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डॉ चंद्रप्रकाश द्विवेदी से अजय ब्रह्मात्‍मज की बातचीत (वीडियो बातचीत )

2 मार्च 2013 को मुंबई में डॉ चंद्रप्रकाश द्विवेदी से मैंने उनके निर्देशक होने से लेकर सिनेमा में उनकी अभिरुचि समेत साहित्‍य और सिनेमा के संबंधों पर बात की थी। मेरे मित्र रवि शेखर ने उसकी वीडियो रिकार्डिंग की थी। उन्‍होंने इसे यूट्यूब पर शेयर किया है। वहीं से मैं ये लिंक यहां चवन्‍नी के पाठकों के लिए दे रहा हूं। आप का फीडबैक इस नए प्रयास को आंकेगा और बताएगा कि आगे ऐसे वीडियो किस रूप में  पेश किए जाएं। पांच किस्‍तों की यह बातचीत एक साथ पेश है...यह बातचीत संजय चौहान के सौजन्‍य से संपन्‍न हुई थी। दोनों मित्रों को धन्‍यवाद ! पहली किस्‍त http://www.youtube.com/watch?v=K3vsQGenAyo दूसरी किस्‍त  http://www.youtube.com/watch?v=eBSsvIr6VN4 तीसरी किस्‍त  http://www.youtube.com/watch?v=fzwnPNjigbE चौथी किस्‍त  http://www.youtube.com/watch?v=imvxn8VMDwc पांचवीं किस्‍त  http://www.youtube.com/watch?v=_JkdqS1XkWM

फिल्‍म रिव्‍यू : मेरे डैड की मारुति

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-अजय ब्रह्मात्‍मज यशराज फिल्म्स युवा दर्शकों को ध्यान में रख कर कुछ फिल्में बनाती है। 'मेरे डैड की मारूति' इसी बैनर वाय फिल्म्स की फिल्म है। चंडीगढ़ में एक पंजाबी परिवार में शादी की पृष्ठभूमि में गढ़ी यह फिल्म वहां के युवक-युवतियों के साथ बाप-बेटे के रिश्ते, दोस्ती और निस्संदेह मोहब्बत की भी कहानी कहती है। फिल्म में पंजाबी संवाद और पंजाबी गीत-संगीत की बहुलता है। इसे हिंदी में बनी पंजाबी फिल्म कह सकते हैं। पंजाब का रंग-ढंग अच्छी तरह उभर कर आया है। ऐसी फिल्में क्षेत्र विशेष के दर्शकों का भरपूर मनोरंजन कर सकती हैं। भविष्य में हिंदी में इस तरह की क्षेत्रीय फिल्में बढ़ेंगी, जो बिहार, राजस्थान, हिमाचल की विशेषताओं के साथ वहां के दर्शकों का मनोरंजन करें। तेजिन्दर (राम कपूर) और समीर (साकिब सलीम) बाप-बेटे हैं। अपने बेटे की करतूतों से हर दम चिढ़े रहने वाले तेजिन्दर समीर को किसी काम का नहीं समझते। समीर अपने जिगरी दोस्त गट्टू के सथ शहर और यूनिवर्सिटी में मंडराता रहता है। अचानक एक लड़की उसे पसंद करती है और डेट का मौका देती है। डेट पर जाने के लिए समीर अनुमति लिए बगैर अपने

फिल्‍म रिव्‍यू : जॉली एलएलबी

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-अजय ब्रह्मात्‍मज तेजिन्दर राजपाल - फुटपाथ पर सोएंगे तो मरने का रिस्क तो है। जगदीश त्यागी उर्फ जॉली - फुटपाथ गाड़ी चलाने के लिए भी नहीं होते। सुभाष कपूर की 'जॉली एलएलबी' में ये परस्पर संवाद नहीं हैं। मतलब तालियां बटोरने के लिए की गई डॉयलॉगबाजी नहीं है। अलग-अलग दृश्यों में फिल्मों के मुख्य किरदार इन वाक्यों को बोलते हैं। इस वाक्यों में ही 'जॉली एलएलबी' का मर्म है। एक और प्रसंग है, जब थका-हारा जॉली एक पुल के नीचे पेशाब करने के लिए खड़ा होता है तो एक बुजुर्ग अपने परिवार के साथ नमूदार होते हैं। वे कहते हैं साहब थोड़ा उधर चले जाएं, यह हमारे सोने की जगह है। फिल्म की कहानी इस दृश्य से एक टर्न लेती है। यह टर्न पर्दे पर स्पष्ट दिखता है और हॉल के अंदर मौजूद दर्शकों के बीच भी कुछ हिलता है। हां, अगर आप मर्सिडीज, बीएमडब्लू या ऐसी ही किसी महंगी कार की सवारी करते हैं तो यह दृश्य बेतुका लग सकता है। वास्तव में 'जॉली एलएलबी' 'ऑनेस्ट ब्लडी इंडियन' (साले ईमानदार भारतीय) की कहानी है। अगर आप के अंदर ईमानदारी नहीं बची है तो सुभाष कपूर की 'जॉली एलएलबी'

व्यंग्य निर्देशक सुभाष कपूर

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-अजय ब्रह्मात्मज     बाहर से आए निर्देशक के लिए यह बड़ी छलांग है। खबर है कि सुभाष कपूर विधू विनोद चोपड़ा और राज कुमार हिरानी की ‘मुन्नाभाई  ... ’ सीरिज की अगली कड़ी का निर्देशन करेंगे। पिछले हफ्ते आई इस खबर ने सभी को चौंका दिया। ‘मुन्नाभाई एमबीबीएस’ और ‘लगे रहो मुन्नाभाई’ के बाद ‘मुन्नाभाई चले अमेरिका’ की घोषणा हो चुकी थी। उसके फोटो शूट भी जारी कर दिए गए थे। राजकुमार हिरानी उस फिल्म को शुरू नहीं कर सके। स्क्रिप्ट नहीं होने से फिल्म अटकी रह गई। इस बीच राजकुमार हिरानी ने ‘3 इडियट’ पूरी कर ली। उसकी अपार और रिकार्ड सफलता के बाद वे फिर से आमिर खान के साथ ‘पीके’ बनाने में जुट गए हैं। इसी दरम्यान सुभाष कपूर को ‘मुन्नाभाई ....’ सीरिज सौंपने की खबर आ गई।     सुभाष कपूर और विधु विनोद चोपड़ा के नजदीकी सूत्रों की मानें तो यह फैसला अचानक नहीं हुआ है। राजकुमार हिरानी की व्यस्तता को देखते हुए यह जरूरी फैसला लेना ही था। ‘मुन्नाभाई ...’ सीरिज में दो फिल्में कर लेने के बाद राजकुमार हिरानी अन्यमनस्क से थे। शायद वे इस सीरिज से ऊब गए हों या नए विषयों का हिलोर उन्हें बहा ले जाता हो। ‘मुन्नाभाई ...’ के म

परदे पर साहित्‍य -ओम थानवी

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ओम थानवी का यह लेख जनसत्‍ता से चवन्‍नी के पाठकों के लिए लिया गया है। ओम जी ने मुख्‍य रूप से हिंदी सिनेमा और हिंदी साहित्‍य पर बात की है। इस जानकारीपूर्ण लेख से हम सभी लाभान्वित हों।     -ओम थानवी जनसत्ता 3 मार्च , 2013: साहित्य अकादेमी ने अपने साहित्योत्सव में इस दफा तीन दिन की एक संगोष्ठी साहित्य और अन्य कलाओं के रिश्ते को लेकर की। एक सत्र ‘ साहित्य और सिनेमा ’ पर हुआ। इसमें मुझे हिंदी कथा-साहित्य और सिनेमा पर बोलने का मौका मिला। सिनेमा के मामले में हिंदी साहित्य की बात हो तो जाने-अनजाने संस्कृत साहित्य पर आधारित फिल्मों की ओर भी मेरा ध्यान चला जाता है। जो गया भी। मैंने राजस्थानी कथाकार विजयदान देथा उर्फ बिज्जी के शब्दों में सामने आई लोककथाओं की बात भी अपने बयान में जोड़ ली। बिज्जी की कही लोककथाएं राजस्थानी और हिंदी दोनों में समान रूप से चर्चित हुई हैं। हिंदी में शायद ज्यादा। उनके दौर में दूसरा लेखक कौन है , जिस पर मणि कौल से लेकर हबीब तनवीर-श्याम बेनेगल , प्रकाश झा और अमोल पालेकर का ध्यान गया हो ? वैसे हिंदी साहित्य में सबसे ज्यादा फिल्में- स्वाभाविक ही-

आस्कर में आंग ली की नमस्ते

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-अजय ब्रह्मात्मज     पिछले हफ्ते आस्कर अवार्ड का लाइव टेलीकास्ट देश में देखा गया। इस बार भारत में इसके दर्शकों की संख्या बढ़ी। सोशल मीडिया नेटवर्क पर भी आस्कर अवार्ड पर काफी विमर्श हुआ। समारोह की रात (भारत में सुबह) के पहले से ही उत्साही भविष्यवाणियां कर रहे थे। सभी की अपनी ‘विश लिस्ट’ थी। इस बार एक अच्छी बात हुई थी कि आस्कर अवार्ड की विभिन्न श्रेणियों में नामांकित फिल्में भारत में देखी जा चुकी थीं। विदेशी प्रोडक्शन हाउस अब अमेरिका के साथ ही भारत में फिल्में रिलीज कर रहे हैं। मल्टीप्लेक्स और मैट्रो के दर्शकों का एक समूह हालीवुड की फिल्मों में रुचि लेता है। इस बार आस्कर के लिए नामांकित अधिकांश फिल्में अपने कंटेंट और लेखन के लिए सराही गई हैं। कहा जा रहा है कि हालीवुड में 2012 लेखकों का साल रहा। 2012 में हिंदी फिल्मों में भी लेखकों ने विविधता दिखाई है, लेकिन सारा क्रेडिट डायरेक्टर, प्रोड्यूसर और कारपोरेट प्रोडक्शन हाउस ले गए।     आस्कर अवार्ड की विदेशी भाषा श्रेणी में हर साल भारत से एक फिल्म जाती है। नामांकन सूची तक भी ये फिल्में नहीं पहुंच पातीं। फिर भी हर साल भेजी गई फिल्मों को लेकर

क्या करीना और विद्या की लोकप्रियता बनी रहेगी?

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शादी के साइड इफेक्ट्स -अजय ब्रह्मात्मज     करीना कपूर और विद्या बालन की शादी के बाद उनके प्रशंसकों के मन को यह प्रश्न मथ रहा होगा कि क्या दोनों पहले की तरह फिल्मों में काम करती रहेंगी? अगर उनका फैसला हुआ तो क्या उन्हें पहले की तरह दमदार और केंद्रीय भूमिकाएं मिलती रहेंगी? सच कहें तो दर्शकों के स्वीकार-अस्वीकार के पहले फिल्म इंडस्ट्री के निर्माता-निर्देशक ही शादीशुदा अभिनेत्रियों से कन्नी काटने लगते हैं। सीधे व्यावसायिक कारण हैं। पहला, शादी के बाद न जाने कब ये अभिनेत्रियां मां बन जाएंगी और उनकी फिल्में कुछ महीनों के लिए अटक जाएंगी। दूसरा, शादी के बाद उनके पति (फिल्मी और गैरफिल्मी दोनों) उनकी दिनचर्या और प्राथमिकता को प्रभावित करेंगे। परिवार और पति की जिम्मेदारियों की वजह से वे शूटिंग में अनियमित हो जाएंगी। तीसरा, कहा जाता है कि शादीशुदा अभिनेत्रियों में दर्शकों की रुचि खत्म हो जाती है। वे अपने सपनों में शादीशुदा अभिनेत्रियों को नहीं चाहते। उनकी चाहत खत्म होने से निर्माता शादीशुदा अभिनेत्रियों को फिल्में देने से बचते हैं।     तीनों कारणों की जड़ में जाएं तो यह हिंदी फिल्म इंडस्ट्री मे

अमृता राव से अजय ब्रह्मात्‍मज की बातचीत

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-अजय ब्रह्मात्मज     अमृता राव जल्दी ही सुभाष कपूर की फिल्म ‘जॉली एलएलबी’ में दिखाई पड़ेंगी। इस फिल्म में उन्होंने कस्बे की दबंग लडक़ी की भूमिका निभाई है। वह जॉली से प्रेम करती है, लेकिन उस पर धौंस जमाने से भी बाज नहीं आती। छुई मुई छवि की अमृता राव के लिए यह चैलेंजिंग भूमिका है। अमृता राव इन दिनों अनिल शर्मा की फिल्म ‘सिंह साब द ग्रेट’ की भोपाल में शूटिंग कर रही हैं। शूटिंग से फुर्सत निकाल कर उन्होंने झंकार से यह बातचीत की  ... - सुभाष कपूर की ‘जॉली एलएलबी’ कैसी फिल्म है? 0 इस देश में हम सभी को कभी न कभी कोर्ट-कचहरी के चक्कर लगाने पड़ते हैं। सुभाष कपूर ने रियल सिचुएशन पर यह फिल्म बनाई है। यह फिल्म कोर्ट-कचहरी के हालात, देश के कानून और उसमें उलझे नागरिकों की बात कहती है। सुभाष कपूर फिल्मों में आने से पहले पत्रकार थे। उन्हें स्वयं कभी कोर्ट के चक्कर लगाने पड़े थे। वहीं से उन्होंने फिल्म का कंसेप्ट लिया है। यह फिल्म सैटेरिकल थ्रिलर है। - कोर्ट कचहरी के मामले में आप क्या कर रही हैं? 0 इस फिल्म की पृष्ठभूमि केस की है। मैं मेरठ की बड़बोली लडक़ी संध्या हूं। छोटे शहरों की दूसरी लड़कियों की त

हौले-हौले बदल रही है औरतों की छवि और भूमिका

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महिला दिवस विशेष -अजय ब्रह्मात्मज     पहले ‘द डर्टी पिक्चर’ और फिर ‘कहानी’ की कामयाबी और स्वीकृति से विद्या बालन को खास पहचान मिली। पुरुष-प्रधान हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में दशकों से हीरो की तूती बोलती है। माना जाता है कि हीरो के कंधे पर ही फिल्मों की कामयाबी टिकी रहती है। विद्या बालन की दोनों फिल्मों से साबित हुआ कि हीरोइनें भी कामयाबी का जुआ अपने कंधे पर ले सकती हैं। पिछले साल आई श्रीदेवी की ‘इंग्लिश विंग्लिश’ भी इस बदलते ट्रेंड को पुष्ट करती है। गौरी शिंदे के निर्देशन में लंबे समय के बाद लौटीं श्रीदेवी की यह फिल्म उम्रदराज अभिनेत्री और किरदार के कई पहलुओं को उद्घाटित करती है। ‘इंग्लिश विंग्लिश’ का स्वर आक्रामक नहीं है, लेकिन चेतना नारी अधिकार और स्वतंत्रता की है। अपनी अस्मिता की तलाश की है। रानी मुखर्जी की ‘अय्या’ और करीना कपूर की ‘हीरोइन’ बाक्स आफिस पर कमाल नहीं दिखा सकीं, फिर भी दोनों फिल्में नायिका प्रधान हैं। दोनों में नायक गौण हैं और पुरुषों की भूमिका भी हाशिए पर है। लेकिन इनके साथ ही ‘कॉकटेल’ जैसी फिल्में भी आती हैं, जहां प्रेम हासिल करने के लिए आजादख्याल की वेरोनिका को अप

फिल्‍म समीक्षा : द अटैक्‍स ऑफ 26/11

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-अजय ब्रह्मात्मज -अजय ब्रह्मात्मज -अजय ब्रह्मात्‍मज  राम गोपाल वर्मा को सच्ची घटनाओं पर काल्पनिक फिल्में बनाने का नया शौक हुआ है। 'नॉट ए लव स्टोरी' में उन्होंने मुंबई की एक हत्या को सेल्यूलाइड के लिए चुना था। इस बार 26/11 की घटना को उन्होंने फिल्म का रूप दिया है। हालांकि 26 /11 की घटना को देश के दर्शकों ने टीवी पर लाइव देखा था। राम गोपाल वर्मा मानते हैं कि लाइव कवरेज और डाक्यूमेंट्री फिल्मों में फैक्ट्स होते हैं, लेकिन इमोशन और रिएक्शन नहीं होते हैं।               26/11 की ही बात करें तो गोलियां चलाते समय कसाब क्या सोच रहा था? या उसके चेहरे पर कैसे भाव थे। राम गोपाल वर्मा ने इस फिल्म में इमोशन और रिएक्शन के साथ 26/11 की घटना को पेश किया है। फिल्म की शुरुआत पुलिस कमिश्नर के बयान से होती है। उस रात की आकस्मिक स्थिति और उसके मुकाबले में मुंबई की सुरक्षा एजेंसियों की गतिविधियों के काल्पनिक दृश्यों से राम गोपाल वर्मा ने घटना की भयावहता और क्रूरता को प्रस्तुत किया है। 'द अटैक्स ऑफ 26/11' मुख्य रूप से वीटी स्टेशन, ताज होटल, लियोपोल्ड कैफे और कामा हास्पिटल में हुई गोल