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अमिताभ बच्चन की खबर जागरण में

संजय लीला भंसाली की फिल्म ब्लैक के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का राष्ट्रीय पुरस्कार पाने के बाद अमिताभ बच्चन खुशी से फूले नहीं समा रहे हैं। अपनी खुशियों के कुछ क्षण मीडिया के साथ बांटते हुए बिग बी ने यह भी कहा कि देश की गरीब जनता के चेहरे पर हंसी और सुकून के दो पल सिर्फ मनोरंजक फिल्में ही दे सकती हैं, न कि रियलिस्टिक फिल्में। मिलेनियम सुपरस्टार के लिए भी राष्ट्रीय पुरस्कार का खास महत्व है। उन्हें पुरस्कार की खबर 7 अगस्त को हैदराबाद से राम गोपाल वर्मा की फिल्म सरकार राज की शूटिंग से लौटने पर मिली। गौरतलब है कि 2005 के राष्ट्रीय पुरस्कारों की घोषणा पर न्यायालय की रोक के कारण इस सर्वज्ञात खबर पर सभी खामोश थे। कैसा संयोग है कि अमिताभ बच्चन को मिली यह खुशी भी विवादों में लिपटी मिली? पिछले कुछ समय से अमिताभ की हर खुशी के आगे-पीछे विवाद लिपटे जा रहे हैं। क्या वजह हो सकती है? अमिताभ दबी मुस्कराहट के साथ जवाब देते हैं, मुझे तो कोई वजह नहीं दिखती। अगर आप लोगों को ऐसा लगता है, तो आप ही इसका जवाब भी दे दीजिए। अमिताभ ने विशेष बातचीत के लिए पत्रकारों को बांद्रा के महबूब स्टूडियो में आमंत्रित किया था

कैश

'धूम' और 'दस' जैसी फिल्मों की विधा में बनी 'कैश' मुख्य रूप से किशोर और युवा दर्शकों की फिल्म है। फिल्म में एक्शन के रोमांचकारी दृश्य है और गीतों का सुंदर फिल्मांकन है। वर्तमान दौर में ऐसी फिल्मों का आकर्षण है। खासकर शहरी युवा मन को ऐसी 'सिटएक्ट'(सिचुएशनल एक्शन) फिल्में पसंद आती हैं। गौर करें तो निर्देशक अनुभव सिन्हा ने एक्शन के दस-बारह दृश्य तैयार करने के बाद उनके इर्द-गिर्द किरदारों को जोड़ा और कहानी को चिपकाया है। इस फिल्म में आधा दर्जन से ज्यादा कलाकार हैं और सभी के लिए दो-चार दृश्य गढ़ने में ही फिल्म पूरी हो गई है। अफसोस यही है कि कोई भी किरदार उभर कर नहीं आता। पारंपरिक तरीके से देखें तो इस फिल्म में हीरो-हीरोइन नहीं हैं। एक दूसरी बात कि सारे ही निगेटिव किरदार हैं। हां, उनमें से कुछ नैतिकता का पालन करते हैं और एक है जो निजी लाभ के लिए किसी नैतिकता को नहीं मानता। सारे बुरे चरित्रों में अधिक बुरा होने के कारण हम उसे खलनायक मान सकते हैं। सिर्फ खल चरित्रों की फिल्में देश के दर्शक दिल से पसंद नहीं कर पाते। ऐसी फिल्में उन्हें सिर्फ नाच, गाने और एक्शन के का

गाँधी माई फ़ादर

कथा कहने (नैरेशन) और काल (पीरियड) में सही सामंजस्य हो तो फिल्म संपूर्णता में प्रभावशाली होती है। किसी एक पक्ष के कमजोर होने पर फिल्म का प्रभाव घटता है। 'गांधी माई फादर' में निर्देशक फिरोज अब्बास खान और कला निर्देशक नितिन देसाई की कल्पना व सोच तत्कालीन परिवेश को गढ़ने में सफल रहे हैं। हां, चरित्र चित्रण और निर्वाह में स्पष्टता व तारतम्य की कमी से फिल्म अपने अंतिम प्रभाव में उतनी असरदार साबित नहीं होती। महात्मा 'बनने' से पहले ही गांधी और उनके बेटे के बीच तनाव के बीज पड़ गए थे। गांधी की महत्वाकांक्षा और व्यापक सोच के आगे परिजनों का हित छोटा हो गया था। हर बे टे की तरह हरिलाल भी अपने पिता की तरह बनना चाहते थे। उनकी ख्वाहिश थी कि वह भी वकालत की पढ़ाई करें और पिता की तरह बैरिस्टर बनें। बेटे की इस ख्वाहिश को गांधी ने प्रश्रय नहीं दिया। वे अपने बेटे को जीवन और समाज सेवा की पाठशाला में प्रशिक्षित करना चाहते थे। पिता-पुत्र के बीच मनमुटाव बढ़ता गया। फिल्म में यह मनमुटाव अनेक प्रसंगों और घटनाओं से सामने आता है। हरिलाल अपनी सीमाओं के चलते ग्रंथियों से ग्रस्त होते चले गए। उन्हें लगता

६० साल की ५० फ़िल्में

१. आवारा राज कपूर२.आराधना शक्ति समन्त३.अंदाज़ महबूब खन४.एक दूजे के लिए क बलचन्देर५.गंगा यमुना नितिन बोसे६.गरम हवा म एस सथ्यु७.हकीकत चेतन अनन्द८.नमखालाल प्रकाश मेह्र९.प्यासा गुरुदत्त१०.नया दौर ब र चोप्र११.सत्य राम गोपाल वेर्म१२.शोलय रमेश सिप्प्य१३.ब्लैक फ्रिदय अनुराग कश्यप१४.दो बीघा ज़मीन बिमल रोय१५.दो आंखें बारह हाथ व शन्तरम१६.मेरा गों मेरा देश राज खोस्ल१७.लगान आशुतोष गोवरिकर१८.जाने भी दो यारो कुंदन शह१९.ग़दर अनिल शर्म२०.मैने प्यार किया सूरज बर्जत्य२१.मुघ्लेअज़ाम क असिफ़२२.मधुमती बिमल रोय२३.मुन्नाभाई म्ब्ब्स राज कुमार हिरनि२४.पकीज़ाह कमल अम्रोहि२५.परिंदा विधु विनोद चोप्र२६.बॉर्डर जे प दत्त२७.बोब्ब्य राज कपूर२८.वक़्त यश चोप्र२९.पिंजर चंद्र प्रकाश द्विवेदि३०.मकबूल विनोद भर्द्वज३१.मदर इंडिया महबूब खन३२.कागज़ के फूल गुरुदत्त३३.आंधी गुल्ज़र३४.बूट पोलिश प्रकाश अरोर३५.गाइड विजय अनन्द३६.अमर अकबर अन्थोंय मनमोहन देसै३७.अल्बेर्ट पिंटो को गुस्सक्यों आता है साइड मिर्ज़३८.कलयुग श्याम बेनेगल३९.अंकुर श्याम बेनेगल४०.मिर्च मसाला केतन मेह्त४१.अर्ध सत्य गोविन्द निह्लनि४२.घ्यल राज कुमार सन्तोशि४३.अर्थ महेश भत्त४

क्या आप देबू को जानते हैं ?

KYA AAP DEBU KO JANTE HAIN?DEBU…DIBYENDU BHATTACHARYA.NSD GRADUATE OF 1997 BATCH.MONSOON WEDDING KA LOTTERY…DIVYA DRISHTI KA JIVAN SAWANT..URF PROFFESOR KA AUTO DRIVER…AB TAK CHAPPAN KA NAZRUL…BLACK FRIDAY KA YEDA YAKUB…JITNI FILMEN,UTNE NAAM.THODA PEECHE CHALEN.10 SAAL HO GAYE.JAB DEBU KE BATCH KE SAARE STUDENTS MUMBAI KI TARAF MUKHATIB HO RAHE THE TO DEBU NE REPARTORY JOIN KAR LIYA.DELHI MEIN PLAYS KIYE AUR KAFI IZZAT AUR SHOHRAT BATORI.IS DARMYAAN DEBU KE BATCH KA RAJPAL YADAV SERIAL KE RASTE FILMON MEIN AAYA AUR USNE APNI EK JAGAH BANA LI.DEBU ACCEPT NAHI KAREGA,LEKIN KAHIN NA KAHIN RAJPAL KI KAAMYABI NE DEBU KO MUMBAI BULA LIYA.IN FACT,EK HI BATCH MEIN DONO THE AUR DEBU APNE BATCHMATE KI TULNA MEIN AWWAL ARTIST MANA JATA THA.TO YEAR 2000 MEIN DEBU MUMBAI AA GAYA.NSD KE TAMAM TALENTED ARTIST KI TARAH DEBU NE BHI STRUGGLE AARAMBH KIYA.PRODUCERS KE OFFICES KE CHAKKAR,DIRECTORS SE MILNA AUR KHUD KE LIYE KAAM KHOJNA.MIJAJ AUR TALENT SE DEBU EXTRAS YA CROWD KA HISSA BAN NAHI SAKTA THA.W

पार्टनर का रिव्यू

रोमांस कम, मस्ती ज्यादा और वह भी अल्हड़पन से लबरेज। 'पार्टनर' में डेविड धवन ने अपने परंपरागत फार्मूले में थोड़ा बदलाव किया है। उनकी इस नयी फिल्म में द्विअर्थी संवाद नहीं हैं। हो सकता है कि उन्होंने अपनी आलोचनाओं का ख्याल रखा हो। फिल्म में हीरो-हीरोइन से अधिक दोनों हीरो की जोड़ी जमती है। जैसे ही सलमान खान और गोविंदा एक साथ पर्दे पर आते हैं तो हंसी के फव्वारे फूटने लगते हैं। 'पार्टनर' विशुद्ध कॉमिक फिल्म है। लव गुरु यानी माडर्न कामदेव प्रेम (सलमान खान) लड़कों को प्यार करने के गुर सिखाता है। वह प्यार के टिप्स देते समय यह ख्याल जरूर रखता है कि कोई सिर्फ अय्य ाशी के लिए उससे लड़की पटाने के गुर न सीखे ले। भास्कर (गोविंदा) उसके लिए चुनौती है, क्योंकि उसे अपनी कंपनी की मालकिन प्रिया (कैटरीना कैफ) से ही प्रेम हो गया है। शुरू में प्रेम उसका तिरस्कार करता है, लेकिन बाद में तंग आकर कुछ टिप्स देता है। भास्कर अपनी मालकिन को प्रभावित कर लेता है। उधर दूसरों को प्यार का प्रशिक्षण देने वाला प्रेम खुद नैना (लारा दत्ता) को पसंद करता है, लेकिन उसे शादी के लिए राजी नहीं कर पाता। आखिरकार दोनो

नकाब का रिव्यू

हमें इस गलतफहमी में नहीं रहना चाहिए कि पॉपुलर अभिनेताओं और सफल निर्देशक की हर फिल्म औसत से बेहतर होगी। अब्बास-मस्तान आम दर्शकों की रुचि के हिसाब से एवरेज फिल्में बनाते रहे हैं। उन्हें थ्रिलर फिल्मों का कामयाब निर्देशक माना जाता है, लेकिन 'नकाब' में निर्देशक दर्शकों तक अपनी बात पहुंचाने में बुरी तरह असफल रहे। कहानी सोफी (उर्वशी शर्मा), विक्की (अक्षय खन्ना) और करण (बॉबी देओल) की है। यह एक अनोखा प्रेम त्रिकोण है, जिसमें सोफी पाला बदलती रहती है। करण का एक दूसरा चेहरा भी है राहुल। कहानी रोचक और समझ में आने लायक तरीके से आगे बढ़ती है, लेकिन करण की नकली आत्म हत्या के बाद कहानी के तार ऐसे उलझते हैं कि हम बार-बार क्यों॥क्यों सवाल करते हैं और हमें किरदारों के बदलते रवैए का कारण समझ में नहीं आता। रहस्यात्मक और थ्रिलर कहानियों में जब रहस्य खुलता है, तो सब कुछ स्पष्ट हो जाता है। 'नकाब' में अंत तक पता ही नहीं चलता कि किरदारों के संबंध क्यों और कैसे बदल रहे हैं? इसके अलावा, हिंदी फिल्मों और भारतीय कथा परंपरा में कभी खल चरित्रों को विजयी होता नहीं दिखाया जाता, 'नकाब' में हत्यार

सोनू निगम/सुभाष के झा

आज YEH TO HONA HI THA.MEDIA KO LIKHE SONU NIGAM KE KHULE PATRA KE BAAD HUI SUBHASH K JHA KI FAJIHAT KE BAAD MEDIA KE LOGON KA EK SWAR MEIN YAHI KAHNA HAI KI ‘YEH TO HONA HI THA.’MEDIA AUR FILM BIRADARI KA RISHTA DOSTI SE JYADA EK-DOOSRE KO SHOW DOWN KARNE KA HO GAYA HAI.MEDIA MEIN KAI JOURNLIST IS GHALATFAHMI MEIN RAHTE AUR JEETE HAIN KI WOH STARS KA CAREER BANATE AUR BIGADTE HAIN.DOOSRI TARAF STARS MEDIA PERSONS KO NEECHI NAZAR SE DEKHTE HAIN AUR MAANTE HAIN KI MEDIA UNKE RAHAM-O-KARAM SE ZINDA HAI.KUCH APVAAD HAIN,JO HAR FIELD MEIN HOTE HAIN.JO HUA…AAGE JO HOGA…USKE LIYE MAINSTREAM MEDIA MEIN CHAL RAHE FILM JOURNALISM AUR USKO BADHAWA DE RAHE FILM PERSONALITIES HI JIMMEDAAR HAIN.AAJKAL NEWSPAPERS AUR MAGAZINES MEIN FILMS AUR USKE CONTENTS AND CRAFTS KE ALAWA BAKI SAARI BAATEN HOTI HAIN.IN DINON SIRF REVIEWS MEIN FILMS KI BAATEN RAHTI HAIN.ENGLISH FILM JOURNALISM KE NATURE AUR US PAR FILM STARS KI MAYOPIC DEPAENDENCE KI WAJAH SE HI SUBHASH KA JHA JAISE PATRAKAAR TAQATWAR HO JAATE HAIN

कौन हैं ये दीवाने दर्शक?

main PATNA mein hoon.last friday ke pahle se pareshan tha ki is baar review kaise likhoonga.maloom nahi friday ki teenon filmen PATNA mein release hongi ki nahi.aajkal PATNA ke jyadatar cinemagharon mein BHOJPURI filmen hi dikhayi jaati hain.main TIMES OF INDIA dekhta hoon.usmein kisi bhi film ki koi jaankari nahi hai.shayad angrezi akhbaar mein bhojpuri aur hindi filmon ke vigyapan bhi shaan ghatate hon.baharhaal,HINDUSTAN aur DAINIK JAGRAN dekhta hoon.BHOJPURI filmon ke vigyapnon ke beech friday ko release ho rahi teeno filmon ke chhote-chhote vigyapan hain.AAP KA SUROOR sbah 8 baje se dikhyi ja rahi hai.mujhe lagta hai ki distributor ka man rakhne ke liye thetre ne film laga to di hai,lekin darshkon ki naumeedi mein subah se shows rakh diye hain.bhala PATNA mein subah 8 baje film dekhne kaun aayega.ichchha to hoti hai ki main bhi subah 8 ka hi show dekhoon,lekin is dar se nahi jata hoon ki kahin audience ke na aane se show cancel na ho jaaye.main 10 baje ke show ke liye jata hoon.PA

झूम बराबर झूम की समीक्षा

aisa lagta hai ki shad ali ki filmen to ek ke baad ek badi hoti gayin lekin unka ilma usi anupaat mein sikudta gaya hai.SAATHIYA ki taazgi JHOOM BARABAR JHOOM mein sire se gayab hai.JBJ mein naach-gana hai.stars hain.videshi location hain.lak-dak set hai aur chamakdaar costume hai.bas,kahani gayab hai,jabki shad ali ne kahani ko badhane ke liye ANURAG KASHYAP aur TIGMANSHU DHULIA ki madad li hai.teenon hindi filmon ke yuva aur samajhdaar filmkar hain aur milkar aisi kahani likh rahe hain…TAUBA.yashraj films ke banner se aayi yeh lagatar doosri sadharan film hai.film mein ek gana hai jhoom brabar jhoom…use AMITABH BACHCHAN gate hain…jab woh is geet ko gaate hue thirakte hain to aaspaas mein maujood log naachne lagte hain.nishchit hi AMITABH BACHCHAN is geet mein josh bhar dete hain,lekin sirf ek geet ki chashni film ko kitne meetha kar sakti thi.modern kaandeo ke roop mein AMITABH BACHCHAN prem ka alakh jagate hain,lekin film ke mukhya kirdar aur kalakar apni seemaon ke karan bar-bar la