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दरअसल : रिलीज के पहले की ‘प्रोमोशनल एक्टिविटी

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-अजय ब्रह्मात्मज     फिल्मों की रिलीज से पहले इन दिनों स्टार कलाकारों की स्थिति, गति और हालत भारतीय पारंपरिक विवाह के दूल्हे-दुल्हन जैसी हो जाती है,जिन्हें विवाह के विधि-विधान और संस्कारों की कोई जानकारी नहीं रहती। मां-बाप, परिवार के सदस्य और फिर पंडित के कहे मुताबिक वे सारी चर्याएं पूरी करते हैं। मेरे एक मित्र ने पंडित जी से एक बार पूछ लिया था कि अग्नि में चम्मच से तीन बार घी क्यों डालते हैं? क्या एक साथ कटोरी से घी नहीं डाल सकते। पंडित जी के पास जवाब नहीं था और मां-बाप नाराज हो गए थे। दोस्तों ने सलाह दी कि पूछो मत। कर दो पंडित जी जो कह रहे हैं। दरअसल, विवाह की तरह ही फिल्मों की रिलीज भी एक अनुष्ठान है। स्टार दूल्हा-दुल्हन हैं। उन्हें बगैर सवाल किए चरण स्पर्श से लेकर विधि-विधान निभाने पडते हैं। रिलीज के बाद फिल्मों की नई जिंदगी आरंभ होती है।     पिछले दिनों सलमान खान मुलायम सिंह यादव के सैफई महोत्सव में नाच आए। फिर मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी से मिले। उनके आलोचकों ने उनकी इन गतिविधियों की निंदा की। तटस्थ किस्म के प्रशंसकों को है

कमल स्‍वरूप-3

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कमल स्‍वरूप से हुई बातचीत अभी जारी है। उनके प्रशंसकों,पाठकों और दर्शकों के लिए उन्‍हें पढ़ना रोचक है। सिनेमा के छात्र और अध्‍यापक...फिल्‍मकार भी इस बातचीत से लाभान्वित हो सकते हैं। अबर आप कमल स्‍वरूप की फिल्‍म या उन पर कुछ लिखना चाहें तो स्‍वागत है। chavannichap@gmail.com पते पर भेज दें। सिनेमा के तीन चरण महत्‍वपूर्ण होता है। पहला ट्रांजिशन होता है। फिर ट्रांसफर होता है और अंत में ट्रांसफॉर्मेशन होता है। एक शॉट में ही ये तीनों चीजें हो जाती हैं। अगर कुछ घटित न हो तो शॉट पूरा नहीं माना जाता है। जैसे साहित्‍य कई प्रकार का होता है, वैसे ही सिनेमा भी कई प्रकार का होता है। हमारे यहां शॉट में एक्‍टर परफॉर्म कर रहे होते हैं। यह नौटंकी का विस्‍तार है। इसे सिनेमा नहीं कह सकते। सलवा डोर डाली ने दावा किया था कि उनके बिंब पढ़े नहीं जा सकते। वे पाठ के लिए नहीं हैं, क्‍योंकि वे स्‍वप्‍नबिंब हैं। सिनेमा के बिंब अनिर्वचनीय होते हैं। नई पीढ़ी के बच्‍चे इन्‍हें समझते हैं। वे शब्‍दों में लिखने-पढ़ने के बजाए बिंबों में व्‍यक्‍त करते हैं। उनकी भाषा शाब्दिक नहीं है। वे रंग, बिंब और चित्रों से अपनी

क्योँ न फटा धरती का कलेजा, क्योँ न फटा आकाश - अरव्रिद कुमार

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अरविंद कुमार का यह लेख उनके ब्‍लॉग से लिया गया है। यह ऐतिहासिक लेख है। अरविंद कुमार लंबे समय तक माधुरी के संपादक रहे। पह दौर हिंदी फिल्‍म पत्रकारिता का संधान और उत्‍कर्ष था। —अरविंद कुमार दिन 1 – 1963 आर. के. स्टूडियोज़ के मुख्य ब्लाक में पहली मंज़िल पर छोटे से फ़िल्म संपादन कक्ष में राज कपूर और मैं नितांत अकेले थे. उन के पास मुझे छोड़ कर शैलेंद्र न जाने कहाँ चले गए. 1963 के नवंबर का अंतिम या दिसंबर का पहला सप्ताह था. दिल्ली से बंबई आए मुझे पंदरह-बीस दिन हुए होंगे. टाइम्स आफ़ इंडिया संस्थान के लिए 26 जनवरी 1964 गणतंत्र दिवस तक बतौर संपादक मुझे एक नई फ़िल्म पत्रिका निकालनी थी. बंबई मेरे लिए सिनेमाघरों में देखा शहर भर था. फ़िल्मों के बारे में जो थोड़ा बहुत जानता था, वह कुछ फ़िल्में देखने और सरिता कैरेवान में उन की समीक्षा लिख देने तक था. अच्छी बुरी फ़िल्म की समझ तो थी, लेकिन वह अच्छी क्यों है, और कोई फ़िल्म बुरी क्यों होती है – यह मैं नहीँ जानता था. फ़िल्म वालों की दुनिया क्या है, कैसी है, कैसे रहती है, कैसे चलती है, वे फ़िल्में क्योँ और कैसे बनाते हैँ – यह सब मेरे लि

स्क्रिप्‍ट चुन लेती है मुझे-विद्या बालन

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-अजय ब्रह्मात्मज     नए साल के शुरू में दस दिनों की छुट्टी लेने के बाद विद्या बालन फिर से कैमरे के सामने आ गई हैं। पिछले दिनों वह हैदराबाद में अपनी अगली फिल्म ‘बॉबी जासूस’ की शूटिंग कर रही थीं। पहाडिय़ों पर बने गोलकुंडा किले में वह एक गाने की शूटिंग कर रही थीं। उन्होंने सपनों में आ रही औरत के सपनीले परिधान पहन रखे थे। जब मालूम हुआ कि किले में ऊपर के हिस्से की तरफ जाना है तो उन्होंने झट से सैंडिल उतारा और स्पोटर््स शूज पहन कर चलने को तैयार हो गईं। इस फिल्म में वह हैदराबाद के मध्यवर्गीय मोहल्ले की उम्रदराज लडक़ी बिल्किश उर्फ बॉबी जासूस बनी हैं। विद्या की आंखें हमेशा चमकती रहती है। सवाल पूछने पर उनकी आंखों की चमक और बढ़ जाती है। वह बात शुरू करती हैं ‘मुश्किल से दस दिनों के आराम के बाद फिर से काम पर लौट आई हूं। एक महीने के शेडयूल के बाद नए साल के मौके पर ब्रेक लिया था। आज से फिर वही दौड़-धूप जारी है।’     जब पड़ी भिखारी की डांट  दीया मिर्जा और साहिल संघा की फिल्म ‘बॉबी जासूस’ की जिज्ञासा का जवाब देती हैं विद्या बालन, ‘इस फिल्म का फस्र्ट लुक सभी को पसंद आया। मेकअप करते समय ही सभी को एह

सुचित्रा सेन : पर्दे पर बखूबी उतारा महिला दर्प

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-अजय ब्रह्मात्मज सुचित्रा सेन को हिंदी फिल्मों के दर्शक आज भी ‘देवदास’ और ‘आंधी’ की वजह से जानते हैं। ‘देवदास’ की पारो और ‘आंधी’ की आरती देवी के चरित्रों को उन्होंने जिस सादगी,गरिमा और आधिकारिक भाव से निभाया,वह समय के साथ पुराना नहीं हो सका है। 1955 में आई ‘देवदास’ की पारो को उस फिल्म की विभिन्न भाषाओं की रीमेक में पारो बनी अभिनेत्रियां पार नहीं कर सकीं। हालांकि फिल्म के हीरो दिलीप कुमार थे और आशंका था कि बंगाल की यह अभिनेत्री उनके सामने परफारमेंस में डगमगा जाएंगी। सुचित्रा सेन ने फिल्म के लेखक राजेन्दर सिंह बेदी और निर्देशक बिमल राय के विजन को बखूबी पर्दे पर उतार कर दमदार बना दिया। सुचित्रा सेन के इस योगदान का अंतर ‘देवदास’ पर बनी सभी फिल्मों को एक साथ देखने पर ठीक से समझा जा सकता है। गुलजार निर्देशित ‘आंधी’ की आरती कपूर के चरित्रांकन में इंदिरा गांधी की छटा देखी गई थी। वास्तव में सुचित्रा सेन के अभिनय ने इस किरदार को चरित्र को आत्मविश्वास और स्वातंत्र्य के साथ दर्प दिया था। आरती कपूर को पति से अलग होने का दुख तो है,लेकिन वह फिर से आज्ञाकारी पत्नी होने के लिए तैयार नहीं है। संजीव

फिल्‍म समीक्षा : मिस लवली

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  -अजय ब्रह्मात्‍मज  फिल्म इंडस्ट्री के चमकदार और रोचक पहलुओं पर अनेक फिल्में बनी हैं। फिल्मों की अपनी दुनिया को अलग नजरिए से देखने और परोसने की रोचक परंपरा रही है। 'मिल लवली' इस चमकदार फिल्म इंडस्ट्री की उन स्याह गलियों से गुजरी है, जिनके बारे में सिनेमा के सभ्य और आभिजात्य समाज की अधिक रुचि नहीं होती। बी और सी ग्रेड फिल्मों का भी एक संसार रहा है। कुछ दशकों पहले तक इस संसार में सक्रियता थी। ये फिल्में छोटे-बड़े शहरों के निचले इलाकों में खूब देखी जाती थीं। इधर हिंदी फिल्मों की मुख्यधारा में बी-सी ग्रेड फिल्मों की धारा भी मिल गई है। असीम आहलूवालिया ने इसी स्याह संसार में जिंदा उजली भावनाओं को संबंधित परिवेश में रेखांकित किया है। ऊपरी तौर पर यह दो भाइयों की कहानी है, लेकिन सतह से नीचे उतरने पर एक खदबदाती दुनिया है, जहां सेक्स, स्वार्थ, शोषण और संशय है। विकी (अनिल जॉर्ज) और सोनू (नवाजुद्दीन सिद्दिकी) भाई है। विकी इस संसार में आकंठ डूबा है। इस कारोबार में उसे किसी प्रकार की नैतिकता परेशान नहीं करती। बड़े भाई के कारोबार में शामिल हो रहा छोटा भाई सोनू खिन्न है। व

फिल्‍म समीक्षा : कर ले प्‍यार कर ले

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-अजय ब्रह्मात्‍मज  निर्माता सुनील दर्शन और निर्देशक राजेश पांडे की फिल्म 'कर ले प्यार कर ले' के टाइटल में 'प्यार' की जगह 'मार' लिखा जाता तो अधिक सुसंगत होता है। फिल्म के मुख्य किरदार आरंभ से अंत तक छूटते ही मारधाड़ करते रहते हैं। 'कल ले प्यार कर ले' निर्माता-निर्देशक सुनील दर्शन के बेटे शिव दर्शन की पहली फिल्म है। स्टार पुत्रों की लॉन्चिग फिल्मों की परंपरा में इस फिल्म में भी शिव दर्शन की क्षमताओं का प्रदर्शन किया गया है। सारे दृश्य इस लिहाज से ही रचे गए हैं कि हिंदी फिल्मों के हीरो के प्रचलित गुणों को दिखाया जा कसे। रोमांस, एक्शन और इमोशन में सबसे ज्यादा जोर एक्शन पर रहा है। फिल्म के हीरो को दमदार दिखाने के लिए सभी सहयोगी भूमिकाओं में साधारण किलकारों का चयन किया गया है। निर्माता-निर्देशक को डर रहा होगा कि किसी भी दृश्य में कोई अन्य दर्शकों को आकर्षित न कर ले। इस प्रयास में फिल्म इतनी कमजोर हो गई है कि थोड़ी देर के लिए भी बांध नहीं पाती। 'कल ले प्यार कर ले' देखते हुए महसूस हुआ कि युवा कलाकारों की संवाद अदायगी लगभग एक सी हो गई है

कमल स्‍वरूप-2

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कमल स्वरूप की 1988 में सेंसर हुई फिल्‍म 'ओम दर-ब-दर' 17 जनवरी को रिलीज हो रही है। इस अवसर पर उनसे हुई बातचीत धारावाहिक रूप में यहां प्रकाशित होगी। उममीद है पहले की तरह चवन्‍नी का यह प्रयास आप को पसंद आएगा। आप की टिप्‍पणियों और शेयरिंग से प्रोत्‍साहन और बढ़ावा मिलता है। पढ़ते रहें....कल से आगे...          एफटीआईआई से ग्रेजुएट करने तक मुझे फिल्म बनाने का इल्म नहीं था। तब हमलोग आर्टिस्ट और फिल्ममेकर होने की पर्सनैलिटी में ढल रहे थे। हम काफ्का , कामू , निराला और नागार्जुन दिखने और होने की कोशिश कर रहे थे। मुझ राजकमल चौधरी अधिक पसंद थे। मैं उनकी राह पर चला गया। मुझे उनकी कृतियों में ‘ मुक्ति प्रसंग ’, ‘ बीस रानियों के बाइस्कोप ’ आदि अधिक प्रिय थी। उनके प्रभाव में मैं श्मशानी प्रवृति का हो गया था। उनका ऐसा जादू-टोना हो गया था। अभी समझ में नहीं आता कि मैंने वह राह क्यों चुनी ? क्या ज्यादा ड्रामैटिक होना चाह रहा था या विशेष दिखना चाह रहा था। अभी तक स्पष्ट नहीं हूं। तब मैं फटाफट पढ़ता था। भाषा और कथ्य की बारीकियों पर अधिक ध्यान नहीं देता था। सौंदर्यबोध भी कम था। हमें यह मालू

कमल स्‍वरूप - 1

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कमल स्वरूप की 1988 में सेंसर हुई फिल्‍म 'ओम दर-ब-दर' 17 जनवरी को रिलीज हो रही है। इस अवसर पर उनसे हुई बातचीत धारावाहिक रूप में यहां प्रकाशित होगी। उममीद है पहले की तरह चवन्‍नी का यह प्रयास आप को पसंद आएगा। आप की टिप्‍पणियों और शेयरिंग से प्रोत्‍साहन और बढ़ावा मिलता है। पढ़ते रहें.... -अजय ब्रह्मात्मज       मैं अजमेर , राजस्थान का हूं। मैंने वहां से ग्रेजुएशन किया। वहां रहते हुए मुंबई की फिल्में देखता था। वहां की फिल्मों से अधिक प्रभावित नहीं था। मेरी रुचि साहित्य में थी। उन दिनों धर्मयुग और माधुरी में फिल्मों को लेकर नए ढंग का लेखन शुरू हुआ था। उनमें ‘ उसकी रोटी ’, ‘ बदनाम बस्ती ’, ‘ माया दर्पण ’, ‘ फिर भी ’ जैसी फिल्मों का जिक्र होता था। मणि कौल , कुमार साहनी , बासु भट्टाचार्य , बासु चटर्जी , मृणाल सेन आदि के बारे में खूब लिखा जाता था। इन सभी के फिल्मों की कहानियां मैंने पढ़ रखी थी। सिनेमा का यह संसार साहित्य से प्रेरित होकर उभर रहा था। मुझे साहित्य पर बनी फिल्मों की तलाश रहती थी। ‘ तीसरी कसम ’ आई। मैंने फणिश्वर नाथ रेणु की ‘ मारे गए गुलफाम ’ कहानी पढ़ रखी थी। मैं पल

दरअसल : फिल्मों का सद्प्रभाव

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-अजय ब्रह्मात्मज     आए दिन खबरें आती हैं कि फिल्मों के दुष्प्रभाव से समाज में कुरीतियां फैल रही हैं। चोरी, हत्या, बलात्कार आदि घटनाओं के उल्लेख के साथ बताया जाता है कि फलां-फलां फिल्म के प्रभाव से ऐसा हुआ। अनेक सामाजिक चिंतक समाज में बढ़ रही गड़बडिय़ों के लिए लोकप्रिय माध्यमों को निशाना बनाने से नहीं चूकते। भारत जैसे देश में फिल्में मनोरंजन का सबसे सस्ता और सुलभ माध्यम हैं। इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि फिल्में समाज को प्रभावित करती हैं,लेकिन हम केवल दुष्प्रभावों को ही खबर बनाते हैं। सद्प्रभावों या सकारात्मक प्रभावों के बारे में उल्लेख तक नहीं किया जाता।     पिछले दिनों हैदराबाद जाते-आते समय जैकी श्रॉफ से मुलाकात हुई। बीते जमाने के स्टार जैकी श्रॉफ के साथ कोई ताम-झाम नहीं चलता। वे अकेले ही खड़े फ्लाइट का इंतजार कर रहे थे। बीच-बीच में कोई यात्री उनके पास आ जाता था। साथ में तस्वीरें खिंचवाता था। हाथ मिलाता था। उनकी किसी फिल्म या भूमिका की तारीफ करता था। लोकप्रिय हस्तियों की यह समस्या बनी रहती है। वे हमेशा मुस्कराते और तस्वीरें खिंचवाने के लिए तत्पर रहते हैं। यह तत्परता पेशेगत मज