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अस्तित्व की खोज है उपनिषद गंगा

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-अजय ब्रह्मात्‍मज टीवी पर रामायण और महाभारत देख चुके दर्शकों को रविवार की सुबहें याद होगीं। बाहर सन्नाटा छा जाता था। सभी एक साथ टीवी पर भारतीय महाकाव्यों का सीरियल रूपांतर देखते थे। वक्त बदला। कुछ और सीरियल उनके आगे-पीछे आए, जिन्हें दर्शकों ने खूब पसंद किया। अभी उन सभी सीरियल के डीवीडी धड़ल्ले से बिकते हैं और दर्शक उन्हें देख रहे हैं। उसी दौर में डॉ. चंद्रप्रकाश द्विवेदी का सीरियल चाणक्य आया था। परिवेश, भाषा, ड्रामा, अभिनय की उत्कृष्टता के योग ने इस धारावाहिक को विशिष्ट बना दिया था। पूरे 20 सालों के बाद डॉ. चंद्रप्रकाश द्विवेदी दूरदर्शन पर लौट रहे हैं। इस बार वे उपनिषद गंगा लेकर आ रहे हैं। चिन्मय मिशन ने इसका निर्माण किया है। चिन्मय मिशन के स्वामी तेजोमयानंद की प्रेरणा से उपनिषद के विचारों और अवधारणाओं को आज की पीढ़ी के लिए रोचक कथाओं के रूप में लाने की चुनौती डॉ. द्विवेदी ने स्वीकार की है। उन्हें विस्डम ट्री प्रोडक्शन की मंदिरा कश्यप से निर्माण की सारी सुविधाएं मिलीं। परिवेश और पीरियड के लिए नितिन देसाई और मुनीष सप्पल जैसे दिग्गज आर्ट डायरेक्टरों का सहयोग लिया गया। पीरि

चौंका दिया पान सिंह तोमर ने

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-अजय ब्रह्मात्‍मज इन दिनों ऐसी फिल्में कम आती हैं, जिन्हें दर्शक लपक लेते हैं। पिछले 2 मार्च को रिलीज हुई तिग्मांशु धूलिया की फिल्म पान सिंह तोमर को दर्शकों ने पसंद किया और अपना लिया। दर्शकों ने यह जता दिया कि वे सिर्फ आइटम सॉन्ग या आक्रामक प्रचार न होने पर भी फिल्मों को पसंद करते हैं। । उनकी इस पसंद की जानकारी दूसरे दिन मिलती है। पहले दिन तो उन्हें पता भी नहीं रहता कि शुक्रवार को आ रही फिल्म कैसी है? पान सिंह तोमर की ही बात करें तो इस फिल्म के निर्माता यूटीवी को भरोसा नहीं था। उन्होंने लगभग तय कर लिया था कि वे अपना नुकसान नहीं बढ़ाएंगे। फिल्म बन जाने के बाद भी घाटे की आशंका से फिल्में डिब्बे में डाल दी जाती हैं। उन्हें दर्शकों तक पहुचने ही नहीं दिया जाता। पान सिंह तोमर दो साल पहले बन कर तैयार हो चुकी थी। विभिन्न इंटरनेशनल फेस्टिवलों में इसे दर्शकों ने सराहा भी था, लेकिन यूटीवी के अधिकारियों को लग रहा था कि अभी के माहौल में दर्शक इसे पसंद नहीं करेंगे। पान सिंह तोमर नामक डाकू के जीवन में किसे इंटरेस्ट होगा? ऊपर से कोई बिकाऊ स्टार मेन लीड में नहीं है तो दर्शक भला क्यों देखने आएंगे? सारी

47 के हुए आमिर खान

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-अजय ब्रह्मात्‍मज मिस्टर परफेक्शनिस्ट आमिर खान आज 47 वर्ष केहो गए हैं लेकिन उनकी ऊर्जा आज भी किसी युवा स्टार से कम नहीं है। इसकी बड़ी वजह है कि वे अनुशासित तरीके से खुद को नए प्रोजेक्ट में झोंक देते हैं। फिल्में करते समय उनकी स्थिति किसी ऋषि जैसी हो जाती है, जो दीन-दुनिया से खुद को काट कर साधना में लीन रहता है। उनकी पत्नी किरण राव मानती हैं कि आमिर की यह तन्मयता संक्रामक होती है। उनके आसपास के लोग भी उसी अवस्था में रहने और जीने लगते हैं। स्वयं आमिर मानते हैं कि उनके जीवन में किरण के आने से उनके व्यक्तित्व, सोच और जीवन शैली में फर्क आया है। अब वे ज्यादा एकाग्र भाव से काम कर रहे हैं और जीवन को उसकी वैरायटी के साथ समझ रहे हैं। उम्र के अनुभव के साथ जिंदगी को सुकून और काम करने का नया जोश मिल गया है। बेमिसाल है समर्पण काम हो या परिवार, आमिर खान का समर्पण भाव बॉलीवुड में मिसाल है। 1 दिसंबर को तीसरी संतान आजाद के जन्म के बाद आमिर खान परिवार के बीच नजरबंद हो गए। जन्म के एक हफ्ते बाद ही उन्होंने पूरी दुनिया को बेटे के बारे में बताया। फिर पत्नी किरण के साथ आजाद की देखभाल में लग गए। करीबी बताते ह

मां, बहन और बीवी

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-अजय ब्रह्मात्‍मज शीर्षक से यह न समझें कि मैं गाली-गलौच की बात करने जा रहा हूं। मां-बहन का नाम आते ही गालियों का खयाल आ जाता है। मैं मां-बहन और बीवी का उल्लेख महिला दिवस के संदर्भ में कर रहा हूं। एक रूटीन है। महिला दिवस आते ही समाज के अन्य क्षेत्रों की तरह हिंदी फिल्मों में भी महिलाओं की स्थिति पर विचार चलने लगता है। साल भर महिलाओं यानी अभिनेत्रियों के बारे में गॉसिप छाप-छाप कर अघा चुके पत्रकार भी महिलाओं के अधिकार और महत्व की बातें करने लगते हैं। बताया जाने लगता है कि कैसे महिलाओं को समानता हासिल हो रही है। सच्चाई यह है कि हिंदी फिल्मों में समाज की तरह ही महिलाएं दोयम दर्जे की हैं। उन्हें पारिश्रमिक, सम्मान और बराबर अधिकार नहीं मिलते। दुखद है कि इसके लिए अभिनेत्रियों के मन में कोई दंश नहीं है। उन्होंने अपनी स्थिति से समझौता कर लिया है। मां, बहन और बीवी की बात मैंने किसी और बात के लिए शुरू की थी। प्रचलित परंपरा के मुताबिकइस अवसर पर फिल्म स्टारों और अन्य सेलिब्रिटी से उनकी आदर्श महिलाओं के बारे में पूछा जाता है। यह सवाल-जवाब इतना घिस चुका है कि पेशेवर फिल्म पत्रकार और फ्रीलांसर इसके पैक

सिनेमा की नई संभावना है भोभर

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-अजय ब्रह्मात्‍मज राजस्थानी शब्द भोभर का शाब्दिक अर्थ होता है राख में दबी आग। गांव के लोग ऐसी आग से परिचित हैं। यह सुलगती और लौ नहीं फेंकती, लेकिन आग की निरंतरता को बनाए रखती है। जयपुर के गजेन्द्र श्रोत्रिय और रामकुमार सिंह ने भोभर की इस तपिश को अपने साथ लिया। उन्होंने अपनी फिल्म का नाम भोभर रखा और दिखा दिया कि सिनेमा की स्थानीय संभावना बची हुई है। हिंदी सिनेमा अभी इसे बुझा नहीं पाया है। भोभर की आग बड़े यत्न से संभाली जाती है। गजेन्द्र और रामकुमार ने निजी प्रयासों से राजस्थानी भाषा में ऐसी फिल्म बनाने की हिम्मत दिखाई, जो प्रचलित फार्मूले का पालन नहीं करती। स्थानीयता के साथ वह राजस्थानी मिट्टी से जुड़ी हो। सिर्फ नाच-गाने के म्यूजिक वीडियो जैसी पैकेजिंग नहीं हो। इन दिनों राजस्थानी सिनेमा भी भोजपुरी की तरह अश्लीलता और फूहड़ता की चाशनी से निकलता है। गजेन्द्र सिंह फिल्म भोभर के निर्माता-निर्देशक हैं। रामकुमार सिंह इसके लेखक-गीतकार हैं। संगीत दान सिंह ने तैयार किया था। फिल्म की रिलीज के कुछ महीने पहले उनका देहांत हुआ। दान सिंह के परिचय में केवल जिक्र होता है जब कयामत का, तेरे जलवों की बात हो

हाय वो होली हवा हुई

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-अजय ब्रह्मात्‍मज दो साल पूर्व होली से 10-12 दिनों पहले एक उभरते स्टार के पीआर का फोन आया। बाद में उक्त स्टार से भी बात हुई। उन्होंने अपनी तरफ से ऑफर किया कि अगर दैनिक जागरण में अच्छी कवरेज मिले तो वे अपनी प्रेमिका के साथ होली खेलने की एक्सक्लूसिव तस्वीरें और बातचीत मुहैया करवा सकते हैं। होली के मौके पर पाठकों को कुछ अंतरंग तस्वीरों के साथ छेड़छाड़ भरी बातचीत भी मिल जाएगी। जागरण में स्टार की इच्छा पूरी नहीं हो सकी, लेकिन सुना कि उनकी चाहत किसी और अखबार ने पूरी कर दी। पोज बना कर होली फिल्मी इवेंट के पेशेवर फोटोग्राफर कई सालों से परेशान हैं कि उन्हें होली के उत्सव और उमंग की नैचुरल तस्वीरें नहीं मिल पा रही हैं। सब कुछ बनावटी हो गया है। रंग-गुलाल लगाकर एक्टर पोज देते हैं और ऐसी होली होलिकादहन के पहले ही खेल ली जाती है। मामला फिल्मी है तो होली का त्योहार भी फिल्मी हो गया है। हवा की फगुनाहट से थोड़े ही मतलब है। स्विमिंग पूल में बच्चों के लिए बने पौंड में रंग घोल दिया जाता है या किसी सेटनुमा हॉल में होली मिलन का नाटक रच दिया जाता है। मुमकिन है मेगा इवेंट मुमकिन है कुछ सालों में कोई कारपोरेट

महिला दिवस: औरत से डर लगता है

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-अजय ब्रह्मात्‍मज उनके ठुमकों पर मरता है, पर ठोस अभिनय से डरती है फिल्‍म इंडस्‍ट्री। आखिर क्या वजह है कि उम्दा अभिनेत्रियों को नहीं मिलता उनके मुताबिक नाम, काम और दाम... विद्या बालन की 'द डर्टी पिक्चर' की कामयाबी का यह असर हुआ है कि हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में महिला प्रधान [वीमेन सेंट्रिक] फिल्मों की संभावना तलाशी जा रही है। निर्माताओं को लगने लगा है कि अगर हीरोइनों को सेंट्रल रोल देकर फिल्में बनाई जाएं तो उन्हें देखने दर्शक आ सकते हैं। सभी को विद्या बालन की 'कहानी' का इंतजार है। इस फिल्म के बाक्स आफिस कलेक्शन पर बहुत कुछ निर्भर करता है। स्वयं विद्या बालन ने राजकुमार गुप्ता की 'घनचक्कर' साइन कर ली है, जिसमें वह एक महत्वाकांक्षी गृहणी की भूमिका निभा रही हैं। पिछले दिनों विद्या बालन ने स्पष्ट शब्दों में कहा था, 'मैं हमेशा इस बात पर जोर देती हूं कि किसी फिल्म की कामयाबी टीमवर्क से होती है। चूंकि मैं 'द डर्टी पिक्चर' की नायिका थी, इसलिए सारा क्रेडिट मुझे मिल रहा है। मैं फिर से कहना चाहती हूं कि मिलन लुथरिया और रजत अरोड़ा के सहयोग और सोच के बिना मुझे इतने प

यूं लिखी गई पान सिंह तोमर की पटकथा-संजय चौहान

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रिकार्डधारी एथलीट से बागी और फिर डाकू बने पान सिंह तोमर की कहानी जानने के लिए करीब डेढ़ साल तक मध्य प्रदेश के ग्वालियर, भिंड, मुरैना सहित कई शहरों की खाक छाननी पड़ी थी हमें तिग्मांशु धूलिया जब मिले तो उनके पास सिर्फ संडे मैग्जीन में छपी एक रिपोर्ट थी, जिसमें पान सिंह तोमर के धावक और बागी होने का एक लेख था। हमारे पास एक और सूचना थी कि उनके गांव का नाम भिड़ौसा है। ग्वालियर के नजदीक के इस गांव के अलावा और कोई जानकारी नहीं मिल पा रही थी। गूगल भी मदद में बेकार था और दौड़ के धावकों के नाम तक किसी खेल एसोसिएशन से नहीं मिल रहे थे। सबसे पहले हमलोग उनके गांव गए। परिवार के बारे में पता चला, लेकिन कहां है, ये नहीं मालूम हो पा रहा था। चंबल में पुश्तों तक दुश्मनी चलने की बात सच लगी। कोई बताने को तैयार नहीं था। क्या पता दुश्मन के लोग पता करना चाह रहे हों? पूर्व बागी मोहर सिंह से एक सरकारी गेस्ट हाउस में बात करते समय वहां के चौकीदार ने उस गांव का नाम बताया, जहां पान सिंह तोमर और उनके गैंग का एनकाउंटर हुआ था। उस गांव के लोगों से थोड़ी सूचना मिली। पुलिस वालों, पूर्व बागियों से मिलने का सिलसिला महीनों चल