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देव डी की पारो पंजाब की है और माही भी

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-अजय ब्रह्मात्मज देवदास की पार्वती देव डी में परमिंदर बन गयी है। वह बंगाल के गांव से निकलकर पंजाब में आ गयी है। पंजाब आने के साथ ही उसमें हरे-भरे और खुशहाल प्रदेश की मस्ती आ गयी है। उसके व्यक्तित्व में ज्यादा बदलाव नहीं आया है, लेकिन समय बदल जाने के कारण परमिंदर अब ट्रैक्टर भी चलाने लगी। संयोग से अभिनय में आ गयी माही ने अब एक्टिंग को ही अपना करियर बना लिया है। देव डी के पहले उन्होंने दो पंजाबी फिल्में कर ली हैं। उनकी ताजा पंजाबी फिल्म चक दे फट्टे अच्छा बिजनेस कर रही है। एक्टिंग के खयाल से मुंबई पहुंची माही अपने दोस्त दिब्येन्दु भट्टाचार्य के बेटे शौर्य के जन्मदिन की पार्टी में बेपरवाह डांस कर रही थीं? संयोग से उनकी अल्हड़ मस्ती अनुराग कश्यप ने देखी और तत्काल अपनी फिल्म के लिए पसंद कर लिया। उन्हें अपनी पारो मिल गयी थी। माही को एकबारगी यकीन नहीं हुआ। वह कहती हैं, मैं तब तक अनुराग के बारे में ज्यादा नहीं जानती थी। मैंने अपने दोस्तों से जानकारी ली। सभी ने कहा कि यह बेहतरीन लांचिंग है। ना मत कर देना। माही ने सुचित्रा सेन वाली देवदास पहले देखी थी। दिलीप कुमार की फिल्में उन्हें पसंद हैं, इसलि

Gr8 Marketing turns Worst Movies into HITs-goutam mishra

चवन्नी ने गौतम मिश्रा से आग्रह किया था की वोह हिन्दी फिल्मों पर मार्केटिंग के नज़रिए से कुछ लिखें। उन्होंने यह प्रासंगिक टिप्पणी भेजी है। इसे चवन्नी अंग्रेज़ी में ही पोस्ट कर रहा है... Bollywood has produced some great flicks in recent past but at the same time it also witnessed movies which had great music, big stars, much needed action and a bit of comedy so that it attracts all age brackets but one of the most important ingredient for a successful movie – ‘A Good Story’ was completely missing. Here comes the role of marketers who still managed to create a pull and bring viewers to cinemas across country rather I must say globe at large and making it a highly fruitful venture for its producers. 2009 “Chandni Chowk 2 China” (CC2C) the first Warner Brothers’ bollywood venture is the latest example of this practice bollywood producers applied, though it could not turn up as a great hit but still marketers were able to bring people out of their homes for the much awaited and much hyped fl

21वीं सदी का देवदास है देव डी: अनुराग कश्यप

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-अजय ब्रह्मात्मज शरतचंद्र के उपन्यास देवदास पर हिंदी में तीन फिल्में बन चुकी हैं। इनके अलावा, कई फिल्में उससे प्रभावित रही हैं। युवा फिल्मकार अनुराग कश्यप की देव डी एक नई कोशिश है। इस फिल्म में अभय देओल, माही, कल्कि और दिब्येन्दु भट्टाचार्य मुख्य भूमिकाएं निभा रहे हैं। देव डी को लेकर बातचीत अनुराग कश्यप से.. देव डी का विचार कैसे आया? सन 2006 में मैं अभय के साथ एक दिन फीफा व‌र्ल्ड कप देख रहा था। मैच में मजा नहीं आ रहा था। अभय ने समय काटने के लिए एक कहानी सुनाई। लॉस एंजिल्स के एक स्ट्रिपर की कहानी थी। एक लड़का उस पर आसक्त हो जाता है। उस लड़के की अपनी अधूरी प्रेम कहानी है। कहानी सुनाने के बाद अभय ने मुझसे पूछा कि क्या यह कहानी सुनी है? मेरे नहीं कहने पर अभय ने ही बताया कि यह देवदास है। मैं सोच भी नहीं सकता था कि देवदास की कहानी इस अंदाज में भी बताई जा सकती है! अभय से आपकी पुरानी दोस्ती है? देव डी में मेरे सहयोगी लेखक विक्रमादित्य मोटवाणे हैं। वे अभय के स्कूल के दिनों के दोस्त हैं। विक्रम से मेरी मुलाकात पहले हो चुकी थी, लेकिन वाटर के लेखन के दौरान हम करीब हुए। जब मैं पहली फिल्म पांच बना

हिन्दी टाकीज:फ़िल्म देखना आसान हो गया है-राजीव जैन

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हिन्दी टाकीज-२३ जयपुर से प्रकाशित एक दैनिक समाचार पत्र में वरिष्ठ उपसंपादक, सात साल से में रहकर दुनिया के बारे में कुछ जानने का प्रयास कर रहा हूं। `शुरुआत´ नाम से ब्लॉग लिख रहा हूं। अपने परिचय में राजीव जैन ने इतना ही लिखा.लेकिन उनके ब्लॉग पर कुछ और जानकारियां हैं... पेशे से पत्रकार, वर्तमान में जयपुर के एक दैनिक समाचार पत्र में कार्यरत, उम्र 27 साल, कद 5 फुट 8।5 इंच, दूसरों की खबरों की चीरफाड का 6 साल से ज्‍यादा का अनुभव, शुरुआत से डेस्‍क पर ही था। रिपोर्टिंग शौकिया ही कि दस बीस बार, दो पांच बार दिल्‍ली में या फिर यूं किसी संपादक या डेस्‍क इंचार्ज ने किसी प्रेस कांफ्रेंस या खाने वाले प्रोग्राम में बैचलर होने के वास्‍ते कवरेज के लिए भेज दिया, लेकिन अपना कुछ लिखने का यह पहला ही प्रयास है। कोशिश कर रहा हूं कि इसे नियमित रख सकूं, सीधे यही लिखने से कुछ मानवीय त्रुटियां रह सकती हैं, एडिटिंग आप लोग पढते हुए कर लीजिएगा सुझाव सादर आमंत्रित हैं। अधिक जानकारी के लिए मेल करें mr.rajeevjain@gmail.com पर राम तेरी गंगा मैली मुझे अब याद नहीं कि इस फिल्‍म में क्‍या था, मैं शायद तब बमुश्किल छह-सात साल

दरअसल:मखौल बन गए हैं अवार्ड समारोह

-अजय ब्रह्मात्मज पहली बार किसी ने सार्वजनिक मंच से अवार्ड समारोहों में चल रहे फूहड़ संचालन के खिलाफ आवाज उठाई है। आशुतोष गोवारीकर ने जोरदार तरीके से अपनी बात रखी और संजीदा फिल्मकारों के उड़ाए जा रहे मखौल का विरोध किया। साजिद खान और फराह खान को निश्चित ही इससे झटका लगा होगा। उम्मीद है कि भविष्य में उन्हें समारोहों के संचालन की जिम्मेदारी देने से पहले आयोजक सोचेंगे और जरूरी हिदायत भी देंगे। पॉपुलर अवार्ड समारोहों में मखौल और मजाक के पीछे एक छिपी साजिश चलती रही है। इस साजिश का पर्दाफाश तभी हो गया था, जब शाहरुख खान और सैफ अली खान ने सबसे पहले एक अवार्ड समारोह में अपनी बिरादरी के सदस्यों का मखौल उड़ाया था। कुछ समय पहले सैफ ने स्पष्ट कहा था कि उस समारोह की स्क्रिप्ट में शाहरुख ने अपनी तरफ से कई चीजें जोड़ी थीं। मुझे बाद में समझ में आया कि वे उस समारोह के जरिए अपना हिसाब बराबर कर रहे थे। आशुतोष गोवारीकर और साजिद खान के बीच मंच पर हुए विवाद को आम दर्शक शायद ही कभी देख पाएं, लेकिन उस शाम के बाद अवश्य ही साजिद जैसे संचालकों के खिलाफ एक माहौल बना है। गौर करें, तो साजिद और उन जैसे संचालक गंभीर और

फ़िल्म समीक्षा:लक बाई चांस

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फिल्म इंडस्ट्री की एक झलक -अजय ब्रह्मात्मज हिंदी फिल्म इंडस्ट्री से हम सभी वाकिफ हैं। इस इंडस्ट्री के ग्लैमर, गॉसिप और किस्से हम देखते, सुनते और पढ़ते रहते हैं। ऐसा लगता है कि मीडिया सिर्फ सनसनी फैलाने के लिए मनगढंत घटनाओं को परोसता रहता है। 'लक बाई चांस' देखने के बाद दर्शक पाएंगे कि मीडिया सच से दूर नहीं है। यह किसी बाहरी व्यक्ति की लिखी और निर्देशित फिल्म नहीं है। यह जोया अख्तर की फिल्म है, जिनकी सारी उम्र इंडस्ट्री में ही गुजरी है। उन्होंने बगैर किसी दुराव, छिपाव या बचाव के इंडस्ट्री का बारीक चित्रण किया है। लेकिन उनके चत्रिण को ही फिल्म इंडस्ट्री की वास्तविकता न समझें। यह एक हिस्सा है, जो जोया अख्तर दिखाना और बताना चाहती हैं। विक्रम (फरहान अख्तर) और सोना (कोंकणा सेन शर्मा) फिल्म इंडस्ट्री में पांव टिकाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। दोनों की कोशिश और कामयाबी के अलग किस्से हैं। वे दोनों कहीं जुड़े हुए हैं तो कहीं अलहदा हैं। विक्रम चुस्त, चालाक और स्मार्ट स्ट्रगलर है। वह अपना हित समझता है और मिले हुए अवसर का सही उपयोग करता है। फिल्म में पुराने समय की अभिनेत्री नीना का संवाद है

फ़िल्म समीक्षा:विक्ट्री

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पुरानी शैली में नई कोशिश -अजय ब्रह्मात्मज अजीतपाल मंगत ने क्रिकेट के बैकग्राउंड पर महेंद्र सिंह धौनी और युवराज सिंह जैसे क्रिकेटर विजय शेखावत की जिंदगी के जरिए एक सामान्य युवक के क्रिकेट स्टार बनने में आई मुश्किलों, अड़चनों, भटकावों और पश्चाताप के प्रसंग रखे हैं। विक्ट्री की पृष्ठभूमि नई है, लेकिन मुख्य किरदार, घटनाएं और निर्वाह पुराना और परिचित है। इसी कारण इरादों और मेकिंग में अच्छी होने के बावजूद फिल्म अंतिम प्रभाव में थोड़ी कमजोर पड़ जाती है। विजय (हरमन बावेजा) की आंखों में एक सपना है। यह सपना उसके पिता ने बोया है। जैसलमेर जैसे छोटे शहर में रहने के बावजूद वह टीम इंडिया का खिलाड़ी बनना चाहता है। संयोग और कोशिश से वह स्टार बन जाता है, लेकिन स्टारडम का काकटेल उसे भटका देता है। अपनी गलती का एहसास होने पर उसे पश्चाताप होता है। वह फिर से कोशिश करता है और एक बार फिर बुलंदियों को छूता है। विजय के संघर्ष, भटकाव और सुधार के प्रसंगों में नयापन नहीं है। अजीतपाल के दृश्य विधानों में मौलिकता की कमी हैं। नैरेशन की पुरानी शैली पर चलने के कारण वे अधिक प्रभावित नहीं कर पाते। अमृता राव का चरित्र अ

हिन्दी टाकीज:पर्दे में खो जाने का आनंद अजीब होता है-गिरीन्द्र

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हिन्दी टाकीज-२२ इस बार गिरीन्द्र ने अपने संस्मरण लिखे हैं.गिरीन्द्र का एक ब्लॉग है]जिसका नाम उन्होंने अनुभव रखा है। अपने बारे में वे लिखते मैथिली में कहूं तो- 'कहबाक कला सीखे छी'। वैसे हर पल सीखने की चाहत रखता हूं। गांव पसंद है और शहर में इंटरनेट से जुड़ा कंप्यूटर। किताबें,गजलें और गाड़ी के पीछे की सीट पर बैठकर सड़कों को देखना पसंद है। ईमेल है- girindranath@gmail।com और बात करने का नंबर- 09868086126 सिनेमा घर, टॉकिज और न जाने लोग इस लाजबाब घर को क्या से क्या कहते हैं, लेकिन हमारे शहर में लोग इसे कहते हैं- सिलेमा घर। मैं इससे दूर ही रहा, काफी कम जाना होत था। याद करने की कोशिश करता हूं तो शायद 1987 में पहली बार सिनेमा देखने हॉल गया था। उस समय किशनगंज के एक हॉस्टल में पढाई करता था। छुट्टी में अपने शहर पूर्णिया आया था और सिनेमा देखने हॉल गया,लेकिन छह वर्ष की अवस्था में सिनेमा को सिलेमा हॉल में समझ नहीं पा रहा था। फिर नंबे के दशक में फिल्मों से मोहब्बत शुरू हुई और फिल्म महबूबा बन गई। छु्ट्टी में शहर आने का मतलब एक-दो सिनेमा देखना था। दोस्तों के साथ हम सिनेमा हॉल पहुंचते थे। पहली

फ़िल्म समीक्षा-राज़

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-अजय ब्रह्मात्मज डर व सिहरन तो है लेकिन.. राज-द मिस्ट्री कंटीन्यूज में मोहित सूरी डर और सिहरन पैदा करने में सफल रहे हैं, लेकिन फिल्म क्लाइमेक्स में थोड़ी ढीली पड़ जाती है। इसके बावजूद फिल्म के अधिकांश हिस्सों में मन नहीं उचटता। एक जिज्ञासा बनी रहती है कि जानलेवा घटनाओं की वजह क्या है? अगर फिल्म के अंत में बताई गई वजह असरदार तरीके से क्लाइमेक्स में चित्रित होती तो यह फिल्म राज के समकक्ष आ सकती थी। नंदिता (कंगना रानाउत) और यश (अध्ययन सुमन) एक-दूसरे से बेइंतहा प्यार करते हैं। नंदिता का सपना है कि उसका एक घर हो। यश उसे घर के साथ सुकून और भरोसा देता है, लेकिन तभी नंदिता के जीवन में हैरतअंग्रेज घटनाएं होने लगती हैं। हालांकि उसे इन घटनाओं के बारे में एक पेंटर पृथ्वी (इमरान हाशमी) ने पहले आगाह कर दिया था। आधुनिक सोच वाले यश को यकीन नहीं होता कि नंदिता किसी प्रेतात्मा की शिकार हो चुकी है। नंदिता अपनी मौत से बचने के लिए पृथ्वी का सहारा लेती है और कालिंदी नामक गांव में पहुंचती है। उसे पता चलता है कि एक आत्मा अपने अधूरे काम पूरे करने के लिए ही यह सब कर रही है। उसका मकसद गांव के पास स्थित कीटनाशक

फ़िल्म समीक्षा:स्लमडाग करोड़पति

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-अजय ब्रह्मात्मज मुंबई की मलिन बस्ती में प्रेम आस्कर के लिए दस श्रेणियों में नामांकित हो चुकी 'स्लमडाग मिलिनेयर' हिंदी में 'स्लमडाग करोड़पति' के नाम से रिलीज हुई है। अंग्रेजी और हिंदी में थोड़ा फर्क है। गालियों के इस्तेमाल के कारण 'स्लमडाग मिलिनेयर' को ए सर्टिफिकेट मिला है, जबकि 'स्लमडाग करोड़पति' को यू-ए सर्टिफिकेट के साथ रिलीज किया गया है। शायद निर्माता चाहते हों कि 'स्लमडाग करोड़पति' को ज्यादा से ज्यादा हिंदी दर्शक मिल सकें। 'स्लमडाग करोड़पति' विकास स्वरूप के उपन्यास 'क्यू एंड ए' पर आधारित है। फिल्म की स्क्रिप्ट के हिसाब से उपन्यास में कुछ जरूरी बदलाव किए गए हैं और कुछ प्रसंग छोड़ दिए गए हैं। उपन्यास का नायक राम मोहम्मद थामस है, जिसे फिल्म में सुविधा के लिए जमाल मलिक कर दिया गया है। उसकी प्रेमिका भी लतिका नहीं, नीता है। इसके अलावा उपन्यास में नायक के गिरफ्तार होने पर एक वकील स्मिता शाह उसका मामला अपने हाथ में लेती है। उपन्यास में राम मोहम्मद थामस धारावी में पला-बढ़ा है। फिल्म में उसे जुहू का बताया गया है। उप

दरअसल:जल्दी ही टूटेगा गजनी का रिकार्ड

-अजय ब्रह्मात्मज मंदी के इस दौर में गजनी के रिकार्ड तोड़ कलेक्शन से कुछ संकेत लिए जा सकते हैं। गजनी की मार्केटिंग, पॉपुलैरिटी और स्वीकृति से निस्संदेह इसके निर्माताओं को फायदा हुआ। साथ ही देश के वितरक और प्रदर्शकों को भी लाभ हुआ। गजनी ने हिंदी फिल्मों के दर्शकों की संख्या बढ़ा दी है। यह संख्या घटने पर भी अंतिम प्रभाव में हिंदी फिल्मों के व्यवसाय का विस्तार करेगी। यकीन करें, गजनी के कलेक्शन के रिकार्ड को टूटने में अब आठ या पंद्रह साल का वक्त नहीं लगेगा। बमुश्किल दो सालों में ही कोई फिल्म तीन अरब का कलेक्शन कर सकती है। अपनी लोकप्रियता के कारण गजनी इवेंट फिल्म बन गई है। कुछ दिनों पहले तक यह आम सवाल था कि आपने गजनी देखी क्या? ऐसी फिल्में अपनी प्रतिष्ठा (लोग इसे पॉपुलैरिटी या ब्रैंडिंग भी कह सकते हैं) से नए दर्शक तैयार करती हैं। नए दर्शकों का एक हिस्सा कालांतर में फिल्मों का स्थायी दर्शक बनता है। हर दशक में अभी तक एक-दो फिल्में ही इस स्तर तक पहुंच सकी हैं। आने वाले सालों में ऐसी इवेंट फिल्मों की संख्या में वृद्धि होगी, क्योंकि उन्हें दर्शकों का समर्थन मिलेगा। हिंदी फिल्मों का आम दर्शक एक

हिन्दी टाकीज:मन के अवसाद को कम करता है सिनेमा-डॉ मंजु गुप्ता

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हिन्दी टाकीज-२१ हिन्दी टाकीज में इस बार डॉ मंजु गुप्ता के संस्मरण..डॉ गुप्ता दर्शन शास्त्र की प्राध्यापिका हैं.वे मुंगेर के आर डी एंड डीजे कॉलेज में पढ़ाती है। सिनेमा और साहित्य में उनकी रुचि है.चवन्नी के आग्रह को उन्होंने स्वीकार किया और यह संस्मरण भेजा.उनकी कहानियो का संग्रह मुठभेड़ नाम से प्रकाशित हो चुका है.उन्होंने भरोसा दिया है कि वे भविष्य में भी सिनेमा पर कुछ लिखेंगीं चवन्नी के लिए। जीवन की एकरसता जीवन को नीरस बना देती है। न उसमें आनंद होता हे और न कोई उल्लास। नित्य एक जैसे कार्यकलापों से मन उंचाट सा हो जाता है, हृदय की प्रसन्नता मानो खो सी जाती है। परंतु सुंदर दृश्यों एवं मनोरम वस्तुओं को देखने से हमारा हृदय कमल खिल उठता है, मन गुनगुनाने लगता है। अपने कमरे की खिडक़ी के पास बैठी मैं बाहर गिरती हुई वर्षा की रिमझिम बूंदों को देख रही थी। जिसे देखकर मन को बड़ा सकून मिल रहा था। बारिश की वे बूंदें अनायास मुझे कहीं दूर स्मृति में ले जातीं। कहते हैं न कि अतीत की यादें यदि सुनहरी हो तो हमेशा वह तरोताजा ही लगती है। बाहर हो रही वर्षा को देख बार-बार मन में यह विचार आता 'काश! कालिदा

गणेश क्यों सुपरस्टार हैं और कार्तिक क्यों नहीं?-राम गोपाल वर्मा

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१६ जनवरी २००९ को राम गोपाल वर्मा ने यह पोस्ट अपने माई ब्लॉग पर लिखी है.यहाँ चवन्नी के पाठकों के लिए उसी पोस्ट को हिन्दी में पेश किया जा रहा है.उम्मीद है रामू की इस पोस्ट का मर्म समझा जा सकेगा. मेरे लिए यह हमेशा रहस्य रहा है कि कोई क्यों जिंदगी में कामयाब हो जाता है और कोई क्यों नहीं हो पाता? यह सिर्फ प्रतिभा या भाग्य की बात नहीं है। मेरे खयाल में इसका संबंध अचेतन प्रोग्रामिंग से होता है, जरूरी नहीं है कि उसे डिजाइन किया गया हो या उसके बारे में सोचा गया हो। बीते सालों में मैंने कई ऐसे अनेक एक्टर और टेक्नीशियन देखे, जिनके बारे में मेरी ऊंची राय थी, लेकिन वे कुछ नहीं कर सके और जिन्हें मैं औसत या मीडियाकर समझता रहा वे शिखर पर पहुंच गए। ऐसा नहीं है कि मैं इस विषय का अधिकारिक ज्ञाता हूं, लेकिन जिस समय मैं ऐसा सोच रहा था … मेरे आसपास के लोग भी वही राय रखते थे। इसकी सबसे सरल व्याख्या है 'एस' यानी 'सफलता' । लेकिन सफलता का मतलब क्या है? सफलता वास्तव में प्राथमिक तौर पर ज्यादातर लोगों की स्वीकृति है कि फलां आदमी बहुत ही अच्छा है। लेकिन यह कैसे पता चले कि इतने सारे लोग क्या सोच रह

फ़िल्म समीक्षा:चांदनी चौक टू चायना

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चूं चूं का मुरब्बा निकली 'चांदनी चौक टू चायना' निखिल आडवाणी, रोहन सिप्पी और उनकी टीम को अंदाजा लग गया होगा कि 'चांदनी चौक टू चायना' का प्रचार भारत में गैरजरूरी है। यहां इस फिल्म को पसंद कर पाना मुश्किल होगा, लिहाजा वे अमेरिका, इंग्लैंड और कनाडा में अपनी फिल्म का प्रचार और प्रीमियर करते रहे। मालूम नहीं, उनकी मेहनत क्या रंग ले आयी? अक्षय कुमार का आकर्षण और दीपिका पादुकोण का सौंदर्य भी इस फिल्म से नहीं बांध सका। फिल्म की कहानी लचर थी और पटकथा इतनी ढीली कि गानों से उन्हें जोड़ा जाता रहा। 'चांदनी चौक टू चायना' में न तो चांदनी चौक की पुरजोश सरगर्मी दिखी और न चायना की चहल-पहल। साल के पहले बड़े तोहफे के रूप में आई 'चांदनी चौक टू चायना' चूं चूं का मुरब्बा निकली। यह स्थापित होता है कि सिद्धू चांदनी चौक का है,लेकिन वह चायना में कहां और किस शहर या देहात में है ... यह लेखक और निर्देशक के जहन में रहा होगा। पर्दे पर हमें कभी शांगहाए दिखता है, तो कभी पेइचिंग की फॉरबिडेन सिटी तो कभी नकली चीनी गांव ... इस गांव में बांस की खपचियों से बने मकान हैं। मकान में दैनिक उपयोग के ऐ

दरअसल: स्लमडॉग मिलियनेयर बना स्लमडॉग करोड़पति

-अजय ब्रह्मात्मज विदेशी दर्शकों को भारतीय कहानी से रिझा रही स्लमडॉग मिलियनेयर पुरस्कार भी बटोर रही है। इसे अभी तक मुख्य रूप से पश्चिमी देशों में स्थित फिल्म समीक्षकों की सोसाइटी के अनेक पुरस्कार मिल चुके हैं। प्रसंगवश अपने देश में कभी दिल्ली, लखनऊ और कोलकाता के फिल्म समीक्षकों के पुरस्कारों का बड़ा सम्मान था, लेकिन अब ज्यादातर पुरस्कार टीवी इवेंट बन गए हैं। दरअसल, अब उनमें ग्लैमर और स्टार पर अधिक जोर रहता है, इसलिए फिल्मों की क्वालिटी और कॉन्टेंट पर अधिक ध्यान नहीं दिया जाता! बहरहाल, फिल्म स्लमडॉग मिलियनेयर हिंदी में स्लमडॉग करोड़पति के नाम से रिलीज हो रही है। उम्मीद की जा रही है कि भारतीय दर्शक इसे पसंद करेंगे। हालांकि यह डब फिल्म है, लेकिन निर्माताओं का दावा है कि इसे देखते हुए मूल फिल्म का ही आनंद आएगा, क्योंकि फिल्म के सभी कलाकारों ने ही डबिंग का काम किया है। मेरा संदेह तकनीकी है, अगर फिल्म हिंदी संवादों के साथ शूट नहीं की गई है, तो डबिंग में शब्द और होंठों के बीच मेल बिठाना मुश्किल काम होगा! स्लमडॉग करोड़पति मुंबई के धारावी में रह रहे किशोर जमाल मलिक के जीवन पर आधारित है। यह सच्च

पटना के सिनेमाघरों में मैं फिल्म क्यों नहीं देखूंगी ... अंजलि सिंह

अंजलि सिंह का यह लेख मुंबई से प्रकाशित द फिल्म स्ट्रीट जर्नल के पेज - १३ पर 1-7 जुलाई, 2007 को प्रकाशित हुआ था.चूंकि इस लेख में पटना के सिनेमाघरों की वास्तविकता की एक झलक है,इसलिए इसे चवन्नी में पोस्ट किया जा रहा है.उम्मीद है कि इस पर ब्लॉगर दोस्तों का सुझाव मिलेगा। हम अंजलि सिंह के आभारी हैं कि उन्होंने इस तरफ़ इशारा किया. आम तौर पर फिल्म देखने जाना एक खुशगवार अनुभव माना जाता है। लेकिन मेरे और मेरे शहर की दूसरी लड़कियों के लिए फिल्म देखने जाना ऐसा अनुभव है, जिसे हम बार-बार नहीं दोहराना चाहतीं। मैं पटना की बात कर रही हूं। पटना अपने पुरुषों की बदमाशी के लिए मशहूर है। जब भी मैंने पटना के सिनेमाघर में फिल्म देखने की हिम्मत की, हर बार यही कसम खाकर लौटी कि फिर से सिनेमाघर जाने से बेहतर है कि घर मैं बैठी रहूं। आप सोच रहे होंगे कि सिनेमाघर जाने में ऐसी क्या खास बात है? लेकिन पटना की लड़कियों को सिनेमा जाने के पहले 'कुछ जरूरी तैयारियां' करनी पड़ती हैं। वह परेशानी सचमुच बड़ी बात है। कालेज के दिनों की बात है, तब मनोरंजन के अधिक साधन नहीं थे। मैंने अपनी दोस्तों

ऐक्शन-कॉमेडी दोनों हैं चांदनी चौक टू चाइना में : रोहन सिप्पी

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कई फिल्में बना चुके रोहन सिप्पी की नई फिल्म है चांदनी चौक टू चाइना। अक्षय कुमार और दीपिका पादुकोण अभिनीत इस फिल्म को लेकर उनसे बातचीत हुई। प्रस्तुत हैं उसके अंश.. फिल्म का आइडिया कैसे आया? श्रीधर राघवन ने यह फिल्म लिखी है। कहानी अक्षय कुमार को पसंद आ गई। दोनों उस पर काम कर रहे थे। पहले इसे श्रीराम राघवन डायरेक्ट करने वाले थे, लेकिन वे किसी और प्रोजेक्ट में व्यस्त हो गए। इस बीच सलाम-ए-इश्क रिलीज हुई। मेरी निखिल से बात हुई। उन्हें भी फिल्म की स्क्रिप्ट पसंद आई। इस तरह फिल्म शुरू हो गई। अक्षय की निजी जिंदगी और फिल्म की कहानी में समानता है? श्रीधर ने उनके साथ खाकी में काम किया था। उस फिल्म के समय ही इसका आइडिया आया था। फिल्म और उनकी निजी जिंदगी में कुछ बातें एक जैसी जरूर हैं, लेकिन दोनों में काफी अंतर भी है। सबसे बड़ा अंतर यही है कि फिल्म का अंत है, लेकिन अक्षय का करियर तो लगातार आगे बढ़ता जा रहा है! फिल्म में कुछ ऐसे तत्व हैं, जिनमें उनकी जिंदगी की झलक मिल सकती है। हम सभी जानते हैं कि वे इस फिल्म के पहले चीन नहीं गए थे। हमारी कहानी का एक हिस्सा चीन में ही है। यह एक आम लड़के की कहानी है, ज

मासूम प्रेम की फिल्में अब नहीं बनतीं-महेश भट्ट

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सन् 1973 हिंदी सिनेमा के लिए महत्वपूर्ण है और मेरे लिए भी। उसी साल मैंने अपनी पहली विवादास्पद फिल्म मंजिलें और भी हैं के निर्देशन के साथ हिंदी फिल्मों का अपना सफर आरंभ किया था। उसी वर्ष हिंदी फिल्मों के महान शोमैन राज कपूर ने मेरा नाम जोकर से हुए भारी नुकसान की भरपाई के लिए किशोर उम्र की प्रेम कहानी पर आधारित फिल्म बॉबी बनाई। हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में बनी टीनएज प्रेम कहानियों में अभी तक इस फिल्म का कोई सानी नहीं है। 35 सालों के बाद मैं आज इसी फिल्म से अपने लेख की शुरुआत कर रहा हूं। समय की धुंध को हटाकर पीछे देखता हूं तो पाता हूं कि किसी और फिल्म निर्माता ने राज कपूर की तरह किशोरों के मासूम प्रेम को सेल्यूलाइड पर नहीं उकेरा। स्वीट सिक्सटीन वाले रोल बॉबी के पहले उम्रदराज हीरो और हीरोइन हिंदी फिल्मों में किशोर उम्र के प्रेमियों की भूमिकाएं निभाया करते थे। हम ऐसी फिल्में देखकर खूब हंसते थे। मैंने 1970 में राज खोसला के सहायक के रूप में फिल्म इंडस्ट्री में कदम रखा। उन दिनों वे दो रास्ते का निर्देशन कर रहे थे। इसमें राजेश खन्ना और मुमताज की रोमांटिक जोडी थी। उनकी उम्र बीस के आसपास रही होगी।

फ़िल्म समीक्षा:बैडलक गोबिंद, काश...मेरे होते और द प्रसिडेंट इज कमिंग की संयुक्त समीक्षा

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प्रथमग्रासे मच्छिकापात हिंदी फिल्मों में बुरी फिल्मों की संख्या बढ़ती जा रही है। फिर भी अगर दो-तीन फिल्में एक साथ रिलीज हो रही हों तो उम्मीद रहती है कि कम से कम एक थोड़ी ठीक होगी। इस बार वह उम्मीद भी टूट गई। इस हफ्ते दो हिंदी और एक अंग्रेजी फिल्म रिलीज हुई। तीनों साधारण निकलीं और तीनों ने मनोरंजन का स्वाद खराब किया। तीनों फिल्मों का अलग-अलग एक्सरे उचित नहीं होगा, इसलिए कुछ सामान्य बातें.. युवा फिल्मकार फिल्म के नैरेटिव पर विशेष ध्यान नहीं देते। सिर्फ एक विचार, व्यक्ति या विषय लेकर किसी तरह फिल्म लिखने की कोशिश में वे विफल होते हैं। बैडलक गोबिंद का आइडिया अच्छा है, लेकिन उस विचार को फिल्म के लेखक और निर्देशक कहानी में नहीं ढाल पाए। काश ़ ़ ़ मेरे होते का आइडिया नकली है। यश चोपड़ा की डर ने प्रेम की एकतरफा दीवानगी का फार्मूला दिया। इस फार्मूले के तहत कई फिल्में बनी हैं। इसमें शाहरुख खान वाली भूमिका सना खान ने की है। द प्रेसिडेंट इज कमिंग अंग्रेजी में बनी है और इसकी पटकथा भी ढीली है। ऐसा लगता है कि लेखक के दिमाग में जब जो बात आ गई, उसे उसने दृश्य में बदल दिया। इधर के लेखक-निर्देशक हिंदी फ

एक तस्वीर:नीतू चंद्रा

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दरअसल:इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल छोटे शहरों में

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-अजय ब्रह्मात्मज हरियाणा के यमुनानगर में 24 से 29 दिसंबर, 2008 के बीच इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल और फिल्म एप्रिसिएशन कोर्स संपन्न हुआ। इस महत्वपूर्ण आयोजन में हरियाणा, पंजाब, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, दिल्ली और हिमाचल प्रदेश के 200 छात्रों ने भाग लिया। मुख्य रूप से लेखक-पत्रकार अजीत राय की अवधारणा से यह संभव हो सका। राय मानते हैं कि फिल्म फेस्टिवल का आयोजन देश के छोटे शहरों में भी हो, ताकि सिनेमा के प्रति युवा दर्शकों की सुरुचि का विकास हो। वे विश्व सिनेमा की समृद्ध सिनेमा से परिचित हों और अपने लिए उपलब्ध सिनेमा में अच्छे और बुरे का फर्क कर सकें। गौर करें, तो गोवा के इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल से लेकर दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, तिरुअनंतपुरम, पूना आदि शहरों में होने वाले फिल्म फेस्टिवलों से शहरों के दर्शक ही लाभ उठा पाते हैं। इन सभी फेस्टिवल का एक तरीका बन गया है, जिसमें ऐसी गुंजाइश नहीं रखी जाती कि उनमें छोटे शहर, कस्बा और गांवों के दर्शकों की भागीदारी हो सके। लिहाजा फिल्म फेस्टिवल देश के संभ्रांत और संपन्न दर्शकों तक ही सीमित रह जाते हैं। इधर एक सुगबुगाहट दिख रही है। तीन साल पहले बिहार सरकार के

बॉक्स ऑफिस:०७.०१.२००९

गजनी की कमाई 100 करोड़ से ज्यादा गजनी के निर्माताओं ने 170 करोड़ की सकल आय (ग्रौसर) का विज्ञापन चला रखा है। ट्रेड सर्किल में गजनी की कमाई को लेकर बहस चल रही है। हर मामले में असंतुष्ट रहने वाले विश्लेषक बता रहे हैं कि गजनी की वास्तविक आय ज्यादा नहीं होगी। तर्क यह है कि कारपोरेट हाउस के सक्रिय होने और मल्टीप्लेक्स संस्कृति आने के बाद कोई भी फिल्म जबरदस्त मुनाफे में नहीं आ सकी है। दूसरी तरफ कुछ ट्रेड विश्लेषकबता रहे हैं कि गजनी इस दशक में सौ करोड़ की कमाई करने वाली पहली फिल्म होगी। कमाई कम-ज्यादा हो सकती है, लेकिन इसमें अब दो राय नहीं रही कि गजनी पिछले साल की सबसे बड़ी हिट है। उसे एक हफ्ते का खाली मैदान मिला और इस हफ्ते भी उसके दर्शकों को अपनी तरफ खींचने वाली कोई फिल्म रिलीज नहीं हो रही है। अक्षय कुमार की चांदनी चौक टू चाइना आने के बाद ही गजनी के दर्शकों में उल्लेखनीय गिरावट आ सकती है। आमिर खान की गजनी ने देश के अंदर और बाहर के दर्शकों को आकर्षित किया है। तात्पर्य यह कि गजनी छोटे शहरों से लेकर विदेशी शहरों तक में चल रही इस तरह आमिर खान के दर्शकों का विस्तार हुआ है। रब ने बना दी जोड़ी दूसर

हरियाणा इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल:झटपट सर्वेक्षण - १:पहली फिल्म

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दिसंबर के अंत में हरियाणा के प्रथम इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल के सिलसिले में यमुनानगर जाने का मौका मिला। इस अवसर का लाभ उठाते हुए इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में हिस्सा ले रहे छात्रों के बीच हमने एक झटपट सर्वेक्षण किया। मुख्य रूप से 18 से 22 साल के छात्रों के बीच हमने दस सवाल बांटे। हमें 137 प्रविष्टियां वापस मिलीं। एक सवाल था कि आपने पहली फिल्म कौन सी देखी? पहली फिल्म के तौर पर छात्रों ने 59 फिल्मों के नाम दिए। जाहिर सी बात है कि पहली फिल्म कोई भी हो सकती थी। साथ में हमने यह भी पूछा था कि पहली फिल्म कहां देखी? टीवी पर, वीडियो के जरिए या सिनेमाघरों में? लगभग 50 फीसदी ने पहली फिल्म टीवी या वीडियो के जरिए देखी। हां, 50 फीसदी से थोड़े कम सिनेमाघरों में गए। इससे पता चलता है कि हरियाणा में सिनेमाघरों में जानेवाले दर्शक पचास प्रतिशत से कम हैं। सिनेमा के विकास के लिहाज से यह संतोषजनक आंकड़ा नहीं कहा जा सकता। इन दिनों मुंबई के निर्माता उत्तर भारतीय समाज के विषयों पर फिल्मों नहीं बना रहे हैं। उसकी एक बड़ी वजह है कि उन्हें उत्तर भारत के सिनेमाघरों से रिटर्न नहीं मिलता। चूंकि मुख्य कमाई मुंबई, दूसरे म

गजनी,गुप्त ज्ञान,दीदी और दादी

एक दीदी हैं मेरी.दिल्ली में रहती हैं.अभी पिछले दिनों दिल्ली जाना हुआ तो उनसे मुलाक़ात हुई.मुलाक़ात के पहले ही उनके बेटे ने बता दिया था की माँ आमिर खान से बहुत नाराज़ हैं.मुझे लगा की गजनी देख कर आमिर खान से नाखुश हुए प्रशंसकों में से वह भी एक होंगी.बहरहाल.मिलने पर मैंने ही पूछा,कैसी लगी गजनी.उन्होंने भोजपुरी में प्रचलित सभी सभ्य गलिया दिन और कहा भला ऐसी फ़िल्म बनती है.नाम कुछ और रखा और फ़िल्म में कुछ और दिखा दिया.बात आगे बढ़ी तो उन्होंने बताया की वह तो गजनी देखने गई थीं.उन्हें लगा था की ऐतिहासिक फ़िल्म होगी और मुहम्मद गजनी के जीवन को लेकर फ़िल्म बनी होगी.लेकिन यहाँ तो आमिर खान था और वह गजनी को मार रहा था.गजनी भी कौन?एक विलेन.मेरा तो दिमाग ही ख़राब हो गया। फिर उन्होंने एक दादी का किस्सा सुनाया.बचपन की बात थी.उनकी सहेली नियमित तौर पर फ़िल्म देखती थी.चूंकि परिवार से अकेले जाने की इजाज़त नहीं थी,इसलिए दादी को साथ में ले जाना पड़ता था.दादी के साथ जाने पर घर के बड़े-बूढ़े मना नहीं करते थे.एक बार शहर में गुप्त ज्ञान फ़िल्म लगी.दीदी की सहेली ने दादी को राजी किया और दादी-पोती फ़िल्म देखने चली गयीं.उन

दरअसल:उमीदें कायम हैं...

-अजय ब्रह्मात्मज मनोरंजन की दुनिया में 2009 के पहले दिन आप सभी का स्वागत है। मंदी के इस दौर में, जबकि सारी गतिविधियां ठंडी पड़ी हुई हैं, तब भी मनोरंजन की दुनिया में हलचल है। अर्थशास्त्री भी मानते हैं कि मंदी के किसी भी दौर में मनोरंजन की दुनिया सबसे कम प्रभावित होती है। पिछले साल रब ने बना दी जोड़ी और गजनी की प्रचारित सफलता में से झूठ और झांसे का प्रतिशत यदि निकाल दें, तो भी मानना पड़ेगा कि दर्शकों ने उत्साह दिखाया। उन्होंने शाहरुख खान और आमिर खान की फिल्मों को हिट की श्रेणी में पहुंचा कर फिल्म इंडस्ट्री को भरोसा दिया कि हमेशा की तरह उम्मीद कायम है। साल के पहले दिन अगले 364 दिनों की भविष्यवाणी कर पाना पंडितों के लिए आसान होता होगा। ग्रहों की दिशा से वे भविष्य का अनुमान कर लेते हैं। हम फिल्मी सितारों की दशा और दिशा से भविष्य का अनुमान लगा सकते हैं, लेकिन भविष्यवाणी नहीं कर सकते, क्योंकि दर्शकों का मिजाज कब और क्यों बदलेगा, यह कोई नहीं जानता। सच तो यह है कि वे किसी बड़े सितारे की फिल्म को बॉक्स ऑफिस पर औंधे मुंह गिरा सकते हैं, तो किसी नए सितारे को लोकप्रियता के आकाश में चमका भी सकते हैं।