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दरअसल:आशुतोष की युक्ति, प्रियंका की चुनौती

- अजय ब्रह्मात्मज आशुतोष गोवारीकर ने अपनी नई फिल्म ह्वाट्स योर राशि? के लिए अपनी गंभीर मुद्रा छोड़ी है। लगान के बाद वे लंबी और गंभीर फिल्में ही निर्देशित करते रहे। आशुतोष को करीब से जो लोग जानते हैं, वे उनके विनोदी स्वभाव से परिचित हैं। ऐसा लगता है कि हरमन बवेजा और प्रियंका चोपड़ा की इस फिल्म में लोग आशुतोष के इस रूप से परिचित होंगे। फिल्म ह्वाट्स योर राशि? गुजराती के उपन्यासकार मधु राय की कृति किंबाल रैवेंसवुड पर आधारित है। मधु वामपंथी सोच के लेखक हैं। उन्होंने इस कृति में भारतीयता की खोज में भारत लौट रहे आप्रवासी भारतीयों की समझ का मखौल उड़ाया है। वे भारत के मध्यवर्गीय परिवारों पर भी चोट करते हैं। उपन्यास के मुताबिक योगेश ईश्वर पटेल पर दबाव है कि वह भारत की ऐसी लड़की से शादी करे, जो सुसंस्कृत और भारतीय परंपरा में पली हो। भारत आने के बाद योगेश को अहसास होता है कि भारत की लड़कियों का नजरिया और रहन-सहन बदल चुका है। योगेश की इन मुठभेड़ों पर ही कहानी रची गई है। वर्षो पहले 1989 में केतन मेहता ने इसी उपन्यास पर मिस्टर योगी नाम का धारावाहिक बनाया था। धारावाहिक में मोहन गोखले ने योगेश की

फ़िल्म समीक्षा:कमीने

**** बैड ब्वाय के एंगल से गुड ब्वाय की कहानी -अजय ब्रह्मात्मज वह चलता है, मैं भागता हूं-चार्ली (लेकिन दोनों अंत में साथ-साथ एक ही जगह पहुंचते हैं। जिंदगी है ही ऐसी कमीनी।) समकालीन युवा निर्देशकों में विशाल भारद्वाज महत्वपूर्ण हस्ताक्षर हैं। अगर आपने विशाल की पिछली फिल्में देखी हैं तो कमीने देखने का रोमांच ज्यादा होगा। अगर उनकी कोई फिल्म पहले नहीं देखी है तो शैली, शिल्प, संवाद, दृश्य, दृश्य संयोजन, संरचना, बुनावट, रंग, प्रकाश और टेकिंग सभी स्तरों पर नवीनता का एहसास होगा। एकरेखीय कहानी और पारंपरिक शिल्प के आदी दर्शकों को झटका भी लग सकता है। यह 21वीं सदी का हिंदी सिनेमा है, जो गढ़ा जा रहा है। इसका स्वाद और आनंद नया है। विशाल भारद्वाज ने जुड़वां भाइयों की कहानी चुनी है। उनमें से एक बैड ब्वाय और दूसरा गुड ब्वाय है। बचपन की एक घटना की वजह से दोनों एक-दूसरे को नापसंद करते हैं। उनकी मंजिलें अलग हैं। बैड ब्वाय जिंदगी में कुछ भी हासिल करने के दो ही रास्ते जानता है-एक शार्टकट और दूसरा छोटा शार्टकट। जबकि गुड ब्वाय ने अपनी आलमारी के भीतरी पल्ले पर 2014 तक का अपना लाइफ ग्राफ बना रखा है। नएपन के लि

हिन्दी टाकीज:काश, लौटा दे मुझे कोई वो सिनेमाघर ........ -सुदीप्ति

हिन्दी टाकीज-४५ चवन्नी को यह पोस्ट अचानक अपने मेल में मानसून की फुहार की तरह मिला.सुदीप्ति से तस्वीर और पसंद की १० फिल्मों की सूची मांगी है चवन्नी ने.कायदे से इंतज़ार करना चाहिए था,लेकिन इस खूबसूरत और धड़कते संस्मरण को मेल में रखना सही नहीं लगा.सुदीप्ति जब तस्वीर भेजेंगी तब आप उन्हें देख सकेंगे.फिलहाल हिन्दी टाकीज में उनके साथ चलते हैं पटना और सिवान... bबिहार के एक छोटे से गाँव से निकलकर सुदीप्ति ने पटना वूमेन'स कॉलेज और जे एन यू में अपनी पढ़ाई की है। छोटी-छोटी चीजों से अक्सरहां खुश हो जाने वाली, छोटी-छोटी बातों से कई बार आहत हो जाने वाली, बड़े-बड़े सपनों को बुनने वाली सुदीप्ति की खुशियों की चौहद्दी में आज भी सिनेमा का एक बहुत बड़ा हिस्सा मौजूद है।जितनी ख़ुशी उनको इतिहास,कहानियों,फिल्मों और मानव-स्वभाव के बारे में बात करके मिलती है, उससे कहीं ज्यादा खुश वो पटनहिया सिनेमाघरों के किस्सों को सुनाते हुए होती हैं. झूठ बोलकर या छुपाकर ही सही, खुद सिनेमा देखने बिहार में सिनेमाघर में चले जाना, बगैर किसी पुरुष रिश्तेदार/साथी के, साहस और खुदमुख्तारी को महसूस करने का इससे बड़ा जरिया भला और क्य

शर्मीले, नुकीले और हठीले विशाल की कमीने

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-अजय ब्रह्मात्मज कम लोग जानते हैं कि विशाल भारद्वाज ने पहली फिल्म की प्लानिंग अजय देवगन के साथ की थी। शायद इसी वजह से अगला मौका मिलते ही अजय देवगन ने विशाल भारद्वाज के निर्देशन में ओमकारा की। विशाल ने मकड़ी और मकबूल बनायी। इस बार विशाल भारद्वाज ने फिल्म का शीर्षक ही कमीने रख दिया है। कमीने विशाल भारद्वाज का ओरिजनल आइडिया नहीं है। उन्होंने नैरोबी के एक लेखक से इसे खरीदा है। उन्होंने अपने जीवन के अनुभव इसमें जोड़े हैं और इस समकालीन भारत की फिल्म बना दिया है। शहिद कपूर और प्रियंका चोपड़ा इसे अपने करिअर की श्रेष्ठ फिल्म कह रहे हैं। उम्मीद करें कि वे आदतन यह नहीं कह रहे हों। शर्मीले,नुकीले और हठीले विशाल भारद्वाज फिलहाल इस बात से दुखी हैं कि उनकी फिल्म को यूए सर्टिफिकेट नहीं मिला है। वे चाहते हैं कि उनकी फिल्म कमीने सभी देखें, लेकिन सेंसर से ए सर्टिफिकेट मिलने की वजह से उनके दर्शक कम हो जाएंगे। चाहे-अनचाहे वे विवादों में भी फंसे हैं। कहा जा रहा है कि यह फिल्म आमिर खान और सैफ अली खान ने रिजेक्ट कर दी थी। विशाल सफाई देते फिर रहे हैं। इतना ही नहीं पापुलर हुए गीत, धन दे तान.. की लोकप्रियता का श्र

पाकिस्तान से आए हुमायूँ सईद

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-अजय ब्रह्मात्मज पिछले दिनों एक फिल्म आई जश्न। महेश भट्ट की इस फिल्म में शहाना गोस्वामी ने अपने अभिनय से एक बार फिर लोगों को लुभाया। उनके साथ अमन बजाज की भूमिका में लोगों ने एक नए ऐक्टर को देखा। उसने अपने अभिनय से अमन बजाज के निगेटिव रोल को रिअॅल बना दिया। उसका नाम है हुमायूं सईद। हुमायूं करांची के हैं। वे पाकिस्तान के निहायत पापुलर ऐक्टर हैं। एक्टिंग के साथ टीवी प्रोडक्शन में भी उनका बड़ा नाम है। जश्न की रिलीज के वक्त वे भारत आए थे। फिल्म के प्रस्तोता महेश भट्ट से उनकी जानकारी लेने के बाद जब मैंने उनसे संपर्क किया, तो उन्हें ताज्जुब हुआ कि भला उनमें किसी की रुचि क्यों होगी? बहरहाल वे अगले दिन मिले। अपनी बीवी के साथ मुंबई आए हुमायूं के लिए यह खास मौका था, जब भारतीय मीडिया ने उनके काम की तारीफ की। इस तारीफ से उनके हौसले बढ़े हैं। अगर फिल्मों के मौके मिले, तो दूसरी फिल्में भी करेंगे। हुमायूं पाकिस्तान में बेहद पापुलर हैं। उन्होंने जब जश्न के लिए महेश भट्ट को हां कहा, तो पाकिस्तानी अखबारों में यह खबर फैल गई। कुछ आलोचकों ने लिखा कि देखें हुमायूं को कैसा रोल मिलता है? हुमायूं इस आशंका की प

फ़िल्म समीक्षा:तेरे संग;चल चलें;अज्ञात

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सतीश कौशिक का बेहतर अभिनय तेरे संग किशोरावस्था के प्रेम और गर्भ जैसी जरूरी सामाजिक समस्या पर केंद्रित सतीश कौशिक की तेरे संग कमजोर पटकथा और हीरो-हीरोइन के साधारण अभिनय के कारण आवश्यक प्रभाव नहीं डाल पाती। इस विषय पर विदेशों में सुंदर, मार्मिक और भावपूर्ण फिल्में बन चुकी हैं। माही (15 वर्ष की लड़की) और कबीर (17 वर्ष का लड़का) की इस प्रेम कहानी में फिल्मी संयोग, घटनाओं और प्रसंगों की भरमार है। माही और कबीर डिफरेंट बैकग्राउंड के किशोर हैं। उनका मिलना-जुलना, दोस्ती होना और फिर शैंपेंन के नशे में हमबिस्तर होना..। ये सारे प्रसंग अतार्किक और शुद्ध फिल्मी हैं। सतीश कौशिक से ऐसी कमजोर कोशिश की अपेक्षा नहीं की जा सकती। रूसलान मुमताज और शीना शाहाबादी अभी अभिनय के ककहरे से अपरिचित हैं। उनमें बाल कलाकारों की मौलिक स्वाभाविकता भी नहीं बची है। वे सिर्फ सुंदर और मासूम दिखते हैं। तेरे संग सतीश कौशिक के लिए देखी जा सकती है। कबीर के निम्नमध्यवर्गीय पिता की भूमिका उन्होंने पुरअसर तरीके से निभाई है। सराहनीय प्रयास चल चलें युवा निर्देशक उज्जवल सिंह ने सीमित बजट में एक महत्वपूर्ण फिल्म बनाने की कोशिश की है।

दरअसल:ब्लॉग से ट्विटर तक

-अजय ब्रह्मात्मज अमिताभ बच्चन दुनिया में कहीं भी रहें, वे नियमित रूप से ब्लॉग लिखते हैं। बीमारी के चंद दिनों को छोड़ दें, तो वे रोजाना एक पोस्ट करते हैं। उनके पोस्ट में मुख्य रूप से घर-परिवार की बातें, शूटिंग चर्चा, मीडिया की आलोचना और दैनिक जीवन के विभिन्न पहलुओं पर विचार रहते हैं। उन्होंने अपने ब्लॉग के पाठक को विस्तारित परिवार की संज्ञा दी है। वे उनकी राय, आलोचना और टिप्पणियों पर गौर करते हैं। अपने पाठकों के प्रति वे जितने मृदु हैं, मीडिया के प्रति उतने ही कटु। अगर किसी ने कुछ उल्टा-सीधा लिख दिया, तो वे ब्लॉग पर उसका जिक्र करते हैं। मीडिया के रवैये और व्यवहार पर प्रश्नचिह्न लगाते हैं। इसके बावजूद उनका ब्लॉग पठनीय होता है। इधर रामगोपाल वर्मा नियमित हो गए हैं। उनकी फिल्में और व्यक्तित्व की तरह उनका ब्लॉग भी थोड़ा रहस्यपूर्ण और अनिश्चित है। उनके ब्लॉग की कोई निश्चित रूपरेखा नहीं है। अपने जीवन के अंश, अनुभव और फिल्मों के अलावा इन दिनों वे सिनेमा के तकनीकी पक्षों की भी बात कर रहे हैं। उनके ब्लॉग पर पाठकों के सवाल के दिए गए जवाब रूखे और बेलाग होते हैं। उन्हें पढ़ते हुए मजा आता है। साथ ही

पढ़े गए चवन्नी के एक लाख (१,००,०००) पृष्ठ

चवन्नी के पढ़े गए पृष्ठों की संख्या एक लाख से अधिक हो गई है.चवन्नी को नहीं मालूम कि इसका कोई महत्त्व है या नहीं? चवन्नी को यही खुशी है कि आप उसे पढ़ते हैं.ब्लागवाणी और चिट्ठाजगत के सहयोग से यह सम्भव हुआ है.आजकल कुछ पाठक सीधे आते हैं.उन्होंने सीधी राह पकड़ ली है.कल तो घोर आश्चर्य हुआ.अचानक चवन्नी ने पाया कि उसके भारतीय पाठकों की संख्या अमेरिकी पाठकों से कम हो गई.अब आप की बधाई और सुझावों का इंतज़ार है.

एक तस्वीर:पहचानें कौन?

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हिन्दी फिल्मों में मौके मिल रहे हैं-आर माधवन

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-अजय ब्रह्मात्मज आर माधवन का ज्यादातर समय इन दिनों मुंबई में गुजरता है। चेन्नई जाने और दक्षिण की फिल्मों में सफल होने के बावजूद उन्होंने मुंबई में अपना ठिकाना बनाए रखा। अगर रहना है तेरे दिल में कामयाब हो गयी रहती, तो बीच का समय कुछ अलग ढंग से गुजरा होता। बहरहाल, रंग दे बसंती के बाद आर माधवन ने मुंबई में सक्रियता बढ़ा दी है। फोटोग्राफर अतुल कसबेकर के स्टूडियो में आर माधवन से बातचीत हुई। आपकी नयी फिल्म सिकंदर आ रही है। कश्मीर की पृष्ठभूमि पर बनी इस फिल्म में क्या खास है? सिकंदर दो बच्चों की कहानी है। कश्मीर के हालात से हम सभी वाकिफ हैं। वहां बच्चों के साथ जो हो रहा है, जिस तरीके से उनकी मासूमियत छिन रही है। इन सारी चीजों को थ्रिलर फार्मेट में पेश किया गया है। वहां जो वास्तविक स्थिति है, उसका नमूना आप इस फिल्म में देख सकेंगे। क्या इसमें आतंकवाद का भी उल्लेख है? हां, यह फिल्म आतंकवाद की पृष्ठभूमि में है। आतंकवाद से कैसे लोगों की जिंदगी तबाह हो रही है, लेकिन लंबे समय सेआतंकवाद के साए में जीने के कारण यह उनकी रोजमर्रा की जिंदगी का हिस्सा बन चुका है। उन्हें ऐसी आदत हो गयी है कि लाश, हत्या या