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फिल्‍म समीक्षा : बॉबी जासूस

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-अजय ब्रह्मात्‍मज    इरादे की ईमानदारी फिल्म में झलकती है। 'बॉबी जासूस' का निर्माण दिया मिर्जा ने किया है। निर्देशक समर शेख हैं। यह उनकी पहली फिल्म है। उनकी मूल कहानी को ही संयुक्ता चावला शेख ने पटकथा का रूप दिया है। पति-पत्नी की पहनी कोशिश उम्मीद जगाती है। उन्हें विद्या बालन का भरपूर सहयोग और दिया मिर्जा का पुरजोर समर्थन मिला है। हैदराबाद के मुगलपुरा मोहल्ले के बिल्किश की यह कहानी किसी भी शहर के मध्यवर्गीय मोहल्ले में घटती दिखाई पड़ सकती है। हैदराबाद छोटा शहर नहीं है, लेकिन उसके कोने-अंतरों के मोहल्लों में आज भी छोटे शहरों की ठहरी हुई जिंदगी है। इस जिंदगी के बीच कुलबुलाती और अपनी पहचान को आतुर अनेक बिल्किशें मिल जाएंगी, जो बॉबी जासूस बनना चाहती हैं। मध्यवर्गीय परिवार अपनी बेटियों को लेकर इतने चिंतित और परेशान रहते हैं कि उम्र बढ़ते ही उनकी शादी कर वे निश्चिंत हो लेते हैं। बेटियों के सपने खिलने के पहले ही कुचल दिए जाते हैं। 'बॉबी जासूस' ऐसे ही सपनों और शान की ईमानदार फिल्म है। बिल्किश अपने परिवार की बड़ी बेटी है। उसका एक ही सपना है कि मोहल्ले

फिल्‍म समीक्षा : लेकर हम दीवाना दिल

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-अजय ब्रह्मात्‍मज          दक्षिण मुंबई और दक्षिण दिल्ली के युवक-युवतियों के लिए बस्तर और दांतेवाड़ा अखबारों में छपे शब्द और टीवी पर सुनी गई ध्वनियां मात्र हैं। फिल्म के लेखक और निर्देशक भी देश की कठोर सच्चाई के गवाह इन दोनों स्थानों के बारे में बगैर कुछ जाने-समझे फिल्म में इस्तेमाल करें तो संदर्भ और मनोरंजन भ्रष्ट हो जाता है। 'लेकर हम दीवाना दिल' में माओवादी समूह का प्रसंग लेखक-निर्देशककी नासमझी का परिचय देता है। मुंबई से भागे प्रेमी युगल संयोग से यहां पहुंचते हैं और माओवादियों की गिरफ्त में आ जाते हैं। माओवादियों ने एक फिल्म यूनिट को भी घेर रखा है। उन्हें छोडऩे के पहले वे उनसे एक आइटम सॉन्ग की फरमाइश करते हैं। हिंदी फिल्मों में लंबे समय तक आदिवासियों और बंजारों का कमोबेश इसी रूप में इस्तेमाल होता रहा है। माओवादी 21वीं सदी की हिंदी फिल्मों के आदिवासी और बंजारे हैं। 'लेकर हम दीवाना दिल' आरिफ अली की पहली फिल्म है। आरिफ अली मशहूर निर्देशक इम्तियाज अली के भाई हैं। अभिव्यक्ति के किसी भी कला माध्यम में निकट के मित्रों और संबंधियों का

दरअसल : नहीं याद आए ख्वाजा अहमद अब्बास

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-अजय ब्रह्मात्मज पिछले महीने 7 जून को ख्वाजा अहमद अब्बास की 100 वीं सालगिरह थी। 21 साल पहले 1 जून 1987 को वे दुनिया से कूच कर गए थे। किशोरावस्था से प्रगतिशील विचारों से लैस ख्वाजा अहमद अब्बास मुंबई आने के बाद इप्टा में एक्टिव में रहे। अखबारों के लिए नियमित स्तंंभ लिखे। उन्होंने पहले ‘बांबे क्रॉनिकल’ और फिर ‘ब्लिट्ज’  के लिए ‘लास्ट पेज’ स्तंभ लिखा। वे फिल्मों की समीक्षाएं भी लिखा करते थे। आज की तरह ही तब के साधारण फिल्मकार अपनी बुरी फिल्मों की आलोचना पर बिदक जाते थे। किसी ने एक बार कह दिया कि आलोचना करना आसान है। कभी कोई फिल्म लिख क दिखाएं। ख्वाजा अहमद अब्बास ने इसे अपनी आन पर ले लिया। उन्होंने पत्रकारिता के अपने अनुभवों को फिल्म की स्क्रिप्ट में बदला। वे बांबे टाकीज की मालकिन और अभिनेत्री देविका रानी से मिले। देविका रानी ने उस पटकथा पर अशोक कुमार के साथ ‘नया संसार’ 1941 नामक फिल्म का निर्माण किया। इसे एनआर आचार्य ने निर्देशन किया था? निर्देशन में आने के पहले वे भी पत्रकार थे। क्रांतिकारी पत्रकारिता की थीम पर बनी यह फिल्म खूब चली थी। बाद में ख्वाजा अहमद अब्बास ने फिल्म निर्माण और नि

मधुमती का बुकलेट

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सिनेमा के छात्र,अध्‍येता और कर्ता इसे अवश्‍य देखें और पढ़ें1 पहले यह चलन था कि फिल्‍म के साथ ऐसे बुकलेट छापे जाते थे। इसमें  कथासार,गाने और कल‍ाकारों तकनीशियनों की सूची रहती थी। इन दिनों हर कोई कहानी बताने या सुनाने से परहेज करता है। पहले ऐसा कोई डर नहीं रहता था। बिमल राय की मधुमती का यह बुकलेट मुझे उनकी बेटी रिंकी राय भट्टाचार्य के सौजन्‍य से मिला। बिमल राय के समय और जीवन पर एक प्रदर्शनी आगामी 7 जुलाई से मुंबई के छत्रपति शिवाजी महाराज वास्‍तु संग्रहालय के क्‍यूरेटर गैलरी में आरंभ हो रही है। इसका उद़्घाटन हंसल मेहता करेंगे।। भारत में हम हर साल सैकड़ों फिल्‍में बनाते हैं और लगभग उतने ही नष्‍ट भी कर देते हैं। तात्‍पर्य यह कि फिल्‍मों का संग्रहालय तो है ,लेकिन उसके रख-रखाव और संरक्षण पर पर्याप्‍त्‍ा ध्‍यान नहीं दिया जाता। स्‍वयं निर्माताओं की भी संरक्षण में रुचि नहीं रहती।        

किरदार में डूब कर मिलती है कामयाबी : विद्या

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सशक्त अभिनेत्रियों की फेहरिस्त में विद्या बालन अग्रिम कतार में आती हैं। उनकी हालिया फिल्म ‘शादी के साइड इफेक्ट्स’ बॉक्स ऑफिस चमक बिखेर नहीं सकी, मगर वे जल्द ‘बॉबी जासूस’ से वापसी करने की तैयारी में हैं। उनके करियर को रवानगी प्रदान करने में ‘कहानी’ और ‘द डर्टी पिक्चर’ की अहम भूमिका रही है। अदाकारी को लेकर उनका अप्रोच जरा हटके है। वे साझा कर रही हैं अपनी कार्यप्रणाली     मैं किरदार की आत्मा में उतरने के लिए आमतौर पर स्क्रिप्ट को बड़े ध्यान से सुनती और पढ़ती हूं। मैं किरदार की अपनी पृष्ठभूमि तैयार करती हूं। अक्सर किरदार से प्यार करने लग जाती हूं और फिर उसे पोट्रे करती हूं। उस लिहाज से मेरे करियर में ‘कहानी’ सबसे चुनौतीपूर्ण फिल्म रही है। विद्या बागची को मुझे कैसे पेश करना है, वह मेरी समझ में परे था। सुजॉय घोष ने भी मुझे पूरी स्क्रिप्ट नहीं सुनाई थी। उन्होंने मुझे बस उसकी एक लाइन सुनाई। उसके आगे विद्या बागची के किरदार की कहानी बस कहानी थी। उसका एक फायदा यह हुआ कि मैं विद्या बागची के चेहरे पर असमंजस भाव लगातार कायम रख सकी। मैं उसे परफॉरमेंस नहीं कहूंगी। मैंने उस किरदार को जिया। उसे नि

फिल्‍म समीक्षा : एक विलेन

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एंग्री यंग मैन की वापसी   -अजय ब्रमात्‍मज    गणपति और दुर्गा पूजा के समय मंडपों में सज्जाकार रंगीन रोशनी, हवा और पन्नियों से लहकती आग का भ्रम पैदा करते हैं। दूर से देखें या तस्वीर उतारें तो लगता है कि आग लहक रही है। कभी पास जाकर देखें तो उस आग में दहक नहीं होती है। आग का मूल गुण है दहक। मोहित सूरी की चर्चित फिल्म में यही दहक गायब है। फिल्म के विज्ञापन और नियोजित प्रचार से एक बेहतरीन थ्रिलर-इमोशनल फिल्म की उम्मीद बनी थी। इस विधा की दूसरी फिल्मों की अपेक्षा 'एक विलेन' में रोमांच और इमोशन ज्यादा है। नई प्रतिभाओं की अभिनय ऊर्जा भी है। रितेश देशमुख बदले अंदाज में प्रभावित करते हैं। संगीत मधुर और भावपूर्ण है। इन सबके बावजूद जो कमी महसूस होती है, वह यही दहक है। फिल्म आखिरी प्रभाव में बेअसर हो जाती है। नियमित रूप से विदेशी फिल्में देखने वालों का 'एक विलेन' में कोरियाई फिल्म 'आई सॉ द डेविलÓ की झलक देख सकते हैं। निस्संदेह 'एक विलेन' का आइडिया वहीं से लिया गया है। उसमें प्रेम और भावना की छौंक लगाने के साथ संगीत का पुट मिला दिया गया है। जैसे कि हम

दरअसल : टीवी में मिलती है ट्रेनिंग

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-अजय ब्रह्मात्मज     इन दिनों सक्रिय अधिकांश फिल्म निर्देशकों के काम को पलट कर देखें तो पाएंगे कि उन्होंने किसी न किसी टीवी शो से शुरुआत की। अभी जो नाम याद आ रहे हैं, उनमें साजिद खान, हंसल मेहता,इम्तियाज अली, अनुराग कश्यप, विशाल भारद्वाज, अनुराग बसु, श्रीराम राघवन, ईशान त्रिवेदी, अनुभव कश्यप, अश्विनी धीर, चंद्रप्रकाश द्विवेदी आदि ने पहले टीवी के लिए शो या धारावाहिक निर्देशित किए। बाद में उन्होंने फिल्मों में हाथ आजमाया और सफल रहे।     इन सभी ने दूरदर्शन और उसके बाद के दौर में सैटेलाइट टीवी के प्रसार के समय इस क्षेत्र में प्रवेश किया। यह वह दौर था, जब फिल्मों के निर्देशक टीवी शो को अपेक्षाकृत छोटा काम समझते थे। आज भी इस समझ में अधिक बदलाव नहीं आया है। एक बार टीवी की दुनिया से फिल्मों में प्रवेश करने के बाद निर्देशक टीवी की तरफ नहीं लौटते। दोनों अनुराग (बसु और कश्यप) अपवाद हो सकते हैं। इन दोनों ने फिल्मों में कामयाबी हासिल करने के बाद भी टीवी को हेय दृष्टि से नहीं देखा। अनुराग कश्यप का ‘युद्ध’ धारावाहिक जल्द ही प्रसारित होगा।     21वीं सदी के सिनेमा में आए बदलाव में इन निर्देशकों ने उत

चमकने लगे हैं नए सितारे

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-अजय ब्रह्मात्मज     हिंदी फिल्मों में कुछ सितारे ध्रुवतारे की तरह टिक गए हैं। दशकों से कामयाब इन सितारों की चमक फीकी नहीं पड़ रही है। दर्शक भी इन्हें पसंद करते हैं। वे इनकी फिल्मों के लिए उतावले होते हैं। खानत्रयी (आमिर, सलमान और शाहरुख) का जादू अभी तक बरकरार है। इस साल के आरंभ में सलमान खान की ‘जय हो’ आ चुकी है। हालांकि इस फिल्म ने अच्छा कारोबार नहीं किया, फिर भी कलेक्शन 100 करोड़ से अधिक रहा। 2014 की दूसरी छमाही में आमिर, सलमान और शाहरुख का जलवा दिखेगा। ईद, दीवाली और क्रिसमस के मौके पर आ रही इनकी फिल्में देश के सभी सिनेमाघरों में त्योहार का माहौल बनाएंगी।     इस बीच पिछले छह महीनों में या यूं कहें कि 2014 की पहली छमाही में कुछ नए सितारों ने अपनी चमक दिखाई है। हिंदी फिल्मों में नवोदित सितारों की ऐसी चमक लंबे समय के बाद नोटिस की जा ही है। ये सभी सितारे अपनी दूसरी-तीसरी फिल्मों से बाजार, इंडस्ट्री और दर्शकों को भरोसा दे रहे हैं कि वे अपनी सामथ्र्य से दर्शकों को एंटरटेन करने के लिए तैयार हैं। इन सितारों की फिल्मों का बिजनेस संतोषजनक है। वे पुराने लोकप्रिय सितारों की परंपरा आगे बढ़ान

2014 की दूसरी छमाही की 10 उम्‍मीदें

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-अजय ब्रह्मात्मज     हिंदी फिल्मों के सारे दिग्गज और पापुलर सितारों की फिल्में अगली छमाही में रिलीज होगी। जुलाई से दिसंबर के छह महीनों में हर महीना और हर त्योहार किसी न किसी सितारे के नाम सुरक्षित हो चुका है। पिछले कुछ सालों से यह ट्रेड सा बनता जा रहा है कि पापुलर स्टार अपनी फिल्में साल के उत्तरार्द्ध में लेकर आते हैं। ईद पर सलमान खान, दीवाली पर शाहरुख खान और क्रिसमस पर आमिर खान ने अपनी फिल्मों की रिलीज सुनिश्चित कर ली है। इनकी फिल्मों के एक हफ्ते पहले से एक हफ्ते बाद तक कोई भी फिल्म टक्कर में नहीं आती। वैसे इस बार रिलीज की तारीखों की मारामारी से कुछ फिल्में आगे-पीछे रिलीज होंगी। खानत्रयी के अलावा अक्षय कुमार, अजय देवगन, रितिक रोशन और सैफ अली खान की भी फिल्में रहेंगी। इनके अलावा नए सितारे रणवीर सिंह और रणबीर कपूर भी जोर आजमाईश करेंगे। रणबीर कपूर की तो फिल्में अगली छमाही में रिलीज होंगी। 1. पीके - राजकुमार हिरानी की ‘पीके’ पर सभी की निगाहें टिकी हैं। ‘3 इडियट’ की जबरदस्त कामयाबी के राजकुमार हिरानी फिर से आमिर खान के साथ आ रहे हैं। आमिर का परफेक्शन और हिरानी का डायरेक्शन एक बार फिर ब

शक्तिपाद राजगुरू

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  -प्रकाश के रे  जीवन की अर्थहीनता मनुष्य को उसका अर्थ रचने के लिए विवश करती है . यह अर्थ - रचना लिखित हो सकती है , विचारों के रूप में हो सकती है , इसे फिल्म के रूप में भी अभिव्यक्त किया जा सकता है . महान फिल्मकार स्टेनली क्यूब्रिक के इस कथन को हम किसी लिखित या वाचिक अभिव्यक्ति को फिल्म का रूप देने या किसी फिल्म को कहने या लिखने की स्थिति में रख दें , जो जीवन के अर्थ रचने की प्रक्रिया जटिलतर हो जाती है . शायद ऐसी स्थितियों में ही देश और काल से परे कृतियों का सृजन होता होगा तथा ऐसी कृतियां स्वयं में एक अलग जीवन रच देती होंगी जिनके अर्थों की पुनर्चना की आवश्यकता होती होगी या जिनसे पूर्वरचित अर्थों को नये माने मिलते होंगे . ॠत्विक घटक की फिल्म मेघे ढाका तारा (1960) एक ऐसी ही रचना है . इस फिल्म की मूल कथा शक्तिपाद राजगुरू ने लिखी थी . इस महान बांग्ला साहित्यकार का 12 जून को  92 वर्ष की उम्र में निधन हो गया . बंगाल के एक गांव में 1922 में जन्मे शक्तिपाद राजगुरू का पहला उपन्यास कोलकता में पढ़ाई करते हुए 1945 में प्रकाशित हुआ . उन्होंने अपने लंबे सृजनात्मक जीवन में सौ से अधिक उपन्य