतीय फिल्मकारों में राज कपूर, विजय आनंद, राज खोसला, मनोज कुमार, बिमल राय, बी आर चोपड़ा और अपने पिता यश चोपड़ा की सारी फिल्में सिलसिलेवार तरीके से देख ली थीं। उन दिनों वे सिनेमाघरों में जाकर फस्र्ट डे फस्र्ट शो देखने के अलावा नोट्स भी लेते थे और बाद में वास्तविक स्थिति से उनकी तुलना करते थे। आदित्य की इन गतिविधियों पर यश चोपड़ा की नजर रहती थी और उन्हें अपने परिवार में एक और निर्देशक की संभावना दिखने लगी थी। उन्होंने आदित्य की राय को तरजीह देना शुरू किया था, लेकिन अभी उन्हें इतना भरोसा नहीं हुआ था कि स्वतंत्र रूप से फिल्म का निर्देशन सौंप दें। 1989 से लेकर 1995 में 'दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे' के प्रदर्शन तक आदित्य चोप

फ़िल्म समीक्षा:युवराज

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पुरानी शैली की भावनात्मक कहानी युवराज देखते हुए महसूस होता रहा कि मशहूर डायरेक्टर अपनी शैली से अलग नहीं हो पाते। हर किसी का अपना अंदाज होता है। उसमें वह सफल होता है और फिर यही सफलता उसकी सीमा बन जाती है। बहुत कम डायरेक्टर समय के साथ बढ़ते जाते हैं और सफल होते हैं। सुभाष घई की कथन शैली, दृश्य संरचना, भव्यता का मोह, सुंदर नायिका और चरित्रों का नाटकीय टकराव हम पहले से देखते आ रहे हैं। युवराज उसी परंपरा की फिल्म है। अपनी शैली और नाटकीयता में पुरानी। लेकिन सिर्फ इसी के लिए सुभाष घई को नकारा नहीं जा सकता। एक बड़ा दर्शक वर्ग आज भी इस अंदाज की फिल्में पसंद करता है। युवराज तीन भाइयों की कहानी है। वे सहोदर नहीं हैं। उनमें सबसे बड़ा ज्ञानेश (अनिल कपूर) सीधा और अल्पविकसित दिमाग का है। पिता उसे सबसे ज्यादा प्यार करते हैं। देवेन (सलमान खान) हठीला और बदमाश है। उसे अनुशासित करने की कोशिश की जाती है, तो वह और अडि़यल हो जाता है। पिता उसे घर से निकाल देते हैं। सबसे छोटा डैनी (जाएद खान) को हवाबाजी अच्छी लगती है। देवेन और डैनी पिता की संपत्ति हथियाने में लगे हैं। ज्ञानेश रुपये-पैसों से अनजान होने के बावजू

दरअसल:फिल्मों के प्रोडक्शन डिजाइनर

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-अजय ब्रह्मात्मज हॉलीवुड की तर्ज पर अब उन्हें प्रोडक्शन डिजाइनर कहा जाने लगा है। फिल्म की प्रचार सामग्रियों में उनका नाम प्रमुखता से छापा जाता है। माना यह जा रहा है कि फिल्म के निर्देशक, लेखक, गीतकार और संगीतकार की तरह प्रोडक्शन डिजाइनर भी महत्वपूर्ण होते हैं। वे फिल्मों को डिजाइन करते हैं। फिल्म की कहानी के आधार पर वे परिवेश, काल और वेशभूषा की कल्पना करते हैं। किसी भी फिल्म का लुक इन तीन कारकों से ही निर्धारित होता है। इसी कारण उन्हें प्रोडक्शन डिजाइनर का नाम दिया गया है। दरअसल, नितिन देसाई देश के प्रमुख प्रोडक्शन डिजाइनर हैं। हिंदी की ज्यादातर बड़ी फिल्में उन्होंने ही डिजाइन किए हैं। उनके अलावा, समीर चंदा, संजय दभाड़े और मुनीश सप्पल आदि के नाम भी लिए जा सकते हैं। एक समय में नितिश राय काफी सक्रिय थे। रामोजी राव स्टूडियो की स्थापना और सज्जा की व्यस्तता के कारण उन्होंने फिल्मों को डिजाइन करने का काम लगभग बंद कर दिया है। वैसे, एक सच यह भी है कि नितिश राय ने ही हिंदी फिल्मों की डिजाइन में विश्वसनीयता का रंग भरा। श्याम बेनेगल के साथ डिस्कवरी ऑफ इंडिया करते समय उन्होंने सेट डिजाइन की अवधार

युवराज भव्य सिनेमाई अनुभव देगा: सुभाष घई

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सुभाष घई का अंदाज सबसे जुदा होता है। इसी अंदाज का एक नजारा युवराज में दर्शकों को मिलेगा। युवराज के साथ अन्य पहलुओं पर प्रस्तुत है बातचात- आपकी युवराज आ रही है। इस फिल्म की झलकियां देख कर कहा जा रहा है कि यह सुभाष घई की वापसी होगी? मैं तो यही कहूंगा कि कहीं गया ही नहीं था तो वापसी कैसी? सुभाष घई का जन्म इस फिल्म इंडस्ट्री में हुआ है। उसका मरण भी यहीं होगा। हां, बीच के कुछ समय में मैं आने वाली पीढ़ी और देश के लिए कुछ करने के मकसद से फिल्म स्कूल की स्थापना में लगा था। पंद्रह साल पहले मैंने यह सपना देखा था। वह अभी पूरा हुआ। ह्विस्लिंग वुड्स की स्थापना में चार साल लग गए। पचहत्तर करोड़ की लागत से यह इंस्टीट्यूट बना है। मैं अपना ध्यान नहीं भटकाना चाहता था, इसलिए मैंने फिल्म निर्देशन से अवकाश ले लिया था। पिछले साल मैंने दो फिल्मों की योजना बनायी। एक का नाम ब्लैक एंड ह्वाइट था और दूसरी युवराज थी। पहली सीरियस लुक की फिल्म थी। युवराज कमर्शियल फिल्म है। मेरी ऐसी फिल्म का दर्शकों को इंतजार रहा है, इसलिए युवराज के प्रोमो देखने के बाद से ही सुभाष घई की वापसी की बात चल रही है। सुभाष घई देश के प्रमुख ए