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फिल्‍म समीक्षा : सीक्रेट सुपरस्‍टार

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फिल्‍म रिव्‍यू सीक्रेट सुपरस्‍टार जरूरी फिल्‍म -अजय ब्रह्मात्‍मज खूबसूरत,विचारोत्‍तेजक और भावपूर्ण फिल्‍म ‘ सीक्रेट सुपरस्‍टार ’ के लिए लेखक-निर्देशक अद्वैत चंदन को बधाई। अगर फिल्‍म से आमिर खान जुड़े हो तो उनकी त्रुटिहीन कोशिशों के कारण फिल्‍म का सारा क्रेडिट उन्‍हें दे दिया जाता है। निश्चित ही आमिर खान के साथ काम करने का फायदा होता है। वे किसी अच्‍छे मेंटर की तरह निर्देशक की सोच को अधिकतम संभावनाओं के साथ फलीभूत करते हैं। उनकी यह खूबी ‘ सीक्रेट सुपरस्‍टार ’ में भी छलकती है। उन्‍होंने फिल्‍म को बहुत रोचक और मजेदार तरीके से पेश किया है। पर्दे पर उन्‍होंने अपनी पॉपुलर छवि और धारणाओं का मजाक उड़ाया है। उनकी मौजूदगी फिल्‍म को रोशन करती है,लेकिन वे जायरा वसीम की चमक फीकी नहीं पड़ने देते। ‘ सीक्रेट सुपरस्‍आर ’ एक पारिवारिक फिल्‍म है। रुढि़यों में जी रहे देश के अधिकांश परिवारों की यह कहानी धीरे से मां-बेटी के ‘ डटे रहने ’ की कहानी बन जाती है। हमें द्रवित करती है। आंखें नम होती हैं और बार-बार गला रुंध जाता है। वडोदरा के निम्‍नमध्‍यवर्गीय मुस्लिम परिवार की इंसिया को गिटा

रोज़ाना : कुंदन शाह की याद

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रोज़ाना कुंदन शाह की याद -अजय ब्रह्मात्‍मज मुंबई में चल रहे मामी फिल्‍म फेस्टिवल में कुंदन शाह निर्देशित ‘ जाने भी दो यारो ’ का खास शो तय था। यह भी सोचा गया था कि इसे ओम पुरी की श्रद्धांजलि के तौर दिखाया जाएगा। फिल्‍म के बाद निर्देशक कुंदन शाह और फिल्‍म से जुड़े सुधीर मिश्रा,विधु विनोद चापेड़ा और सतीश कौशिक आदि ओम पुरी से जुड़ी यादें शेयर करेंगे। वे ‘ जाने भी दो यारो ’ के बारे में भी बातें करेंगे। इस बीच 7 अक्‍टूबर को कुंदन शाह का आकस्मिक निधन हो गया। तय कार्यक्रम के अनुसार शो हुआ। भीड़ उमड़ी। फिल्‍म के बाद का सेशन ओम पुरी के साथ कुंदन शाह को भी समर्पित किया गया। ज्‍यादातर बातचीत कुंदन शाह को ही लेकर हुई। एक ही रय थी कि कुंदन शाह मुंबई की फिल्‍म इंडस्‍ट्री की कार्यप्रणाली में मिसफिट थे। वे जैसी फिल्‍में करना चाहते थे,उसके लिए उपयुक्‍त निर्माता खोज पाना असंभव हो गया है। कुछ बात तो है कि उनकी ‘ जाने भी दो यारो ’ 34 सालों के बाद आज भी प्रासंगिक लगती है। आज भी कहीं पुल टूटता है तो तरनेजा-आहूजा जैसे बिजनेसमैन और श्रीवास्‍तव जैसे अधिकारियों का नाम सामने आता है। और आज भी को

रोजाना : एक उम्मीद है अनुपम खेर की नियुक्ति

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रोजाना उम्मीद है अनुपम खेर की नियुक्ति -अजय ब्रह्मात्मज पिछले दिनों एफटीआईआई में अनुपम खेर की नियुक्ति हुई। उनकी इस  नियुक्ति को लेकर सोशल मीडिया पर लगातार प्रतिक्रियाएं और फब्तियां चल रही हैं। सीधे तौर पर अधिकांश इसे भाजपा से उनकी नज़दीकी का परिणाम मान रहे हैं। यह स्वाभाविक है। वर्तमान सरकार के आने के पहले से अनुपम खेर की राजनीतिक रुझान स्पष्ट है। खासकर कश्मीरी पंडितों के मामले में उनके आक्रामक तेवर से हम परिचित हैं। उन्होंने समय-समय पर इस मुद्दे को भिन्न फोरम में उठाया है। कश्मीरी पंडितों के साथ ही उन्होंने दूसरे मुद्दों पर भी सरकार और भाजपा का समर्थन किया है। उन्होंने सहिष्णुता विवाद के समय अवार्ड वापसी के विरोध में फिल्मी हस्तियों का एक मोर्चा दिल्ली में निकाला था। उसके बाद से कहा जाने लगा कि अनुपम खेर की इच्छा राज्य सभा की सदस्यता है। इस नियुक्ति को उनकी नज़दीकी माना जा सकता है। यह कहीं से गलत भी नहीं है। कांग्रेस और दूसरी सरकारें भी अपने समर्थकों को मानद पदों पर नियुक्त करती रही हैं। कांग्रेस राज में समाजवादी और वामपंथी सोच के कलाकार और बुद्धिजीवी सत्ता का

दरअसल : सारागढ़ी का युद्ध

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दरअसल... सारागढ़ी का युद्ध -अजय ब्रह्मात्‍मज तीन दिन पहले करण जौहर और अक्षय कुमार ने ट्वीट कर बताया कि वे दोनों ‘ केसरी ’ नामक फिल्‍म लेकर आ रहे हैं। फिल्‍म के निर्देशक अनुराग सिंह रहेंगे। यह फिल्‍म ‘ बैटल ऑफ सारागढ़ी ’ पर आधारित होगी। चूंकि सारागढ़ी मीडिया में प्रचलित शब्‍द नहीं है,इसलिए हिंदी अखबारों में ‘saragarhi’ को सारागरही लिखा जाने लगा। फिल्‍म इंडस्‍ट्री में भी अधिकांश इसे सारागरही ही बोलते हैं। मैं लगातार लिख रहा हूं कि हिंदी की संज्ञाओं को अंग्रेजी के साथ हिंदी में भी लिखा जाना चाहिए। अन्‍यथा कुछ पीढि़यों के बाद इन शब्‍दों के अप्रचलित होने पर सही उच्‍चारण नहीं किया जाएगा। देवनागरी में लिखते समय लोग ‘ सारागरही ’ जैसी गलतियां करेंगे। दोष हिंदी के पत्रकारों का भी है कि वे हिंदी का आग्रह नहीं करते। अंग्रेजी में आई विस्‍प्तियों का गलत अनुवाह या प्यिंतरण कर रहे होते हैं। बहरहाल,अक्षय कुमार और करण जौहर के आने के साथ ‘ सारागढ़ी का युद्ध ’ पर फिल्‍म बनाने की तीसरी टीम मैदान में आ गई है। करण जौहर की अनुराग सिंह निर्देशित फिल्‍म का नाम ‘ केसरी ’ रखा गया है। इसके

सात सवाल : विनीत कुमार सिंह

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विनीत कुमार सिंह अजय ब्रह्मात्‍मज सात सवाल विनीत कुमार सिंह की फिल्म ‘मुक्काबाज’ का गुरुवार को मुंबई में आयोजित मुंबई फिल्‍म फेस्टिवल में एशिया प्रीमियर हुआ। इससे पहले फिल्‍म को टोरंटो इंटरनेशनल फिल्‍म फेस्टिवल में प्रदर्शित किया जा चुका है। वर्ष 1999 से हिंदी सिनेमा में सक्रिय विनीत उसमें श्रवण की केंद्रीय भूमिका में दिखेंगे। फिल्‍म के निर्देशक अनुराग कश्‍यप हैं। विनीत से हुई बातचीत के अंश :   1- यहां तक के सफर में आपने काफी धैर्य और उम्मीद कायम रखी। इन्हें कैसे कायम रख पाए ? मैं वह काम करना चाहता था, जिसमें सहज रहूं। साथ ही उसे करने में मुझे आनंद की प्राप्ति हो। डॉक्टर बनने के लिए मैंने काफी मेहनत की थी। तब जाकर फल मिला था। अभिनय करने पर खुशी की अनुभूति स्‍वत: हुई। मैं उससे थकता नहीं हूं। शूटिंग के दौरान घर जाने के लिए घड़ी नहीं देखता। यकीन था कि यहां पर मेहनत करुंगा तो बेहतर पाऊंगा। पापा ने भी हमेशा कहा कि हारियो न हिम्मत बिसारियो न हरिनाम। यानी जो हिम्मत नहीं हारता है उसे रास्ते मिल जाते हैं। इन्‍ही सब वजहों से धैर्य कायम रहा। 2- आपके अभिनय के सफर की शुरुआ

रोज़ाना : मामी हो चुका है नामी

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रोज़ाना मामी हुआ चुका है नामी -अजय ब्रह्मात्‍मज आज से दस साल पहले इफ्फी (इंटरनेशनल फिल्‍म फेस्टिवल ऑफ इंडिया) के वार्षिक आयोजन के लिए देश भर के सिनेप्रेमी टूट पड़ते थे। उन दिनों केंद्रीय फिल्‍म निदेशालय का यह यह आयोजन एक साल दिल्‍ली और अगले साल दूसरे शहरों में हुआ करता था। गोवा में इफ्फी का स्‍थायी ठिकाना बना और उसके बाद यह लगामार अपना प्रभाव खोता जा रहा है। अभी देश में अनेक फिल्‍म फेस्टिवल आयोजित हो रहे हैं। उनमें से एक मामी(मुंर्अ एकेडमी आॅफ मूविंग इमेजेज) है। इस साल 19 वां फिल्‍म फेस्टिवल आयोजित हो रहा है। इस आयोजन के लिए देश भर के सिनेप्रेमी मुंबई धमक रहे हैं। दोदशक पहले मुंबई के फिल्‍म इंडस्‍ट्री की हस्तियों और सिनेप्रेमियों को फिल्‍म फस्टिवल का खयाल आया। इफ्फी में नौकरशाही की दखल और गैरपेशवर अधिकारियों की भागीदारी से नाखुश सिनेप्रेमियों और फिल्‍मकारों का इसे पूर्ण समर्थन मिला। उन्‍हें यह एहसास भी दिलाया गया कि यह फेस्टिवल सिनेमा के जानकारों की देखरेख में संचालित होता है। उसका असर दिखा। फिल्‍मों के चयन से लेकर विदेशी फिल्‍मकारों और कलाकारों की शिरकत में दुनिया के न

रोज़ाना - पचहत्‍तर के अमिताभ बच्‍चन

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दरअसल... 75 के अमिताभ   बच्‍चन -अजय ब्रह्मात्‍मज अगले शुक्रवार से पहले अमिताभ बच्‍चन 75 के हो जाएंगे। उनका जन्‍म 11 अक्‍टूबर 1942 को हुआ था। दो दिनों पहले उभरते और पहचान बनाते एक्‍टर इश्‍त्‍याक खान से मुलाकात हुई। उन्‍होंने पिछले दिन अमिताभ बच्‍चन के साथ एक ऐड की शूटिंग की थी। जिज्ञासावश मैंने पूछा कि कैसा अनुभव रहा और उनके बारे में क्‍या कहना चाहेंगे ? इश्‍त्‍याक ने तपाक से जवाब दिया, ’ इस उम्र में इतना काम कर चुकने के बाद भी सेट पर उनकी तत्‍परता चकित करती है। उन्‍होंने क्‍या-क्‍या नहीं कर लिया है,लेकिन उस ऐड में भी उनकी संलग्‍नता से लग रहा था कि वह उनका पहला काम हो। वही उत्‍साह और समर्पण...हम जैसे एक्‍टर अनेक कारणों से अपनी एकाग्रता खो देते हैं। अमिताभ बच्‍चन 75 के उम्र में किसी प्रकार की चूक से बचना चाहते हैं। ‘ अमिताभ बच्‍चन की इस खासियत को सभी दोहराते हैं। सेट पर वे खाने-पीने,आराम करने,मेकअप करने और जरूरी एक्‍सरसाइज करने के अलावा अपने वैन में नहीं बैठते। उनके हाथों में स्क्रिप्‍ट रहती है। वे अपनी पंक्तियों को दोहराते रहते हैं। कोएक्‍टर के साथ रिहर्सल करने में र

बाबूजी के बेटे - अजय ब्रह्मात्‍मज

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अमिताभ बच्चन से हुई यादगार साहित्यक बातचीत :   - अजय ब्रह्मात्‍मज अमिताभ बच्चन अपने बाबूजी की बातों का उल्लेख करते समय सिर्फ एक कवि के बेटे होते हैं। उन्हें अपनी विशाल छवि याद नहीं रहती। बाबूजी की रचनाओं के प्रति उनके कौतूहल और गर्व को उनके ब्लॉग और ट्वीट में पढ़ा जा सकता है।   वर्ष 2008 की बात है। उनके बाबूजी हरिवंश राय बच्चन की जन्म शताब्दी का साल था। अचानक ख्याल आया कि क्यों न उनके बाबूजी हरिवंश राय बच्चन के बारे में बातें की जाएं। मैंने आग्रह के संदेश के साथ इंटरव्यू का विषय भी बता दिया। पूरी बातचीत उनके कवि और साहित्यकार बाबूजी हरिवंश राय बच्चन के बारें में होंगी। वह सहर्ष तैयार हो गए । स्थान , समय और तारीख निश्चित हो गई।   हालांकि वह भी औपचारिक मुलाकात थी,लेकिन मैं परेशान था कि फिल्म इंडस्ट्री के ख्यातिलब्ध कद्दावर स्टार को इस मुलाकात में मैं क्या भेंट कर सकता हूं ? ऊहापोह और असमंजस के बीच मैंने तय किया कि जेएनयू में अपने सीनियर और मित्र गोरख पांडे की कविता ‘ समझदारों का गीत ’ ले चलूं। दो पृष्ठों की इस कविता में गोरख पांडे ने कथित समझदारों के विरोधा

रोज़ाना : निर्देशक बनने की ललक

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रोज़ाना निर्देशक बनने की ललक -अजय ब्रह्मात्‍मज फिल्‍मों में निर्देशक को ‘ कैप्‍टन ऑफ द शिप ’ कहते हैं। निर्देशक की सोच को ही फिल्‍म निर्माण से जुड़े सभी विभागों के प्रधान अपनाते हैं। वे उसमें अपनी दक्षता और योग्‍यता के अनुसार जोड़ते हैं। उनकी सामूहिक मेहनत से ही निर्देशक की सोच साकार होकर फिल्‍म के रूप में सामने आती है। निर्देशक की सोच नियामक भूमिका निभाती है। फिल्‍म निर्माण से जुड़े सभी कलाकार और तकनीशियन एक न एक दिन निर्देशक बनने का सपना रखते हैं। उन सभी में यह ललक बनी रहती है। इन दिनों यह ललक कुछ ज्‍यादा ही दिख रही है। पहले ज्‍यादातर व्‍यक्तियों की दिशा और सीमा तय रहती थी। वे सभी अपनी फील्‍ड में महारथ हासिल कर उसके उस्‍ताद बने रहते थे। हां,तब भी कुछ क्रिएटिव निर्देशक बनते थे। गौर करे तो पाएंगे कि उन सभी को कुछ खास कहना होता था। कोई ऐसी फिल्‍म बनानी होती थी,जो चलन में ना हो। बाकी सभी अपनी फील्‍ड में ध्‍यान देते थे। पसंदीदा निर्देशक के साथ आजीवन काम करते रहते थे। महबूब खा,बिमल राय,राज कपूर और बीआर चोपड़ा जैसे दिग्‍गजों की टीम अंत-अंत तक साथ में का म करती रही। अभी किसी

फिल्‍म समीक्षा : शेफ

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फिल्‍म समीक्षा रिश्‍तों की नई परतें शैफ -अजय ब्रह्मात्‍मज यह 2014 में आई हालीवुड की फिल्‍म ‘ शेफ ’ की हिंदी रीमेक है। रितेश शाह,सुरेश नायर और राजा कृष्‍ण मेनन ने इसका हिंदी रुपांतरण किया है। उन्‍होंने विदेशी कहानी को भारतीय जमीन में रोपा है। मूल फिल्‍म देख चुके दर्शक सही-सही बता सकेगे कि हिंदी संस्‍करण्‍ में क्‍या छूटा है या क्‍या जोड़ा गया है ? हिंदी में बनी यह फिल्‍म खुद में मुकम्‍मल है। रोशन कालरा चांदनी चौक में बड़े हो रहे रोशन कालरा के नथुने चांदनी चौक के छोले-भठूरों की खुश्‍बू से भर जाते थे तो वह मौका निकाल कर रामलाल चाचा की दुकान पर जा धमकता था। उसने तय कर लिया था कि वह बड़ा होकर बावर्ची बनेगा। पिता को यह मंजूर नहीं था। नतीजा यह हुआ कि 15 साल की उम्र में रोशन भाग खड़ा हुआ। पहले अमृतसर और फिर दूसरे शहरों से होता हुआ वह अमेरिका पहुंच जाता है। वहां गली किचेन का उसका आइडिया हिंट हो जाता है। सपनों का पीछा करने में वह तलाकशुदा हो चुका है। उसका बेटा अपनी मां के साथ रहता है,जिससे उसकी स्‍काइप पर नियमित बात होती है। गली किचेन की एक छोटी सी घटना में उसे अपनी नौकरी