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फिल्‍म समीक्षा : स्टेनली का डब्बा

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टिफिन में भरी संवदेना -अजय ब्रह्मात्मज सबसे पहले इसे बच्चों की फिल्म (चिल्ड्रेन फिल्म) समझने की भूल न करें। इस फिल्म में बच्चे हैं और वे शीर्षक एवं महत्वपूर्ण भूमिकाओं में हैं, लेकिन यह फिल्म बड़ों के लिए बनी है। इस फिल्म की यह खूबी है तो यही उसकी कमी भी है। स्टेनली का डब्बा में बाल मनोविज्ञान से अधिक फोकस बड़ों का उनके प्रति दोषपूर्ण रवैए पर है। स्टेनली का डब्बा के लेखक-निर्देशक अमोल गुप्ते हैं। अमोल गुप्ते की पिछली फिल्म तारे जमीन पर थी। वे उसके क्रिएटिव डायरेक्टर थे। स्कूल के बच्चों के टिफिन का फिल्म में प्रतीकात्मक इस्तेमाल है। निर्देशक स्टेनली नामक लड़के के बहाने स्कूल के माहौल, टीचर के व्यवहार, बच्चों की दोस्ती और उनकी मासूमियत एवं प्रतिभा का चित्रण करते हैं। स्टेनली अकेला लड़का है, जो टिफिन लेकर स्कूल नहीं आता। वह पेटू हिंदी टीचर बाबूभाई वर्मा की नजरों में अटक जाता है। वर्मा की रुचि बच्चों को पढ़ाने से अधिक उनके टिफिन साफ करने में रहती है। वह स्टेनली को अपना दुश्मन और प्रतिद्वंद्वी मान बैठता है और आदेश देता है कि टिफिन नहीं तो स्कूल नहीं। इस फिल्म की सबसे बड़ी खूबी बच्च

फिल्‍म समीक्षा : शागिर्द

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भ्रष्ट है पूरा तंत्र -अजय ब्रह्मात्मज तिग्मांशु धूलिया की शागिर्द पुलिस विभाग, राजनीति और अपराध जगत की मिलीभगत का सिनेमाई दस्तावेज है। उन्होंने दिल्ली शहर में एकऐसी दुनिया रची है, जिसमें सभी भ्रष्ट हैं। अपराधी तो आचरण और कर्म से भ्रष्ट और गैरकानूनी गतिविधियों में संलग्न होते हैं। शागिर्द में पुलिस अधिकारी और राजनीतिज्ञ में भ्रष्टाचार में लिप्त दिखाए गए हैं। हनुमंत सिंह नीडर और निर्भीक पुलिस अधिकारी हैं। एक तरफ वे राजनीतिज्ञ के मोहरे के तौर पर काम करते हैं तो दूसरी ओर उनके हाथ अपराधियों से भी मिले हुए हैं। वे अपराधियों को पकड़ते और उनका सफाया करते हैं, लेकिन साथ ही उन्हें संरक्षण देकर वसूली भी करते हैं। आश्चर्य नहीं कि उनका पूरा महकमा इस कदाचार में शामिल है। हां, वे पुरानी हिंदी फिल्मों के मधुर गीतों के दीवाने हैं। उन्हें फिल्मों की रिलीज का साल, गीतकार, संगीतकार और गायकों तक के नाम याद रहते हैं। इस भ्रष्ट पुलिस अधिकारी को अपने परिवार की सुरक्षा और भविष्य की चिंता भी रहती है। वह उन्हें न्यूजीलैंड में बसने के लिए भेज देता है। पुलिस की नौकरी से त्यागपत्र देकर वह भी न्यूजीलैंड पहुंच

फिल्‍म समीक्षा : रागिनी एमएमएस

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धोखा, सेक्स और हॉरर -अजय ब्रह्मात्मज हिंदी फिल्मों में आ रहे बदलाव का एक नमूना रागिनी एमएमएस है। इसे हाथों में लिए कैमरे से शूट किया गया है। ज्यादातर फ्रेम हिलते-डुलते और कई बार उड़ते नजर आते हैं। लव सेक्स और धोखा के बाद एकता कपूर ने दिबाकर बनर्जी की प्रयोगात्मक शैली को यहां शिल्प बना दिया है। इसके फायदे और नुकसान फिल्म में नजर आते हैं। 0 रागिनी और उदय के बीच प्रेम है। उदय भदेस युवक है। रागिनी संभ्रांत मध्यवर्गीय युवती है। दोनों वीकएंड मनाने के उद्देश्य से शहर से बाहर निकलते हैं। इस वीकएंड का एक मकसद शारीरिक संबंध भी बनाना है। रागिनी मानसिक रूप से इसके लिए तैयार है। बस, उसे यह नहीं मालूम कि उदय इसी बहाने उसका एमएमएस तैयार कर अपनी लालसा पूरी करना चाहता है। 0 दोनों एक वीराने फार्म हाउस में पहुंचते हैं। उनके वहां पहुंचने के थोड़ी देर के बाद दर्शकों को बता दिया जाता है कि उस घर में कोई और भी रहती है आत्मा के रूप में। फिल्म के प्रचार से हमें पहले से मालूम है कि फिल्म में सेक्स और हॉरर है। सिनेमाघर में बैठते ही उत्कंठा और आशंका बनती है, जो पाश्‌र्र्व संगीत के प्रभाव से चढ़ती और उ

एक हैं के बालाचंदर

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-अजय ब्रह्मात्‍मज हिंदी फिल्मों के दर्शकों को फिल्म एक दूजे के लिए अवश्य याद होगी। कमल हासन और रति अग्निहोत्री की इस फिल्म की लव स्टोरी ने दर्शकों को अलग किस्म का आनंद दिया था। दक्षिण के लड़के और उत्तर भारत की लड़की की इस प्रेमकहानी में दोनों संस्कृतियों की भिन्नता के साथ विशेषताओं को साथ रखते हुए के बालाचंदर ने रोचक तरीके से कमल हासन और रति अग्निहोत्री को पेश किया था। इसके पहले की हिंदी फिल्मों में दर्शकों ने दक्षिण भारत के चरित्रों को सहयोगी और हास्यास्पद भूमिकाओं में ही देखा था। हर संवाद के आगे-पीछे अई यई यई ओ.. बोलते ये पात्र अपनी लुंगी संभालने में ही वक्त बिताते थे। खास कर महमूद ने इनकी इमेज बिगाड़ कर रख दी थी, जबकि पड़ोसन में उन्होंने उसे फिल्म का पैरेलल किरदार बनाया था। बहरहाल, के बालाचंदर की इस प्रस्तुति को हिंदी दर्शकों ने पसंद किया। कमल हासन उसके चहेते बन गए। के बालाचंदर की दूसरी फिल्म जरा सी जिंदगी भी दर्शकों ने पसंद की थी। बाद में दक्षिण की फिल्मों में अपनी व्यस्तता और हिंदी फिल्मों की ट्रेडिशनल लॉबी की राजनीति की वजह से उन्होंने हिंदी फिल्मों से किनारा कर लिया। उनके प्रिय

सोच और सवेदना की रंगपोटली मेरा कुछ सामान

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-अजय ब्रह्मात्‍मज खराशें, लकीरें, अठन्निया और यार जुलाहे की चार प्रस्तुतियों की पोटली है- 'मेरा कुछ सामान'। गुलजार की कहानियों, नज्मों और गीतों के इस रंगमचीय कोलाज को देखना इस दौर का समृद्ध रंग अनुभव है। 'मेरा कुछ सामान' इसी अनुभव को सजोने की निर्देशक सलीम आरिफ की सुंदर कोशिश है। इस हफ्ते 11 मई से दिल्ली में गुलजार के नाटकों का यह महोत्सव प्रारंभ हो रहा है। खराशें, लकीरें, अठन्निया और यार जुलाहे ़ ़ ़ चार शब्दों के चार शो ़ ़ ़ लेकिन थीम एक ही ़ ़ ़ गुलजार ़ ़ ़ कहानियों, गीतों, गजलों और नज्मों से छलकती गुलजार की चिता, सवेदना और छटपटाहट। गीतकार और निर्देशक गुलजार से परिचित प्रशसकों ने इन शामों में एक अलग मानवीय गुलजार को सुना और महसूस किया है। 'मोरा गोरा अंग लई ले' से लेकर '3 थे भाई' तक के गीतों से उन्होंने कई पीढि़यों के श्रोताओं और दर्शकों को लुभाया, सहलाया और रुलाया है। वही गुलजार इन नाटकों में आजादी के बाद देश में बदस्तूर जारी साप्रदायिकता के दर्द की पोटली खोलते हैं तो उनके सामानों में हमें लोगों के एहसास, जज्बात और सपनों की शक्ल नजर आती है। सलीम आरि

फिल्‍म समीक्षा : हांटेड

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0 हांटेड हिंदी में बनी पहली 3डी फिल्म है। 3ड ी की वजह से दृश्यों में गहराई नजर आने लगती है। मसलन अगर दो दीवारें हों तो आगे और पीछे की दीवार के बीच की दूरी भी समझ में आती है। इसकी वजह से फिल्म देखने का आनंद बढ़ जाता है। 3डी एक तकनीक है, जिसका इस्तेमाल फिल्म शूट करते समय या पोस्ट प्रोडक्शन में भी किया जा सकता है। हांटेड के दृश्यों की कल्पना 3डी तकनीक को ध्यान में रख कर की गई है। 0 हिंदी फिल्मों के दर्शकों के लिए 3 डी का मतलब फिल्म देखते समय यह एहसास होना भी है कि पर्दे से कोई चीज निकली और सीधे उन तक आई। जैसे तीर चलें तो दर्शक बचने के लिए अपना सिर झटक लें। 2डी से 3डी बनाई गई फिल्मों में एक दो ऐसे दृश्य रखे जाते थे। हांटेड में ऐसे कई दृश्य हैं, कई बार तो लगता है कि पर्दे से बढ़ा हाथ हमारे चेहरे को छू लेगा। 0 हांटेड का आनंद लेने के लिए जरूरी है कि आप भूत-प्रेत और आत्माओं के साथ हिंदी फिल्मों पर भी विश्वास करते हों। अगर वैज्ञानिक सोच, तर्क और कार्य-कारण संबंध खोजेंगे तो हॉरर फिल्मों की फंतासी और हांटेड का मजा किरकिरा हो जाएगा। हॉरर फिल्में पूरी तरह से काल्पनिक और अतार्किक होती ह

फिल्‍म समीक्षा : लव का द एंड

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0 यशराज फिल्म्स ने एक अलग बैनर खड़ा किया है। इस कंपनी के कर्ता-धर्ता को लगता है कि युवा दर्शकों को अपने लिए अलग किस्म का सिनेमा चाहिए। इसी गरज से वाई फिल्म्स ने लव का द एंड का निर्माण किया है। फिल्म देखकर लगता है कि अगर युवाओं की यही पसंद है तो उन्हें सुधारने और समझाने की जरूरत है। जरूरी तो नहीं है कि दर्शक जो चाहें, वही परोसा जाए। जिम्मेदारी भी कोई चीज होती है। 0 क्या यूथ प्रेम और रिश्तों को लेकर इतना ढुलमुल, अनिश्चित और गैरजिम्मेदार है। प्यार के पहले एहसास की उम्र में यूथ का इतने निगेटिव होने की बात जमती नहीं। प्यार में धोखा खाने पर सबक सिखाना ठीक है, पर पहले प्यार तो हो। अभी ढंग से प्यार भी नहीं हुआ और धोखे एवं बदले की बात आ गई। 0 लव का द एंड में रिया और लव की अप्रेमकहानी अविश्वसनीय और पूरी तरह से अकाल्पनिक है। लेखक और निर्देशक दूर की कौड़ी ले आए हैं। खयाल को कहानी का रूप देकर उसे फिल्मा लिया है। खोज-खबर लेनी होगी कि रिया और लव जैसे यूथ देश के किस शहर और किस मोहल्ले में रहते हैं? प्रेम को लेकर यूथ की अस्पष्टता को भी यह फिल्म ठीक से नहीं रखती। 0 लव का द एंड में सिर्फ शोर

एक थे मोईन अख्‍तर

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-अजय ब्रह्मात्‍मज मोईन अख्तर से मेरा पहला परिचय चीन में हुआ था। पाकिस्तानी दोस्त रहमान साहब और उनके परिवार के यहां आना-जाना था। हमारे बीच कई समानताएं थीं। हम लगभग एक ही जबान बोलते थे। खाना-पीना भी एक सा था। वे हिंदी फिल्में देखने के शौकीन तो हम पाकिस्तानी टीवी ड्रामे के। उनके यहां ही वीडियो कैसेट पर पहली बार बकरा किस्तों पे और बुड्ढा घर पे है के कुछ एपीसोड देखे थे। इन ड्रामों का तंजिया अंदाज बहुत भाता था। ड्रामा थोड़ा लाउड और वोकल लगता था, लेकिन उसका अपना मजा था। इन ड्रामों के जरिए ही मोईन अख्तर और उमर शरीफ से परिचय हुआ था। यह 1990 से पहले की बात है। पाकिस्तान में फिल्मों का विकास भले ही अवरुद्ध हो गया था, लेकिन वहां के टीवी पर ड्रामे की शक्ल में कुछ नया मनोरंजन दर्शकों का दिल बहला रहा था। हालांकि पाकिस्तान में ज्यादातर समय सैन्य शासन ही रहा, फिर भी इन ड्रामों में पाकिस्तान की पॉलिटिक्स और पॉलिटिशियन को हमेशा निशाना बनाया गया। मुसलमान, इस्लाम और पाकिस्तान को लेकर संवादों में किए गए फिकरे और ताने वहां के माहौल का बयां करने के साथ ही बताते थे कि पूरी कौम खुद पर हंसना जानती है। 1947 से पह

रूठे हुए दर्शक थियेटर में कैसे आए

-अजय ब्रह्मात्‍मज हिंदी फिल्मों के प्रचार पर अभी करोड़ों रुपये खर्च होते हैं। छोटी से छोटी फिल्म की पब्लिसिटी में भी इतनी रकम लग ही जाती है। निर्माता-निर्देशक और फिल्म के स्टारों का पूरा जोर रहता है कि रिलीज के पहले दर्शकों के दिमाग में फिल्म की छवि बिठा दी जाए। वे शुक्रवार को उनकी फिल्म देखने जरूर जाएं। व्यापार के बदले स्वरूप की वजह से प्रचार भी सघन और केंद्रित होता जा रहा है। अभी फिल्मों का व्यापार मल्टीप्लेक्स थिएटरों के वीकऐंड बिजनेस पर ही निर्भर कर रहा है। पहले वीकऐंड में ही पता चल जाता है कि फिल्म के प्रति दर्शकों का क्या रवैया होगा? इन दिनों शायद ही कोई फिल्म सोमवार के बाद फिल्मों से कमाई कर पाती है। मल्टीप्लेक्स मुख्य रूप से महानगरों में हैं। हिंदी फिल्मों के बिजनेस के लिहाज से मुंबई, दिल्ली, अहमदाबाद, चंडीगढ़ और इंदौर मुख्य ठिकाने हैं। निर्माता और प्रोडक्शन कंपनियों का जोर रहता है कि इन शहरों के दर्शकों को किसी भी तरह रिझाकर सिनेमाघरों में पहुंचाया जाए। इस उद्देश्य से इन शहरों में ही प्रचार संबंधी इवेंट और गतिविधियों पर उनका ध्यान रहता है। बाकी शहरों और इलाकों की तरफ वे गौर भी

तमाशा नहीं, तैश दिखाने का वक्त है-विवेक अग्निहोत्री

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हैदराबाद के इंडियन स्कूल आफ बिजनेस के छात्रों के साथ मिल कर विवेक अग्निहोत्री 'बुद्ध-इन अ ट्रैफिक जाम' नामक फिल्म बना रहे हैं। बातचीत में वे देश के हालात से दुखी और फिल्म इंडस्ट्री से नाराज नजर आते हैं। विवेक पूरे तैश में हैं, लेकिन क्यों? इस अनोखी फिल्म की योजना कैसे बनी? मैं मैनेजमेंट स्कूल में पढ़ाने जाता था। वहां के लड़के एक छोटी फिल्म बनाना चाहते थे। मैंने सुझाव दिया कि 15 मिनट की फिल्म बनाओगे तो कोई देखेगा नहीं। फीचर फिल्म ही बनाते हैं। दोनों में मेहनत तो उतनी ही लगेगी। उन्हीं दिनों मैं देश में यात्राएं कर रहा था। यह विषय था मेरे पास। मैं एक छोटी फिल्म बनाना चाहता था.. ऐसी फिल्म बनाना चाहता था, जिसमें मैंने सारी जिंदगी लगाई है.. जो सोचा है, देखा है, समझा है। हमारे सामाजिक-राजनीतिक हालात जैसे चल रहे हैं? उसी पर मैं एक फिल्म करना चाहता था। मेरे पास जो विषय था, उसे फिल्म इंडस्ट्री से फायनेंस मिलता नहीं, क्योंकि बहुत ही हार्ड हिटिंग और पॉलिटिकल फिल्म है। आप ने घोर कामर्शियल फिल्में बनाई। उसके बाद इस राह पर जाने की जरूरत क्यों महसूस हुई? कोई मोहभंग हुआ है या फिलहाल यही विकल्प