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दरअसल : विदेशों में पॉपुलर टीवी कलाकार

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- अजय ब्रह्मात्मज हाल ही में स्टार प्लस के शो   ' ये रिश्ता क्या कहलाता है ' की शूटिंग के सिलसिले में होनकोंग जाने का मौका मिला। इन दिनों टीवी शो भी शूटिंग के लिए अपने कलाकारों को लेकर विदेश जाने लगे हैं। उद्देश्य यही रहता है कि दर्शकों को विदेश की पृष्ठभूमि देखने को मिले। इसी बहाने दर्शक भी अपनी बैठक में बैठे - बैठे ही विदेशों की सैर कर लेते हैं। दशकों पहले जब हमारी दुनिया आज की तरह ग्लोबल नहीं हुई थी तो हिंदी फिल्मों की शूटिंग विदेशों में की जाती थी। दर्शकों को लुभाने और थिएटर में लाने का यह फार्मूला बहुत पॉपुलर हुआ था। बाद में तो पूरा परिदृश्य बदल गया। यश चोपड़ा   ने अलग तरह से विदेशों की छटा परोसी। उनके बाद तो निर्माताओं में विदेशी लोकेशन में देशी इमोशन दिखाने की होड़ लग गयी। क्या टीवी के साथ भी यही हो रहा है ? हमें ख्याल रखना होगा की जब किसी टीवी शो के कलाकार विदेश जाएँ तो कहानी भी वहां जाए। वहां के स्थानीय

गाड़ी चल पड़ी - पंकज त्रिपाठी

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-अजय ब्रह्मात्‍मज गैंग्‍स ऑफ वासेपुर के बाद पंकज त्रिपाठी पहचान में आए। धीरे-धीरे उन्‍होंने अपनी जगह और साख बना ली है। सीमित दृश्‍यों की छोटी भूमिकाओं से सीमित बजट की खास फिल्‍मों में अपनी मौजूदगी से वे दर्शकों को प्रभावित कर रहे हैं। उनकी कुछ फिल्‍में रिलीज के लिए तैयार हैं और कुछ की शूटिंग चल रही है। झंकार के पाठकों के लिए वे अजय ब्रह्मात्‍मज के साथ शेयर कर रहे हैं अपना सफर और अनुभव... 0 सिनेमा में आने का इरादा बिल्कुल नहीं था। मैंने कभी नहीं सोचा था कि यह संभव होगा। सिनेमा के ग्लैमर का मुझ पर कोई प्रभाव नहीं रहा। गांव में हमारे सिनेमा घऱ भी नहीं था। हम तो फिल्मों के बारे में जानते ही नहीं थे। हमारी शुरुआत रंगमंच से हुई। हमने इसे रोजगार बनाने का सोच लिया। रंगमंच की ट्रेनिंग के लिए हम एनएसडी पहुंच गए। एनएसडी के बाद मैंने सोचा नहीं था कि मुंबई जाऊंगा। हिंदी रंगमंच की जो दुर्दशा है कि रंगमंच पर अभिनेता गुजारा नहीं कर सकता। इसी वजह से मैं हिंदी सिनेमा की तरफ बढ़ा। एनएसडी से लौट कर मैं पटना गया। वहां पर मैंने सइया भए कोतवाल प्ले किया। वहां के पांच महीनों में मुझे अनुभव ह

फिल्‍म समीक्षा : जय गंगाजल

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देसी मिजाज और भाषा -अजय ब्रह्मात्‍मज हिदी सिनेमा के फिल्‍मकार अभी ऐसी चुनौतियों के दौर में फिल्‍में बना रहे हैं कि उन्‍हें अब काल्‍पनिक कहानियों में भी शहरों और किरदारों के नामों की कल्‍पना करनी पड़ेगी। यह सावधानी बरतनी होगी कि निगेटिव छवि के किरदार और शहरों के नाम किसी वास्‍तविक नाम से ना मिलते हों। ‘ जय गंगाजल ’ में बांकीपुर को लेकर विवाद रहा कि इस नाम का बिहार में विधान सभा क्षेत्र है। चूंकि फिल्‍म के विधायक बांकीपुर के हैं,इसलिए दर्शकों में संदेश जाएगा कि वहां के वर्त्‍तमान विधायक भी भ्रष्‍ट हैं। कल को फिल्‍म के किरदार भोलानाथ सिंह यानी बीएन सिंह नाम का कोई पुलिस अधिकारी भी आपत्ति जता सकता है कि इस फिल्‍म से मेरी बदनामी होगी। भविष्‍य अब खल और निगेटिव किरदारों के नाम दूधिया कुमार और बर्तन सिंह होंगे। शहरों के नाम भागलगढ़ और पतलूनपुर होंगे। ताकि कोई विवाद न हो। बहरहाल,प्रकाश झा की ‘ जय गंगाजल ’ मघ्‍य प्रांत के एक क्षेत्र की कहानी है,जहां आईपीएस अधिकारी आभा माथुर की नियुक्ति होती है। मुख्‍यमंत्री की पसंद से उन्‍हें वहां भेजा जाता है। आभा माथुर को मालूम है कि उनके क

फिल्‍म समीक्षा : जुबान

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एहसास और पहचान की कहानी -अजय ब्रह्मात्‍मज दिलशेर बच्‍चा है। वह अपने पिता के साथ गुरूद्वारे में जाता है। वहां पिता के साथ गुरूवाणी और सबद गाता है। पिता बहरे हो रहे हैं। उनकी आवाज असर खो रही है। और वे एक दिन आत्‍महत्‍या कर लेते हैं। दिलशेर का संगीत से साथ छूट जाता है। वह हकलाता है। हकलाने की वजह से वह दब्‍बू हो गया है। उसे बचपन में ही गुरचरण सिकंद से सबक मिलता है कि वह खुद के भरोसे ही कुछ हासिल किया जा सकता है। वह बड़ा होता है और दिल्‍ली आ जाता है। दिल्‍ली में उसकी तमन्‍ना गुरदासपुर के शेर गुरचरण सिकंद से मिलने और उनके साथ काम करने की है। गुरचरण सिकंद खुद के भरोसे ही आज एक बड़ी कंपनी का मालिक है। कभी उसके रोजगारदाता ने उस पर इतना यकीन किया था कि उसे अपनी बेटी और संपत्ति सौंप गया। इरादे का पक्‍का और बिजनेस में माहिर गुरचरण को अपना बेटा ही पसंद नहीं है। वह उसे चिढ़ाने के लिए दिलशेर को बढ़ावा देता है। बाप,बेटे और मां के संबंधों के बीच एक रहस्‍य है,जो आगे खुलता है। गुरचरण सिकंद कुटिल मानसिकता का व्‍यावहारिक व्‍यक्ति है। दिलशेर में उसे अपना जोश और इरादा दिखता है। अपनी पहचान की त

दरअसल : कैमरे से दोस्‍ती

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-अजय ब्रह्मात्‍मज चाहे ना चाहे हमारा जीवन कैमरे के आसपास मंडराने लगा है। स्‍मार्ट फोन और साधारण मोबाइल फोन में कैमरा आ जाने से हमारी जिंदगी में कैमरे की घुसपैठ बढ़ गई है। कैमरे और इंसान की इस बढ़ती आत्‍मीयता के बावजूद अधिकांश व्‍यक्तियों को मुस्‍कराना नहीं आया है। कैमरे से दोस्‍ती करने में एक हिचक सी रहती है। फिर कैमरा भी अपनी उदासीनता दिखाता है। वह भी दोस्‍ती नहीं करता। फिल्‍मों और फिल्‍म कलाकारों के बारे में बातें करते समय हम अक्‍सर कैमरे से दोस्‍ती का जिक्र करते हैं। कभी-कभी किसी कलाकार के बारे में यह धारणा बन जाती है कि वह कैमरे का दोस्‍त नहीं हो पाया। इस दोस्‍ती के अभाव में वह दर्शकों की पसंद नहीं बन पाता। उसकी छवि से दर्शक प्रेम नहीं करते। आप सामान्‍य व्‍यक्ति हो या कलाकार...कैमरे से दोस्‍ती करना सीखें। बाज अजीब सी लग सकती है,लेकिन आप ने महसूस किया होगा कि सेल्‍फी या ग्रुप में आप की तस्‍वीर अच्‍छी नहीं आती। कैमरा का जब शटर खुल कर बंद होता है,उस समय चेहरे पर मौजूद भाव और देह दशा को कैमरा कैद कर लेता है। जरूरी नहीं है कि अगर आप नंगी आंखों से खूबसूरत लगती हैं तो कैमरा आप

भारतीय अभिनेत्री हूं - प्रियंका चोपड़ा

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-अजय ब्रह्मात्‍मज अकादेमी अवार्ड यानी ऑस्‍कर पुरस्‍कार की रात प्रियंका चोपड़ा का आत्‍मविश्‍वास देखने लायक था। उन्‍होंने भारतीय लुक के साथ विदेशी पहनावे का आकर्षक तालमेल बिठाया था। उस लिबास में वह बेहद खूबसूरत और मुखर दिख रही थीं। हिंदी फिल्‍मों की अभिनेत्रियों में प्रियंका चोपड़ा करिअर के ऐसे मुकाम पर हैं,जहां वह जिधर भी कदम बढ़ाएं,उधर एक अवसर तैयार है। -बाजीराव मस्‍तानी ’ में काशीबाई की भूमिका में सराहना बटोरने के साथ ही उन्‍होंने ‘ क्‍वैंटिको ’ में पेरिस एलेक्‍स की भूमिका में विदेशी दर्शकों को भी प्रभावित किया। उन्‍हें पीपल्‍स च्‍वाॅयस अवार्ड मिला। फिर खबर आई की वह मशहूर टीवी शो ‘ बेवाच ’ पर आधारित फिल्‍म के लिए चुन ली गई हैं। इस फिल्‍म में उनकी निगेटिव भूमिका होगी। हिंदी फिल्‍मों में ‘ ऐतराज ’ और ‘ 7 खून माफ ’ में हम उनकी निगेटिव अदाकारी देख चुके हें। ‘ बेवाच ’ में इस बार भाषा का फर्क होगा। ‘ क्‍वैंटिको ’ में उनका रोल एक्‍शन से भरपूर है। प्रकाश झा निर्देशित ‘ जय गंगाजल ’ में भी वह एक्‍शन करती नजर आ रही हैं। इस फिलम में उन्‍होंने ईमानदार आईपीएस अधिकारी आभा माथ