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तोड़ी हैं अपनी सीमाएं -शाह रूख खान

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‘ रईस ’ ने कंफर्ट से बाहर निकाला : शाह रुख खान नए साल में शाह रुख खान अलग सज और धज के आ रहे हैं। वे दर्शकों को ‘ रईस ’, ‘ द रिंग ’ और आनंद एल राय की फिल्म की सौगात देंगे , जो उनके टिपिकल अवतार से अलग है। वे ऐसा क्यों और किस तरह कर पाए , पढें खुद उनकी जुबानी     -अजय ब्रह्मात्‍मज वे बताते हैं , ’ मैंने अमूमन ऐसे किया है। हालांकि लोगों को सामयिक घटनाक्रम ही नजर आता है। ‘ रईस ’ भी उसी की बानगी है। दरअसल ‘ चेन्नई एक्सप्रेस ’, ‘ हैप्पी न्यू ईयर ’ और ‘ दिलवाले ’ साथ आ गईं थीं। हालांकि नहीं आनी चाहिए थीं। वह इसलिए कि मैंने ‘ हैप्पी न्यू ईयर ’ के बाद ‘ रईस ’ की थी। इसकी शूटिंग खत्म हो रही थी और हम हैदराबाद से ‘ दिलवाले ’ शुरू करने वाले थे। तब हम उसकी सिर्फ बल्गारिया वाले हिस्से की शूटिंग करने को थे , कि तभी ‘ फैन ’ आ गई। वह 40 दिनों की शूटिंग थी। इस बीच ‘ रईस ’ आगे खिसक गई। मेरा घुटना चोटिल हो गया। ‘ रईस ’ का 14-15 दिनों का काम बाकी रह गया। ‘ फैन ’ वीएफएक्स के चलते 11 महीने टल गई। तो कायदे से ‘ रईस ’ हैप्पी न्यू ईयर ’ के बाद ही आती , पर अब आई है। लिहाजा लोगों को लग रहा है कि

दरअसल : चित्रगुप्‍त की जन्‍म शताब्‍दी

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दरअसल.... चित्रगुप्‍त की जन्‍म शताब्‍दी -अजय ब्रह्मात्‍मज 2017 हुनरमंद संगीतकार चित्रगुप्‍त का जन्‍म शताब्‍दी वर्ष है। इंटरनेट पर उपलब्‍ध सूचनाओं के मुताबिक उन्‍होंने 140 से अधिक फिल्‍मों में संगीत दिया। बिहार के गोपालगंज जिले के कमरैनी गांव के निवासी चित्रगुप्‍त का परिवार अध्‍ययन और ज्ञान के क्षेत्र में अधिक रुचि रखता था। चित्रगुप्‍त के बड़े भाई जगमोहन आजाद चाहते थी। उनका परिवार स्‍वतंत्रता आंदोलन से भी जुड़ा था। कहते हैं चित्रगुप्‍त पटना के गांधी मैदान की सभाओं में हारमोनियम पर देशभक्ति के गीत गाया करते थे। बड़े भाई के निर्देश और देखरेख में चित्रगुप्‍त ने उच्‍च शिक्षा हासिल की। उन्‍होंने डबल एमए किया और कुछ समय तक पटना में अध्‍यापन किया। फिर भी उनका मन संगीत और खास कर फिल्‍मों के संगीत से जुड़ रहा। आखिरकार वे अपने दोस्‍त मदन सिन्‍हा के साथ मुंबई आ गए। उनके बेटों आनंद-मिलिंद के अनुसार चित्रगुप्‍त ने कुछ समय तक एसएन त्रिपाठी के सहायक के रूप में काम किया। उन्‍होंने पूरी उदारता से चित्रगुप्‍त को निखरने के मौके के साथ नाम भी दिया। आनंद-मिलिंद के अनुसार बतौर संगीतकार चित्रग

बड़ी कुर्बानियां दी हैं मैंने : प्रियंका चोपड़ा

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-मयंक शेखर प्रियंका चोपड़ा हाल ही में अमेरिका से अपने वतन लौटी थीं। वहां से , जहां डोनाल्‍ड ट्रंप नए राष्‍ट्रपति बने हैं। वहां से , जहां के ग्लैमर जगत में प्रियंका भारत का नाम रौशन कर रही हैं। हमारे सहयोगी टैबलॉयड मिड डे के एंटरटेनमेंट एडीटर मयंक शेखर उनकी सोच के हमराज बने। पेश है उनसे हुई बातचीत के प्रमुख अंश :- -बीते दो-तीन बरसों में आप के करियर ने अलग मोड़ लिया है। ‘ क्वांटिको ’   के अगुवा केली ली से हुई मुलाकात को आप के करियर में आते रहे मोड़ का विस्तार कहें। साथ ही उस मुलाकात में और उसके बाद क्या कुछ हुआ। 0 मुझे नहीं लगता कि मैं एक खोज हूं। उसकी बजाय मैं एक अनुभव हूं। ‘ आओ चलो , उसे लौंच करते हैं ’ । ऐसा मेरे संग कभी नहीं हुआ। लोगों को मेरे करियर के आगाज से लेकर अब तलक मेरी प्रतिभा को महसूस करना पड़ा है। तभी प्रारंभ से ही हर दो-तीन साल के अंतराल पर मेरे करियर में अहम मोड़ आते रहे हैं। ‘ क्वांटिको ’ में भी मैं इसलिए कास्ट की गई , क्योंकि वह किसी भारतीय कलाकार का अमरीकियों के लिए सबसे आसान परिचय था। जैसा निर्माताओं ने मुझे बताया। एफबीआई एजेंट के किरदार में खुद

फिल्‍म समीक्षा : ओके जानू

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फिल्‍म रिव्‍यू ओके जानू -अजय ब्रह्मात्‍मज शाद अली तमिल के मशहूर निर्देशक मणि रत्‍नम के सहायक और शागिर्द हैं। इन दिनों उस्‍ताद और शाग्रिर्द की ऐसी जोड़ी कमू दिखाई देती है। शाइ अली अपने उस्‍ताद की फिल्‍मों और शैली से अभिभूत रहते हैं। उन्‍होंने निर्देशन की शुरूआत मणि रत्‍नम की ही तमिल फिल्‍म के रीमेक ‘ साथिया ’ से की थी। ‘ साथिया ’ में गुलजार का भी यागदान था। इस बार फिर से शाद अली ने अपने उस्‍ताद की फिल्‍म ‘ ओके कनमणि ’ को हिंदी में ‘ ओके जानू ’ शीर्षक से पेश किया है। इस बार भी गुलजार साथ हैं। मूल फिल्‍म देख चुके समीक्षकों की राय में शाद अली ने कुछ भी अपनी तरफ से नहीं जोड़ा है। उन्‍होंने मणि रत्‍नम की दृश्‍य संरचना का अनुपालन किया है। हिंदी रीमेक में कलाकार अलग हैं,लोकेशन में थोड़ी भिन्‍नता है,लेकिन सिचुएशन और इमोशन वही हैं। यों समझें कि एक ही नाटक का मंचन अलग स्‍टेज और सुविधाओं के साथ अलग कलाकारों ने किया है। कलाकरों की अपनी क्षमता से दृश्‍य कमजोर और प्रभावशाली हुए हैं। कई बार सधे निर्देशक साधारण कलाकारों से भी बेहतर अभिनय निकाल लेते हैं। उनकी स्क्रिप्‍ट कलाकारों

फिल्‍म समीक्षा : हरामखोर

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फिल्‍म रिव्‍यू हरामखोर -अजय ब्रह्मात्‍मज ऐसी नहीं होती हैं हिंदी फिल्‍में। श्‍लोक शर्मा की ‘ हरामखोर ’ को किसी प्रचलित श्रेणी में डाल पाना मुश्किल है। हिंदी फिल्‍मों में हो रहे साहसी प्रयोगों का एक नमूना है ‘ हरामखोर ’ । यही वजह है कि यह फिल्‍म फेस्टिवलों में सराहना पाने के बावजूद केंद्रीय फिल्‍म प्रमाणन बोर्ड(सीबीएफसी) में लंबे समय तक अटकी रही। हम 2014 के बाद फिल्‍मों के कंटेंट के मामले में अधिक सकुंचित और संकीर्ण हुए हैं। क्‍यों और कैसे ? यह अलग चर्चा का विषय है। ‘ हरामखोर ’ सीबीएफसी की वजह से देर से रिलीज हो सकी। इस बीच फिल्‍म के सभी कलकारों की उम्र बढ़ी और उनकी दूसरी फिल्‍में आ गईं। नवाजुद्दीन सिद्दीकी और श्‍वेता त्रिपाठी दोनों ही ‘ हरामखोर ’ के समय अपेक्षाकृत नए कलाकार थे। यह फिल्‍म देखते हुए कुछ दर्शकों को उनके अभिनय का कच्‍चापन अजीब लग सकता है। हालांकि इस फिल्‍म कि हसाब से वही उनकी खूबसूरती और प्रभाव है,लेकिन नियमित दर्शकों को दिक्‍कत और परेशानी होगी। 20-25 सालों के बाद फिल्‍म अधेताओं को याद भी नहीं रहेगा कि यह ‘ मसान ’ और ‘ बजरंगी भाईजान ’ व ‘ रमन राघव2.0

दरअसल : इंतजार है ईमानदार जीवनियों का

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दरअसल... इंतजार है ईमानदार जीवनियों का -अजय ब्रह्मात्‍मज इस महीने ऋषि कपूर और करण जौहर की जीवनियां प्रकाशित होंगी। यों दोनों फिल्‍मी हस्तियों की जीवनियां आत्‍मकथा के रूप में लाई जा रही हैं। उन्‍होंने पत्रकारों की मदद से अपने जीवन की घटनाओं और प्रसंगों का इतिवृत पुस्‍तक में समेटा है। मालूम नहीं आलोचक इन्‍हें जीवनी या आत्‍मकथा मानेंगे ? साहित्यिक विधाओं के मुताबिक अगर किसी के जीवन के बारे में कोई और लिखे तो उसे जीवनी कहते हैं। हां,अगर व्‍यक्ति स्‍वयं लिखता है तो उसे आत्‍मकथा कहेंगे। देव आनंद(रोमासिंग विद लाइफ) और नसीरूद्दीन शाह(एंड देन वन डे: अ मेम्‍वॉयर) ने आत्‍मकथाएं लिखी हैं। दिलीप कुमार की ‘ द सब्‍सटांस ऐंड द शैडो : ऐन ऑटोबॉयोग्राफी ’ आत्‍मकथा के रूप में घोषित और प्रचारित होने के बावजूद आत्‍मकथा नहीं कही जा सकती। यह जीवनी ही है,जिसे उदय तारा नायर ने लिखा है। इसी लिहाज से ऋषि कपूर और करण जौहर की पुस्‍तकें मुझे जीवनी का आभास दे रही है। हिंदी फिल्‍मों के स्‍टार और फिल्‍मकार अपने जीवन प्रसंगों के बारे में खुल कर बातें नहीं करते। नियमित इंटरव्‍यू में उनके जवाब रिलीज हो र

हिंदी टाकीज 2(11) : आज नदी पार वाले गांव में पर्दा वाला सिनेमा लगेगा - जनार्दन पांडेय

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परिचय जनार्दन पांडेय एक आम सिनेमा दर्शक है। उत्तर प्रदेश के सोनभद्र जिले में पला-बढ़ा। इलाहाबाद विश्वविद्यालय से पत्रकारिता में स्नातक करने के बाद हिन्दुस्तान हिन्दी दैनिक से जुड़ा। उसके बाद अमर उजाला डॉट कॉम से जुड़ा। वहां तीन साल काम करने के बाद अब अपनी वेबसाइट www.khabarbattu.com में कार्यरत।   सिनेमा में नशा है, जो मुझे चढ़ता है। जी होता है, एक के बाद एक तब देखता रहूं, जब तक दिमाग और आंखें जवाब न दे जाएं। लेकिन नशा तो आखिर में नशा है, बुरा ही माना जाएगा। चाहे किसी बात का हो। मम्मी ने पीट-पीट कर समझाया पर मैं समझा नहीं। मेरा घर उत्तर प्रदेश के उस जिले में हैं जो यूपी को मध्य प्रदेश-झारखंड से जोड़ता है। मेरा गांव एक संपूर्ण गांव है। किसी एक के घर में कोई घटना-दुघर्टना होती है पूरे गांव के ‌लिए अगले 10 दिनों तक वही मुद्दा होता है। राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम की मौत की खबर 6 दिन बाद पहुंचती है। पठानकोट में हमला हुआ तो छनते-छनते यह खबर दो-चार दिन बाद पहुंचती है। और इसके मायने यही निकाले जाते हैं कि पूछो 'राहुल के पापा ठीक हैं न वो भी बॉर्डर पर हैं

दरअसल : स्‍वागत 2017,अलविदा 2016

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दरअसल... स्‍वागत 2017,अलविदा 2016 -अजय ब्रह्मात्‍मज 2016 समाप्‍त होते-होते नीतेश तिवारी की ‘ दंगल ’ ने हिंदी फिल्‍म इंडस्‍ट्री पर छाए शनि को मंगल में बदल दिया। इस फिल्‍म के अपेक्षित कारोबार से सभी खुश हैं। माना जा रहा है कि ‘ दंगल ’ का कारोबार पिछले सारे रिकार्ड को तोड़ कर एक नया रिकार्ड स्‍थापित करेगा। ‘ दंगल ’ की कामयाबी दरअसल उस ईमानदारी की स्‍वीकृति है,जो आमिर खान और उनकी टीम ने बरती। कभी सोच कर देखें कि कैसे एक निर्देशक,स्‍टार और फिल्‍म के निर्माता मिल कर एक ख्‍वाब सोचते हैं और सालों उसमें विश्‍वास बनाए रखते हैं। ‘ दंगल ’ के निर्माण में दो साल से अधिक समय लगे। आमिर खान ने किरदार के मुताबिक वजन बढ़ाया और घटाया। हमेशा की तरह वे अपने किरदार के साथ फिल्‍म निर्माण के दौरान जीते रहे। उनके इस समर्पण का असर फिल्‍म यूनिट के दूसरे सदस्‍यों के लिए प्रेरक रहा। नतीजा सभी के सामने है। ‘ दंगल ’ साल के अंत में आई बेहतरीन फिल्‍म रही। इसके साथ 2016 की कुछ और फिल्‍मों का भी उल्‍लेख जरूरी है। हर साल रिलीज हुई 100 से अधिक फिल्‍मों में से 10-12 फिल्‍में ऐसी निकल ही आती हैं,जिन्‍हें

दरअसल : प्रचार का ‘रईस’ तरीका

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दरअसल, प्रचार का ‘ रईस ’ तरीका - अजय बह्मात्‍मज कुछ समय पहले शाह रुख खान ने अगले साल के आरंभ में आ रही अपनी फिल्‍म ‘ रईस ’ का ट्रेलर एक साथ 3500 स्‍क्रीन में लांच किया। आप सोच सकते हैं कि इसमें कौन सी नई बात है। यों भी फिल्‍मों की रिलीज के महीने-डेढ़ महीने पहले फिल्‍मों के ट्रेलर सिनेमाघरों में पहुंच जाते हैं। मीडिया कवरेज पर गौर किया हो तो ट्रेलर लांच एक इवेंट होता है। बड़ी फिल्‍मों के निर्माता फिल्‍म के स्‍टारों की मौजूदगी में यह इवेंट करते हैं। प्राय: मुंबई के किसी मल्‍टीप्‍लेक्‍स में इसका आयेजन होता है। फिर यूट्यूब के जरिए या और सिनेमाघरों में दर्शक उन्‍हें देख पाते हैं। इन दिनों कई बार पहले से तारीख और समय की घोषण कर दी जाती है और ट्रेलर सोशल मीडिया पर ऑन लाइन कर दिया जाता है। इस बर लांच के समय देश के दस शहरों के सिनेमाघरों में आए दर्शकों ने उनके साथ इटरैक्‍ट किया। आमिर खान और शाह रुख खान अपनी फिल्‍मों के प्रचार के नायाब तरीके खोजते रहते हैं। वे अपने इन तरीकों से दर्शकों और बाजार को अचंभित करते हैं। उनकी फिल्‍मों के प्रति जिज्ञासा बढ़ती है और उनकी फिल्‍में हिट