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एक्टिंग का अपना अलग मजा है - प्रकाश झा

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-अजय ब्रह्मात्‍मज - नयी फिल्‍म ‘जय गंगाजल’ में आप पहली बार विधिवत कैमरे के सामने आ रहे हैं। यह फैसला क्‍यों और कैसे हुआ ? 0 दो वजहों से यह निर्णय लेना पड़ा। एक तो अपने क्रिएटिव क्षितिज पर एक नयी चुनौती चाहिए थी। स्क्रिप्‍ट लिखना, प्रोडक्‍शन की प्‍लानिंग करना, डायरेक्‍शन, कैमरा और म्‍यूजिक आदि सभी पहलुओं को देख और संभाल चुका था। शूटिंग के लिए एक्‍टर तैयार करना भी चल रहा था। इन सारे काम में परफारमेंस नहीं होता है। मैं परफारमेंस की अतिरिक्‍त चुनौती चाहता था। इस बार मैं लाइन क्रास कर गया। अपनी फिल्‍मों में एकाध सीन तो पहले भी करता रहा हूं। -इस बार आप एक महत्‍वपूर्ण किरदार में हैं ? 0 अपने किरदार बीएन सिंह की तैयारी में मैं अनेक अधिकारियों से मिला। चार राज्‍यों के डीएसपी स्‍तर के पुलिस अधिकारियों से मिलने पर मैंने उनमें कुछ समान बातें पाईं। मैनेरिज्‍म और सोच में समानता दिखी। प्रमोशन से इस पद तक पहुंचे अधिकारी सिस्‍टम की अच्‍छी जानकारी रखते हैं। वे अनुभवी हो जाते हैं। वे भगवान के साथ खाकी की भी पूजा करते हैं। अपना काम निकालना जानते हें। उन्‍हें अपनी स्थिति मालूम रहती है, इस

सवाल-जवाब : मनोज बाजपेयी

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मनोज बाजपेयी से फेसबुक मित्रों ने पूछे सवाल और मनोज बाजपेयी ने दिए उनके बेधड़क जवाब। यह पोस्‍ट उन सभी मित्रों के लिए है,जिनके मन में ऐसी ही जिज्ञासाएं हैं। उमैर हाशमी : अगली पिंजर कब आ रही है ? मनोज बाजपेयी : अलीगढ़ ही मेरी अगली पिंजर है। सौरभ महाजन : क्‍या स्‍टार्स एक्‍टर्स के साथ काम करने से परहेज़ करते हैं ? मनोज बाजपेयी : स्‍टार के साथ काम करने वाले प्रोड्यूसर और डायरेक्‍टर एक्‍टर के साथ काम करने में परहेज करते हैं। अभिषेक पंडित : क्‍या कभी भोजपुरी फिल्‍म का ऑफर मिले तो करेंगे ? मनोज बाजपेयी : मेरे लिए स्‍क्रिप्‍ट सर्वेसर्वा है। भाषा कोई भी हो। अगर मातृभाषा में स्क्रिप्ट मिले , तो अच्‍छा लगता है। निशांत यादव : उनकी फिल्म अलीगढ के के सम्बन्ध में प्रश्न है : क्या भारत में समलैंगिंकता अब स्वीकार्य हो जानी चाहिए , अब जो समाज का ऊपरी तबका है , उसमें थोड़ी बहुत स्वीकृति तो है लेकिन नीचे का तबका इसे मानसिक विकृति या वासना का पर्याय मानता है , आप क्या मानते हैं... ये कोई रोग है या प्राकृतिक भावना ? मनोज बाजपेयी : सबसे पह

निदा फाजली : तंज और तड़प है उनके लेखन में

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-अजय ब्रह्मात्‍मज     खार दांडा में स्थित उनका फ्लैट मुंबई आए और बसे युवा पत्रकारों और साहित्‍यकारों का अड्डा था। न कोई निमंत्रण और ना ही कोई रोक। उनके घर का दरवाजा बस एक कॉल बेल के इंतजार में खुलने के लिए तैयार रहता था। आप किसी के साथ आएं या खुद पहुंच जाएं। उनकी बैठकी में सभी के लिए जगह होती थी। पहली मुलाकात में ही बेतकल्‍लुफ हो जाना और अपनी जिंदादिली से कायल बना लेना उनका बेसिक मिजाज था। बातचीत और बहस में तरक्‍कीपसंद खयालों से वे लबालब कर देते थे। विरोधी विचारों को उन्‍हें सुनने में दिक्‍कत नहीं होती थी, लेकिन वे इरादतन बहस को उस मुकाम तक ले जाते थे, जहां उनसे राजी हो जाना आम बात थी। हिंदी समाज और हिंदी-उर्दू साहित्‍य की प्रगतिशील धाराओं से परिचित निदा फाजली के व्‍यक्तित्‍व, शायरी और लेखन में आक्रामक बिंदासपन रहा। वे मखौल उड़ाते समय भी लफ्जों की शालीनता में यकीन रखते थे। शायरी की शालीनता और लियाकत उनकी बातचीत और व्‍यवहार में भी नजर आती थी। आप अपनी व्‍यक्तिगत मुश्किलें साझा करें तो बड़े भाई की तरह उनके पास हल रहते थे। और कभी पेशे से संबंधित खयालों की उलझन हो तो वे अपने अनु

फिल्‍म समीक्षा : घायल वन्‍स अगेन

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प्रचलित छवि में वापसी -अजय ब्रह्मात्‍मज       हिंदी फिल्‍मों के अन्‍य पॉपुलर स्‍टार की तरह सनी देओल ने ‘ धायल वन्‍स अगेन ’ में वही किया है,जो वे करते रहे हैं। अपने गुस्‍से और मुक्‍के के लिए मशहूर सनी देओल लौटे हैं। इस बार उन्‍होंने अपनी 25 साल पुरानी फिल्‍म ‘ घायल ’ के साथ वापसी की है। नई फिल्‍म में पुरानी फिल्‍म के दृश्‍य और किरदारों को शामिल कर उन्‍होंने पुराने और नए दर्शकों को मूल और सीक्‍वल को जोड़ने की सफल कोशिश की है। नई फिल्‍म देखते समय पुरानी फिल्‍म याद आ जाती है। और उसी के साथ इस फिल्‍म से बनी सनी देओल की प्रचलित छवि आज के सनी देओल में उतर आती है। नयी फिल्‍म में सनी देओल ने बार-बार गुस्‍से और चीख के साथ ढाई किलो के मुक्‍के का असरदार इस्‍तेमाल किया है।     ‘ घायल वन्‍स अगेन ’ में खलनायक बदल गया है। बलवंत राय की जगह बंसल आ चुका है। उसके काम करने का तौर-तरीका बदल गया है। वह टेक्‍नो सैवी है। उसने कारपोरेट जगत में साम्राज्‍य स्‍थापित किया है। अजय मेहरा अब पत्रकार की भूमिका में है। सच सामने लाने की मुहिम में अजय ने सत्‍यकाम संस्‍था खोल ली है। वह सत्‍य उजागर करने

फिल्‍म समीक्षा : सनम तेरी कसम

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रोमांस और रिश्‍तों का घालमेल -अजय ब्रह्मात्‍मज     राधिका राव और विनय सप्रू की ‘ सनम तेरी कसम ’ रोमांस के साथ संबंधों की भी कहानी है। फिल्‍म की लीड जोड़ी हर्षवर्द्धन राणे और मावरा होकेन की यह लांचिंग फिल्‍म है। पूरी कोशिश है कि दोनों को परफारमेंस और अपनी खूबियां दिखाने के मौके मिलें। लेखक-निर्देशक ने इस जरूरत के मद्देनजर फिल्‍म के अपने प्रवाह को बार-बार मोड़ा है। इसकी वजह से फिल्‍म का अंतिम प्रभाव दोनों नए कलाकारों को तरजीह तो देती है,लेकिन फिल्‍म असरदार नहीं रह जाती।     फिल्‍म फ्लैशबैक से आरंभ होती है। नायक इंदर(हर्षवर्द्धन राणे) को अपने जीवन की घटनाएं याद आती हैं। फ्लैशबैक में इंदर के जीवन में प्रवेश करने के साथ ही हम अन्‍य किरदारों से भी मिलते हैं। जिस अपार्टमेंट में पार्थसारथी परिवार पहले से रहता है,वहीं इंदर रहने आ जाता है। इंदर की अलग जीवन शैली है। पार्थसारथी परिवार के मुखिया जयराम की पहली भिड़ंत ही सही नहीं रहती। वे उससे नफरत करते हैं। हिंदी फिल्‍मों की परिपाटी के मुताबिक यहीं तय हो जाता है कि इस नफरत में ही मोहब्‍बत पैदा होगी। कुछ यों होता है कि

दरअसल : रोचक खोज सलमान खान की

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  -अजय ब्रह्मात्‍मज खानत्रयी(आमिर,शाह रुख और सलमान खान) के तीनों खान के बारे में देश के दर्शक बहुत कुछ जानते हैं। फिल्‍म स्‍टारों का जीवन अपरिचित नहीं रह जाता। उनके इंटरव्‍यू,उनकी बातें,उनसे संबंधित समाचार और आखिरकार उनकी फिल्‍मों से हर प्रशंसक और दर्शक अपने प्रिय स्‍टार की जीवनी लिखता रहता है। हर नई सूचना जोड़ने के साथ वह उसे अपडेट भी करता रहता है। धारणाएं बना लेता है। फिल्‍मों और फिल्‍म कलाकारों के नाम पर नाक-भौं सिकोड़ने वाले भी फिल्‍म स्‍टारों की पूरी खबर रखते हैं। जिन फिल्‍मों और फिल्‍म स्‍टारों के साथ वे बड़े होते हैं। उनके प्रति यह लगाव बना रहता है। खानत्रयी के तीनों खानों को हिंदी फिल्‍म इंडस्‍ट्री में 25 साल से अधिक हो गए। इस दरम्‍यान उनके बारे में हजारों किस्‍से फैले और दर्शकों के मानस में बैठ गए। सुना है कि शाह रुख खान अपनी आत्‍मकथा लिख रहे हैं। यह काम आमिर खान और सलमान खान को भी करना चाहिए। आधिकारिक जीवनी एकपक्षीय हो तो भी उनसे स्‍टार और उनके समय की जानकारी मिलती है। हिंदी फिल्‍मों का संसार और कारोबार इतना बड़ा हो चुका है,लेकिन गतिविधियों,सूचनाओं और घटनाओं के द

फिल्‍म समीक्षा : साला खड़ूस

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खेल और ख्‍वाब का मैलोड्रामा -अजय ब्रह्मात्‍मज     हर विधा में कुछ फिल्‍में प्रस्‍थान बिंदु होती हैं। खेल की फिल्‍मों के संदर्भ में हर नई फिल्‍म के समय हमें प्रकाश झा की ‘ हिप हिप हुर्रे ’ और शिमित अमीन की ‘ चक दे इंडिया ’ की याद आती है। हम तुलना करने लगते हैं। सुधा कोंगरे की फिल्‍म ‘ साला खड़ूस ’ के साथ भी ऐसा होना स्‍वाभाविक है। गौर करें तो यह खेल की अलग दुनिया है। सुधा ने बाक्सिंग की पृष्‍ठभूमि में कोच मदी(आर माधवन) और बॉक्‍सर(रितिका सिंह) की कहानी ली है। कहानी के मोड़ और उतार-चढ़ाव में दूसरी फिल्‍मों से समानताएं दिख सकती हैं,लेकिन भावनाओं की जमीन और परफारमेंस की तीव्रता भिन्‍न और सराहनीय है।     आदि के साथ देव(जाकिर हुसैन) ने धोखा किया है। चैंपियन बॉक्‍सर होने के बावजूद आदि को सही मौके नहीं मिले। कोच बनने के बाद भी देव उसे सताने और तंग करने से बाज नहीं आता। देव की खुन्‍नस और आदि की ईमानदारी ने ही उसे खड़ूस बना दिया है। अभी कर्तव्‍यनिष्‍ठ और ईमानदार व्‍यक्ति ही घर,समाज और दफ्तर में खड़ूस माना जाता है। देव बदले की भावना से आदि का ट्रांसफर चेन्‍नई करवा देता है। च

फिल्‍म समीक्षा : मस्‍तीजादे

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बड़े पर्दे पर लतीफेबाजी -अजय ब्रह्मात्‍मज   मिलाप झावेरी की ‘ मस्‍तीजादे ’ एडल्‍ट कामेडी है। हिंदी फिल्‍मों में एडल्‍ट कामेडी का सीधा मतलब सेक्‍स और असंगत यौनाचार है। कभी सी ग्रेड समझी और मानी जाने वाली ये फिल्‍में इस सदी में मुख्‍यधारा की एक धारा बन चुकी हैं। इन फिल्‍मों को लेकर नैतिकतावादी अप्रोच यह हो सकता है कि हम इन्‍हें सिरे से खारिज कर दें और विमर्श न करें,लेकिन यह सच्‍चाई है कि सेक्‍स के भूखे देश में फिल्‍म निर्माता दशकों से प्रत्‍यक्ष-अप्रत्‍यक्ष तरीके से इसका इस्‍तेमाल करते रहे हैं। इसके दर्शक बन रहे हैं। पहले कहा जाता था कि फ्रंट स्‍टाल के चवन्‍नी छाप दर्शक ही ऐसी फिल्‍में पसंद करते हैं। अब ऐसी फिल्‍में मल्‍टीप्‍लेक्‍श में दिख रही हैं। उनके अच्‍छे-खासे दर्शक हैं। और इस बार सनी लियोन के एक विवादित टीवी इंटरव्‍यू को जिस तरीके से परिप्रेक्ष्‍य बदल कर पेश किया गया,उससे छवि,संदर्भ और प्रासंगिकता का घालमेल हो गया।        बहरहाल, ’ मस्‍तीजादे ’ ह्वाट्स ऐप के घिसे-पिटे लतीफों को सीन बना कर पेश करती है। इसमें सेक्‍स एडिक्‍ट और समलैंगिक किरदार हंसी और कामेडी करने के