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सठिया गए हैं बुड्ढे

चवन्नी बड़ी उम्मीद के साथ बुड्ढा मर गया देखने गया था.इस फिल्म में अनुपम खेर,परेश रावल,ओउम पुरी,प्रेम चोपडा और रणवीर शोरी एवं मुकेश तिवारी जैसे ऐक्टर थे.अभी चवन्नी बहुत दुःखी है..ऐसे फूहड़ दृश्य तो उसने घटिया फिल्मों भी नही देखे थे.उसे चोरी-चोरी देखी वो सारी फ़िल्में याद आयीं,जो उसने स्कूल के दिनों में देखी थीं. दादा कोंद्के भी ऐसी फूहड़ कल्पना नही कर सकते थे .क्या हो गया है हमारे सीनियर और अनुभवी कलाकारों को...क्या उनके सामने भी रोजी-रोटी की समस्या है?चवन्नी उन सभी के नाम से एक राहत आरम्भ करना चाहता है ताकी उन्हें भविष्य में ऐसी घटिया फ़िल्में करने की ज़रूरत ना पडे.फिल्मों में संबंधों का ऐसा घटिया चित्रण उसने आज तक नही देखा.चवन्नी सोच रह है कि ऐसे दृश्य करते समय क्या इन अनुभवी कलाकारों को शर्म ने नही घेरा होगा?इतना लम्बा और गहरा जीवन जीं चुकें क्या महज पैसों के लिए ऐसी घटिया फिल्म कि या फिर उनकी दमित इच्छा थी कि राखी सावंत को इसी भाने चूने का मौका मिल जायेगा.इस फिल्म के तीन बुद्धों की मौत राखी के साथ सोने से होती है.चवन्नी को लगता है कि उनके अन्दर के कलाकारों की मौत हो गयी है.चवन्नी बहु

मैरीगोल्ड

हॉलीवुड के निर्देशक विलर्ड कैरोल ने भारतीय शैली में फिल्म बनाने की सोची, तो जाहिर सी बात है कि उसमें नाच-गाना, भव्य सेट और आभूषित परिधान जोड़ दिए। मैरीगोल्ड में यह सब दिखता है। कहीं न कहीं पश्चिम के दबाव में जी रही फिल्म इंडस्ट्री की झलक भी मिलती है, लेकिन यह फिल्म चौबे गए छब्बे बनने दूबे बनकर लौटे मुहावरे को चरितार्थ करती है। फिल्म न हॉलीवुड की रह गई है, न बालीवुड की बन पाई है। इसके लिए विशेषज्ञों को कोई नया शब्द गढ़ना होगा। बहरहाल, नकचढ़ी और एक्ट्रेस होने के गुमान में अक्खड़ बन चुकी मैरीगोल्ड (अली लार्टर) एक फिल्म की शूटिंग के लिए गोवा पहुंचती है। वहां पहुंचते ही उसे खबर मिलती है कि फिल्म तो बंद हो चुकी है और उसके प्रोड्यूसर-फाइनेंसर फरार हैं। उन्होंने मैरीगोल्ड को सिर्फ एक तरफ का एयर टिकट दिया था। मैरीगोल्ड को सहारा मिलता है प्रोडक्शन टीम की एक लड़की से। वह उसे बॉलीवुड की एक फिल्म यूनिट से मिलवाती है। वहां उसे काम मिल जाता है, लेकिन उसे नाचना नहीं आता, जबकि वह फिल्म म्यूजिकल है। खैर, संभालने के लिए फिल्म का कोरियोग्राफर प्रेम (सलमान खान) आ जाता है। शाही परिवार का प्रेम अपने परिवार

बुड्ढा मर गया

ओमपुरी, परेश रावल और अनुपम खेर..फिल्म इंडस्ट्री के तीनों बुजुर्ग कलाकारों को न जाने क्या हो गया है? उन्होंने ऐसी घटिया और बकवास फिल्म कैसे स्वीकार की और क्या फिल्म के फूहड़ दृश्यों को करते हुए उन्हें कोई शर्म नहीं आई? तौबा-तौबा..हमारे अनुभवी, प्रशिक्षित और पुरस्कृत कलाकारों को अपने प्रशंसकों से चंदा लेकर आजीविका चला लेनी चाहिए..बुढ्डा मर गया निहायत घटिया, कमजोर और बकवास फिल्म है। राहुल रवैल की समझदारी को भी क्या हो गया है? बेताब और अर्जुन जैसी कामयाब और ठीक-ठाक फिल्में बना चुके राहुल ने ब्लैक कॉमेडी के नाम पर जो परोसा है, वह उनके कैरियर पर कालिख पोत जाता है। फकीर से अमीर बने परिवारों के सदस्य ऐसे तो नहीं होते? हां, इस फिल्म के पोस्टर पर 13 चेहरे हैं, जो शायद एक किस्म का रिकॉर्ड हों।

महेश भट्ट का आलेख जागरण में

ऊंचे आदर्शों का अभाव हमारे मौजूदा दौर की अजीब त्रासदी है। पहले हमारे आदर्श मूल्यों और आकांक्षाओं के प्रतीक होते थे, जैसे गांधी जी। आजकल आदर्श के स्थान पर उनके प्रतिरूप होने लगे हैं जिन्हें हम आयकॉन कहते हैं। अब तो उससे भी एक कदम आगे स्टाइल आयकॉन की बातें होने लगी हैं। आदर्श से स्टाइल आयकॉन तक के इस सफर को समझना जरूरी है। आदर्श अपने मूल्यों के प्रति समर्पित होते थे। स्टाइल आयकॉन केवल स्टाइल हैं। वे मूल्यों के संवाहक नहीं हैं। इसलिए समाज से उनका लगाव भी ऊपरी है। उनके अंदर यह प्यास भी नहीं है कि चलो अपने खोखलेपन को पूरा करने के लिए खुद को कुछ ऐसे मूल्यों से जोड़ें जो उन्हें संपूर्ण बनाए। यह पैकेजिंग इंडस्ट्री की देन है, जहां पर केवल रूप-रंग और वस्त्र ही महत्वपूर्ण हो गया है। उपभोक्ता संस्कृति और जंक मानसिकता ने इसे हमारे लिए जरूरी बना दिया है। इस दौर में हम स्टाइल आयकॉन क्रिएट करते हैं। आज हमारे स्टाइल आयकॉन वे लोग हैं जिनकी जड़ें नहीं हैं। हम जिस संस्कृति में जीते हैं उसे आदर्शीकृत करने के लिए कुछ को मुखौटा दे दिया जाता है, मगर देखने वाला जानता है और पहनने वाला भी कि यह केवल मुखौटा ही है

सी ग्रेड फिल्मों का संसार

पिछले दिनों पानीपत से गुजरने का मौका मिला . जो पानीपत के बारे में नही जानते,उनकी जानकारी के लिये पानीपत में १५२८,१५५६ और १७६१ में तीन बडे युद्ध हुए.उसके बाद भारत का भूगोल और पॉलिटिकल इतिहास बदल gayaa .पानीपत अभी हरियाणा का प्रमुख शहर है. बहरहाल,पानीपत की सड़कों, chauraahon, दुकानों पर लगे फिल्मों के posTer ने मेरा ध्यान खिंचा.मर्द-औरत की कामुक तस्वीरें इन पोस्तेर्स पर थीं.फिल्मों के नाम थे-हसीं रातें,मस्तानी गिर्ल्स,नादाँ तितलियाँ,गरम होंठ,प्यासीमोहब्बत,अजनबी साया…एक दोस्त ने बताया की ज़रूरी नही की सारी फिल्में हिंदी में बनी होन.येह दूब फिल्में भी हो सकती हैं.गौर से पोस्तेर्स के चेहरे देखे तो उनमे से कुछ सचमुच विदेशी थे. सिर्फ पानीपत ही क्यों,मुम्बई और देल्ही से लेकर हर छोटे,मझोले और बडे शहरों में कुछ ठेत्रेस में ऐसी ही फिल्में चलती हैं.ठेत्रे के मलिक और दर्शक दोनों खुश रहते हैं. -पिछले साल २०-२५ ऐसी फिल्में बनी थीं.येह तो हिंदी में बनी और सन्सोरेड फिल्में थीं.इनके अलावा और भी कितनी फिल्में दूब होकर रेलेअसे हुई होंगी.कुछ फिल्मों के तित्लेस बदल दिये जाते हैं. -ज्यादातर शहरों की गरीब बस

ब्लू अम्ब्रेला

इस फिल्म का नाम नीली छतरी रखा जाता तो क्या फिल्म का प्रभाव कम हो जाता? विशाल भारद्वाज या रोनी स्क्रूवाला ही इसका जवाब दे सकते हैं। रस्किन बांड की कहानी पर बनी ब्लू अंब्रेला एक पहाड़ी गांव के बाशिंदों के मनोभाव और स्वभाव को जाहिर करती है। एक पहाड़ी गांव है। खास मौसम में वहां से विदेशी टूरिस्ट गुजरते हैं। चहल-पहल हो जाती है। एक बार कुछ टूरिस्ट गांव की लड़की बिनिया के लाकेट (जो भालू के नाखून से बना है) के बदले उसे नीली छतरी दे जाते हैं। छतरी के मिलते ही गांव में बिनिया की चर्चा होने लगती है। गांव का साहूकार नंद किशोर खत्री (पंकज कपूर) छतरी हथियाना चाहता है। वह बिनिया को कई तरह के प्रलोभन देता है। बिनिया टस से मस नहीं होती तो वह शहर जाकर वैसी छतरी खरीदने की सोचता है। कंजूस साहूकार महंगी छतरी नहीं खरीद पाता। एक दिन बिनिया की छतरी चोरी हो जाती है। उसे शक है कि उसकी छतरी साहूकार ने ही चुराई है। इस बीच साहूकार खत्री के पास दूसरे रंग की वैसी ही छतरी पार्सल से आती है। अब साहूकार की गांव में प्रतिष्ठा बढ़ जाती है। फिर एक दिन भेद खुलता है और फिर..पंकज कपूर ने साहूकार की भूमिका में पूरी तरह ढल गए ह

चक दे इंडिया

सिनेमा के परदे पर ही सही भारतीय महिला हाकी टीम को व‌र्ल्ड कप जीतते देखकर अच्छा लगता है। कमजोर, बिखरी और हतोत्साहित टीम आखिरकार व‌र्ल्ड कप भारत ले आती है। महिला हाकी टीम को यह जीत कोच कबीर खान की मेहनत और एकाग्रता से मिलती है। कबीर खान की भूमिका शाहरुख खान ने निभायी है। बड़े स्टारों के साथ सबसे बड़ी दिक्कत है कि वे फिल्म चाहे जैसी भी करें ़ ़ ़ अपना स्टारडम नहीं छोड़ पाते। इस फिल्म के अंतिम प्रभाव को स्टार शाहरुख खान कमजोर करते हैं।कबीर खान भारतीय हाकी टीम के कप्तान हैं। व‌र्ल्ड कप में पाकिस्तान के खिलाफ भारतीय टीम की जीत का मौका वह गंवा देते हैं। उन पर कई आरोप लगते हैं। आरोप इतने गहरे और मर्मातक हैं कि उन्हें अपना पुश्तैनी घर तक छोड़ना पड़ता है। उनके घर की चहारदीवारी पर गद्दार लिख दिया जाता है। इसके बाद वह सात साल तक कहां रहते हैं ़ ़ ़ यह सिर्फ लेखक-निर्देशक को मालूम है। सात साल बाद वह महिला हाकी टीम के कोच बनने की ठानते हैं और उसे विजयी टीम में बदलने का प्रण लेते हैं। मुश्किलों, अड़चनों, दिक्कतों और समस्याओं के बीच वे महिला खिलाडि़यों में जोश व जज्बा पैदा करते हैं। आखिरकार टीम इंडिया

अमिताभ बच्चन की खबर जागरण में

संजय लीला भंसाली की फिल्म ब्लैक के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का राष्ट्रीय पुरस्कार पाने के बाद अमिताभ बच्चन खुशी से फूले नहीं समा रहे हैं। अपनी खुशियों के कुछ क्षण मीडिया के साथ बांटते हुए बिग बी ने यह भी कहा कि देश की गरीब जनता के चेहरे पर हंसी और सुकून के दो पल सिर्फ मनोरंजक फिल्में ही दे सकती हैं, न कि रियलिस्टिक फिल्में। मिलेनियम सुपरस्टार के लिए भी राष्ट्रीय पुरस्कार का खास महत्व है। उन्हें पुरस्कार की खबर 7 अगस्त को हैदराबाद से राम गोपाल वर्मा की फिल्म सरकार राज की शूटिंग से लौटने पर मिली। गौरतलब है कि 2005 के राष्ट्रीय पुरस्कारों की घोषणा पर न्यायालय की रोक के कारण इस सर्वज्ञात खबर पर सभी खामोश थे। कैसा संयोग है कि अमिताभ बच्चन को मिली यह खुशी भी विवादों में लिपटी मिली? पिछले कुछ समय से अमिताभ की हर खुशी के आगे-पीछे विवाद लिपटे जा रहे हैं। क्या वजह हो सकती है? अमिताभ दबी मुस्कराहट के साथ जवाब देते हैं, मुझे तो कोई वजह नहीं दिखती। अगर आप लोगों को ऐसा लगता है, तो आप ही इसका जवाब भी दे दीजिए। अमिताभ ने विशेष बातचीत के लिए पत्रकारों को बांद्रा के महबूब स्टूडियो में आमंत्रित किया था

कैश

'धूम' और 'दस' जैसी फिल्मों की विधा में बनी 'कैश' मुख्य रूप से किशोर और युवा दर्शकों की फिल्म है। फिल्म में एक्शन के रोमांचकारी दृश्य है और गीतों का सुंदर फिल्मांकन है। वर्तमान दौर में ऐसी फिल्मों का आकर्षण है। खासकर शहरी युवा मन को ऐसी 'सिटएक्ट'(सिचुएशनल एक्शन) फिल्में पसंद आती हैं। गौर करें तो निर्देशक अनुभव सिन्हा ने एक्शन के दस-बारह दृश्य तैयार करने के बाद उनके इर्द-गिर्द किरदारों को जोड़ा और कहानी को चिपकाया है। इस फिल्म में आधा दर्जन से ज्यादा कलाकार हैं और सभी के लिए दो-चार दृश्य गढ़ने में ही फिल्म पूरी हो गई है। अफसोस यही है कि कोई भी किरदार उभर कर नहीं आता। पारंपरिक तरीके से देखें तो इस फिल्म में हीरो-हीरोइन नहीं हैं। एक दूसरी बात कि सारे ही निगेटिव किरदार हैं। हां, उनमें से कुछ नैतिकता का पालन करते हैं और एक है जो निजी लाभ के लिए किसी नैतिकता को नहीं मानता। सारे बुरे चरित्रों में अधिक बुरा होने के कारण हम उसे खलनायक मान सकते हैं। सिर्फ खल चरित्रों की फिल्में देश के दर्शक दिल से पसंद नहीं कर पाते। ऐसी फिल्में उन्हें सिर्फ नाच, गाने और एक्शन के का

गाँधी माई फ़ादर

कथा कहने (नैरेशन) और काल (पीरियड) में सही सामंजस्य हो तो फिल्म संपूर्णता में प्रभावशाली होती है। किसी एक पक्ष के कमजोर होने पर फिल्म का प्रभाव घटता है। 'गांधी माई फादर' में निर्देशक फिरोज अब्बास खान और कला निर्देशक नितिन देसाई की कल्पना व सोच तत्कालीन परिवेश को गढ़ने में सफल रहे हैं। हां, चरित्र चित्रण और निर्वाह में स्पष्टता व तारतम्य की कमी से फिल्म अपने अंतिम प्रभाव में उतनी असरदार साबित नहीं होती। महात्मा 'बनने' से पहले ही गांधी और उनके बेटे के बीच तनाव के बीज पड़ गए थे। गांधी की महत्वाकांक्षा और व्यापक सोच के आगे परिजनों का हित छोटा हो गया था। हर बे टे की तरह हरिलाल भी अपने पिता की तरह बनना चाहते थे। उनकी ख्वाहिश थी कि वह भी वकालत की पढ़ाई करें और पिता की तरह बैरिस्टर बनें। बेटे की इस ख्वाहिश को गांधी ने प्रश्रय नहीं दिया। वे अपने बेटे को जीवन और समाज सेवा की पाठशाला में प्रशिक्षित करना चाहते थे। पिता-पुत्र के बीच मनमुटाव बढ़ता गया। फिल्म में यह मनमुटाव अनेक प्रसंगों और घटनाओं से सामने आता है। हरिलाल अपनी सीमाओं के चलते ग्रंथियों से ग्रस्त होते चले गए। उन्हें लगता