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बॉक्स ऑफिस:२६.०९.२००८

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वेलकम टू सज्ज्जनपुर को मिले दर्शक पिछले हफ्ते की तीनों ही फिल्में कामेडी थीं। सीमित बजट की इन फिल्मों में कोई पॉपुलर स्टार नहीं था। कमर्शियल दृष्टिकोण से देखें तो इन सभी में सबसे ज्यादा पॉपुलर अमृता राव को माना जा सकता है। वह वेलकम टू सज्जनपुर में थीं। वेलकम टू सज्जनपुर श्याम बेनेगल की फिल्म है। कह सकते हैं कि उन्होंने पहली बार इस विधा की फिल्म बनाने की कोशिश की और सफल रहे। वेलकम टू सज्जनपुर को दर्शक मिल रहे हैं। शुक्रवार को इस फिल्म को ओपनिंग उल्लेखनीय नहीं थी, लेकिन शनिवार के रिव्यू और आरंभिक दर्शकों की तारीफ से इसके दर्शकबढ़े। इस फिल्म के लिए 40-50 प्रतिशत दर्शक कम नहीं कहे जा सकते। इस फिल्म को छोटे शहरों में आक्रामक प्रचार के साथ अभी भी ले जाया जाए तो कुछ और दर्शक मिलेंगे। यह भारतीय गांव की कहानी है, जहां हंसी के लिए सीन नहीं लिखने पड़ते। बाकी दो फिल्मों में हल्ला के निर्देशक जयदीप वर्मा अपनी फिल्म को मिली प्रतिक्रिया से दुखी और नाराज है। उन्हें लगता है कि उनकी उद्देश्यपूर्ण फिल्म को किसी साजिश के तहत नकार दिया गया। ऐसा नहीं है। फिल्म ही बुरी थी। उन्हें आत्मावलोकन करना चाहिए। तीसर

हम फिल्में क्यों देखते हैं?-शशि सिंह

हिन्दी टाकीज-९ जिन खोजा तिन पाइया का मुहावरा शशि सिंह के बारे में सही बयान करता है. झारखण्ड के हजारीबाग जिले में स्थित कोलफील्ड रजरप्पा में पले-बढे शशि सिंह हिन्दी के पुराने ब्लॉगर हैं.सपने देखने-दिखने में यह नौजवान जितना माहिर है,उन्हें पूरा करने को लेकर उतना ही बेचैन भी है.अपनी जड़ों से गहरे जुड़े शशि सिंह ने प्रिंट पत्रकारिता शरुआत की थी.इन दिनों वे न्यू मीडिया (mobile vas) में सक्रीय हैं और वोडाफोन में कार्यरत हैं.शशि सिंह के आग्रह से आप नहीं बच सकते,क्योंकि उसमें एक छिपी चुनौती भी रहती है,जो कुछ नया करने के लिए सामने वाले को उकसाती है। हम फिल्में क्यों देखते हैं? जाहिर सी बात है फिल्में बनती हैं,इसलिए हम फिल्में देखते हैं। यकीन मानिये अगर फिल्में नहीं बनतीं तो हम कुछ और देखते। मसलन, कठपुतली का नाच, तमाशा, जात्रा, नौटंकी, रामलीला या ऐसा ही कुछ और। खैर सौभाग्य या दुर्भाग्य से ऐसा नहीं है,इसलिए हम फिल्में देखते हैं। फ्लैश बैक फिल्में देखने की बात चली तो याद आता है वो दिन जब मैंने सिनेमाघर में पहली फिल्म देखी। सिनेमा का वह मंदिर था,रामगढ़ का राजीव पिक्चर पैलेस। इस मंदिर में मैंने पहली

फ़िल्म समीक्षा:वेलकम टू सज्जनपुर

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सहज हास्य का सुंदर चित्रण -अजय ब्रह्मात्मज श्याम बेनेगल की गंभीर फिल्मों से परिचित दर्शकों को वेलकम टू सज्जनपुर छोटी और हल्की फिल्म लग सकती है। एक गांव में ज्यादातर मासूम और चंद चालाक किरदारों को लेकर बुनी गई इस फिल्म में जीवन के हल्के-फुल्के प्रसंगों में छिपे हास्य की गुदगुदी है। साथ ही गांव में चल रही राजनीति और लोकतंत्र की बढ़ती समझ का प्रासंगिक चित्रण है। बेनेगल की फिल्म में हम फूहड़ या ऊलजलूल हास्य की कल्पना ही नहीं कर सकते। लाउड एक्टिंग, अश्लील संवाद और सितारों के आकर्षण को ही कामेडी समझने वाले इस फिल्म से समझ बढ़ा सकते हैं कि भारतीय समाज में हास्य कितना सहज और आम है। सज्जनपुर गांव में महादेव अकेला पढ़ा-लिखा नौजवान है। उसे नौकरी नहीं मिलती तो बीए करने के बावजूद वह सब्जी बेचने के पारिवारिक धंधे में लग जाता है। संयोग से वह गांव की एक दुखियारी के लिए उसके बेटे के नाम भावपूर्ण चिट्ठी लिखता है। बेटा मां की सुध लेता है और महादेव की चिट्ठी लिखने की कला गांव में मशहूर हो जाती है। बाद में वह इसे ही पेशा बना लेता है। चिट्ठी लिखने के क्रम में महादेव के संपर्क में आए किरदारों के जरिए हम गां

पीड़ा में दिलासा देती है प्रार्थना:महेश भट्ट

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एक गोरी खूबसूरत औरत झुक कर कुरान की आयतें पढती हुई मेरे चेहरे पर फूंकती है। ताड के पुराने पत्तों से मेरे ललाट पर क्रॉस बनाती है। फिर गणेश की तांबे की छोटी मूर्ति मेरे हाथों में देती है, धीमे कदमों से दरवाजे की ओर लौटती है। जाते हुए कमरे का बल्ब बुझाती है। नींद के इंतजार में उस औरत की प्रार्थनाओं से मैं सुकून और सुरक्षा महसूस करता हूं। मुश्किल वक्त की दिलासा अपनी शिया मुस्लिम मां की यह छवि मेरी यादों से कभी नहीं गई। मां ने हिंदू ब्राह्मण से गुपचुप शादी की थी। वह मदर मैरी की भी पूजा करती थी। मेरे कानों में अभी तक गणपति बप्पा मोरया, या अली मदद और आवे मारिया के बोल गूंजते हैं। जब मैं कुछ सीखने-समझने और याद करने लायक हुआ तो पाया कि मैं कहीं भी रहूं, ये ध्वनियां हमेशा साथ रहती हैं। बीमारी या भयावह पीडा के समय पूरी दुनिया में लोगों ने इन शब्दों का जाप किया है। सोचा कि क्या सचमुच इन शब्दों में राहत देने की शक्ति है। यह वह समय था, जब देश के प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू थे। इसे विडंबना कहें कि जहां देवताओं की अधिकतम संख्या है, उसका प्रधानमंत्री घोषित रूप से नास्तिक था। उन्होंने सौगंध खाई कि

बच्चन का सराहनीय व्यवहार

-अजय ब्रह्मात्मज यह उम्र का असर हो सकता है। यह भी संभव है कि इसके पीछे किसी भी प्रकार के विवाद से दूर रहने की मंशा काम करती हो। इन दिनों अमिताभ बच्चन तुरंत बचाव की मुद्रा में आ जाते हैं। वे अपने ब्लॉग पर झट से लिखते हैं कि अगर मेरी बात से कोई आहत हुआ हो, तो मैं माफी मांगता हूं। एंग्री यंग मैन अब कूल ओल्ड मैन में बदल चुका है। उनके इस आकस्मिक व्यवहार से उनके पुराने प्रशंसकों को तकलीफ भी हो सकती है। विजय अब चुनौती नहीं देता। मुठभेड़ नहीं करता। विवाद की स्थिति आने पर दो कदम पीछे हट कर माफी मांग लेता है। ऐक्टर की इमेज को सच समझने वालों को निश्चित ही अमिताभ बच्चन की ऐसी मुद्राओं से आश्चर्य होता होगा! पिछले दिनों मुंबई में जो हुआ, उसे एक प्रहसन ही कहा जा सकता है। द्रोण फिल्म की म्यूजिक रिलीज के अवसर पर जया बच्चन के कथन का गलत आशय निकाला गया और उसे मराठी अस्मिता से जोड़कर महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के प्रमुख राज ठाकरे ने बच्चन परिवार के विरोध का नारा दे दिया। बच्चन परिवार उनके निशाने पर पहले से है। इस विरोध के कारणों की पड़ताल करें तो हम राज ठाकरे के वक्तव्य और आचरण का निहितार्थ समझ सकते हैं। ब

बॉक्स ऑफिस:२६.०९,२००८

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औसत व्यापार कर लेगी 1920 निर्माता सुरेन्द्र शर्मा की विक्रम भट्ट निर्देशित डरावनी फिल्म 1920 हर जगह पसंद की गयी। मुंबई के मल्टीप्लेक्स से लेकर छोटे शहरों के सिं गल स्क्रीन तक में इसे ठीक-ठाक दर्शक मिल रहे हैं। विक्रम भट्ट की पिछली फिल्मों की तुलना में 1920 बड़ी हिट है। एक लंबे समय के बाद विक्रम भट्ट ने फिर से कामयाबी का स्वाद चखा है। मुंबई में आरंभिक दिनों में इसका कलेक्शन 55 से 60 प्रतिशत के बीच रहा। चूंकि फिल्म की तारीफ हो रही है, इसलिए ट्रेड पंडित अनुमान लगा रहे हैं कि 1920 औसत व्यापार कर लेगी। नए चेहरों रजनीश दुग्गल और अदा शर्मा को लेकर बनी फिल्म के लिए यह बड़ी बात है। अर्जुन बाली की रू-ब-रू में भले ही रणदीप हुडा और शहाना गोस्वामी ने बेहतर काम किया था। लेकिन लचर पटकथा और कमजोर प्रस्तुति केकारण फिल्म दर्शकों को नहीं बांध सकी। पहले दिन इसे सिर्फ 15 प्रतिशत दर्शक मिले। रितुपर्णो घोष की फिल्म द लास्ट लियर अंग्रेजी फिल्म है, लेकिन अमिताभ बच्चन, प्रीति जिंटा और अर्जुन रामपाल के कारण हिंदी फिल्मों के ट्रेड सर्किल में उसकी चर्चा है। इस फिल्म को पर्याप्त दर्शक नहीं मिले। मुं

फ़िल्म समीक्षा:१९२०

डर लगता है -अजय ब्रह्मात्मज डरावनी फिल्म की एक खासियत होती है कि वह उन दृश्यों में नहीं डराती, जहां हम उम्मीद करते हैं। सहज ढंग से चल रहे दृश्य के बीच अचानक कुछ घटता है और हम डर से सिहर उठते हैं। विक्रम भट्ट की 1920 में ऐसे कई दृश्य हैं। इसे देखते हुए उनकी पिछली डरावनी फिल्म राज के प्रसंग याद आ सकते हैं। यह विक्रम की विशेषता है। 1920 वास्तव में एक प्रेम कहानी है, जो आजादी के पहले घटित होती है। अर्जुन और लिसा विभिन्न धर्मोके हैं। अर्जुन अपने परिवार के खिलाफ जाकर लिसा से शादी कर लेता है। शादी के तुरंत बाद दोनों एक मनोरम ठिकाने पर पहुंचते हैं। वहां रजनीश को एक पुरानी हवेली को नया रूप देना है। फिल्म में हम पहले ही देख चुके हैं कि हवेली में बसी अज्ञात शक्तियां ऐसा नहीं होने देतीं। लिसा को वह हवेली परिचित सी लगती है। उसे कुछ आवाजें सुनाई पड़ती हैं और कुछ छायाएं भी दिखती हैं। ऐसा लगता है किहवेली से उसका कोई पुराना रिश्ता है। वास्तव में हवेली में बसी अतृप्त आत्मा को लिसा का ही इंतजार है। वह लिसा के जिस्म में प्रवेश कर जाती है। जब अर्जुन को लिसा की अजीबोगरीब हरकतों से हैरत होती है तो वह पहले मे

यहां माफी मांगने का मौका नहीं मिलता: अदा शर्मा

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विक्रम भट्ट की 1920 अदा शर्मा की पहली फिल्म है, लेकिन फिल्म देखने वालों को यकीन ही नहीं होगा कि उनकी यह पहली फिल्म है। अपने किरदार को उन्होंने बहुत खूबसूरती और सधे अंदाज में निभाया है। प्रस्तुत हैं अदा शर्मा से बातचीत.. पहली फिल्म की रिलीज के पहले से ही तारीफ हो रही है। इसके लिए आपने कितनी तैयारी की थी? पूरी तैयारी की थी। डांस, ऐक्टिंग और एक्सप्रेशन, सभी पर काम किया था। विक्रम वैसे भी न केवल पूरी सीन को परफॉर्म करके बताते हैं, बल्कि संवाद, इमोशन आदि सब-कुछ समझा देते हैं। उससे काफी मदद मिली। दूसरी अभिनेत्रियों की तरह थिएटर या ट्रेनिंग लेकर आप नहीं आई हैं? थिएटर किया है मैंने, लेकिन तब नहीं सोचा था कि ऐक्टिंग करना है। जैसे डांस सीखती थी, वैसे ही थिएटर करती थी। हां, ऐक्टिंग क्लासेज में कभी नहीं गई। मुझे इसकी जरूरत भी नहीं महसूस हुई। मुझे लगा कि मेरे अंदर ऐक्टिंग टैलॅन्ट है और अभ्यास से हम उसे निखार सकते हैं। मेरे खयाल में अभिनय आपके व्यक्तित्व में जन्म से ही आता है। पहली फिल्म के लिए आपने क्या सावधानी बरती? अभी बहुत टफ मुकाबला है। आप पहली फिल्म के बहाने किसी से माफी नहीं मांग सकते। आपको प

हिन्दी टाकीज:हजारों ख्वाईशें ऐसी... -विनीत उत्पल

हिन्दी टाकीज-८ इस बार विनीत उत्पल.विनीत ने बडे जतन से सब कुछ याद किया है.विनीत पेशे से पत्रकार हैं। फिल्म, फ़िल्म और फ़िल्म, यह शब्द है या कुछ और। इससे परिचय कैसे हुआ, क्यों हुआ, यह मायने रखता है। दीवारों पर चिपके पोस्टरों, अख़बारों में छपी तस्वीरें, गली-मोहल्ले में लाउडस्पीकरों में बजते गाने व डायलाग या घरों में रेडियो से प्रसारित होने वाले फिल्मी गाने मन मस्तिष्क पर दस्तक देते। उत्सुकता जगाते। शादी-ब्याह के मौके पर माहौल को मदमस्त करते फिल्मी गाने हों या २६ जनवरी या १५ अगस्त को बजने वाले देशभक्ति के तराने, बचपन की अठखेलियों के साथ कौतुहल का विषय होता। बचपन के वो दिन जब हजारों ख्वाईशें ऐसी कि फिल्मी पोस्टर पर हीरो को स्टाइल देते देख ख़ुद के अरमान स्मार्ट बनने और दीखने की कोशिश में खो जाते। उस दौर में तमाम हीरोइनें एक जैसी लगतीं। मन में उथल-पुथल कि गाने बजते कैसे हैं, डायलाग कैसे बोला जाता है, हीरो जमीन से उठकर परदे पर कैसे आता है, क्या पोस्टर पर दीखने वाला स्टंट वास्तव में होता है। वो हसीन पल मां बताती है कि सैनिक स्कूल, तिलैया में हर शनिवार को फ़िल्म दिखाया जाता था। फुर्सत मिलने पर

मेट्रो, मल्टीप्लेक्स और मार्केटिंग

-अजय ब्रह्मात्मज अपने शहरों के सिनेमाघरों में लगी फिल्मों के प्रति दर्शकों की अरुचि को देखकर लोग मानते हैं कि फिल्म चली नहीं, लेकिन अगले ही दिन अखबार और टीवी चैनलों पर निर्माता, निर्देशक, आर्टिस्ट और कुछ ट्रेड पंडितों को चिल्ला-चिल्लाकर लिखते और बोलते देखते हैं कि फिल्म हिट हो गई है। लोग यह भी देखते हैं कि इस चीख का फायदा होता है। सिनेमाघर की तरफ दर्शकजाते दिखाई देते हैं। पहले-दूसरे दिन खाली पड़ा सिनेमाघर तीसरे दिन से थोड़ा-थोड़ा भरने लगता है। फिल्म चलाने की यह नई रणनीति है। ट्रेड विशेषज्ञों के मंतव्य के पहले ही शोर आरंभ कर दो कि मेरी फिल्म हिट हो गई है। यही चल रहा है। पिछले दिनों फूंक की साधारण कामयाबी का बड़ा जश्न मनाया गया। इसके सिक्वल की घोषणा भी कर दी गई! उस रात पार्टी में सभी अंदर से मान रहे थे कि फूंक रामू की पिछली फ्लॉप फिल्मों से थोड़ा बेहतर बिजनेस ही कर रही है, फिर भी सभी एक-दूसरे को बधाइयां दे रहे थे और कह रहे थे कि फिल्म हिट हो गई है। एंटरटेनमेंट और न्यूज चैनल के रिपोर्टर पार्टी में दी जा रही बधाइयों का सीधा प्रसारण कर रहे थे। मीडिया प्रचार की इस चपेट में आम दर्शकों का आना