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‘हेमलेट’ का प्रतिआख्यान रचती ‘हैदर’ - डाॅ. विभावरी.

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-डाॅ. विभावरी. पिछले दिनों में ' हैदर ' पर काफी कुछ लिखा गया...लेकिन कुछ छूटा रह गया शायद! एक ऐसे समय में जब विशाल भारद्वाज यह घोषित करते हैं कि वामपंथी हुए बिना वे कलाकार नहीं हो सकते, ‘ हैदर ’ का स्त्रीवादी-पाठ एक महत्त्वपूर्ण नुक्ता बन जाता है| अपनी फिल्म में कश्मीर को ‘ हेमलेट ’ का प्रतीक बताने वाले भारद्वाज दरअसल अपने हर पात्र में कश्मीर को टुकड़ों-टुकड़ों में अभिव्यक्त कर रहे हैं| ऐसे में गज़ाला और अर्शी की ‘ कश्मीरियत ’ न सिर्फ महत्त्वपूर्ण बन जाती है बल्कि प्रतीकात्मकता के एक स्तर पर वह कश्मीर समस्या की ‘ मैग्निफाइंग इमेज ’ के तौर पर सामने आती है| ' डिसअपीयरेड ( disappeared) लोगों की बीवियां , आधी बेवा कहलाती हैं! उन्हें इंतज़ार करना होता है...पति के मिल जाने का...या उसके शरीर का... ' फिल्म में गज़ाला का यह संवाद दरअसल इस सामाजिक व्यवस्था में समूची औरत जाति के रिसते हुए घावों को उघाड़ कर रख देता है | वहीँ अपनी माँ को शक की नज़र से देखते हैदर का यह संवाद कि ' मुझे यकीन है कि आप खुद को नहीं मारतीं |' इस बात को रेखांकित करता है कि एक औरत को ही प

अमिताभ बच्‍चन : 78 सोच

अमिताभ बच्‍चव के 70वें जन्‍मदिन पर यह कोशिश की गई थी। अखबार में पूरा छाप पाना संभव नहीं हुआ था। आप पढ़ें।  १: राकेश ओमप्रकाश मेहरा २: आशुतोष राणा ३: सुरेश शर्मा ४: मनोज बाजपेयी ५: विद्या बालन ६: तिग्मांशु धूलिया ७: संजय चौहान ८: सोनू सूद ९: जयदीप अहलावत १०: राणा डग्गुबाती ११: अविनाश १२: कमलेश पांडे १३: जावेद अख्तर १४: शाजान पद्मसी १५: जरीन खान १६: शक्ति कपूर १७: श्रेयस तलपड़े १८: सोनाली बेंद १९: असिन २०: ओमी वैद्य २१: सतीश कौशिक २२: कुणाल खेमू २३: रूमी जाफरी २४: अर्चना पूरन सिंह २५: मुग्धा गोडसे २६: गौरव सोलंकी २७: गुलशन देवैया २८: रजत बरमेचा २९: रुसलान मुमताज ३०: रानी मुखर्जी ३१: सौरभ शुक्ला ३२: कल्कि ३३: सलमान खान ३४: सुजॉय घोष ३५: विवेक अग्निहोत्री ३६: रजा मुराद ३७: वरुण धवन ३८: जॉनी लीवर ३९: यशपाल शर्मा ४०: रणदीप हुड्डा ४१: ऋचा चड्ढा ४२: के के मेनन ४२: मनु ऋषि ४४: चित्रांगदा सिंह ४५: संगीत सिवन ४६: राहुल ढोलकिया ४७: राम गोपाल वर्मा ४८: मैरी कॉम ४९: जे डी चक्रवर्ती ५०: गौरी श्ंिादे ५१: करण जौहर ५२: अक्षय कुमार ५३: परेश रावल ५४: प्रीति जिंटा ५५: अर्जुन रामपाल ५६: विपुल शाह ५७: कु

फिल्‍म समीक्षा : तमंचे

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-अजय ब्रह्मात्‍मज  हिंदी फिल्मों की रोमांचक अपराध कथाओं में अमूमन हीरो अपराध में संलग्न रहता है। हीरोइन किसी और पेशे या परिवार की सामान्य लड़की रहती है। फिर दोनों में प्रेम होता है। 'तमंचे' इस लिहाज से एक नई कथा रचती है। यहां मुन्ना (निखिल द्विवेद्वी) और बाबू (रिचा चड्ढा) दोनों अपराधी हैं। अचानक हुई मुलाकात के बाद वे हमसफर बने। दोनों अपराधियों के बीच प्यार पनपता है, जो शेर-ओ-शायरी के बजाय गालियों और गोलियों केसाथ परवान चढ़ता है। निर्देशक की नई कोशिश सराहनीय है। मुन्ना और बाबू की यह प्रेम कहानी रोचक है। एक दुर्घटना के बाद पुलिस की गिरफ्त से भागे दोनों अपराधी शुरू में एक-दूसरे के प्रति आशंकित हैं। साथ रहते हुए अपनी निश्छलता से वे एक-दूसरे को आकर्षित करते हैं। मुन्ना कस्बाई किस्म का ठेठ देसी अपराधी है, जिसने वेशभूषा तो शहरी धारण कर ली है, लेकिन भाषा और व्यवहार में अभी तक भोलू है। इसके पलट बाबू शातिर और व्यवहार कुशल है। देह और शारीरिक संबंधों को लेकर वह किसी प्रकार की नैतिकता के द्वंद्व में नहीं है। हिंदी फिल्मों में आ रही यह नई सोच की लड़की है। मुन्ना भी इस

फिल्‍म समीक्षा : जिगरिया

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-अजय ब्रह्मात्‍मज    सन् 1986 की पृष्ठभूमि में ताजमहल के शहर में शामू और राधा की प्रेम कहानी ने जन्म तो लिया लेकिन उसे जीवन नहीं मिल पाया। 'प्रतिघात' और 'लव 86' फिल्मों के पोस्टर से भान हुआ कि यह फिल्म उस कालखंड की होगी। लेखक-निर्देशक ने किसी और तरीके से समय का संकेत नहीं दिया है। शामू हलवाई परिवार का लड़का है और राधा ब्राह्मण परिवार की लड़की है। अंतर्जातीय प्रेम और विवाह को आज भी पूर्ण स्वीकृति नहीं मिल पाई है। 28 साल पहले तो और भी मुश्किलें थीं। निर्देशक राज पुरोहित ने अंतर्जातीय प्रेम और विवाह की इस फिल्म के लिए जिन किरदारों को अपना प्रतिनिधि चुना है, वे अपने व्यक्तित्व से प्रभावित नहीं करते। पढऩे-लिखने में फिसड्डी शामू शायरी के नाम पर तुकबंदी करता है और राधा तो अभी संभवत: स्कूल में ही पढ़ती है। ऐसे अव्यस्क किरदारों का प्रेम लिखना और दिखाना समीचीन नहीं है। खास कर फिल्म का अंत तो अनावश्यक और अप्रासंगिक है। बहरहाल, लेखक-निर्देशक ने इस प्रेम कहानी में हिंदी फिल्मों में सैकड़ों बार दिखाए जा चुके प्रसंगों, दृश्‍यों और संवादों का सहारा लिया है। पटक

दरअसल : दो छोर है ‘बैंग बैंग’ और ‘हैदर’

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-अजय ब्रह्मात्मज     2 अक्टूबर को रिलीज हुई सिद्धार्थ आनंद की ‘बैंग बैंग’ और विशाल भारद्वाज की ‘हैदर’ हिंदी सिनेमा के वत्र्तमान की दो छोर हैं। दोनों फिल्में पिछले हफ्ते रिलीज हुईं। उन्हें मिले दर्शक और कलेक्शन हिदी सिनेमा के बंटे दर्शकों की वास्तविकता भी जाहिर करते हैं। महात्मा गांधी के जन्मदिन के मौके पर मिले सरकारी का अवकाश का दोनों फिल्मों ने लाभ उठाया। इन दिनों फैशन चल गया है। अगर शुक्रवार के एक-दो दिन पहले कोई अवकाश या त्योहार हो तो निर्माता अपनी फिल्मों का वीकएंड लंबा कर देते हैं। मान लिया गया है कि अब फिल्मों का बिजनेश रिलीज से रविवार तक के कलेक्शन से स्पष्ट हो जाता है। कभी-कभार कोई फिल्म सोमवार के आगे दर्शक खींचने और बढ़ाने में सफल होती है। ‘बैंग बैंग’ और ‘हैदर’ का बारीक अध्ययन होना चाहिए। इस अध्ययन में हम हिंदी सिनेमा के वत्र्तमान के अनेक पहलुओं से परिचित हो जाएंगे।     ‘बैंग बैंग’ सिद्धार्थ आनंद की फिल्म है। उन्होंने हालीवुड की फिल्म ‘नाइट एंड डे’ के अधिकार लेकर इसे हिंदी में बनाया है। इस पर चोरी का आरोप नहीं लगाया जा सकता। रीमेक के इस दौर में जब दक्षिण भारत,दक्षिण कोरिया औ

हैदर: हुआ तो क्यों हुआ या हुआ भी कि नहीं... - पीयूष मिश्रा

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-पीयूष मिश्राा  हैदर एक ऐसी फ़िल्म है जिसे एक बार ज़रूर देखा जाना चाहिए. दोबारा देखने लायक इसमें कुछ है भी नहीं. हैदर को सिनेमा के पैरामीटर पर तौला जाए तो यह एक औसत फ़िल्म है. इस फ़िल्म की तारीफ़ सिर्फ और सिर्फ इसलिए की जानी चाहिए कि इसने कश्मीर में होने वाले मानवाधिकार हनन के मामलों की तरफ़ ध्यान खींचा है. इंटरनेशनल मीडिया भी इस फ़िल्म को केवल इसीलिए और इसी एंगल से सराहा है. मैं भी इसके लिए विशाल की बार-बार तारीफ़ करूँगा. विशाल ने राजनीतिक मुद्दों को फ़िल्म में बरतने के नए दरवाज़े खोले हैं. फ़िल्म में आर्म्ड फ़ोर्सेज़ (स्पेशल पॉवर) एक्ट 1958 (अफ़्सपा) की आलोचना, भारतीय फ़ौज द्वारा हिरासत में लेकर बग़ैर किसी एफआईआर के कश्मीरियों को लापता एवं प्रताड़ित करने के दृश्य, लापता कश्मीरियों की गुमनाम सामूहिक कब्रें और भारतीय सेना द्वारा चरमपंथियों के मुक़ाबले पूर्व चरमपंथियों का गुट खड़ा करने के सच को दिखाना काबिले तारीफ़ है. लेकिन बकौल माइकल मूर फ़िल्म को राजनीतिक भाषण या उपदेश तो होती नहीं. फ़िल्म का पहला काम है फ़िल्म होना, बाक़ी काम उसके बाद. इंटरवल के थोड़ी देर बाद