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फिल्‍म समीक्षा : वीर

उन्नीसवीं सदी में 'बॉलीवुड' रोमांस -अजय ब्रह्मात्‍मज सलमान खान, शक्तिमान तलवार, शैलेष वर्मा, कृष्ण राघव, गुलजार, साजिद-वाजिद और आखिरकार अनिल शर्मा ़ ़ ़ इन सभी में किस एक को वीर के लिए दोषी माना जाए? या सभी ने मिल कर एक महत्वाकांक्षा से मुंह मोड़ लिया। रिलीज के पहले फिल्म ने पीरियड का अच्छा भ्रम तैयार किया था। लग रहा था कि सलमान खान की पहल पर हमें एक खूबसूरत, सारगर्भित, भव्य और नाटकीय पीरियड फिल्म देखने का अवसर मिलेगा। यह अवसर फिल्म शुरू होने के चंद मिनटों के अंदर ही बिखर गया। फिल्म में वीर और यशोधरा का लंदन प्रवास सिर्फ प्रभाव और फिजूलखर्ची के लिए रखा गया है।वीर अपनी संपूर्णता में निराश करती है। कुछ दृश्य, कोई एक्शन, कहीं भव्यता, दो-चार संवाद और अभिनय की झलकियां अच्छी लग सकती हैं, लेकिन कतरों में मिले सुख से बुरी फिल्म देखने का दुख कम नहीं होता। फिल्म शुरू होते ही वॉयसओवर आता है कि अंग्रेजों ने पिंडारियों को इतिहास में जगह नहीं दी, लेकिन उन्हें अफसाना बनने से नहीं रोक सके। इस फिल्म में उस अफसाने के चित्रण ने दर्शकों को पिंडारियों के सच से बेगाना कर दिया। लेखक और नि

दरअसल : भारतमाता का संरक्षण

-अजय ब्रह्मात्‍मज हालांकि यह तात्कालिक जीत है, लेकिन इसका प्रतीकात्मक महत्व है। भारतमाता सिनेमा को चालू रखने के लिए मराठी समाज की एकजुटता उल्लेखनीय है। पिछले कुछ सालों से आई मल्टीप्लेक्स लहर में बड़े शहरों के सिंगल स्क्रीन और छोटे-मझोले सिनेमाघर टूट रहे हैं। उन्हें बचाने की कोई केंद्रीय या प्रादेशिक नीति नहीं है। देखते ही देखते सिंगल स्क्रीन थिएटरों के आंगन और भवनों में मल्टीप्लेक्स चलने लगे हैं। सरकारी सुविधाओं और टैक्स रियायतों की वजह से थिएटर मालिक भी मल्टीप्लेक्स को बढ़ावा दे रहे हैं। इस पृष्ठभूमि में मुंबई के लालबाग में स्थित भारतमाता सिनेमा को बंद करने के फैसले से मराठी फिल्मों के प्रेमियों को जबरदस्त धक्का लगा है। सात साल से एनटीसी और भारतमाता सिनेमा के बीच विवाद चल रहा है। भारतमाता सिनेमा की लीज समाप्त हो चुकी है। एनटीसी चाहती है कि भारतमाता जमीन खाली कर दे। कानूनी तौर पर भारतमाता सिनेमा की जीत अनिश्चित लगती है। फिर भी भारतमाता सिनेमा से स्थानीय दर्शकों और मराठी फिल्म इंडस्ट्री का भावनात्मक लगाव है। लगभग सत्तर साल पुराने इस थिएटर में पिछले कुछ सालों से केवल मराठी फिल्में रिलीज

लाखों-करोड़ों लोगों के लिए काम करता हूं: सलमान खान

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फिल्म के विज्ञापन और तस्वीरों से दर्शकों के बीच उत्साह बनता दिख रहा है। वीर में क्या जादू बिखेरने जा रहे हैं आप? मुझे देखना है कि दर्शक क्या जादू देखते हैं। एक्टर के तौर पर अपनी हर फिल्म में मैं बेस्ट शॉट देने की कोशिश करता हूं। कई बार यह उल्टा पड़ जाता है। दर्शक फिल्म ही रिजेक्ट कर देते हैं। वीर जैसी फिल्म करने का इरादा कैसे हो ्रगया? पीरियड फिल्म का खयाल क्यों और कैसे आया? और आप ने क्या सावधानियां बरतीं? यहां की पीरियड फिल्में देखते समय अक्सर मैं थिएटर में सो गया। ऐसा लगता है कि पिक्चर जिस जमाने के बारे में है, उसी जमाने में रिलीज होनी चाहिए थी। डायरेक्टर फिल्म को सीरियस कर देते हैं। ऐसा ल्रगता है कि उन दिनों कोई हंसता नहीं था। सोसायटी में ह्यूमर नहीं था। लंबे सीन और डायलाग होते थे। मल्लिका-ए-हिंद पधार रही हैं और फिर उनके पधारने में सीन निकल जाता था। इस फिल्म से वह सब निकाल दिया है। म्यूजिक भी ऐसा रखा है कि आज सुन सकते हैं। पीरियड फिल्मों की लंबाई दुखदायक होती है। तीन,साढ़े तीन और चार घंटे लंबाई रहती थी। उन दिनों 18-20 रील की फिल्मों को भी लोग कम समझते थे। अब वह जमाना चला गया है। इंट

खबरों को लेकर मची जंग है रण-रामगोपाल

एक समय था कि राम गोपाल वर्मा की फैक्ट्री का स्टांप लगने मात्र से नए एक्टर, डायरेक्टर और टेक्नीशियन को हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में एंट्री और आईडेंटिटी मिल जाती थी। वे आज भी यही कर रहे हैं, लेकिन राम गोपाल वर्मा की आग के बाद उनकी क्रिएटिव लपटों में थोड़ा कम ताप महसूस किया जा रहा है। अपनी ताजा फिल्म रण में उन्होंने इलेक्ट्रानिक मीडिया के माहौल को समझने की कोशिश की है। वे इस फिल्म को महत्वपूर्ण मानते हैं और यह है भी- [मीडिया पर फिल्म बनाने की बात कैसे सूझी?] न्यूज चैनलों में आए विस्फोट के बाद से ही मेरी जिज्ञासा थी कि अचानक लोगों की रुचि समाचारों में बढ़ गयी है या फिर न्यूज चैनलों का अपना कोई स्वार्थ है? मैं इसे समझने की कोशिश में लगा था। दो साल पहले एक चैनल पर समाचार देखते हुए मुझे लगा कि अभी तो किसी भी रिपोर्ट को एडिट से विश्वसनीय बनाया जा सकता है। न्यूज मेकिंग लगभग फिल्म मेकिंग की तरह हो गयी है। वास्तविक तथ्यों और फुटेज को जोड़कर आप किसी भी घटना का फोकस बदल सकते हैं। सवाल है कि खबरें बनती हैं या बनायी जाती है? ऐसी बातों और घटनाओं ने मुझे रण बनाने के लिए प्रेरित किया। [आपने फिल्म बनायी है,

दरअसल : पोस्टर पालिटिक्‍स

-अजय ब्रह्मात्‍मज हाल-फिलहाल में रिलीज हुई फिल्मों को थोड़ा ध्यान से देखें और पढ़ें। पोस्टरों में छपी तस्वीर, लिखे शब्द और के्रडिट लाइन पर गौर करें। सहज रूप से आप जान जाएंगे कि निर्माता पोस्टर के माध्यम से क्या बताना चाह रहा है? हालांकि पोस्टर की डिजाइन में मुख्य अभिनेता, अभिनेत्री, डायरेक्टर और प्रोड्यूसर की सलाह पर विचार किया जाता है, लेकिन सच कहें, तो हिंदी फिल्मों का हीरो ही पोस्टर फाइनल करता है। उसके ओके करने के बाद ही पोस्टर के रूप में फिल्मों का फ‌र्स्ट लुक बाहर किया जाता है। यह सच है कि फ‌र्स्ट लुक पर आजकल बहुत जोर दिया जाता है। फिल्म निर्माता इसे एक इवेंट बना देते हैं और फिर मीडिया कवरेज पाते हैं। ऐसे इवेंट में मुख्य रूप से बातचीत फ‌र्स्ट लुक पर होनी चाहिए, लेकिन फिल्म रिपोर्टर और फिल्म स्टार अपने परिचित और नियमित दायरे से बाहर नहीं निकल पाते। वे फिल्म के बारे में सारी बातें करते हैं। बस, फ‌र्स्ट लुक पीछे रह जाता है। फ‌र्स्ट लुक या पहला पोस्टर फिल्म का मूड बताता है। एक तस्वीर या मोंटाज के जरिए निर्माता-निर्देशक बताते हैं कि फिल्म में आप क्या देखने जा रहे हैं। पब्लिसिटी डिजा

फिल्‍म समीक्षा : प्‍यार इंपासिबल

पासिबल है प्‍यार सामान्य सूरत का लड़का और खूबसूरत लड़की ़ ़ ़ दोनों के बीच का असंभावित प्यार ़ ़ ़ इस विषय पर दुनिया की सभी भाषाओं में फिल्में बन चुकी हैं। उदय चोपड़ा ने इसी चिर-परिचित कहानी को नए अंदाज में लिखा है। कुछ नए टर्न और ट्विस्ट दिए हैं। उसे जुगल हंसराज ने रोचक तरीके से पेश किया है। फिल्म और रोचक हो जाती, अगर उदय चोपड़ा अपनी भूमिका को लेकर इतने गंभीर नहीं होते। वे अपने किरदार को खुलने देते तो वह ज्यादा सहज और स्वाभाविक लगता। अलीशा का दीवाना है अभय, लेकिन वह अपनी भावनाओं का इजहार नहीं कर पाता। वह इंटेलिजेंट है, लेकिन बात-व्यवहार में स्मार्ट नहीं है। यही वजह है कि पढ़ाई पूरी होने तक वह आई लव यू नहीं बोल पाता। सात सालों के गैप के बाद अलीशा उसे फिर से मिलती है। इन सात सालों में वह एक बेटी की मां और तलाकशुदा हो चुकी है। वह सिंगापुर में सिंगल वर्किंग वीमैन है। इस बीच अभय ने अपने सेकेंड लव पर ध्यान देकर एक उपयोगी साफ्टवेयर प्रोग्राम तैयार किया है, लेकिन उसे कोई चुरा लेता है। उस व्यक्ति की तलाश में अभय भी सिंगापुर पहुंच जाता है। परिस्थितियां कुछ ऐसी बनती है कि वह अलीशा क

रितिक रोशन :अभिनय में अलबेला

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-अजय ब्रह्मात्‍मज फिल्मी परिवारों के बच्चों को अपनी लांचिंग के लिए लंबा इंतजार नहीं करना पड़ता। उनके मां-बाप सिल्वर स्क्रीन पर उतरने की उनकी ख्वाहिश जल्दी से जल्दी पूरी करते हैं। इस सामान्य चलन से विपरीत रही रितिक रोशन की लांचिंग। जनवरी, 2000 में उनकी पहली फिल्म कहो ना प्यार है दर्शकों के सामने आयी, लेकिन उसके पहले पिता की सलाह पर अमल करते हुए उन्होंने फिल्म निर्माण की बारीकियों को सीखा। वे अपने पिता के सहायक रहे और किसी अन्य सहायक की तरह ही मुश्किलों से गुजरे। स्टारों की वैनिटी वैन के बाहर खड़े रहने की तकलीफ उठायी। कैमरे के आगे आने के पहले उन्होंने कैमरे के पीछे की जरूरतों को आत्मसात किया। यही वजह है कि वे सेट पर बेहद विनम्र और सहयोगी मुद्रा में रहते हैं। उन्हें अपने स्टाफ को झिड़कते या फिल्म यूनिट पर बिगड़ते किसी ने नहीं देखा। [कामयाबी से मिला कान्फीडेंस] रितिक रोशन मैथड, रिहर्सल और परफेक्शन में यकीन करते हैं। 1999 की बात है। उनकी पहली फिल्म अभी रिलीज नहीं हुई थी। फोटोग्राफर राजू श्रेष्ठा के स्टूडियो में वे फोटो सेशन करवा रहे थे। उन्होंने वहीं बातचीत और इंटरव्यू के लिए बुला लिया था।

फिल्‍म समीक्षा : दूल्‍हा मिल गया

अधूरी कहानी, कमजोर फिल्म -अजय ब्रह्मात्‍मज डायरेक्टर और अभिनेत्री के बीच समझदारी और केमिस्ट्री हो तो फिल्म बहुत अच्छी बनती है। राज कपूर से लेकर संजय लीला भंसाली तक की फिल्में उदाहरण के रूप में देखी जा सकती हैं। बहरहाल, हर नियम के अपवाद होते हैं। मुदस्सर अजीज की फिल्म दूल्हा मिल गया ऐसी ही अपवाद फिल्म है। सुष्मिता सेन, शाहरुख खान और फरदीन खान की मौजूदगी और विदेशों के आकर्षक लोकेशन के बावजूद फिल्म बांध नहीं पाती। ऐय्याश और फिजूलखर्ची के शौकीन बेटे को वसीयत से सुधारने की पुरानी तरकीब में नए किस्म के छल-प्रपंच, प्रेम और सहानुभूति को जोड़कर बनी दूल्हा मिल गया में कई पुरानी फिल्मों की झलकियां मिल सकती हैं। मुदस्सर अजीज के पास कहानी का ढांचा नहीं है। वे एकसामान्य कहानी को दूसरी फिल्मों के दृश्य से सजाते चले जाते हैं। यहां तक कि मुख्य किरदारों का भी विश्वसनीय चरित्रांकन नहीं कर पाते। शाहरुख खान को उपयोग के लिए जबरदस्ती पीआर जी का कैरेक्टर गढ़ा गया है। अपनी व्यस्तता के बीच से समय निकालकर शाहरुख खान ने बेमन से शूटिंग पूरी करने की औपचारिकता निभा दी है। सुष्मिता सेन के लिए अपने किरदार को

दरअसल:वर्चुअल पब्लिसिटी

-अजय ब्रह्मात्‍मज फिल्मों की रिलीज तक निर्माता, निर्देशक और उसके कलाकार फिल्म के प्रचार का हर कारगर तरीका अपनाते हैं। प्रिंट और इलेक्ट्रोनिक मीडिया के जरिए अपने इंटरव्यू में दर्शकों को फिल्म के बारे में बताते हैं। शहरों में होर्डिग और पोस्टर लगाए जाते हैं। ऑनलाइन पब्लिसिटी की जाती है। टीवी पर प्रोमो चलते हैं और सिनेमाघरों में चल रही फिल्मों के साथ आगामी फिल्मों के ट्रेलर दिखाए जाते हैं। इन दिनों फिल्मों की रिलीज के पहले अनेक तरह के प्रोमोशनल इवेंट होते हैं, जिनमें कंज्यूमर प्रोडक्ट कंपनियां फिल्मी सितारों के साथ कार्यक्रम करती हैं। ताजा तरीका आमिर खान का रहा। उन्होंने दर्शकों को चुनौती दी कि वे उन्हें खोजें या पकड़ लें। लुकाछिपी के इस खेल से उन्होंने 3 इडियट्स को प्रचारित किया। फल सामने दिख रहा है। यह फिल्म बड़े शहरों के मल्टीप्लेक्स के साथ छोटे-बड़े शहरों के सिंगल स्क्रीन थिएटरों में भी संतोषजनक व्यवसाय कर रही है। उन्हें अपनी फिल्मों के नए प्रचारक भी मिले हैं। अभी तक ट्रेड पंडित और फिल्म पत्रकारों से आपने सुना होगा कि फलां फिल्म की अच्छी ओपनिंग नहीं लगी है, लेकिन उम्मीद है कि माउथ पब्

इश्किया के गाने

कुछ शब्‍द इधर-उधर हुए हैं। गुलजार के प्रशंसकों पहले ही माफी मांग रहा है चवन्‍नी। इब्‍न-ए-बतूता इब्‍न-ए-बतूता ता ता ता ता ता ता ता ता ता इब्‍न-ए-बतूता ता ता बगल में जूता ता ता इब्‍न-ए-बतूता ता ता बगल में जूता ता ता पहने तो करता है चुर्र उड़ उड़ आवे आ आ, दाना चुगे आ आ उड़ उड़ आवे आ आ, दाना चुगे आ आ इब्‍न-ए-बतूता ता ता, बगल में जूता ता ता पहने तो करता है चुर्र उड़ उड़ गावे, दाना चुगे ये उड़ जावे चिड़िया फुर्र फुर्र इब्‍न-ए-बतूता इब्‍न-ए-बतूता यहीं अगले मोड़ पे, मौत खड़ी है अरे मरने की भी, क्‍या जल्‍दी है इब्‍न-ए-बतूता अगले मोड़ पे, मौत खड़ी है अरे मरने की भी क्‍या जल्‍दी है हॉर्न बजाके, आवे जाये दुर्घटना से देर भली है चल उड़ जा उड़ जा फुर्र फुर्र इब्‍न-ए-बतूता ता ता बगल में जूता ता ता पहने तो करता है चुर्र उड़ उड़ आवे आ आ, दाना चुगे आ आ उड़ जावे चिड़िया फुर्र इब्‍न-एएएएएएएएए-बतूता इब्‍न-एएएएएएएएए-बतूता दोनो तरफ से, बजती है ये आए हाय जिंदगी, क्‍या ढोलक है दोनों तरफ से, बजती है ये आए हाय जिंदगी,