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रोज़ाना : नसीरुद्दीन शाह का नजरिया

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रोज़ाना नसीरुद्दीन शाह का नजरिया -अजय ब्रह्मात्‍मज कई बार नसीरूद्दीन शाह का इंटरव्‍यू पढ़ते और सुनते समय ऐसा लगता है कि एक असाधारण एक्‍टर औसत सी फिल्‍म इंडस्‍ट्री में फंस गया है। वह बेमन से सारे काम कर रहा है। हिदी फिल्‍मों के साथ उनका रिश्‍ता सहज नहीं है। उन्‍हें फिल्‍म इंडस्‍ट्री की अधिकांश बातें और रवायतें अच्‍छी नहीं लगतीं। वे मौका मिलते ही शिकायती ल‍हजे में गलतियां गिनाने और कमियां बताने लगते हैं। उन्‍हें पढ़ते-सुनते समय एहसास जागता है कि आखि सब कुछ इतना गलत और कमतर है तो वे यहां क्‍यों फंसे हुए हैं ? क्‍यों साधारण और कई बार घटिया भूमिकाओं की फिल्‍में करते हैं ? आठवें दशक मेंश्‍याम बेनेगल केनेतृत्‍व में जारी और प्रशंसित पैरेलल सिनेमा हिंदी फिल्‍मों केइतिहास का उल्‍लेखनीयहिस्‍सा रहा है। इसदौर में अनके यथार्थवादी फिल्‍मकार आए,जिन्‍होंने मेनस्‍ट्रीम सिनेमा केकमर्शियल स्‍टारों के पैरेलल दमदार कलाकारों को लेकर भावपूर्ण और सारगर्भित फिल्‍में बनाईं। नसीरूद्दीन शाह,शबाना आजमी,स्मिता पाटिल और ओम पुरी उस दौर के प्रमुख कलाकार रहे। उनकी सफलता और पहचान ने थिएटर में सक्रि

रोज़ाना : मां के साथ नवाजुद्दीन सिद्दीकी -अजय ब्रह्मात्‍मज

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रोज़ाना मां के साथ नवाजुद्दीन सिद्दीकी -अजय ब्रह्मात्‍मज पिछले दिनों मां-बेटे की एक तस्‍वीर सोशल मीडिया पर घूम रही थी। इस तस्‍वीर में नवाजुद्दीन सिद्दीकी एक बुजुर्ग औरत के साथ खड़े हैं। उन्‍होंने अपनी बुजुर्ग औरत के बाएं कंधे को हथेली से कस के थाम रखा है। बुजुर्ग औरत ने नवाजुद्दीन के दाएं कंधे को अपनी हथेली से थाम रखा है। गौर करने पर पता चलता है कि वह बुजुर्ग औरत और कोई नहीं नवाजुद्दीन की मां हैं। उनका नाम मेहरू‍िनिसा सिद्दीकी है। उन्‍हें इस साल बीबीसी ने भारत की 100 प्रभावशाली महिलाओं में चुना है। नवाजुद्दीन सिउद्दीकी मां को मिले इस सम्‍मान से खुश हैं। वे इस सम्‍मनान को विशेष और अपने सभी सम्‍मानों से श्रेष्‍ठ मानते हैं। नवाजुद्दीन सिद्दीकी बेहिचक बतोते हैं कि उनकी मां अनपढ़ थीं। नौ बच्‍चों के लालन-पालन के साथ उन्‍होंने पढाई-लिखाई सीखी। बच्‍चों के स्‍कूल जाने के साथ उनमें भी पढ़ाई की उमंग जागी। नवाजुद्दीन कहते हैं कि उनकी मां ने हमेशा पढ़ाई-लिखाई पर ध्‍याान देने की हिदायत दी। साथ ही यह भी समझाया कि जिस फील्‍ड में भी जाना हो,उसकी ट्रेनिंग लेनी चाहिए। मां की सीख से ही न

रोज़ाना : मां के साथ नवाजुद्दीन सिद्दीकी

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रोज़ाना मां के साथ नवाजुद्दीन सिद्दीकी -अजय ब्रह्मात्‍मज पिछले दिनों मां-बेटे की एक तस्‍वीर सोशल मीडिया पर घूम रही थी। इस तस्‍वीर में नवाजुद्दीन सिद्दीकी एक बुजुर्ग औरत के साथ खड़े हैं। उन्‍होंने अपनी बुजुर्ग औरत के बाएं कंधे को हथेली से कस के थाम रखा है। बुजुर्ग औरत ने नवाजुद्दीन के दाएं कंधे को अपनी हथेली से थाम रखा है। गौर करने पर पता चलता है कि वह बुजुर्ग औरत और कोई नहीं नवाजुद्दीन की मां हैं। उनका नाम मेहरू‍िनिसा सिद्दीकी है। उन्‍हें इस साल बीबीसी ने भारत की 100 प्रभावशाली महिलाओं में चुना है। नवाजुद्दीन सिउद्दीकी मां को मिले इस सम्‍मान से खुश हैं। वे इस सम्‍मनान को विशेष और अपने सभी सम्‍मानों से श्रेष्‍ठ मानते हैं। नवाजुद्दीन सिद्दीकी बेहिचक बतोते हैं कि उनकी मां अनपढ़ थीं। नौ बच्‍चों के लालन-पालन के साथ उन्‍होंने पढाई-लिखाई सीखी। बच्‍चों के स्‍कूल जाने के साथ उनमें भी पढ़ाई की उमंग जागी। नवाजुद्दीन कहते हैं कि उनकी मां ने हमेशा पढ़ाई-लिखाई पर ध्‍याान देने की हिदायत दी। साथ ही यह भी समझाया कि जिस फील्‍ड में भी जाना हो,उसकी ट्रेनिंग लेनी चाहिए। मां की सीख से ही न

फिल्‍म समीक्षा - जुड़वां 2

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फिल्‍म रिव्‍यू जुड़वां 2 -अजय ब्रह्मात्‍मज 20 साल पहले ‘ 9 से 12 शो चलने ’ के आग्रह और ‘ लिफ्ट तेरी बद है ’ की शिकायत का मानी बनता था। तब शहरी लड़कियों के लिए 9 से 12 शो की फिल्‍मू के लिए जाना बड़ी बात होती थी। वह मल्‍टीप्‍लेक्‍स का दौर नहीं था। यही कारण है कि उस आग्रह में रोमांच और शैतानी झलकती थी। उसी प्रकार 20 साल पहले बिजली ना होने या किसी और वजह से मैन्‍युअल लिफ्ट के बंद होने का मतलब बड़ी लाचारी हो जाती थी। पुरानी ‘ जुड़वां ’ के ये गाने आज भी सुनने में अच्‍छे लग सकते हैं,लेकिन लंदन में गाए जा रहे इन गीतों की प्रसंगिकता तो कतई नहीं बनती। फिर वही बात आती है कि डेविड धवन की कॉमडी फिल्‍म में लॉजिक और रैलीवेंस की खोज का तुक नहीं बनता। हिंदी फिल्‍मों के दर्शकों को अच्‍छी तरह मालूम है कि वरुण धवन की ‘ जुड़वां 2 ’ 1997 में आई सलमान खान की ‘ जुड़वां ’ की रीमेक है। ओरिजिनल और रीमेक दोनों के डायरेक्‍टर एक ही निर्देशक डेविड धवन है। यह तुलना भी करना बेमानी होगा कि पिछली से नई अच्‍छी या बुरी है। दोनों को दो फिल्‍मों की तरह देखना बेहतर होगा।सलमान खान,करिश्

दरअसल : मध्‍यवर्गीय कलाकारों के कंधों का बोझ

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दरअसल... मध्‍यवर्गीय कलाकारों के कंधों का बोझ -अजय ब्रह्मात्‍मज हिंदी फिल्‍मों में मध्‍यवर्गीय पृष्‍ठभूमि के परिवारों से आए कलाकारों की संख्‍या बढ़ रही है। दिल्‍ली,पंजाब,उत्‍त्‍रप्रदेश,राजस्‍थान,उत्‍तराखंड,हिमाचल प्रदेश,बिहार और झारखंड से आए कलाकारों और तकनीशियनों हिंदी फिल्‍म इंढस्‍ट्री में जगह बनानी शुरू कर दी है। ठीक है कि अभी उनमें से कोई अमिताभ बच्‍च्‍न या शाह रूख खान की तरह लोकप्रिय और पावरफुल नहीं हुआ है। फिर भी स्थितियां बदली हैं। मध्‍यवर्गीय परिवारों से आए कलाकारों की कामयाबी के किससों से नए और युवा कलाकारों की महात्‍वाकांक्षाएं जागती हैं। वे मुंबई का रुख करते हैं। आजादी के 7व सालों और सिनेमा के 100 सालों के बाद की यह दुखद सच्‍चाई है कि मुंबई ही हिंदी फिल्‍म इंडस्‍ट्री की राजधानी बनी हुई है। उत्‍तर भारत के किसी राज्‍य ने हिंदी फिल्‍म इंडस्‍ट्री के लिए संसाधन जुटाने या सुविधाएं देने का काम नहीं किया। बहरहाल, हम बात कर रहे थे हिंदी फिल्‍मों में आए मध्‍यवर्गीय कलाकारों की कामयाबी की। लगभग सभी कलाकारों ने यह कामयाबी भारी कदमों से पूरी की है। किसी से भी बाते करें।

रोजाना : ’83 की जीतं पर बन रही फिल्‍म

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रोजाना ’ 83 की जीतं पर बन रही फिल्‍म -अजय ब्रह्मात्‍मज याद नहीं कब कोई इतना रोचक इवेंट हुआ था। मुंबई में कल कबीर खान निर्देशित ’ 83 की घोषणा के इवेंट में क्रिकेटरों की मौजूदगी ने समां बांध दिया। इस मौके पर उनकी यादों और बेलाग उद्गारों ने हंसी की लहरों से माहौल को तरंगायित रखा। सभी के पास 1983 के वर्ल्‍ड कप के निजी किस्‍से थे। उन किस्‍सों में खिलाढि़यों की मनोदशा,खिलंदड़पन और छोटी घटनाओं के हसीन लमहों की बातें थीं। सभी ने बेहिचक कुछ-कुछ सुनाया। पता चला कि अनुशासित खेल के आगे-पीछे उच्‍छृंखलताएं भी होती हैं। तब न तो क्रिकेट में भारत की शान थी,न खिलाढि़यों का नाम था और न ही आज की जैसी ’ पापाराजी ’ मीडिया थी। खिलाडि़यों ने हंसी-मजाक में ही जितना बताया,उससे लगा कि आज के खिलाड़ी ज्‍यादा तेज निगाहों के बीच रहते हैं। उनकी छोटी सी हरकत भी बड़ा समाचार बन जाती है। सभी जानते हैं कि ’ 83 की ऐतिहासिक जीत ने भारत में क्रिकेट का माहौल बदल दिया। क्रिकेट के इतिहास और क्रिकेट खिलाडि़यों के जीवन का यह निर्णायक टर्निंग पाइंट रहा। सन् 2000 के 17 साल पहले और 17 साल बाद के सालों को जोड़कर दे

रोज़ाना : स्‍वरा की त्‍वरा

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रोज़ाना स्‍वरा की त्‍वरा -अजय ब्रह्मात्‍मज स्‍वरा भास्‍कर से पहली मुलाकात उनकी पहली फिल्‍म की शूटिंग के दरम्‍यान हुई थीं। प्रवेश भारद्वाज बिहार की पकड़ुआ शादी पर ‘ नियति ’ नाम की फिल्‍म बना रहे थे। उस फिल्‍म की नायिका हैं स्‍वरा भास्‍कर। हैं इसलिए कि ‘ नियति ’ अभी तक अप्रदर्शित है। प्रवेश भारद्वाज बिहार की पृष्‍ठभूमि की इस फिल्‍म की शूटिंग बिहार में नहीं कर सकते थे,इसलिए उन्‍होंने भोपाल में बिहार का लोकेशन खोजा था। प्रकाश झा ने तो बाद में अपनी फिल्‍मों में भोपाल को बिहार में तब्‍दील किया। स्‍वरा भास्‍कर 2009 में आई ‘ माधोलाल कीप वाकिंग ’ में हिंदी दर्शकों को नजर आईं। इस छोटी फिल्‍म में वह पहचान बनाने में सफल रहीं। उसके बाद का उनका सफर धीमे कदमों से जारी रहा। पिछले दिनों जागरण फिल्‍म फेस्टिवल में उन्‍हें ‘ अनारकली ऑफ आरा ’ के लिए सर्वश्रेष्‍ठ अभिनेत्री का पुरस्‍कार मिला। उन्‍हें पिछले साल ‘ निल बटे सन्‍नाटा ’ के लिए भी यही पुरस्‍कार मिल चुका है। स्‍वरा भास्‍कर ऐसी छोटी व कथ्‍यपूर्ण फिल्‍मों में बतौर नायिका एक कदम धरती हैं तो उनका दूसरा कदम मेनस्‍ट्रीम कमर्शियल फिल

रोज़ाना : संजय दत्‍त की प्रभावहीन वापसी

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रोज़ाना संजय दत्‍त की प्रभावहीन वापसी -अजय ब्रह्मात्‍मज हिंदी फिल्‍म इंडस्‍ट्री में यह पुराना चलन है। कोई भी लोकप्रिय स्‍टार किसी वजह से कुछ सालों के लिए सक्रिय न रहे तो उसकी वापसी का इंतजार होने लगता है। अभिनेत्रियों के मामले में उनकी शादी के बाद की फिल्‍म का इंतजार रहता है। मामला करीना कपूर का हो तो उनके प्रसव की बाद की फिल्‍म से वापसी की चर्चा चल रही है। सभी को उनकी ‘ वीरे दी वेडिंग ’ का इंतजार है। इस इंतजार में फिल्‍म से जुड़ी सोनम कपूर गौण हो गई हैं। हिंदी फिल्‍मों में अभिनेताओं की उम्र लंबी होती है। उनके करिअर में एक अंतराल आता है,जब वे अपने करिअर की ऊंचाई पर पहुंचने के बाद हीरो के तौर पर नापसंद किए जाने लगते हैं तो उनकी वापसी  वे किरदार बदल कर लौटते हैं। अमिताभ बच्‍चन के साथ ऐसा हो चुका है। एक समय था जब बतौर हीरो दर्शक्‍उन्‍हें स्‍वीकार नहीं कर पा रहे थे। लेखक और निर्देशक उनके लिए उपयुक्‍त फिल्‍म लिख और सोच नहीं पा रहे थे। उस संक्रांति दौर से निकलने के बाद आज अमिताभ बच्‍चन के लिए खास स्‍पेस बन चुका है। उनके लिए अलग से फिल्‍में लिखी जा रही है। ऐसा सौभाग्‍य और सुअ

फिल्‍म समीक्षा : न्‍यूटन

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फिल्‍म रिव्‍यू न्‍यूटन -अजय ब्रमात्‍मज अमित वी मासुरकर की ‘ न्‍यूटन ’ मुश्किल परिस्थितियों की असाधारण फिल्‍म है। यह बगैर किसी ताम-झाम और शोशेबाजी के देश की डेमोक्रेसी में चल रही ऐसी-तैसी-जैसी सच्‍चाई को बेपर्दा कर देती है। एक तरफ आदर्शवादी,नियमों का पाबंद और दृढ़ ईमानदारी का सहज नागरिक न्‍यूटन कुमार है। दूसरी तरफ सिस्‍टम की सड़ांध का प्रतिनिधि वर्दीधारी आत्‍मा सिंह है। इनके बीच लोकनाथ,मलको और कुछ अन्‍य किरदार हैं। सिर्फ सभी के नामों और उपनामों पर भी गौर करें तो इस डेमाक्रेसी में उनकी स्थिति,भूमिका औरर उम्‍मीद से हम वाकिफ हो जाते हें। ‘ न्‍यूटन ’ 2014 के बाद के भारत की डेमोक्रेसी का खुरदुरा आख्‍यान है। यह फिल्‍म सही मायने में झिंझोड़ती है। अगर आप एक सचेत राजनीतिक नागरिक और दर्शक हैं तो यह फिल्‍म डिस्‍टर्ब करने के बावजूद आश्‍वस्‍त करती है कि अभी तक सभी जल्‍दी से जल्‍दी अमीर होने के बहाव में शामिल नहीं हुए हैं। हैं कुछ सिद्धांतवादी,जो प्रतिकूल व्‍यक्तियों और परिस्थितियों के बीच भी कायम हैं। उन्‍हें दुनिया पागल और मूर्ख कहती है। सिंपल सी कहानी है। नक्‍सल प्रभावित इलाके मे

दरअसल : फिल्‍मों और फिल्‍मी दस्‍तावेजों का संरक्षण

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दरअसल.... फिल्‍मों और फिल्‍मी दस्‍तावेजों का संरक्षण -अजय ब्रह्मात्‍मज कहते हैं कि रंजीत मूवीटोन के संस्‍थापक चंदूलाल शाह जुए के शौकीन थे। जुए में अपनी संपति गंवाने के बाद उन्‍हें आमदनी का कोई और जरिया नहीं सूझा तो उन्‍होंने खुद ही रंजीत मूवीटोन में आग लगवा दी ताकि बीमा से मिले पैसों से अपनी जरूरतें पूरी कर सकें। हमें आए दिन समाज में ऐसे किस्‍से सुनाई पड़ते हैं,जब बीमा की राशि के लिए लोग अपनी चल-अचल संपति का नुकसान करते हैं। हिंदी फिल्‍म इंडस्‍ट्री में ऐसी अनेक कहानियां प्रचलित हैं। मेहनत और प्रतिभा से उत्‍कर्ष पर पहुंची प्रतिभाएं ही उचित निवेश और संरक्षण की योजना के अभाव में एकबारगी सब कुछ गंवा बैठती हैं। कई बार यह भी होता है कि निर्माता,निर्देशक और कलाकारों के वंशज विरासत नहीं संभाल पाते। वे किसी और पेशे में चले जाते हैं। बाप-दादा के योगदान और उनकी अमूल्‍य धरोहरों का महत्‍व उन्‍हें मालूम नहीं रहता। वे लगभग मुक्‍त होने की मानसिकता में सस्‍ती कीमतों या रद्दी के भाव में ही सब कुछ बेच देते हैं।   पिछले दिनों राज कपूर निर्मित आर के स्‍टूडियो में आग लग गई। इस आग में स्‍टेज