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फिल्‍म समीक्षा : पिज्‍जा

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- अजय ब्रह्मात्‍मज  निर्माता बिजॉय नांबियार और निर्देशक अक्षय अक्किनेनी की फिल्म 'पिज्जा' तमिल में बन चुकी इसी नाम की फिल्म की रीमेक है। अक्षय अक्किनेनी ने हिंदी दर्शकों के लिहाज से स्क्रिप्ट में कुछ बदलाव किए हैं। उन्होंने अपने कलाकारों अक्षय ओबरॉय और पार्वती ओमनाकुट्टन की खूबियों व सीमाओं को ध्यान में रखते हुए कथा बुनी है। 'पिज्जा' हॉरर फिल्म है, इसलिए हॉरर फिल्म के लिए जरूरी आत्मा, भूत-प्रेत, खून-खराबा सारे उपादानों का इस्तेमाल किया गया है। अक्षय की विशेषता कह सकते हैं कि वे इन उपादानों में रमते नहीं हैं। बस आवश्यकता भर उनका इस्तेमाल कर अपनी कहानी पर टिके रहते हैं। 'पिज्जा' डिलीवरी ब्वॉय कुणाल और उसकी प्रेमिका निकिता की प्रेम कहानी भी है। दोनों इस शहर में अपनी जगह बनाने की कोशिश में हैं। निकिता अपनी कल्पना से घोस्ट स्टोरी लिखा करती है। उसकी कल्पना एक समय पर इतनी विस्तृत और पेचीदा हो जाती है कि वह कुणाल के साथ खुद भी उसमें शामिल हो जाती है। इस हॉरर फिल्म में अक्षय ने जबरदस्त रहस्य रचा है। आखिरी दृश्य तक फिल्म बांधे रखती है और जब रहस्य खुलत

दरअसल : बिमल राय-मुख्यधारा में यथार्थवादी फिल्म

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-अजय ब्रह्मात्मज      पिछली बार हम ने उनकी कुछ फिल्मों की चर्चा नहीं की थी। आजादी के बाद जब सारे फिल्मकार अपनी पहचान और दिशा खोज रहे थे,तभी जवाहर लाल नेहरू के प्रयास से 1952 की जनवरी में पहले मुंबई और फिर कोलकाता,दिल्ली,चेन्नई और तिरुअनंतपुरम में पहले इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल का आयोजन किया गया। इस फेस्टिवल के असर से अनेक फिल्मकार अपनी फिल्मों में यथार्थवाद की ओर झुके। हालांकि वामपंथी आंदोलन और इप्टा के प्रभाव से प्रगतिशील और यथार्थवादी दूरिूटकोण और शैली पर एक तबका जोर दे रहा था,लेकिन वह हाशिए पर था।इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में डिसिका जैसे फिल्मकारों की इतालवी फिल्मों को देखने के बाद भारतीय फिल्मकारों का साहस बढ़ा। तब हिंदी फिल्म इंडस्ट्री मुंबई में संकेंद्रित हो रही थी। देश भर से प्रतिभाएं व्यापक दर्शक और अधिकतम नाम और कमाई के लिए मुंबई मुखातिब हो रही थीँ। पिछले स्तंभ में हम ने बताया था कि अशोक कुमार के आग्रह और निमंत्रण पर बिमल राय भी मुंबई आ गए थे।      इस बार उनकी दो फिल्मों की विशेष चर्चा होगी। उनकी एक फिल्म है हमराही। 1944 में यह फिल्म आई थी। हमराही में उद्योगपति राजेन्द्रनाथ

ऐसी भी क्‍या जल्‍दी है -विक्रमादित्य मोटवानी

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-अजय ब्रह्मात्मज ‘उड़ान’ और ‘लूटेरा’ के निर्देशक विक्रमादित्य मोटवानी अपनी नई फिल्म के प्रिप्रोडक्शन में व्यस्त हैं। इसके साथ ही वे फैंटम फिल्म्स के प्रमुख कर्ता-धर्ता हैं। अनुराग कश्यप,विकास बहल और मधु मंटेना के साथ उन्होंने क्रिएटिव प्रोडक्शन कंपनी आरंभ की है। विक्रमादित्य मोटवानी की ‘लूटेरा’ इसी बैनर के तहत आई थी। - आप की फिल्म ‘लूटेरा’ को सराहना और प्रशंसा मिली,लेकिन वह सफल नहीं रही। कहां चूक हो गई? 0 फिल्म मैंने अपनी सोच से बनाई थी। पहले से अंदाजा था कि उसे मिक्स रेस्पांस मिलेगा। कुछ को पसंद आएगी तो कुछ को पसंद नहीं आएगी। हम सभी को यह पता था। मैं उसके लिए तैयार था। सराहना जबरदस्त मिली। अगर बाक्स आफिस पर भी समान परिणाम आता तो कमाल हो जाता। मार्केटिंग,डिस्ट्रीब्यूशन और अन्य चीजों पर फिल्म का बिजनेस निर्भर करता है। मेरा अनुभव कभी इंटरेस्टिंग रहा। -फिल्म रिलीज होने के बाद कोई निर्माता-निर्देशक उस पर बातें नहीं करता। आप तैयार हुए,लेकिन क्या कमियों के बारे में बताना चाहेंगे? 0 ‘उड़ान’ से ज्यादा सीख मुझे ‘लूटेरा’ ने दी। पता चला कि मैं कहां चूक गया। क्या बेहतर कर सकता था? कहां चूक हो गई

मन के काम में मजा है -अजय देवगन

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-अजय ब्रह्मात्मज पिछले दिनों अजय देवगन हैदराबाद की रामोजी राव फिल्मसिटी में ‘सिंघम रिटन्र्स’ की शूंटिंग कर रहे थे। यह 2011 में आई ‘सिंघम’ का सिक्वल है। अब बाजीराव सिंघम गोवा से ट्रांसफर होकर मुंबई आ गया है। यहां उसकी भिड़ंत अलग किस्म के व्यक्तियों से होती है। ये सभी राजनीति और सामाजिक आंदोलन की आड़ में अपने स्वार्थो में लगे हैं। हैदराबाद की रामोजी राव फिल्मसिटी रोहित शेट्टी को प्रिय है। वे यहां के नियंत्रित माहौल में शूूटिंग करना पसंद करते हैं। काम तेजी से होता है और लक्ष्य तिथि तक फिल्म पूरी करने में आसानी रहती है। ‘सिंघम रिटन्र्स’ 15 अगस्त को रिलीज होगी।     अजय देवगन पिछले कुछ समय से आजमाए हुए सफल निर्देशकों के साथ ही काम कर रहे हैं। रोहित शेट्टी के साथ उनकी खूब छनती है। फिल्मों में आने से पहले की उनकी दोस्ती का आधार परस्पर विश्वास है। ‘चेन्नई एक्सप्रेस’ के अलावा रोहित शेट्टी ने मुख्य रूप से अजय देवगन के साथ ही काम किया है। दोनों की जोड़ी हिट और सफल है। उन्होंने ‘सिंघम’ की शूटिंग 45 दिनों में कर ली थी। इस बार ़3 दिनों का ज्यादा समय मिला है। ‘सिंघम रिटन्र्स’ फलक और गहराई मे

लिखनी थी दिलचस्प किताब-पंकज दूबे

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-अजय ब्रह्मात्मज पेशे से पत्रकार रहे पंकज दूबे का पहला उपन्यास एक साथ हिंदी और अंग्रेजी में छपा। हिंदी में इसका नाम ‘लूजर कहीं का’ और अंग्रेजी में ‘ह्वाट अ लूजर’ है। दोनों ही भाषाओं में यह किताब बेस्ट सेलर रही है। पंकज दूबे में हिंदी-अंग्रेजी के विरले लेखकों में हैं,जो समान गति और ज्ञान से हिंदी और अंग्रेजी में लिख सकते हैं। अभी वे मुंबई मैं अपनी पत्नी श्रद्धा और बेटी कुग्गी के साथ रहते हैं। पंकज जल्द ही फिल्म निर्देशन में कदम रखना चाहते हैं। उनकी पहली फिल्म ‘लूजर कहीं का’ पर आधारित होगी। -क्या चल रहा है अभी? आप के पहले उपन्यास का जोरदार स्वागत हुआ। 0 ‘लूजर कहीं का’ अभी तक बिक ही रही है। इस बीच एक निर्माता ने इस उपन्यास के फिल्मांकन में रुचि दिखाई। मेरी योजना थी कि आराम से इसी पर स्क्रिप्ट तैयार करूंगा और फिर स्टूडियोज और निर्माताओं के पास जाऊंगा। मेरी तैयारी के पहले ही कोई तैयार हो गया। अभी मैं ‘लूजर कहीं का’ की स्क्रिप्ट लिख रहा हूं। -इतनी आसानी से निर्माता मिल गया? यहां तो निर्देशकों को लंबा स्ट्रगल करना पड़ता है? 0 स्ट्रगल तो मैंने भी किया है,लेकिन मैं उसे निर्देशक बनने की प्रक

फिल्‍म समीक्षा : हंप्‍टी शर्मा की दुल्‍हनिया

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-अजय ब्रह्मात्‍मज  हिदी फिल्मों की नई पीढ़ी का एक समूह हिंदी फिल्मों से ही प्रेरणा और साक्ष्य लेता है। करण जौहर की फिल्मों में पुरानी फिल्मों के रेफरेंस रहते हैं। पिछले सौ सालों में हिंदी फिल्मों का एक समाज बन गया है। युवा फिल्मकार जिंदगी के बजाय इन फिल्मों से किरदार ले रहे हैं। नई फिल्मों के किरदारों के सपने पुरानी फिल्मों के किरदारों की हकीकत बन चुके हरकतों से प्रभावित होते हैं। शशांक खेतान की फिल्म 'हंप्टी शर्मा की दुल्हनिया' आदित्य चोपड़ा की फिल्म 'दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे' की रीमेक या स्पूफ नहीं है। यह फिल्म सुविधानुसार पुरानी फिल्म से घटनाएं लेती है और उस पर नए दौर का मुलम्मा चढ़ा देती है। शशांक खेतान के लिए यह फिल्म बड़ी चुनौती रही होगी। उन्हें पुरानी फिल्म से अधिक अलग नहीं जाना था और एक नई फिल्म का आनंद भी देना था। चौधरी बलदेव सिंह की जगह सिंह साहब ने ले ली है। अमरीश पुरी की भूमिका में आशुतोष राणा हैं। समय के साथ पिता बदल गए हैं। वे बेटियों की भावनाओं को समझते हैं। थोड़ी छूट भी देते हैं, लेकिन वक्त पडऩे पर उनके अंदर का बलदेव सिंह जाग जाता

दरअसल : बिमल राय

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दरअसल ़ ़ ़ बिमल राय     पिछली सदी के छठे-सातवें दशक को हिंदी फिल्मों का स्वर्ण युग माना जाता है। स्वर्ण युग में के आसिफ, महबूब खान,राज कपूर,वी शांताराम और गुरूदत्त जैसे दिग्गज फिल्मकारों के साथ बिमल राय का भी नाम लिया जाता है। बिमल राय ने कोलकाता के न्यू थिएटर के साथ फिल्मी करिअर आरंभ किया। वहां वे बतौर फोटोग्राफर और कैमरामैन फिल्मों के निर्माण में सहयोग देते रहे। पीसी बरुआ और नितिन बोस के सान्निध्य में वे फिल्म निर्माण से परिचित हुए और निजी अभ्यास से निर्देशन में निष्णात हुए। बंगाल में रहते हुए उन्होंने बंगाली फिल्म ‘उदयेर पाथे’ का निर्देशन किया। बाद में यही फिल्म हिंदी में ‘हमराही’ नाम से बनी थी। फिल्म का नायक लेखक था,जो अपने शोषण के खिलाफ जूझता है। फिल्मों में सामाजिक यथार्थ और किरदारों के वास्तविक चित्रण का यह आरंभिक दौर था।     इस समय तक बंगाल विभाजन के प्रभाव में कोलकाता की फिल्म इंडस्ट्री टूट चुकी थी। आजादी के बाद लाहौर के पाकिस्तान में रह जाने और कोलकाता में फिल्म निर्माण कम होने से मुंबई में निर्माता-निर्देशको की जमघट और गतिविधियां बढ़ रही थीं। लाहौर से विस्थापित पंजाबी म

फिल्‍म समीक्षा : बॉबी जासूस

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-अजय ब्रह्मात्‍मज    इरादे की ईमानदारी फिल्म में झलकती है। 'बॉबी जासूस' का निर्माण दिया मिर्जा ने किया है। निर्देशक समर शेख हैं। यह उनकी पहली फिल्म है। उनकी मूल कहानी को ही संयुक्ता चावला शेख ने पटकथा का रूप दिया है। पति-पत्नी की पहनी कोशिश उम्मीद जगाती है। उन्हें विद्या बालन का भरपूर सहयोग और दिया मिर्जा का पुरजोर समर्थन मिला है। हैदराबाद के मुगलपुरा मोहल्ले के बिल्किश की यह कहानी किसी भी शहर के मध्यवर्गीय मोहल्ले में घटती दिखाई पड़ सकती है। हैदराबाद छोटा शहर नहीं है, लेकिन उसके कोने-अंतरों के मोहल्लों में आज भी छोटे शहरों की ठहरी हुई जिंदगी है। इस जिंदगी के बीच कुलबुलाती और अपनी पहचान को आतुर अनेक बिल्किशें मिल जाएंगी, जो बॉबी जासूस बनना चाहती हैं। मध्यवर्गीय परिवार अपनी बेटियों को लेकर इतने चिंतित और परेशान रहते हैं कि उम्र बढ़ते ही उनकी शादी कर वे निश्चिंत हो लेते हैं। बेटियों के सपने खिलने के पहले ही कुचल दिए जाते हैं। 'बॉबी जासूस' ऐसे ही सपनों और शान की ईमानदार फिल्म है। बिल्किश अपने परिवार की बड़ी बेटी है। उसका एक ही सपना है कि मोहल्ले

फिल्‍म समीक्षा : लेकर हम दीवाना दिल

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-अजय ब्रह्मात्‍मज          दक्षिण मुंबई और दक्षिण दिल्ली के युवक-युवतियों के लिए बस्तर और दांतेवाड़ा अखबारों में छपे शब्द और टीवी पर सुनी गई ध्वनियां मात्र हैं। फिल्म के लेखक और निर्देशक भी देश की कठोर सच्चाई के गवाह इन दोनों स्थानों के बारे में बगैर कुछ जाने-समझे फिल्म में इस्तेमाल करें तो संदर्भ और मनोरंजन भ्रष्ट हो जाता है। 'लेकर हम दीवाना दिल' में माओवादी समूह का प्रसंग लेखक-निर्देशककी नासमझी का परिचय देता है। मुंबई से भागे प्रेमी युगल संयोग से यहां पहुंचते हैं और माओवादियों की गिरफ्त में आ जाते हैं। माओवादियों ने एक फिल्म यूनिट को भी घेर रखा है। उन्हें छोडऩे के पहले वे उनसे एक आइटम सॉन्ग की फरमाइश करते हैं। हिंदी फिल्मों में लंबे समय तक आदिवासियों और बंजारों का कमोबेश इसी रूप में इस्तेमाल होता रहा है। माओवादी 21वीं सदी की हिंदी फिल्मों के आदिवासी और बंजारे हैं। 'लेकर हम दीवाना दिल' आरिफ अली की पहली फिल्म है। आरिफ अली मशहूर निर्देशक इम्तियाज अली के भाई हैं। अभिव्यक्ति के किसी भी कला माध्यम में निकट के मित्रों और संबंधियों का

दरअसल : नहीं याद आए ख्वाजा अहमद अब्बास

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-अजय ब्रह्मात्मज पिछले महीने 7 जून को ख्वाजा अहमद अब्बास की 100 वीं सालगिरह थी। 21 साल पहले 1 जून 1987 को वे दुनिया से कूच कर गए थे। किशोरावस्था से प्रगतिशील विचारों से लैस ख्वाजा अहमद अब्बास मुंबई आने के बाद इप्टा में एक्टिव में रहे। अखबारों के लिए नियमित स्तंंभ लिखे। उन्होंने पहले ‘बांबे क्रॉनिकल’ और फिर ‘ब्लिट्ज’  के लिए ‘लास्ट पेज’ स्तंभ लिखा। वे फिल्मों की समीक्षाएं भी लिखा करते थे। आज की तरह ही तब के साधारण फिल्मकार अपनी बुरी फिल्मों की आलोचना पर बिदक जाते थे। किसी ने एक बार कह दिया कि आलोचना करना आसान है। कभी कोई फिल्म लिख क दिखाएं। ख्वाजा अहमद अब्बास ने इसे अपनी आन पर ले लिया। उन्होंने पत्रकारिता के अपने अनुभवों को फिल्म की स्क्रिप्ट में बदला। वे बांबे टाकीज की मालकिन और अभिनेत्री देविका रानी से मिले। देविका रानी ने उस पटकथा पर अशोक कुमार के साथ ‘नया संसार’ 1941 नामक फिल्म का निर्माण किया। इसे एनआर आचार्य ने निर्देशन किया था? निर्देशन में आने के पहले वे भी पत्रकार थे। क्रांतिकारी पत्रकारिता की थीम पर बनी यह फिल्म खूब चली थी। बाद में ख्वाजा अहमद अब्बास ने फिल्म निर्माण और नि