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दरअसल : सोशल मीडिया के दौर में फिल्‍म समीक्षा

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-अजय ब्रह्मात्‍मज पिछले हफ्ते जयपुर में था। वहां ‘ टॉक जर्नलिज्‍म ’ के एक सत्र में विष्‍य था ‘ सोशल मीडिया के दौर में किसे चाहिए फिल्‍म समीक्षक ?’ । सचमुच अभी सोशल मीडिया पर जिस तेजी और अधिकता में फिल्‍मों पर टिप्‍पणियां आ रही हैं,उससे जो यही आभास होता है कि शायद ही कोई फिल्‍म समीक्षा पढ़ता होगा। अखबारों और चैनलों पर नियमित समीक्षकों की समीक्षा आने के पहले से सोशल मीडिया साइट पर टिप्‍पणियां चहचहाने लगती हैं। इनके दबाव में मीडिया हाउस भी अपने साइट पर यथाशीघ्र रिव्‍यू डालने लगे हैं। एक प्रतिष्ठित अंग्रेजी अखबार तो प्रीव्‍यू में रिव्‍यू का भ्रम देता है। केवल आखिर में एक पंक्ति रहती है कि हमारे समीक्षक की समीक्षा का इंतजार करें। हम जल्‍दी ही पोस्‍ट करेंगे। सभी हड़बड़ी में हैं। डिजिटल युग में आगे रहना है तो ‘ सर्वप्रथम ’ होना होगा। जो सबसे पहले आएगा,उसे सबसे ज्‍यादा हिट मिलेंगे। इस दबाव में कंटेंट पर किसी का ध्‍यान नहीं है। पहले बुधवार या गुरूवार को निर्माता फिल्‍में दिखाते थे। अखबारों में शनिवार और रविवार को इंटरव्‍यू छपते थे। फिल्‍मों पर विस्‍तार से चर्चा होती थी। आज के पाठक

अतीत को रचना है आनंद : आशुतोष गोवारीकर

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मुझे अलग दुनिया क्रिएट करने में मजा आता है। हां यह मुश्किल काम है। पर इसमें अलग तरह की संतुष्टि है। इसके जरिए पहले मुझे रिसर्च औऱ बाकी तरीकों से उस दुनिया में जाने का मौका मिलता है। फिर उसे क्रिएट करना होता है। एक अलग समय की कहानी की तरफ मैं बहुत आकर्षित होता हूं। टाइमजोन क्रिएट करने में खुशी मिलती है। सवाल हो सकता है कि यही संस्कृति क्यों ? क्योंकि हम सालों से रोम और मिश्र की सभ्यता देखते आ रहे हैं। यूरोप की फिल्मों में हम यह देख चुके हें। वे बहुत गर्व के साथ इसे प्रस्तुत करते हैं। मुझे ऐसा लगता है कि हमने कभी अपनी सभ्यता के बारे में फिल्म नहीं बनाई। लगान के वक्त जब मैं रेकी के लिए कच्‍छ के आसपास धौलावीरा गया,तभी कहीं ना कहीं मेरे दिमाग में था कि इस पर फिल्म बनाऊंगा। इस संस्कृति पर फिल्म बनाना मेरे लिए दिलचस्प था। वे कौन लोग थे ? क्या लोग थे ? इनका समाज क्या था ? धर्म था कि नहीं ? इनके भगवान कौन थे ? ऐसी बहुत सारी चीजों की कोई जानकारी हमारे पास नहीं है। इसकी वजह यही है कि प्रागैतिहासिक काल की इस सभ्‍यतो के बारे में कुछ भी लिखित   नहीं है। सारी कल्पना वहां मिली आर्टफेक्स स

फिल्‍म समीक्षा : बुधिया : बॉर्न टू रन

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कथा और व्‍यथा -अजय ब्रह्मात्‍मज मयूर पटेल और मनोज बाजपेयी की फिल्‍म ‘ बुधिया : बॉर्न टू रन ’ उड़ीसा के बुधिया और बिरंची की कहानी है। फिल्‍म का शीर्षक बुधिया है। वह शिशु नायक है। बुधिया के साथ-साथ बिरंची की भी कहानी चलती है। दो व्‍यक्तियों के परस्‍पर विश्‍वास और संघर्ष की यह कहानी रोमांचक,प्रेरक और मनोरंजक है। सोमेंद्र पाढ़ी ने इसे बड़ यत्‍न से गूंथा है। बॉयोपिक फिल्‍मों के इस दौर में ‘ बुधिया... ’ बेहतरीन उदाहरण है। फिल्‍म में ढलने के बावजूद बुधिया और बिरंची का चरित्र नैसर्गिक और आर्गेनिक रहता है। हालांकि ‘ बुधिया... ’ को सर्वश्रेष्‍ठ बाल फिल्‍म का राष्‍ट्रीय पुरस्‍कार मिला है,लेकिन यह फिल्‍म सभी उम्र के दर्शकों के लिए है। इस फिल्‍म का गहन दर्द है कि बुधिया के दौड़ने पर आज भी पाबंदी है। वह 2016 के ओलिंपिक में नहीं जा सका। अगर दबाव बढ़े और आवाज उठे तो इस होनहार धावक की प्रतिभा से विश्‍व परिचित हो और देश का भी गौरव बढ़े। ‘ बुधिया... ’ उड़ीसा के पांच साल के बच्‍चे की कहानी है। वह जन्‍मजात धावक है। बचपन में जूडो कोच बिरंची की पारखी नजर उसे भांप लेती है

फिल्‍म समीक्षा : फीवर

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एकरूप किरदारों की उलझन -अजय ब्रह्मात्‍मज राजीव झावेरी का इरादा ‘ फीवर ’ को रोचक और रोमांचक फिल्‍म के रूप में पेश करने का रहा होगा। वे भरपूर कोशिश करते हैं। उन्‍‍हें राजीव खंडेलवाल के रूप में एक समर्थ अभिनता भी हासिल है। वह विस्‍मृति का शिकार होने पर भी दर्शकों को बांधे रखने और मूल कहानी पर परिचित चरित्रों के बीच पहुंचना वाहता है। उसके जीवन में आई लड़कियां उसे उलझाए रखती हैं या यूं कहें कि  अपनी विस्‍मृति की वजह से वह उन्‍हें बार-बार उलझन में डाल देता है। एक समय के बाद रिया,काव्‍या,पूजा सभी गड्डमड्ड होने लगती हैं। ’ फीवर ’ में तीन लड़कियां हैं। इन दिनों ज्‍यादातर लड़कियों के लुक और पहनावे में ऐसी एकरूपता रहती है कि उन्‍हें अलग करना मुश्किल होता है। खास कर नई अभिनेत्रियां हों और उनकी अपनी पहचान न हो तो मुश्किल बढ़ जाती है। ‘ फीवर ’ में एक तो इन चरित्रों को गूढ़ तरीके से गढ़ गया है और फिर संवाद अदायगी,चाल-ढाल,लुक और पहनावे की समानता में दर्शकों को भी विस्‍मृति के कगार पर ले जाती हैं। अकेले राजीव खंडेलवाल माले के धागे की तरह फिल्‍म के सभी फूलों को जोड़े रखने की कोशिश करते हैं

दरअसल : क्‍यों बेतुका बोलते हैं स्‍टार?

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-अजय ब्रह्मात्‍मज सुल्‍तान की रिलीज के कुछ दिनों पहले सलमान खान के एक कथन से हंगामा मच गया था। उनके पिता सलीम खान ने माफी मांगी,फिर भी एक समूह सलमान खान से नाखुश है। यह वाजिब भी है। सलमान खान सरीखे पॉपुलर स्‍टार की जुबान कैसे फिसल सकती है ? क्‍या बोलते समय उन्‍हें अहसास नहीं रहा होगा कि उनके इस कथन के कई अभिप्राय निकलेंगे। सच कहें तो सलमान खान इतना नहीं सोचते। और फिर इन दिनों बातचीत को मसखरी बना दिया गया है। कोशिश रहती है कि ऐसे सवाल पूछे जाएं कि स्‍टार को हंसी आ जाए। स्‍टार भी पत्रकारों का मनोरंजन करते हैं। कभी अपनी हरकतों से तो कभी अपनी बातों से। इन दिनों हर इवेंट में सवालों का मखौल बना दिया जाता है। मंच पर बैठे स्‍टार और उनके सहयोगी तफरीह लेने लगते हैं। दरअसल,अधिकांश फिल्‍म स्‍टार और डायरेक्‍टर पब्लिक स्‍पीच में अनगढ़ होते हैं। सभी को अमिताभ बच्‍चन और शाह रुख खान की तरह सटीक जवाब देना नहीं आता। अधिकांश हिंदी में तंग हैं,इसलिए वे हिंदी में खुद को एक्‍सप्रेस नहीं कर पाते। ऐसा नहीं है कि उनकी अंग्रेजी बहुत अच्‍छी होती है। सीमित शब्‍दों में सीमित भावों के साथ ही वे अपनी बातें

लकी नंबर है 13 - कृति खरबंदा

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  --प्राची दीक्षित फिल्म जगत को भट्ट कैंप से समय –समय पर सितारे मिलते रहे हैं। इमरान हाशमी, जॉन अब्राहम और बिपाशा बसु इसकी ताकीद करते रहे हैं। इस कड़ी में अगला नाम कृति खरबंदा का जुड़ रहा है। उस कैंप की सफल फ्रेंचाइजी ‘राज’ की तीसरी किश्त ‘ राज रीबूट ’ से कृति हिंदी फिल्मों में डेब्यू कर रही हैं। इससे पहले वे साउथ की फिल्में करती रही हैं। उनकी प्रतिभा से प्रभावित हो विशेष फिल्म्स ने उनके संग तीन फिल्मों का करार भी किया है। राज ने बनाया जिम्मेदार कृति बताती हैं , ‘ 2009  में मैंने साउथ फिल्म इंडस्ट्री से अपना करियर शुरू किया। मेरा मकसद हिंदी सिनेमा में जुड़ना नहीं था। मैं कुछ साल एक्टिंग कर शादी करना चाहती थी, लेकिन वक्त ने मेरी दिशा बदल दी। मुकेश भट्ट ने साउथ की फिल्मों में मेरा काम देखा था। उन्होंने एक दिन मुझे मिलने के लिए बुलाया। हमारी मुलाकात हुई। हमने जीवन, मुंबई और अध्यात्म की बातें की। एक हफ्ते बाद मुझे इस फिल्म का प्रस्ताव मिल गया। मुझे लगा की ‘ राज रीबूट ’ में मैं पैरलल लीड में हूं। पर उन्होंने कहा कि यह महिला प्रधान फिल्म है। यह बिना

तड़का है मेरे निगेटिव किरदार में-अक्षय खन्‍ना

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-अजय ब्रह्मात्‍मज एक अंतराल के बाद अक्षय खन्‍ना आ रहे हैं। वे रोहित धवन की फिल्‍म ‘ ढिशुम ’ में जॉन अब्राहम और वरुण धवन के साथ दिखेंगे। व्‍यक्तिगत कारणों से अक्षय खन्‍ना ने बीच के सालों में कोई फिल्‍म नहीं की। फिर जब तैयार हुए तो सही स्क्रिप्‍ट चुनने में वक्‍त लगा। वे कहते हैं, ’ कुछ ज्‍यादा ही वक्‍त लग गया। अब मैं बहुत खुश हूं कि मैंने ‘ ढिशुम ’ जैसी फिल्‍म की। इसी साल मेरी एक और फिल्‍म आएगी। दोनों फिल्‍मों को लेकर मैं खुश और संतुष्‍ट हूं। एक इंतजार के बाद मुझे दो ऐसी स्क्रिप्‍ट मिलीं,जिन्‍होंने काम के लिए प्रेरित किया। फिर से काम पर लग गया हूं। ‘ वे खुद ही बात बढ़ाते हैं, ’ काम पर कौन नहीं जाना चाहता ? सही काम नहीं मिलने पर ‍निराशा होती है। कलाकार डिप्रेशन में भी जा सकता है। अभी मुझे अच्‍छा काम मिला है। मेरी दूसरी फिल्‍म नवंबर-दिसंबर तक आ जाएगी। मैं उसमें श्रीदेवी और नवाजुद्दीन सिद्दीकी के साथ हूं। बहुत ही इंटरेस्टिंग स्क्रिप्‍ट है। ‘ अक्षय खन्‍ना स्‍वीकार करते हैं कि सभी कलाकारों के करिअर में ऐसा गैप आता है। उनके साथ दूसरी बार ऐसा हुआ है। ‘ दिल चााहता है ’ के पहले

दरअसल : मिलते हैं जब फिल्‍म स्‍टार

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-अजय ब्रह्मात्‍मज जागरण फिल्‍म फेस्टिवल जारी है। हिंदी प्रदेशों के शहरों में जाने के अवसर मिल रहे हैं। इन शहरों में फिलमें दिखाने के साथ ही जागरण फिल्‍म फेस्टिवल मुंबई से कुछ फिल्‍म स्‍टारों को भी आमंत्रित करता है। इन फिल्‍म स्‍टारों से दोटूक बातचीत होती है। कुछ श्रोताओं को भी सवाल पूछने के मौके मिलते हैं। हर फेस्टिवल की तरह यहां भी फिल्‍मप्रेमी,रंगकर्मी,साहित्‍यप्रेमी और युवा दर्शक होते हैं। उनकी भागीदारी अचंभित करती है। वे पूरे जोश के साथ फेस्टिवल में शामिल होते हैं। अपनी जिज्ञासाएं रखते हैं। अपनी धारणाएं भी जाहिर करते हैं। मैंने गौर किया है कि फिल्‍म स्‍टारों के साथ इन मुलाकातों में दर्शकों में सबसे ज्‍यादा रुचि सेल्‍फी निकालने में होती है। वे दाएं-बाएं हाथें में मोबाइल लिए और बांहें फैलाए सेलिब्रिटी के रास्‍ते में खड़ हो जाते हैं। हर व्‍यक्ति चााहता है कि सेलिब्रिटी उनके कैमरे की तरफ देखे और मुस्‍कराए। चूंकि सेल्‍फी मोड में अपनी छवि दिख रही होती है,इसलिए नजरें नहीं फेरी जा सकती हैं। मजबूरन हर सेलिब्रिटी को मुस्‍कराना पड़ता है। आ खुद ही जोड़ लें कि एक सेल्‍फी में कितना स

भोजपुरी फिल्मों का होगा भाग्योदय - अमित कर्ण

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अनुराग कश्‍यप की दस्तक से सिने तबके में उत्साह अनुराग कश्य्प ने भोजपुरी फिल्म निर्माण में भी उतरने का ऐलान किया है। उनकी फिल्म का नाम ‘मुक्काबाज’ है। ऐसा पहली बार है, जब हिंदी की मुख्यधारा का नामी फिल्मकार भोजपुरी फिल्मों के निर्माण में कदम रखेगा। जाहिर तौर पर इससे भोजपुरी फिल्म जगत में उत्साह की लहर है। अनुराग कश्यप के आने से वे भोजपुरी फिल्मों के फलक में अप्र याशित इजाफे की उम्मीद कर रहे हैं। खुद अनुराग कश्यप कहते हैं, ‘फिल्मों के राष्ट्री य पुरस्कार में भोजपुरी फिल्मों का नाम भी नहीं लिया जाता। सभी की शिकायत रही है कि भोजपुरी में स्तरीय फिल्म नहीं बन रही है। मैं अभी कोई दावा तो नहीं कर सकता, लेकिन मैं पूरे गर्व के साथ अपनी पहली भोजपुरी फिल्म बना रहा हूं।‘   अब बदलेगी छवि भोजपुरी फिल्में आज तक अपनी मजबूत मौजूदगी दर्ज करने में नाकाम रहा है, जबकि मराठी, पंजाबी व अन्य प्रांत की भाषाओं में फिल्में लगातार विस्तार हासिल कर रही हैं। भोजपुरी जगत पर सस्ती, बिकाऊ, उत्तेजक, द्विअर्थी कंटेंट वाली फिल्में बनाने के आरोप लगते रहे हैं। यह लांछन भी सामाजिक सरोकार की फिल्

प्रगतिशील थे पूर्वज : रितिक रोशन

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  ‘बैंग बैंग’ की रिलीज के करीब दो साल बाद रितिक रोशन की फिल्‍म मोहेंजो दारो अगले महीने रिलीज होगी। यह प्रागैतिहासिक काल की प्रेम कहानी है। इसके निर्देशक आशुतोष गोवारीकार ने कहानी में अपनी कल्‍पना के रंग भरे हैं। सिंधु घाटी सभ्‍यता के प्राचीन शहर मोहेंजो दारो के इतिहास को उसमें नहीं दर्शाया गया है। मोहेंजो दारो की शूटिंग के चलते रितिक रोशन ने कोई अन्‍य फिल्‍म नहीं की। उन्‍होंने उसे तसल्‍ली से पूरा किया। उसमें वह सरमन की भूमिका में हैं। मुश्किलों का डटकर किया सामना रितिक बताते हैं, ‘अगर मेरा बस चलता तो फिल्‍म की शूटिंग जल्‍दी पूरी हो जाती। मैं भली-भांति अवगत था कि इस फिल्म की शूटिंग कठिन है। मैं आशुतोष की कार्यशैली से बखूबी परिचित हूं। मुझे पता है कि बेहद बारीकी से वे अपने काम को अंजाम देते हैं। उनकी फिल्‍म निर्माण की प्रक्रिया काफी विस्‍तृत होती है। लिहाजा वक्त काफी लगेगा। स्क्रिप्‍ट पढ़ने के दौरान फिल्‍म से पहले मैंने खुद से कई सवाल किए थे। उनका गहराई से मंथन किया था। मैंने खुद से पूछा कि क्या मैं इस फिल्म के लिए तैयार हूं। क्या इस फिल्म ने मेरे दिलोदिमाग पर गहरी छाप