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आइटम के दम पर

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-अजय ब्रह्मात्‍मज यह सच है कि मुन्नी और शीला के क्रेज ने फिल्मों में आइटम गीतों की मांग बढ़ा दी है। निस्संदेह दबंग के हिट होने में मलाइका अरोड़ा और सलमान खान पर फिल्माए गीत मुन्नी बदनाम.. का बड़ा योगदान रहा। इस एक गीत की पॉपुलैरिटी ने दबंग के दर्शक तैयार किए। फराह खान की तीस मार खान ने रिलीज के पहले शीला की जवानी.. से ऐसा समां बांधा कि दर्शकों ने वीकएंड की एडवांस बुकिंग करवा ली। हालांकि तीस मार खान को दबंग जैसे दर्शक नहीं मिले, लेकिन जो भी दर्शक मिले, वे इसी गीत की वजह से मिले। फिल्म देखकर निकलते दर्शकों की जुबान पर एक ही बात थी कि फिल्म में शीला.. के अलावा कुछ था ही नहीं। दोनों फिल्मों की कामयाबी से हिंदी फिल्मों में आइटम गीतों की मांग सुनिश्चित हुई। यही वजह है कि दम मारो दम, रेडी और रा वन के आइटम गीतों की चर्चा की जा रही है। कहा जा रहा है कि अभी कुछ समय तक आइटम गीतों का जोर रहेगा। हिंदी फिल्मों में आइटम गीतों का होना कोई नई बात नहीं है। पहले इन गीतों का फिल्म की कहानी से तालमेल बिठाया जाता था। राज कपूर और गुरुदत्त ने अपनी फिल्मों में ऐसे गीतों को फिल्म का हिस्सा बना कर पेश किया। फिर

‘फिल्म सोशिएलिज्म’ – भविष्य के सिनेमा का ट्रेलर-अजीत राय

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आज मित्र अजीत राय का एक लेख नकलचेपी कर रहा हूं। अजीत निरंतर सोच और लिख रहे हैं। मैं उनकी सोच और पर्सनैलिटी से पूरी तरह सहमत नहीं हो पाता,लेकिन उनकी यही भिन्‍नता मुझे भाती है। मैं आगे भी उनके कुछ लेख यहां शेयर करूंगा। पणजी, गोवा, 30 नवम्‍बर विश्‍व के सबसे महत्‍वपूर्ण फिल्‍मकारों में से एक ज्‍यां लुक गोदार की नयी फिल्‍म ‘फिल्‍म सोशिएलिज्‍म’ का प्रदर्शन के भारत के 41वें अंतरराष्‍ट्रीय फिल्‍म समारोह की एक ऐतिहासिक घटना है। पश्चिम के कई समीक्षक गोदार को द्वितीय विश्‍वयुद्ध के बाद का सबसे प्रभावशाली फिल्‍मकार मानते हैं। इस 80 वर्षीय जीनियस फिल्‍मकार की पहली ही फिल्‍म ‘ब्रेथलैस’ (1959) ने दुनिया में सिनेमा की भाषा और शिल्‍प को बदल कर रख दिया था। ‘फिल्‍म सोशिएलिज्‍म’ गोदार शैली की सिनेमाई भाषा का उत्‍कर्ष है। इसे इस वर्ष प्रतिष्ठित कॉन फिल्‍मोत्‍सव में 17 मई 2010 को पहली बार प्रदर्शित किया गया। गोदार ने अपनी इस फिल्‍म को ‘भाषा को अलविदा’ (फेयरवैल टू लैंग्‍वेज) कहा है। अब तक जो लोग यह मानते रहे हैं कि शब्‍दों के बिना सिनेमा नहीं हो सकता, उनके लिए यह फिल्‍म एक हृदय-विदारक घटना की तरह है। इस फिल्

कुछ समय संग सनी के

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-अजय ब्रह्मात्मज सनी देओल ने आठ मार्च को डॉ चंद्रप्रकाश द्विवेदी की फिल्म मोहल्ला अस्सी की शूटिंग पूरी कर दी। यह उनकी अभी तक की सबसे कम समय में बनी फीचर फिल्म है। मोहल्ला अस्सी डॉ. काशीनाथ सिंह के उपन्यास पर आधारित है। एक बातचीत में डॉ. द्विवेदी ने बताया था कि एक हवाई यात्रा में उषा गांगुली के नाटक काशीनामा का रिव्यू पढ़ने के बाद उनकी रुचि इस किताब में जगी। उसे पढ़ने के बाद उन्होंने पाया कि इस पर तो अच्छी फिल्म बन सकती है। चंद मुलाकातों में उन्होंने डॉ. काशीनाथ सिंह से अधिकार लिए और स्क्रिप्ट लिखनी शुरू की। आरंभिक दौर में जिसने भी इस किताब पर फिल्म लिखने की बात सुनी, उसका एक ही सवाल था कि इस पर फिल्म कैसे बन सकती है? बहरहाल, फिल्म लिखी गई और उसके किरदारों के लिए ऐक्टर का चयन आरंभ हुआ। फिल्म के प्रमुख किरदार धर्मनाथ पांडे हैं। यह फिल्म उनके अंतद्र्वद्व और उनके निर्णयों पर केंद्रित है। इस किरदार के लिए एनएसडी से निकले मशहूर और अनुभवी अभिनेताओं से बातें चलीं। अलग-अलग कारणों से उनमें से कोई भी फिल्म के लिए राजी नहीं हुआ। डॉ. द्विवेदी और सनी देओल पिछले कुछ सालों से साथ काम करने के लिए इच्छु

मोहल्ला अस्सी में बनारस की धड़कन

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-अजय ब्रह्मात्‍मज पिछले रविवार को डॉ. चद्रप्रकाश द्विवेदी की फिल्म 'मोहल्ला अस्सी' की शूटिंग पूरी हो गई। निर्देशक के मुताबिक 'मोहल्ला अस्सी' में दर्शक पहली बार बनारस की गलियों, घाटों और मोहल्लों में रचे-बसे असली किरदारों का साक्षात्कार करेंगे। फिल्म की शूटिंग के सिलसिले में डॉ. द्विवेदी सनी देओल, रवि किशन, साक्षी तवर, सौरभशुक्ला और अखिलेन्द्र मिश्र सहित पूरी यूनिट के साथ 13 दिनों से बनारस में थे। कुछ दृश्य काशी स्टेशन, रामनगर और अन्य घाटों पर भी फिल्माकित हुए। अपने घूंसे और गुस्से के लिए मशहूर सनी 'मोहल्ला अस्सी' में बनारसी पडे धर्मनाथ पाडे का किरदार निभा रहे हैं। इस फिल्म के लिए उन्होंने नया गेटअप लिया है। धोती और कमीज पहने घाट पर बैठकर श्रद्धालुओं को सकल्प कराते समय वह दूसरे पडों से भिन्न नहीं लग रहे थे। हालाकि मत्रों के उच्चारण में उन्हें थोड़ी कठिनाई हो रही थी, लेकिन उन्होंने कसर नहीं रहने दी। फिल्म इंडस्ट्री में अधिकाश लोग चकित हैं कि सनी के साथ इतने कम दिनों में किसी फिल्म की शूटिंग कैसे पूरी हो सकी? डॉ. द्विवेदी ने खुलासा किया, 'सनी को फिल्म की स्क्रि

सिनेमा में आवाज के 80 वर्ष

-अजय ब्रह्मात्मज भारत में बोलती फिल्मों के आठ दशक पूरे हो गए हैं। आज से 80 वर्ष पहले मुंबई के मैजेस्टिक थिएटर में हिंदी की पहली बोलती फिल्म 'आलम आरा' लगी थी। रोजाना तीन शो में लगी इस फिल्म को देखने के लिए दर्शक टूट पड़े थे। अर्देशर ईरानी ने इंपीरियल मूवीटोन के बैनर तले 'आलम आरा' का निर्देशन किया था। इस फिल्म का गीत दे दे खुदा के नाम पर गाकर वाजिद मोहम्मद खान हिंदी फिल्मों के पहले प्लेबैक सिगर बन गए थे। फिल्म 'आलम आरा' से अभी तक की फिल्मों में साउंड के सफर पर साउंड रिकार्डिस्ट हितेन्द्र घोष ने जागरण से विशेष बातचीत में कहा कि 'आलम आरा' के समय ऑप्टिकल रिकार्डिग होती थी। तब सभी को कैमरे के सामने ही गाना पड़ता था। उन दिनों साउंड निगेटिव पर ही प्रिंट होता था। ईरानी के समय अलग से रिकार्ड कर फिल्म में मिक्स करने की व्यवस्था नहीं थी। अगर कोई गलती हो जाए तो पूरी रिकार्डिग फिर से करनी पड़ती थी। घोष कहते हैं कि ऑप्टिकल के बाद मैग्नेटिक रिकार्डिग का दौर आया। साउंड के तकनीकी विकास से हिंदी फिल्मों में काफी विकास आया। मोनो रिकार्डिग, स्टीरियो, मोनो ट्रैक, फोर ट्रैक, ड

एक सुखद अनुभूति थी आलम आरा-सुरेन्‍द्र कुमार वर्मा

यह लेख 14 मार्च 2011 को दैनिक जागरण के राष्‍ट्रीय संस्‍करण मेंछपा है... भारतीय सिनेमा के लिए वह दिन बहुत खास था। दर्शक रुपहले परदे पर कलाकारों को बोलते हुए देखने को आकुल थे। हर तरफ चर्चा थी कि परदे पर कैसे कोई कलाकार बोलते हुए दिखाई देगा। आखिरकार 14 मार्च 1931 को वह ऐतिहासिक दिन आया, जब बंबई (अब मुंबई) के मैजिस्टक सिनेमा में आलम-आरा के रूप में देश की पहली बोलती फिल्म रिलीज की गई। उस समय दर्शकों में इसे लेकर काफी कौतूहल रहा था। फिल्म में अभिनेत्री जुबैदा के अलावा पृथ्वी राज कपूर, मास्टर विट्ठल, जगदीश सेठी और एलवी प्रसाद प्रमुख कलाकार थे, जिन्हें लोग पहले परदे पर कलाकारी करते हुए देख चुके थे, लेकिन पहली बार परदे पर उनकी आवाज सुनने की चाह सभी में थी। दादा साहेब फाल्के ने अगर भारत में मूक सिनेमा की नींव रखी तो अर्देशिर ईरानी ने बोलती फिल्मों का नया युग शुरू किया। हालांकि इससे पूर्व कोलकाता तब कलकत्ता की फिल्म कंपनी मादन थिएटर्स ने चार फरवरी 1931 को एंपायर सिनेमा (मुंबई) में दो लघु फिल्में दिखाई थी, लेकिन इस फिल्म में कहानी को छोड़कर नृत्य और संगीत के दृश्य थे। इसलिए आलम-आरा को देश की पहली

देश के अंदर ही हैं अनेक दर्शक

-अजय ब्रह्मात्‍मज मेरी धारणा मजबूत होती जा रही है कि हिंदी सिनेमा पर अलग-अलग दृष्टिकोण से विचार-विमर्श करने की जरूरत है। मुंबई या दूसरे महानगरों से हम हिंदी सिनेमा को जिस दृष्टिकोण से देखते और सही मानते हैं, वह पूरे देश में लागू नहीं किया जा सकता। हिंदी फिल्मों के विकास, प्रगति और निर्वाह के लिए मुंबइया दृष्टिकोण का खास महत्व है। उसी से हिंदी फिल्में संचालित होती हैं। सितारों की पॉपुलैरिटी लिस्ट बनती है, लेकिन हिंदी फिल्मों की देसी अंतरधाराओं को भी समझना जरूरी है। तभी हम दर्शकों की पसंद-नापसंद का सही आकलन कर सकेंगे। मैं पिछले बीस दिनों से बिहार में हूं। राजधानी पटना में कुछ दिन बिताने के बाद नेपाल की सीमा पर स्थित सुपौल जिले के बीरपुर कस्बे में आ गया हूं। इस कस्बे की आबादी एक लाख के आसपास होगी। कोसी नदी में आई पिछली बाढ़ में यह कस्बा और इसके आसपास के गांव सबसे ज्यादा प्रभावित हुए थे। इस इलाके के नागरिकों को पलायन करना पड़ा था। जलप्लावन की विभीषिका के बाद कस्बे में जीवन लौटा, तो लोगों की पहली जिज्ञासाओं में सिनेमाघर के खुलने का इंतजार भी था। यह बात मुझे स्थानीय कृष्णा टाकीज के मालिक और

भोजपुरी सिनेमा : सवाल भी है पचास के

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-अजय ब्रह्मात्‍मज हिंदी फिल्‍मों के ग्लैमर से इतर भोजपुरी फिल्मों का अपना अलग बाजार है। दर्शक हैं, जिनमें लगातार बढ़ोत्तरी हो रही है। भोजपुरी फिल्मों के निर्माण में दूसरे प्रदेशों और भाषाओं के निर्माता तक शामिल हो रहे हैं। पिछले कई सालों से हर साल 50 से अधिक भोजपुरी फिल्में बनती हैं। मुख्य रूप से बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश, पंजाब और सभी महानगरों में पॉपुलर भोजपुरी फिल्मों के दर्शक मजदूर और सर्विस सेक्टर में शामिल 'बिदेसिया' हैं। गौर करें तो मध्यवर्ग के दर्शक भोजपुरी फिल्में देखने से परहेज करते हैं। तर्क है भोजपुरी फिल्मों का फूहड़, अश्लील, घटिया और भोंडी होना। इनका प्रदर्शन जीर्ण-शीर्ण थिएटरों में होता है, जिनमें मध्यवर्गीय दर्शक जाने से गुरेज करते हैं। 16 फरवरी 1961 को पटना के शहीद स्मारक पर भोजपुरी की पहली फिल्म गंगा मइया तोहे पियरी चढ़इबो का मुहू‌र्त्त हुआ था। पचास साल हो गए हैं। भोजपुरी समाज के लिए यह सोचने की घड़ी है कि वे अपने सिनेमा को किस रूप में देखना चाहते हैं और आगे कहां ले जाना चाहते हैं? भोजपुरी फिल्मों के विकास का अध्ययन कर रहे विनोद अनुपम भोजपुरी सिनेमा के प्रति

गालियों का उपयोग, दुरुपयोग

-अजय ब्रह्मात्‍मज अधिकांश लोग समय के साथ नहीं चलते। ऐसे लोग हमेशा नए चलन का विरोध करते हैं। उनकी आपत्तियों का ठोस आधार नहीं होता, फिर भी वे सबसे ज्यादा शोर करते हैं। वे अपने ऊपर जिम्मेदारी ओढ़ लेते हैं। इधर फिल्मों में बढ़ रहे गालियों के चलन पर शुद्धतावादियों का विरोध आरंभ हो गया है। नो वन किल्ड जेसिका और ये साली जिंदगी में गाली के प्रयोग को अनुचित ठहराते हुए वे परिवार और समाज की दुहाई देने लगे हैं। कई लोगों का तर्क है कि गालियों के बगैर भी इन फिल्मों का निर्माण किया जा सकता था। उनकी राय में राजकुमार गुप्ता और सुधीर मिश्र ने पहले दर्शकों को चौंकाने और फिर उन्हें सिनेमाघरों में लाने के लिए दोनों निर्देशकों ने गालियों का इस्तेमाल किया। इन फिल्मों को देख चुके दर्शक स्वीकार करेंगे कि इन फिल्मों में गालियां संवाद का हिस्सा थीं। अगर गालियां नहीं रखी जातीं, तो लेखक-निर्देशक को अपनी बात कहने के लिए कई दृश्यों और अतिरिक्त संवादों की जरूरत पड़ती। मुझे याद है कि विशाल भारद्वाज की फिल्म ओमकारा की रिलीज के समय देश के एक अंग्रेजी अखबार और उसके एफएम रेडियो ने फिल्म की आलोचना करते हुए लिखा और बोला था

हर किरदार को शिद्दत से जीती हैं विद्या बालन

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-अजय ब्रह्मात्‍मज Publish Post सिर्फ साढे पांच साल पहले उनकी पहली हिंदी फिल्म परिणीता रिलीज हुई थी, लेकिन न जाने क्यों ऐसा लगता है कि वह कई सालों से पर्दे पर हैं। अभिनय में उनकी दक्षता और चरित्रों को साकार करने की सहजता से यह भ्रम होता है। नो वन किल्ड जेसिका उनकी बारहवीं फिल्म थी। इसमें जेसिका की बहन सबरीना लाल की जद्दोजहद, जिद और जोश को विद्या बालन ने बगैर नाटकीय हुए जाहिर किया। न किसी दृश्य में उनकी नसें तनीं, न वह कहीं चिल्लाती नजर आई। फिर भी उनकी खामोश चीख ने हमारे कानों के पर्दे फाड डाले। उन्हें अभिनय के लिए किसी श्रृंगार या एक्सेसरीज की जरूरत नहीं पडती। उनकी सादगी पसंद आती है और उनकी अदायगी मोह लेती है। हिंदी फिल्मों की हीरोइनें जिस उम्र में रिटायर होने लगती हैं, उसमें विद्या की पहली फिल्म परिणीता आई। पा में उन्होंने खुद से दोगुने उम्र के कद्दावर अभिनेता अमिताभ बच्चन की मां की भूमिका निभाई। प्रेमी से अलग होकर अपने विशेष बच्चे को पालने वाली डॉ.विद्या की भूमिका को उन्होंने बखूबी निभाया। प्रेमी की मांग से डॉ. विद्या का मुकरना और फिर से हुई मुलाकात पर बिफरना एक लेखक-निर्देशक की आजाद