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संदेश शांडिल्य ले आए सिंफनी

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-अजय ब्रह्मात्मज आगरा के संदेश शांडिल्य के पिता अध्यापक थे। उन्होंने पिता से अलग एकेडमिक फील्ड में जाने के बजाए संगीत की राह चुनी। बचपन सं संगीत का रियाज और अभ्यास किया। शास्त्रीय संगीत की शिक्षा के लिए उन्होंने दिल्ली के श्रीराम कला केंद्र में दाखिला लिया और फिर 1989 में मुंबई का रुख किया। उस समय उनकी उम्र महज 21 साल थीं। मुंबई में वे आरंभ में संगीतकार सुरेन्द्र सोढी के सहायक रहे। मुंबई आने के बाद ही उन्होंने उस्ताद सुल्तान खान से सारंगी की शिक्षा ली। संगीत में निष्णात होने के लिए उन्होंने पश्चिमी शास्त्रीय संगीत की भी शिक्षा ली। संगीत की सभी परंपराओं से परिचित होने के बाद उन्होंने संगीत निर्देशन में कदम रखा। शुरूआती दौर में संदेश ने कुछ टीवी धारावाहिकों में संगीत निर्देशन किया। उन्हें पहली लोकप्रियता और सफलता करण जौहर की फिल्म ‘कभी खुशी कभी गम’ के गीत ‘सूरज हुआ मद्धम’ से मिली। उनके संगीत निर्देशन की पिछली फिल्म ‘रंगरसिया’ थी।     संदेश शांडिल्य की इच्छा थी कि वे भी दुनिया के मशहूर संगीतकारों की तरह सिंफनी तैयार करें। सिंफनी खास किस्म की संगीत रचना होती है,जिसमें किसी भाव को लेकर प्

एनएच 10 : खास सिचुएशन में पावरफुल हुई औरत- नवदीप सिंह

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-अजय ब्रह्मात्मज     ‘मनोरमा सिक्स फीट अंडर’ के सात सालों के बाद नवदीप सिंह की फिल्म ‘एनएच 10’ आ रही है। इस फिल्म में अनुष्का शर्मा मेन लीड में हैं। दूसरी फिल्म में इतनी देरी की वजह पूछने पर नवदीप सिंह स्पष्ट शब्दों में कहते हैं, ‘बीच में मेरी दो फिल्मों की घोषणाएं हुईं। ‘बसरा’ और ‘रॉक पर शादी’। ‘रॉक पर शादी’ की तो शूटिंग शुरू भी हो गई थी। बीस दिनों की शूटिंग के बाद वह अटक गई। इनमें काफी समय निकल गया।’ दरअसल,नवदीप अलग सोच के निर्देशक हैं। उन्हें जिदी भी कहा जाता है। नवदीप इससे इंकार नहीं करते। वे जोड़ते हैं,‘मेरी जिद से ज्यादा निर्माताओं की अपनी दिक्कतें रहती हैं। उन्हें मेरी स्क्रिप्ट पसंद आती है,लेकिन वे यह कहना नहीं भूलते कि यह टिपिकल हिंदी फिल्म नहीं है। उन्हें डर रहता है कि नई किस्म की फिल्म है। चलेगी,नहीं चलेगी। यही समय अगर साउथ की फिल्म की रीमेक में लगाया जाए तो रिटर्न पक्का है। ज्यादातर निर्माता स्क्रिप्ट पढ़ कर फिल्म की कल्पना नहीं कर पाते। वे स्टार,सेटअप और नाम देखते हैं। वे किसी भी दूसरी भाषा की फिल्म देख कर आश्वस्त हो जाते हैं कि उसक कुछ प्रतिशत भी रीमेक हो गया तो फिल्म

हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में लेखिकाएं लहरा रहीं परचम - अमित कर्ण

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-अमित कर्ण     हिंदी फिल्म जगत में महिला लेखिकाओं व निर्देशकों का दौर रहा है। हनी ईरानी, साईं परांजपे, कल्पना लाजिमी, मीरा नायर ने दर्शकों को नए किस्म का सिनेमा दिया, मगर उस जमाने में कथित पैरेलल सिनेमा के पैरोकार कम थे। ऐसे में हिंदी फिल्म इंडस्ट्री महिला लेखिकाओं की बहुत बड़ी तादाद से महस्म थी। आज वह बात नहीं है। इंडस्ट्री में ढेर सारी फीमेल रायटर और डायरेक्टर अपने नाम का परचम लहरा रही हैं। उनमें अद्वैता काला, जूही चतुर्वेदी, उर्मि जुवेकर, अन्विता दत्ता, शिबानी बथीजा, शगुफ्ता रफीक उल्लेखनीय नाम हैं। वे अपने अलग विजन और ट्रीटमेंट से लोगों का दिल जीत रही हैं। उक्त नाम लीक से हटकर फिल्में दे रही हैं, जबकि फराह खान, रीमा कागटी, जोया अख्तर पॉपुलर फिल्में दे रही हैं। सब के सफल होने की वजह यह रही कि उन्होंने अपनी नारीवादी सोच को किनारे रख ह्यूमन इंटरेस्ट की कहानियां दर्शकों को दी। ‘कहानी’ जैसी फिल्म लिखने वाली अद्वैता काला कहती हैं, ‘एक लेखक के तौर पर आप जब कहानी लिखना शुरू करते हो तो आप को कोई आइडिया नहीं होता कि उसका अंत क्या होगा? मैं अपनी कहानी का अंत भी प्रेडिक्ट नहीं करती। ‘कहानी’

क्यों नहीं केयरफ्री हो सकती मैं-अनुष्का शर्मा

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प्रस्तुति-अजय ब्रह्मात्मज मैं आर्मी बैकग्राउंड से आई हूं। अलग-अलग शहरों में रही। परिवार और आर्मी के माहौल में कभी लड़के और लड़की का भेद नहीं फील किया। मेरे पेरेंट्स ने कभी मुझे अपने भाई से अलग तरजीह नहीं दी। मैं लड़को और लड़कियों के साथ एक ही जोश से खेलती थी। मेरे दिमाग में कभी यह बात नहीं डाली गई कि यह लड़का है,यह लड़की है। गलती वहीं से आरंभ होती है,जब हम डिफाइन करने लगते हैं। उनकी तुलना करने लगते हैं। लड़कियां लड़कियों जैसी ही रहें और आगे बढ़ें। लड़कियों पर यह नहीं थोपा जाना चाहिए कि उन्हें कैसा होना चाहिए? लड़किया होने की वजह से उन पर पाबंदियां न लगें। अगर कोई आदर्श और स्टैंडर्ड है तो वह दोनों के लिए होना चाहिए। अब जैसे कि हीरोइन सेंट्रिक फिल्म ¸ ¸ ¸यह क्या है? क्या हीरो सेंट्रिक फिल्में होती हैं?     बचपन से मैंने जिंदगी जी है,उसकी वजह से लड़के और लड़की के प्रति दोहरे रवैए से मुझे दिक्कत होती है। मैं नहीं झेल पाती। अपने देश में ऐसे ही अनेक समस्याएं हैं। हमारी एक समस्या महिलाओं की सुरक्षा है। लिंग भेद की वजह से असुरक्षा बढ़ती है। औरतें असुरक्षित रहेंगी तो विकास का नारा बेमानी होगा। सही विकास

चवन्‍नी पर होली

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होली पर चवन्‍नी के आर्काइव से तीन लेखत्र इस साल शबना आजमी और अनुराग कश्‍यप ने दोस्‍तों के साथ होली को सार्वजनिक रंग दिया। कभी इस फिल्‍म इंडस्‍ट्री में रंगों की फुहार और ढोलक की थाप पर सभी सितारे ठुमकते और सराबोर होते थे। अग फिॅल्‍म इंडस्‍ट्री की होली सराबोर से घट कर बोर हो गई है। न रहा रांग, न रहे रंग। होली हो गई निस्‍संग। Friday, March 21, 2008 खेमों में बंटी फ़िल्म इंडस्ट्री, अब नहीं मनती होली हां, यहां यह याद दिलाना आवश्यक होगा कि सेटेलाइट चैनलों के आगमन और सीरियल के बढ़ते प्रसार के दिनों में सीरियल निर्माताओं ने अपनी यूनिट के लिए होली का आयोजन आरंभ किया। इस प्रकार की होली चुपके से होली के पहले ही होली के दृश्य जोड़ने के काम आने लगी। होली ने कृत्रिम रूप ले लिया। अभी फिल्म इंडस्ट्री घोषित-अघोषित तरीके से इतने खेमों में बंट गई है कि किसी ऐसी होली के आयोजन की उम्मीद ही नहीं की जा सकती, जहां सभी एकत्रित हों और बगैर किसी वैमनस्य के होली के रंगों में सराबोर हो सकें!  Sunday, March 4, 2012 हाय वो होली हवा हुई पोज बना कर होली फिल्मी इव

दरअसल : आज के निर्दशकों की नजर में गुरू दत्त

‘’ -अजय ब्रह्मात्मज     पिछले दिनों विनोद चोपड़ा फिल्म्स और ओम बुक इंटरनेशनल ने दिनेश रहेजा और जितेन्द्र कोठारी के संपादन में गुरू दत्त फिल्म्स की तीन फिल्मों ‘साहब बीवी और गुलाम’,‘चौदहवीं का चांद’ और ‘कागज के फूल’ की स्क्रिप्ट जारी की। इस अवसर पर तीन युवा निर्देशकों अनुराग कश्यप,फरहान अख्तर और दिबाकर बनर्जी को आमंत्रित किया गया था। तीनों ने अपने लिए गुरू दत्त की प्रासंगिकता पर बातें कीं। इन दिनों हिंदी फिल्मों पर किताबों की बौछार चल रही है। दस्तावेजीकरण हो रहा है। अफसोस है कि हिंदी प्रकाशक अपने प्रिय लेखकों से ही सिनेमा पर भी लिखवा रहे हें। उन्हें यह परवाह नहीं है कि उनके प्रकाशन की कोई उपयोगिता भी है या नहीं? बहरहाल,गुरू दत्त के बारे तीनों निर्देशकों की राय सुनना रोचक रहा।     तरंग के पाठकों के लिए मैं उनकी बातों के कुछ अंश प्रस्तुत कर रहा हूं: अनुराग कश्यप- गुरू दत्त की प्यासा मेरी पहली फिल्म थी। इस फिल्म से ही गुरू दत्त से मेरा परिचय हुआ। उसका असर ऐसा हुआ कि आज भी उस फिल्म की छवियां मेरा पीछा करती हैं। दस फिल्म के एक गाने से प्रेरित होकर मैंने पूरी फिल्म बना दी। ‘गुलाल’ इसी फिल्म

इरफान की अनौपचारिक बातें-3

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3 आखिरी किस्‍त  इरफान ने इस बातचीत में अपनी यात्रा के उल्‍लेख के साथ वह अंतर्दृष्टि भी दी है,जो किसी नए कलाकार के लिए मार्गदर्शक हो सकती है। चवन्‍नी पर इसे तीन किस्‍तों में प्रकाशित किया जाएगा। इरफान के बारे में आप की क्‍या राय है ? आप उन्‍हें कैसे देखते और समझते हैं ? अवश्‍य लिख्‍ें chavannichap@gmail.com   कल से आगे....  -अजय ब्रह्मात्‍मज         यहां की बात करूं तो 2014 का पूरा साल स्पेशल एपीयरेंस में ही चला गया। पहले गुंडे किया और फिर हैदर। अभी पीकू कर रहा हूं। मुझे यह पता है कि दर्शक मुझे पसंद कर रहे हैं। वे मुझ से उम्मीद कर रहे हैं। मैं यही कोशिश कर रहा हूं कि वे निराश न हों। मैं कुछ सस्पेंस लेकर आ सकूं। आर्ट फिल्म करने में मेरा यकीन नहीं है , जिसमें डायरेक्टर की तीव्र संलग्नता रहती है। ऐसी फिल्में आत्ममुग्धता की शिकार हो जाती हैं। आर्ट हो है , पर वैसी फिल्म कोई करे जिसमें कुछ नया हो। ना ही मैं घोर कमर्शियल फिल्म करना चाहता हूं। फिर भी सिनेमा के बदलते स्वरूप में अपनी तरफ से कुछ योगदान करता रहूंगा। पीकू के बाद तिग्मांशु के साथ एक फिल्म करूंगा। और भी क

इरफान की अनौपचारिक बातें-2

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2.  इरफान ने इस बातचीत में अपनी यात्रा के उल्‍लेख के साथ वह अंतर्दृष्टि भी दी है,जो किसी नए कलाकार के लिए मार्गदर्शक हो सकती है। चवन्‍नी पर इसे तीन किस्‍तों में प्रकाशित किया जाएगा। इरफान के बारे में आप की क्‍या राय है ? आप उन्‍हें कैसे देखते और समझते हैं ? अवश्‍य लिख्‍ें chavannichap@gmail.com   कल से आगे....  -अजय ब्रह्मात्‍मज       मीरा नायर की जब फिल्म मिली थी , उसके ठीक पहले मैंने नेमसेक किताब पढक़र खत्म की थी। मुझे लगा कि कुछ दैवीय हस्तक्षेप हो रहा है। अभी मैंने किताब खत्म की और अभी मुझे यह रोल मिल रहा है। किताब में तो मेरा किरदार पृष्ठभूमि में ही रहता है। जिंदगी बार-बार उसका इम्तिहान ले रही है। शुरू में मीरा ने मुझसे तीन महीने का समय ले लिया था। तब कोंकणा सेन शर्मा फिल्म में थीं। फिर पता चला कि तब्बू कर रही हैं। बीच में उन्होंने अभिषेक बच्चन को भी लाने की कोशिश की। शूटिंग टलती रही और मेरा समय बर्बाद होता रहा। छह महीने के  इंतजार के बाद फिल्म की शूटिंग शुरू हुई। तब मुझे कुल 15 लाख रुपए मिले थे। मैंने तय कर लिया था कि नेमसेक करनी है। मैं टिका रहा। मैं कुछ मांग कर

इरफान की अनौपचारिक बातें

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इरफान ने इस बातचीत में अपनी यात्रा के उल्‍लेख के साथ वह अंतर्दृष्टि भी दी है,जो किसी नए कलाकार के लिए मार्गदर्शक हो सकती है। चवन्‍नी पर इसे तीन किस्‍तों में प्रकाशित किया जाएगा। इरफान के बारे में आप की क्‍या राय है ? आप उन्‍हें कैसे देखते और समझते हैं ? अवश्‍य लिख्‍ें chavannichap@gmail.com - अजय ब्रह्मात्मज सीखते-सीखते यहां तक तो आ गया। मैंने जो प्रोफेशन चुना है , वह मेरे मकसद और लक्ष्य के करीब पहुंचने के लिए है। उसमें मदद मिले तो ठीक है। बाकी शोहरत , पैसा , नाम...य़ह सब बायप्रोडक्ट है। यह सब तो मिलना ही था। यह सब भी मिल गया। इनके बारे में सोच कर नहीं चला था। जयपुर से निकलते समय कहां पता था कि कहां पहुंचेंगे ? अभी पहुंचे भी कहां हैं। सफर जारी है। मुझे याद आता है एक बार बेखयाली में मैंने मां से कुछ कह दिया था। थिएटर करता था तो मां ने परेशान होकर डांटा था ...य़ह सब काम आएगा क्या ? मैंने अपनी सादगी में कह दिया था कि आप देखना कि इस काम के जरिए मैं क्या करूंगा ? मेरे मुंह से निकल गया था और वह सन्न होकर मेरी बात सुनती रह गई थीं। उन्हें यकीन नहीं हुआ था। तब यह मेरा इरादा था। पता नहीं

अंडर द डोम : छाए चिंग की डाक्‍युमेंट्री

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चीन की छाए चिंग ने 'अंडर द डोम' नाम से यह डाक्‍युमेंट्री बनाई है।  104 मिनट की इस डाक्‍युमेंट्री में उन्‍होंने चीन में वायु प्रदूषण्‍ा के मसले को निजी और आत्‍मीय तरीके से पेश किया है। इस डाक्‍युमेंट्री का खयाल उन्‍हें गर्भ की उस संतान को लेकर आया,जिसे अभी जन्‍म लेना था। 2014 की जनवरी में पेइचिंग में 25 दिनों तक घना कोहरा छाया रहा था। वह आम घटना नहीं थी और न मौसम का कोहराम था। छाए चिंग एक खास परिप्रेक्ष्‍य में यह डाक्‍युमेंट्री पेश करती हैं। आज सुबह-सुबह फेसबुक पर मुझे इसका लिंक युवा मित्र तानसेन सेन से मिली। मैं चवन्‍नी के सभी पाठकों के लिए इसे यहां पेश कर रहा हूं। यह लिंक देखा जा रहा है और सही संदर्भ में इसकी चर्चा भी हो रही है। क्‍या भारत में कोई ऐसी डाक्‍युमेंट्री बनाएबा जो वायु प्रदूषण और पर्यवरण के मसले को इस संजीदगी से उठाए। अभी इस डाक्‍युमेंट्री की सबटायटलिंग का काम चल रहा है। वीनी-अंग्रेजी जानने वाले मदद कर सकते हैं। आप भी देखें और अपनी राय दें। इसे शेयर करें।