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हारे (सितारे) को हरिनाम

कोई कहीं भी आए.जाए... चवन्नी को क्या फर्क पड़ता है? इन दिनों संजय दत्त हर प्रकार के देवतओं के मंदिरों का दरवाजा खटखटा रहे हैं. उन्हें अमर्त्य देवताओं की सुध हथियार मामले में फंसने और जेल जाने के बाद आई. आजकल तो आए दिन वे किसी न किसी मंदिर के चौखटे पर दिखाई पड़ते हैं और हमारा मीडिया उनकी धार्मिक और धर्मभीरू छवि पेश कर खुश होता है. हाथ में बध्धी, माथे पर टीका और गले में धार्मिक चुनरी डाले संजय दत्त से सभी को सहानुभूति होती है. उन पर दया अ।ती है. चवन्नी को लगता है कि संजय दत्त इन धार्मिक यात्राओं से अपने मकसद में कामयाब हो रहे हैं. अगोचर देवता तो न जाने कब कृपा करेंगे? संसार के गोचर प्राणियों की धारणा है कि बेचारा संजू बाबा नाहक फंस गया. उसने जो अवैध हथियार रखने का अपराध किया है, उसकी सजा ज्यादा लंबी होती जा रही है. चवन्नी ने गौर किया है कि कानून की गिरफ्त में अ।ने के बाद संजू बाबा ने अपनी हिंदू पहचान को मजबूत किया है. उन्होंने मुसलमान दोस्तों से एक दूरी बनाई और सार्वजनिक स्थलों पर नजर आते समय हिंदू श्रद्धालु के रूप में ही दिखे. बहुत लोगों को लग सकता है कि यह कौन सी बड़ी बात हो गई

शुक्रवार ७ सितंबर

चवन्नी ने तय किया है कि आज से हर शुक्रवार को वह मुम्बई की फिल्म इंडस्ट्री में चल रही चर्चाओं और बदलती हवा के रुख़ की जानकारी आप को देगा.कल देर रात चवन्नी 'धमाल' के प्रीमियर से लौटा.मुम्बई के अंधेरी उपनगर के पश्चिमी इलाक़े में कई मल्टीप्लेक्स आ गए हैं.वहीँ फिल्मों के प्रीमियर हुआ करते हैं.वैसे प्रीमियर तो अब नाम भर ही रह गया है.ना वो पहले जैसा ताम-झाम बच गया है और ना लाव -लश्कर राग गया है.प्रीमियर पैसे बचाने का साधन बन गया है।खैर,कल रात 'धमाल' के प्रीमियर में संजय दत्त आये थे.एक तरह से कहें तो उनके जमानत पर छूटने की खुशी में ही इस प्रीमियर का आयोजन हुआ था.अगर आप को याद हो तो उनकी गिरफ्तारी के समय कई कार्यक्रम रद्द कर दिए गए थे.संजय दत्त आये थे.उन्होने काली बंडी पहन रखी थी.आप ने देखा होगा कि वह झूम कर चलते हैं.कल रात उनकी चाल में पुराना जोश नही था.कानून,जेल और सजा से लोग टूट जाते हैं.संजय के साथ जो हुआ और हो रह है उस पर फिर कभी.'धमाल' चवन्नी के ख़्याल से पहली हिंदी फिल्म है,जिस में कोई हीरोइन नही है.इसके पोस्टर पर भी मर्द ही मर्द हैं.है ना अजूबी बात.लेकिन इसका मतल

खोया खोया चांद और सुधीर भाई - 4

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सुधीर भाई की फिल्मों में पीरियड रहता है, लेकिन भावनाएं और प्रतिक्रियाएं समकालीन रहती हैं. सबसे अधिक उल्लेखनीय है उनकी फिल्मों का पॉलिटिकल अंडरटोन ... उनकी हर फिल्म में राजनीतिक विचार रहते हैं. हां, जरूरी नहीं कि उनकी व्याख्या या परसेप्शन से अ।प सहमत हों. उनकी 'हजारों ख्वाहिशें ऐसी' रियलिज्म और संवेदना के स्तर पर काफी सराही गयी है और हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के अधिकांश लोग बगैर फिल्म के मर्म को समझे ही उसकी तारीफ में लगे रहते हैं. होता यों है कि सफल, चर्चित और कल्ट फिल्मों के प्रति सर्वमान्य धारणाओं के खिलाफ कोई नहीं जाना चाहता. दूसरी तरफ इस तथ्य का दूसरा सच है कि अधिकांश लोग उन धारणाओं को ही ओढ़ लेते हैं. एक बार चवन्नी की मुलाकात किसी सिनेप्रेमी से हो गयी. जोश और उत्साह से लबालब वह महत्वाकांक्षी युवक फिल्मों में घुसने की कोशिश में है. वह गुरुदत्त, राजकपूर और बिमल राय का नाम लेते नहीं थ कता. चवन्नी ने उस से गुरुदत्त की फिल्मों के बारे में पूछा तो उसने 'कागज के फूल' का नाम लिया. 'कागज के फूल' का उल्लेख हर कोई करता है. चवन्नी ने सहज जिज्ञासा रखी, 'क्या अ।पने '

धन्य हैं देव साहेब!

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देव साहेब धन्य हैं.उनका निमंत्रण पत्र आया है.एसएमएस और ईमेल के ज़माने में उनहोंने हाथ से लिखा पत्र भेजा है.हाँ ,तकनीकी सुविधा का फायदा उठा कर उनहोंने यह पत्र स्कैन करवा कर भेजा है.आप इस पत्र को यहाँ पढ़ सकते हैं.चवन्नी ७ की शाम को बतायेगा कि उनहोंने चाय पर क्यों बुलाया था.उनकी सादगी देखिए,लिख रहे हैं अपने साथ चाय पीने का सौभाग्य दीजिए.

क्यों वंचित रहे चवन्नी ?

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पिछले दिनों अजय ब्रह्मात्मज ने दैनिक जागरण के मनोरंजन परिशिष्ट 'तरंग' के अपने कॉलम 'दरअसल' में चवन्नी सरीखे दर्शकों की चिंता व्यक्त की. आजकल मल्टीप्लेक्स संस्कृति की खूब बात की जा रही है, लेकिन इस मल्टीप्लेक्स संस्कृति ने नए किस्म का मनुवाद विकसित किया है. मल्टीप्लेक्स संस्कृति के इस मनुवाद के बारे में सलीम आरिफ ने एक मुलाकात में बड़ी अच्छी तरह समझाया. क्या कहा,आप उन्हें नहीं जानते? सलीम आरिफ ने गुलजार के नाटकों का सुंदर मंचन किया है. रंगमंच के मशहूर निर्देशक हैं और कॉस्ट्यूम डिजाइनर के तौर पर खास स्थान रखते हैं. बहरहाल, मल्टीप्लेक्स संस्कृति की लहर ने महानगरों के कुछ इलाकों में सिंगल स्क्रीन थिएटर को खत्म कर दिया है. इन इलाकों के चवन्नी छाप दर्शकों की समस्या बढ़ गई है. पहले 20 से 50 रूपए में वे ताजा फिल्में देख लिया करते थे. अब थिएटर ही नहीं रहे तो कहां जाएं ? नयी फिल्में मल्टीप्लेक्स में रिलीज होती हैं और उनमें घुसने के लिए 100 से अधिक रूपए चाहिए. अब चवन्नी की बिरादरी का दर्शक जाएं तो कहां जाएं ? चवन्नी चैप जिस इलाके में रहता है. उस इलाके में 6 किलोमीटर के दायरे में

चवन्नी पर बोधिसत्व

चवन्नी को बोधिसत्व की यह टिपण्णी रोचक लगी.वह उसे जस का तस् यहाँ यहाँ प्रस्तुत कर खनक रहा है।आपकी टिपण्णी की प्रतीक्षा रहेगी.- चवन्नी चैप चवन्नी खतरे में है। कोई उसे चवन्नी छाप कह रहा है तो कोई चवन्नी चैप । वह दुहाई दे रहा है और कह रहा है कि मैं सिर्फ चवन्नी हूँ। बस चवन्नी। पर कोई उसकी बात पर गौर नहीं कर रहा है। और वह खुद पर खतरा आया पा कर छटपटा रहा है। यह खतरा उसने खुद मोल लिया होता तो कोई बात नहीं थी। उसे पता भी नहीं चला और वह खतरे में घिर गया। जब तक इकन्नी, दुअन्नी, एक पैसे दो पैसे , पाँच, दस और बीस पैसे उसके पीछे थे वह इतराता फिरता रहा।उसके निचले तबके के लोग गुम होते रहे, खत्म होते रहे फिर भी उसने उनकी ओर पलट कर भी नहीं देखा। वह अठन्नी से होड़ लेता रहा। वह रुपये का हिस्सेदार था एक चौथाई का हिस्सेदार। पर अचानक वह खतरे के निशान के आस-पास पाया गया। उसे बनाने वालों ने उसकी प्रजाति की पैदावार पर बिना उसे इत्तिला दिए रोक लगाने का ऐलान कर दिया तो वह एक दम बौखला गया। बोला बिना मेरे तुम्हारा काम नहीं चलेगा। पर लोग उसके गुस्से पर मस्त होते रहे। निर्माताओं की हँसी से उसको अपने भाई-बंदों के साथ

सलमान खान के प्रशंसक ना पढ़ें

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अगर आप सलमान खान के प्रशंसक हैं तो कृपया इसे ना पढ़ें.चवन्नी यहाँ कुछ ऐसी बातें करने जा रहा है ,जिससे आप को ठेस पहुंच सकती है. चवन्नी भी सलमान खान को पसंद करता है.परदे पर जब सलमान के ठुमके लगते हैं तो चवन्नी भी सीट पर उछलता है.सलमान का अंदाज़ चवन्नी को भी पसंद है.लेकिन परदे के बाहर सलमान के बर्ताव की तारीफ़ नही की जा सकती.ऐसा लगता है और यही सच भी है कि सलमान केवल अपने अब्बा के सामने खामोश और शरीफ बने रहते हैं.भाई- बहनों से उन्हें असीम प्यार है और अपने दोस्तो की भी वे परवाह करते हैं.उनको सबसे ज्यादा प्यारे माईसन और माईजान हैं ,इनके अलावा और किसी के प्रति ना तो उनके मन में इज़्ज़त है और ना ही वे परवाह करते हैं कि कौन क्या सोच रहा है.अभी जेल से छूट कर आने पर किसी टीवी पत्रकार ने उनसे पूछ दिया कि उनके घर वालों की क्या प्रतिक्रिया रही तो सामान्य तरीके से जवाब देने के बजाय उनहोंने कह कि मेरे घर वालों को मेरा जेल से आना बहुत बुरा लगा.जाहिर सी बात है कि सवाल का जवाब उनहोंने मजाक में दिया,लेकिन अमूमन उनका यही रवैया रहता है.पिछले दिनों हिंदुस्तान टाइम्स का रिपोर्टर उनसे भिड़ गया था.सलमान की आदत है क

आमिर खान का ब्लॉग

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आमिर खान ब्लॉग लिख रहे हैं.चवन्नी ने सोचा क्यों न उनकी बातों को हिंदी के चिट्ठाकारों और पाठकों तक पहुंचाया जाए.इसी दिशा में यह प्रयास है.इस बार थोड़ी देर हो गई है.बगली बार से उधार उन्होंने लिखा और इधर आप ने पढ़ा. शर्म करो रविवार,26 अगस्त,2007 आज का दिन बहुत ही उदास रहा.कल हैदराबाद में हुए बम ब्लास्ट के बारे में पढ़ा और घोर निराशा में डूब गया.दुख की बात है, और शर्म की बात है,कि लोग इतने बीमार दिमाग के हो सकते हैं.निर्दोष लोगों को मार कर भला किसी को क्या मिलेगा.मुझे लग रहा है कि इस ब्लास्ट के लिए जिम्मदर लोग दक्षिणपंथी,अतिवादी और धार्मिक समूह के होंगे...जैसा कि देश में हुए आतंक के अधिकांश हादसों में रहा है.चाहे जो भी हो,बीमार दिमाग के लोगों की ऐसी आतंकवादी गतिविधियों से निर्दोष बच्चे,औरतें और मर्द मारे जाते हैं.आप का कोई भी धर्म हो ,मैं जानना चाहता हूं कि किस धर्म में निर्दोषों की हत्या का पाठ पढाया जाता है? इतना ही नहीं ,किसी भी धर्म में निर्दोषों को नुकसान पहुचाने वालों को माफ नहीं किया जाता.जीव का अनादर मतलब ईश्वर का अनादर है. शर्म करो!

धोखा: सराहनीय है मौलिकता

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अजय ब्रह्मात्मज पूजा भट्ट निर्देशित फिल्म 'धोखा' समसामयिक और सामाजिक फिल्म है। 'पाप' और 'हॉली डे' में पूजा भट्ट ने व्यक्तियों के अंतर्र्सबंधों का चित्रण किया था। हिंदी फिल्मों की प्रचलित परंपरा में यहां भी फोकस में व्यक्ति है लेकिन उसका एक सामाजिक संदर्भ है। उस सामाजिक संदर्भ का राजनीतिक परिप्रेक्ष्य भी है। पूजा भट्ट की 'धोखा' का मर्म मुस्लिम अस्मिता का प्रश्न है। जैद अहमद (मुजम्मिल इब्राहिम) पुलिस अधिकारी है। एक शाम वह अपने कालेज के पुनर्मिलन समारोह में शामिल होने आया है। उसकी बीवी सारा (ट्यूलिप जोशी) किसी और काम से पूना गई हुई है। तभी उसे मुंबई में बम धमाके की खबर मिलती है। उसे पता चलता है कि धमाके में उसकी बीवी भी मारी गई है। लेकिन ऐसा लगता है कि इ स विस्फोट में वह मानव बम थी। जैद अहमद पर आरोप लगते हैं। उसकी नौकरी छूट जाती है। जैद लगातार बहस करता है कि अगर उसकी बीवी जिहादी हो गई तो इसके लिए वह कैसे दोषी हो सकता है? जैद पूरे मामले की जड़ में जाता है। वह अपने साले को जिहादी बनने से रोकता है और अपने व्यवहार से साबित करता है कि वह भी इस देश का जिम्मेदार न

'आग' से जख्मी हुए रामू

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अजय ब्रह्मात्मज रामगोपाल वर्मा ने आगे बढ़कर 'शोले' को फिर से बनाने का जोखिम लिया था। इस जोखिम में वह चूक गए हैं। 'शोले' इस देश की बहुदर्शित फिल्म है। इसके संवाद, दृश्य और पात्र हमारी लोकरुचि का हिस्सा बन चुके हैं। लगभग हर उम्र के दर्शकों ने इसे बार-बार देखा है। यह फिल्म रामू को भी अत्यंत प्रिय है। रामू तो पूरे खम के साथ कह चुके हैं कि 'शोले' नहीं बनी होती तो मैं फिल्मकार नहीं बन पाता। बहरहाल, घटनाएं और संवेदनाएं 'शोले' की हैं, सिर्फ परिवेश और पात्र बदल गए हैं। कहानी रामगढ़ की जगह कालीगंज की हो गई है। यह मुंबई के पास की टापूनुमा बस्ती है, जहां ज्यादातर मछुआरे रहते हैं। खूंखार अपराधी बब्बन की निगाह इस बस्ती पर लगी है। इंस्पेक्टर नरसिम्हा से उसकी पुरानी दुश्मनी है। नरसिम्हा को भी बब्बन से बदला लेना है। वह हीरू और राज को ले आता है। ये दोनों छोटे-मोटे अपराधी हैं। जो नासिक से मुंबई आए हैं रोजगार की तलाश में ़ ़ ़ बसंती यहां घुंघरू बन गई है और तांगे की जगह ऑटो चलाती है तो राधा का बदलाव दुर्गा में हुआ है, जिसका अपना नर्सिग होम है। बाकी सारे पात्र भी नाम और भेष