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हिन्दी टाकीज:जाने कहां गये वो सिनेमा के दिन ...-पूनम चौबे

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हिन्दी टाकीज-४३ पूनम चौबे नयी पीढ़ी की पत्रकार हैं। अंग्रेजी की छात्रा हैं मगर लिखना-पढ़ना हिंदी में करती हैं। कुछ नया करने का जज्‍बा इन्‍हें पत्रकारिता में घसीट लाया है। कुछ कहानियां भी लिख चुकी हैं। मगर किसी एक विधा पर टिके रहना अपनी तौहीन समझती हैं। सो फिलहाल पहचान कहां और कैसे बनेगी, इसी में सर खपा रही हैं। बचपन की यादों में शुमार मूवी देखने का खुमार। बरबस यह जुमला इसलिए याद आ रहा है क्‍योंकि आज भी पिक्‍चर हॉल में जाकर फिल्‍में देखने में वही मजा आता है, जो दस-बारह साल पहले था। आज भी वो यादें धुंधली नहीं पड़ीं जब मेरी जिद पर डैडी हम चारों भाई-बहनों को फिल्‍म दिखाने ले गये थे। 1996 की वह सुहानी शाम, शुक्रवार का दिन, फिल्‍म थी 'हम आपके हैं कौन' पिक्‍चर हॉल जाने के लिए डैडी से ढेरों मिन्‍नतें करनी पड़ती थीं। कारण था उनकी ऑफिस से छुट्टी न मिलना। फिर भी उस शुक्रवार की शाम को तो मैं अपनी जिद पर अड़ी रही। आखिरकार हम पिक्‍चर हॉल पहुंचे। टिकट लेने के बाद जैसे ही उस बड़े हॉल के कमरे में पहुंचे, लगा मानो, भूतों के महल में आ गये हों। ऐसा धुप अंधेरा। क्‍या ऐसा ही होता है सिनेमाघर? मुझे ल

फ़िल्म समीक्षा:संकट सिटी

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बड़े शहर की भूमिगत दुनिया -अजय ब्रह्मात्मज बड़े शहरों में एक भूमिगत दुनिया होती है। इस दुनिया में अपराधी पलते और रहते हैं। उनकी जिंदगी में भी छल, धोखा, प्रपंच और कपट है। उनके भी सपने होते हैं और उन सपनों को पाने की कोशिशें होती हैं। वहां हमदर्दी और मोहब्बत होती है तो बदले की भावना भी। पंकज आडवाणी ने संकट सिटी में इसी दुनिया के किरदारों को लिया है। इन किरदारों को हम कार चोर, मैकेनिक, फिल्म निर्माता, बिल्डर, होटल मालिक, वेश्या और चालबाज व्यक्तियों के रूप में देखते हैं। सतह पर जी रहा आम आदमी सतह के नीचे की जिंदगी से नावाकिफ रहता है। कभी किसी दुर्घटना में भिड़ंत होने या किसी चक्कर में फंसने पर ही उस दुनिया की जानकारी मिलती है। गुरु की मुसीबत मर्सिडीज की चोरी और उसमें रखे एक करोड़ रुपए से शुरू होती है। एक के बाद दूसरी और दूसरी के बाद बाकी घटनाएं होती चली जाती हैं और बेचारा गुरु मुसीबतों के चक्रव्यूह में फंसता चला जाता है। निर्देशक पंकज आडवाणी ने गुरु के बहाने सड़ चुकी सामाजिक व्यवस्था में सक्रिय स्वार्थी और घटिया किस्म के पिस्सुओं (व्यक्तियों) का चेहरा दिखाया है। सभ्य समाज में हम उन्हें अपन

फ़िल्म समीक्षा: शार्टकट

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-अजय ब्रह्मात्मज शार्टकट की मूल मलयालम फिल्म बहुत अच्छी बनी थी। उस फिल्म में मोहन लाल को दर्शकों ने खूब पंसद किया था। लेकिन हिंदी में बनी शार्टकट उसके पासंग में भी नहीं ठहरती। सवाल उठता है कि मलयालम फिल्म पर आधारित फिल्म के लेखक के तौर पर अनीस बज्मी का नाम कैसे जा सकता है? क्यों नहीं जा सकता? उन्होंने मूल फिल्म देखकर उसे हिंदी में लिखा है। इस प्रक्रिया में भले ही मूल की चूल हिल गई हो। इस फिल्म से यह भी पता चलता है कि फिल्मों की टाप हीरोइनें या तो आइटम सांग करती हैं या फिर गुंडों से जान बचाने की कोशिश करती हैं। फिल्म के हीरो निहायत मूर्ख होते हैं। किसी प्रकार पापुलर हो जाने के बाद वे अपनी मूर्खताओं को ही अपनी विशेषता समझ बैठते हैं। निर्देशक नीरज वोरा के पास फिल्म इंडस्ट्री की पृष्ठभूमि और उसके किरदार थे। वे इनके सही उपयोग से रोचक और हास्यपूर्ण फिल्म बना सकते थे, लेकिन ऐसा नहीं हो सका। इस फिल्म को वे संभाल नहीं सके। शार्टकट में अस्पष्टता है। फिल्म का प्रमुख किरदार शेखर है या राजू या अनवर? फिल्म की हीरोइन शेखर को मिलती है, इसलिए उसे हीरो समझ सकते हैं। लेकिन फिल्म की प्रमुख घटनाएं राजू और

दरअसल:न्यूयॉर्क की कामयाबी के बावजूद

-अजय ब्रह्मात्मज 26 जून को रिलीज हुई न्यूयॉर्क को दर्शक मिले। जॉन अब्राहम, कैटरीना कैफ और नील नितिन मुकेश के साथ यशराज फिल्म्स के बैनर का आकर्षण उन्हें सिनेमाघरों में खींच कर ले गया। मल्टीप्लेक्स मालिक और निर्माता-वितरकों के मतभेद से पैदा हुआ मनोरंजन क्षेत्र का अकाल दर्शकों को फिल्मों के लिए तरसा रहा था। बीच में जो फिल्में रिलीज हुई, वे राहत सामग्री के रूप में बंटे घटिया अनाज के समान थीं। उनसे दर्शक जिंदा तो रहे, लेकिन भूख नहीं मिटी। ऐसे दौर में स्वाद की बात कोई सोच भी नहीं सकता था। न्यूयॉर्क ने मनोरंजन के अकाल पीडि़त दर्शकों को सही राहत दी। भूख मिटी और थोड़ा स्वाद मिला। यही वजह है कि इसे देखने दर्शक टूट पड़े हैं। मुंबई में शनिवार-रविवार को करंट बुकिंग में टिकट मिलना मुश्किल हो गया था। साथ ही कुछ थिएटरों में टिकट दोगुने दाम में ब्लैक हो रहे थे। ट्रेड सर्किल में न्यूयॉर्क की सफलता से उत्साह का संचार नहीं हुआ है। ट्रेड विशेषज्ञों के मुताबिक यशराज फिल्म्स को न्यूयॉर्क से अवश्य फायदा होगा, क्योंकि यह अपेक्षाकृत कम बजट की फिल्म है। अगले हफ्तों में आने वाली फिल्मों की लागत ज्यादा है और उन्हे

हिन्दी टाकीज:सिनेमा के सम्मोहन से मुझे मुक्ति नहीं मिल सकी-विनोद अनुपम

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हिन्दी टाकीज-४२ हिन्दी फिल्मों के सुधि लेखक विनोद अनुपम ने आखिरकार चवन्नी का आग्रह स्वीकार किया और यह पोस्ट भेजी । विनोद अनुपम उदहारण हैं कि फिल्मों पर बेहतर लिखने के लिए मुंबई या दिल्ली में रहना ज़रूरी नहीं है। वे लगातार लिख रहे हैं और आम दर्शकों और पाठकों के बीच सिनेमा की समझ बढ़ा रहे हैं। उन्होंने अपने परिचय में लिखा है...जब पहली ही कहानी सारिका में छपी तो सोचा भी नहीं था, कभी सिनेमा से इस कदर रिश्ता जुड़ सकेगा। हालांकि उस समय भी महत्वाकांक्षा प्रेमचंद बनने की नहीं थी, हां परसाई बनने की जरूर थी। इस क्रम में परसाई जी को खूब पढ़ा और खूब व्यंग्य भी लिखे। यदि मेरी भाषा में थोड़ी भी रवानी दिख रही हो तो निश्चय ही उसका श्रेय उन्हें ही जाता है। कहानियां काफी कम लिखीं, शायद साल में एक। शापितयक्ष (वर्तमान साहित्य), एक और अंगुलिमाल (इंडिया ठूडे) ट्यूलिप के फूल (उद्भावना), स्टेपनी (संडे इंडिया), आज भी अच्छी लग जाती है, लेकिन बाकी की दर्जन भर कहानियों के बारे में यही नहीं कह सकता। सिनेमा देखने की आदत ने, सिनेमा समझने की जिद दी, और इस जिद ने 85 से 90 के दौर में बिहार में काम कर रहे प्रकाश झा से जुड़न

एक तस्वीर:पहचानें कौन?

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आज के दो पॉपुलर स्टार हैं यहाँ.दोनों पुराने ज़माने के दो स्टार के प्रतिरूप छवि में हैं.क्या आप आज के स्टार और पुराने समय के स्टार को पहचान गए? चवन्नी को भी बताएं...

दरअसल:दुविधा में संजय दत्त की आत्मकथा

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-अजय ब्रह्मात्मज चुनाव की सरगर्मी के बाद संजय दत्त ने नेता का चोला उतार दिया है। वे इन दिनों गोवा में अजय देवगन की फिल्म ऑल द बेस्ट की शूटिंग में बिजी हैं। इस दौरान उन्होंने खुद को आंका। कार्यो को निबटाया और दोस्तों के साथ बैठकें कीं। वे अजय को छोटे भाई मानते हैं। यही वजह है किफिल्म की योजना के मुताबिक उन्होंने एक शेड्यूल में शूटिंग खत्म की। सभी जानते हैं कि संजय की फिल्म उनकी उलझनों की वजह से खिंच जाती हैं। संजय लगते एकाकी हैं, लेकिन उनका जीवन एकाकी हो ही नहीं सकता! उनके दोस्त उन्हें नहीं छोड़ते। शायद उन्हें भी दोस्तों की जरूरत रहती है। यह अलग बात है कि उनके दोस्त बदलते रहते हैं। उनके दोस्तों की सूची सीमित है। उनके कुछ स्थायी दोस्त हैं, जिनसे वे कभी-कभी ही मिलते हैं, लेकिन वे दोस्त ही उनके भावनात्मक संबल हैं। अपनी जिंदगी की उथल-पुथल में उन्होंने दोस्तों को परखा है। वे उन पर भरोसा करते हैं। संजय सरीखे व्यक्ति भावुक और अलग किस्म से संवेदनशील होने के कारण भरोसे में धोखा भी खाते हैं। वे ऐसे धोखों से कुछ नहीं सीखते। वे फिर भरोसा करते हैं। पिछले दिनों चुनाव प्रचार के दौरान उन्होंने देश के स

फ़िल्म समीक्षा:कमबख्त इश्क

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ऊंची दुकान, फीका पकवान -अजय ब्रह्मात्मज कोई शक नहीं कि निर्माता साजिद नाडियाडवाला पैसे खर्च करते हैं। वह अपने शौक और जुनून के लिए किसी हद तक जा सकते हैं। कमबख्त इश्क की शूटिंग हालीवुड के स्टूडियो में करनी हो या फिल्म में हालीवुड के एक्टर रखने हों, वह रत्ती भर भी नहीं हिचकते। अब यह अलग बात है कि उनके लेखक और निर्देशक हिंदी फिल्म के चालू फार्मूले में हालीवुड-बालीवुड की संगति नहीं बिठा पाते। यही वजह है कि फिल्म सारी भव्यता, नवीनता और खर्च के बावजूद चूं-चूं का मुरब्बा साबित होती है। सब्बीर खान के निर्देशन में बनी कमबख्त इश्क ऊंची दुकान, फीका पकवान का ताजा उदाहरण है। फिल्म में अक्षय कुमार और करीना कपूर की जोड़ी है। दोनों हाट हैं और दोनों के चहेते प्रशंसकों की कमी नहीं है। प्रशंसक सिनेमाघरों में आते हैं और अपने पसंदीदा सितारों को कमजोर और अनगढ़ किरदारों में देख कर निराश लौटते हैं तो अपनी शर्मिदगी में किसी और को फिल्म के बारे में कुछ नहीं बताते। नतीजतन ऐसी फिल्में आरंभिक उत्साह तो जगाती हैं, लेकिन उसे जारी नहीं रख पातीं। कमबख्त इश्क अक्षय कुमार और करीना कपूर की पुरानी फिल्म टशन से कंपीटिशन कर

तस्वीरों में 'कमीने'

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विशाल भारद्वाज की फ़िल्म 'कमीने' की चर्चा अभी से हो रही है.चवन्नी के पाठकों के लिए कुछ तस्वीरें.क्या ये तस्वीरें कुछ कहती हैं?

मैं खुद को जागरुक मानती हूं:कटरीना कैफ

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मैं खुद को जागरुक मानती हूं: कैटरीना डांसिंग डॉल और ग्लैमर गर्ल के नाम से मशहूर कैटरीना कैफ कबीर खान निर्देशित न्यूयॉर्क में माया का किरदार निभा रही हैं। यह भूमिका उनकी अभी तक निभायी गयी भूमिकाओं से इस मायने में अलग है कि फिल्म की कहानी सच को छूती हुई गुजरती है। उनके किरदार में भी वास्तविकता की छुअन है। बूम से हिंदी फिल्मों में आई कैटरीना कैफ ने अनी सुंदरता और अदाओं से खास पहचान बनायी है। वे पॉपुलर स्टार हैं, लेकिन अभी तक गंभीर और संवेदनशील भूमिकाएं उनसे दूर रही हैं। ऐसा लग रहा है कि न्यूयार्क की शुरूआत उन्हें नयी पहचान देगी। आप फिल्म के किरदार माया से किस रूप और अर्थ में जुड़ाव महसूस करती हैं? इस फिल्म का ऑफर मुझे कबीर खान ने दिया। उन्होंने मुझसे कहा कि अभी तक मैंने सभी फिल्मों में ग्लैमरस रोल निभाए हैं। मेरे सारे किरदार आम दर्शकों की पहुंच से बाहर रहे हैं किसी सपने की तरह। मैं माया के रूप में आपको ऐसी भूमिका दे रहा हूं जो दर्शकों के अड़ोस-पड़ोस की लड़की हो सकती है। उससे सभी जुड़ाव महसूस करेंगे। हो सकता है कालेज में आप ऐसी लड़की से मिली हों। एक ऐसी लड़की, तो अपनी सी लगे।