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लैं‍गिक समानता पर प्रियंका चोपड़़ा

फिल्‍म समीक्षा : मंजुनाथ

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-अजय ब्रह्मात्‍मज  लालच और उपभोक्तावाद के इस दौर में मंजुनाथ की ईमानदारी और निष्ठा पर अधिकांश व्यक्तियों की यही प्रतिक्रिया होगी, 'इडियट था साला'। क्या मंजुनाथ षणमुगम सचमुच इडियट था? क्या उसने अपनी जिद्द के साथ आ रही मौत की आहट नहीं सुनी होगी? ऐसी क्या बात थी कि वह ऑयल माफिया से टकरा गया? संदीप वर्मा की फिल्म 'मंजुनाथ' मंजुनाथ षणमुगम के बॉयोपिक में इन सवालों से सीधे नहीं टकराती। वह षणमुगम की सरल ईमानदारी को ज्यों का त्यों पेश कर देती है। उसे देखते हुए हमें मंजुनाथ के साहस का एहसास होता है। भ्रष्ट संसार पर गुस्सा आता है और खुद पर शर्म आती है। आखिर क्यों हम सभी ने 'चलता है' एटीट्यूड अपना लिया है? भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाने और टकराने के बजाए हम क्यों खामोश और ठंडे पड़ जाते हैं? मंजुनाथ का व्यक्तित्व इस फिल्म के माध्यम सक हमारे जमीर को झकझोरता है। संदीप वर्मा ने मंजुनाथ की इस कहानी के लिए हिंदी फिल्मों के लोकप्रिय चेहरों का सहारा नहीं लिया है। मंजुनाथ की शीर्षक भूमिका में सशो सतीश सारथी का चयन उल्लेखनीय है। सतीश सारथी के अभिनय और चरित्रांकन में

फिल्‍म समीक्षा : मस्‍तराम

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[अजय ब्रह्मात्मज]  अश्लील और कामुक साहित्य के लेखक के रूप में किंवदंती बन चुके मस्तराम को पहचानने और पूरी विडंबना के साथ उसे पेश करने की कोशिश है 'मस्तराम'। लेखक-निर्देशक अखिलेश जायसवाल ने इस फिल्म के जरिए भारतीय समाज में व्याप्त ढोंग को भी जाहिर किया है। भारतीय समाज में सेक्स अभी तक वर्जित विषय है। हम इस विषय पर किसी भी किस्म की चर्चा से परहेज करते हैं, जबकि समाज में निचले स्तर पर यह गुप्त रूप से लोकप्रिय मुद्दा है। देश का नियम-कानून समाज में अश्लील साहित्य की खरीद-बिक्री की अनुमति नहीं देता, लेकिन मस्तराम जैसे लेखकों की मांग और लोकप्रियता बताती है कि ऐसे साहित्य और सामग्रियों की जरूरत बनी रहती है। फिल्म का नायक राजाराम का छिपा रूप है मस्तराम। वह सामाजिक दबाव में खुल कर सामने नहीं आता। प्रकाशकों के दबाव में आकर वह मसालेदार लेखन से पैसे तो कमा लेता है, लेकिन वह अपना नाम नहीं जाहिर कर सकता। 'मन की विलोचना' नाम से लिखे उसके गंभीर उपन्यास के पाठक नहीं हैं। दरअसल 'मस्तराम' भारतीय समाज में प्रचलित पाखंड को उजागर करती है। लेखक-निर्देशक ने विषय के

फिल्‍म समीक्षा : ये है बकरापुर

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बकरे के बहाने व्यंग्य ये है बकरापुर     एक बकरे के बहाने भारतीय समाज की कहानी कहती ‘ये है बकरापुर’ छोटी और सारगर्भित फिल्म है। कुरैशी परिवार की आखिरी उम्मीद है यह बकरा, जिसे शाहरुख नाम दिया गया है। वह बकरा परिवार के बच्चे जुल्फी का दोस्त है। जब उसे बेचने की बात आती है तो जुल्फी दुखी हो जाता है। ऐसे वक्त में जाफर की एक युक्ति काम आती है। इस से बकरा परिवार में रहने के साथ ही आमदनी का जरिया भी बन जाता है। बकरे से हो रही आमदनी को देख कर गांव के दूसरे समुदाय के लोग भी हक जमाने आ जाते हैं। और फिर सामने आता है सामाजिक अंतर्विरोध।     ‘ये है बकरापुर’ व्यंग्यात्मक तरीके से हमारे समाज की विसंगति को जाहिर करती है। बकरे के नाम पर धर्म, राजनीति और स्वार्थ की रोटियां सेंकी जाती हैं। जानकी विश्वनाथन ने इस छोटी फिल्म में किसी निष्कर्ष तक नहीं पहुंचती हैं। शायद यह उनका उद्देश्य भी नहीं है। फिल्म केवल अंतर्विरोधों को प्रकट कर देती है। निर्देशक ने अपना पक्ष भी नहीं रखा है।     अच्छी बात है कि ऐसे विषयों पर फिल्मों की कल्पना की जा रही है। निर्देशक का आत्मविश्वास कथ्य के चयन में नजर आता है। कथ्य के अनुरू

फिल्‍म समीक्षा : कोयलांचल

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-अजय ब्रह्मात्‍मज  आशु त्रिखा की फिल्म 'कोयलांचल' कुख्यात कोल माफिया की जमीन को टटोलती हुई एक ऐसे किरदार की कहानी कहती है, जिसकी क्रूरता एक शिशु की मासूम प्रतिक्रियाओं से बदल जाती है। आशु त्रिखा ने मूल कहानी तक पहुंचने के पहले परिवेश चित्रित करने में ज्यादा वक्त लगा दिया है। नाम और इंटरवल के पहले के विस्तृत निरूपण से लग सकता है कि यह फिल्म कोल माफिया के तौर-तरीकों पर केंद्रित होगी। आरंभिक विस्तार से यह गलतफहमी पैदा होती है। 'कोयलांचल' में व्याप्त हिंसा और गैरकानूनी हरकतों को आशु त्रिखा ने बहुत अच्छी तरह चित्रित किया है। मालिक (विनोद खन्ना) के अमर्यादित और अवैध व्यवहार की मुख्य शक्ति एक व्यक्ति करुआ है। मालिक के इशारे पर मौत को धत्ता देकर कुछ भी कर गुजरने के लिए तैयार करुआ स्वभाव से हिंसक है। संयोगवश एक शिशु के संपर्क में आने पर उसकी क्रूरता कम होती है। वह संवेदनाओं से परिचित होता है। वह पश्चाताप करता है और अपने व्यवहार में बदलाव लाता है। इस फिल्म में हिंसा जघन्यतम रूप में दिखती है। आशु त्रिखा का उद्देश्य अपने मुख्य किरदार को पेश करने के लिए उचि

फिल्‍म समीक्षा : हवा हवाई

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-अजय ब्रह्मात्‍मज  अमोल गुप्ते में बाल सुलभ जिज्ञासा और जीत की आकांक्षा है। उनके बाल नायक किसी होड़ में शामिल नहीं होते, लेकिन अपनी जीतोड़ कोशिश से स्वयं ही सबसे आगे निकल जाते हैं। इस वजह से उनकी फिल्में नैसर्गिक लगती हैं। फिल्म निर्देशन और निर्माण किसी विचार की बेहतरीन तकनीकी प्रोसेसिंग है, जिसमें कई बार तकनीक हावी होने से कृत्रिमता आ जाती है। अमोल गुप्ते इस कृत्रिमता से अपनी फिल्मों को बचा लेते हैं। अमोल गुप्ते की 'हवा हवाई' के बाल कलाकार निश्चित ही उस परिवेश से नहीं आते हैं, जिन किरदारों को उन्होंने निभाया है। फिर भी उनकी मासूमियत और प्रतिक्रिया सहज और सरल लगती है। उनके अभिनय में कथ्य या उद्देश्य का दबाव नहीं है। एक मस्ती है। कुछ सपने सोने नहीं देते। अर्जुन हरिश्चंद्र वाघमारे उर्फ राजू का भी एक सपना है। पिता की मृत्यु के बाद वह एक चायवाले के यहां काम करता है। कुछ बच्चों को रोलरब्लेडिंग करते देख कर उसकी भी इच्छा होती है कि अगर मौका मिले तो वह भी अपने पांवों पर सरपट भाग सकता है। पहली समस्या तो यही है कि रोलरब्लेड कहां से आए? उसकी कीमत के पैसे तो हैं नहीं। र

दरअसल : अमेरिका में आईफा

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-अजय ब्रह्मात्मज         पूरी दुनिया में मनोरंजन जगत से जुड़े लोगों ने पिछले दिनों दो तस्वीरों को बड़े गौर से देखा। एक तस्वीर मैं जॉन टै्रवोल्टा हिंदी फिल्मों की अभिनेत्री प्रियंका चोपड़ा के साथ ठुमके लगा रहे थे। दूसरी तस्वीर में केविन स्पेसी दीपिका पादुकोण के साथ लुंगी डांस कर रहे थे। दोनों ही घटनाएं अप्रत्याशित थीं। तारीफ करनी होगी कि जॉन ट्रैवोल्टा और केविन स्पेसी ने बगैर किसी ना-नुकूर के दोनों वक्त मंच पर पूरे जोश के साथ नृत्यों में हिस्सा लिया। उनकी ये तस्वीरें मीडिया में विभिन्न माध्यमों से फ्लैश हुईं। सहसा यकीन नहीं हुआ कि ऐसा भी हो सकता है,लेकिन ऐसा हुआ। पिछले दिनों अमेरिका के फ्लोरिडा स्टेट के टेम्पा शहर में 15वां आईफा अवार्ड समारोह आयोजित किया गया था। हालीवुड के दोनों नामवर कलाकार उसी समारोह के खास अतिथि थे।         आईफा हिंदी फिल्मों के अवार्ड और समारोह का अनोखा आयोजन है। यह साल में एक बार दुनिया के किसी भी देश के प्रमुख शहर में आयोजित होता है। स्थानीय प्रशासन और नागरिकों की मदद से संपन्न आईफा अवार्ड समारोहों में मुख्य रूप से विदेशों में बसे हिंदी फिल्मों के प्रेमी अपने

बालिकाओं पर प्रियंका चोपड़ा के विचार

यहां प्रियंका चोपड़ा ने बालिकाओं और भारतीय समाज की मानसिकता की बातें की हैंं। उनकी स्‍पष्‍टता प्रभावित करती है।

चौंकना और चौंकाना चाहती हूं-माही गिल

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-अजय ब्रह्मात्मज - किस मानसिक अवस्था में हैं अभी आप? 0 अभी मैं केवल घर के बारे में सोच रही हूं। पिछले कुछ समय से कोई शूटिंग नहीं की है। जहां रहती हूं, उसे सुंदर बनाने पर ध्यान दे रही हूं। यों भी फिल्मों की रिलीज के बाद मैं अक्सर गायब हो जाती हूं। जल्दी ही कहीं लंबी यात्रा पर निकलूंगी। - अभी तक के फिल्मी सफर को किसी रूप में देखती हैं? 0 मैं सही समय पर फिल्मों में आई। इन दिनों दर्शक नए प्रयोग पसंद कर रहे हैं। मैंने कुछ फिल्में कर ली हैं, लेकिन अभी बहुत करना बाकी है। अलग-अलग जोनर की फिल्में करूंगी। मैंने अभी तक ढंग से रोमांस नहीं किया है। हॉरर और एक्शन बाकी है। कॉमेडी फिल्म भी करनी है। - इस सफर में क्या सीखा और आत्मसात किया? 0 कई एक्टर और डायरेक्टर मिले। उनसे सीखा और समझा। अनुराग कश्यप में बच्चों जैसा उत्साह है। वे प्रेरित करते हैं। तिग्मांशु धूलिया खुद बहुत अच्छे अभिनेता हैं। वे आपकी तैयारी को परिमार्जित कर देते हैं। उनके सुझाव इंटरेस्टिंग होते हैं। रामगोपाल वर्मा के प्रयोगों में मजा आया। सतीश कौशिक के साथ पुराने समय और तरीके को समझा। - ‘देव डी’  में आप के आगमन ने चौंका दिया था। बाद

पत्रलेखा

सिटीलाइट्स की नायिका की भूमिका निभा रही पत्रलेखा शिलांग की हैं। सिटीलाइट्स उनकी पहली फिल्‍म है।