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Showing posts with the label सिने संस्कार

हिन्दी टाकीज:मेरा फ़िल्म प्रेम-अनुज खरे

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हिन्दी टाकीज-३६ अनुज खरे फिल्मों के भारी शौकीन हैं.चवन्नी को लगता है की अगर वे फिल्मों पर लिखें तो बहुत अच्छा रहे.उनसे यही आग्रह है की समय-समय पर अपनी प्रतिक्रियाएं ही लिख दिया करें.आजकल इतने मध्यम और साधन हैं अभिव्यक्ति के.बहरहाल अनुज अपने बारे में लिखते हैं...बुंदेलखंड के छतरपुर में जन्म। पिताजी का सरकारी नौकरी में होने के कारण निरंतर ट्रांसफर। घाट-घाट का पानी पीया। समस्त स्थलों से ज्ञान प्राप्त किया। ज्ञान देने का मौका आने पर मनुष्य प्रजाति ने लेने से इनकार किया खूब लिखकर कसर निकाली। पत्रकारिता जीविका, अध्यापन शौकिया तो लेखन प्रारब्ध के वशीभूत लोगों को जबर्दस्ती ज्ञान देने का जरिया। अपने बल्ले के बल पर जबर्दस्ती टीम में घुसकर क्रिकेट खेलने के शौकीन। फिल्मी क्षेत्र की थोड़ी-बहुत जानकारी रखने की गलतफहमी। कुल मिलाकर जो हैं वो नहीं होते तो अद्भुत प्रतिभाशाली होने का दावा।जनसंचार, इतिहास-पुरातत्व में स्नातकोत्तर। शुरुआत में कुछ अखबारों में सेवाएं। प्रतियोगी परीक्षाओं के सरकारी-प्राइवेट संस्थानों में अध्यापन। यूजीसी की जूनियर रिसर्च फैलोशिप।पत्रकारिता की विशिष्ठ सेवा के लिए सरस्वती

हिन्दी टाकीज:काश! हकीकत बन सकता गुजरा जमाना-विजय कुमार झा

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हिन्दी टाकीज-३५ हिन्दी टाकीज कोशिश है अपने बचपन और कैशोर्य की गलियों में लौटने की.इन गलियों में भटकते हर हम सभी ने सिनेमा के संस्कार हासिल किए.जीवन में ज़रूरी तमाम विषयों की शिक्षा दी जाती है,लेकिन फ़िल्म देखना हमें कोई नहीं सिखाता.हम ख़ुद सीखते हैं और सिनेमा के प्रति सहृदय और सुसंस्कृत होते हैं.अगर आप अपने संस्मरण से इस कड़ी को मजबूत करें तो खुशी होगी. अपने संस्मरण पोस्ट करें ...chavannichap@gmail.com इस बार युवा पत्रकार विजय कुमार झा। विजय से चवन्नी की संक्षिप्त मुलाक़ात है.हाँ,बातें कई बार हुई हैं.कभी फ़ोन पर तो कभी चैट पर। विजय कम बोलते हैं,लेकिन संतुलित और सारगर्भित बोलते हैं.सचेत किस्म के नौजवान हैं। अपनी व्यस्तता से समय निकाल कर उन्होंने लिखा.इस संस्मरण के सन्दर्भ में उन्होंने लिखा है...यादें हसीन हों तो उनमें जीना अच्‍छा लगता है, पर उस पेशे में हूं जहां कल की बात आज बासी हो जाती है। सो आज में ही जीने वाला पत्रकार वि‍जय बन कर रह गया हूं। हिन्दी टाकीज का शुक्रि‍या कि‍ उसने अतीत में झांकने को प्रेरि‍त कि‍या और मैं कुछ देर के लि‍ए बीते जमाने में लौट गया। मुश्‍कि‍ल तो हुई, पर मजा भी

हिन्दी टाकीज:बार-बार याद आते हैं वे दिन-आनंद भारती

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हिन्दी टाकीज-३४ पत्रकारों और लेखों के बीच सुपरिचित आनंद भारती ने चवन्नी का आग्रह स्वीकार किया.उन्होंने पूरे मनोयोग से यह संस्मरण लिखा है,जिसमें उनका जीवन भी आया है.हिन्दी टाकीज के सन्दर्भ में वे अपने बारे में लिखते हैं...बिहार के एक अविकसित गांव चोरहली (खगड़िया) में जन्‍म। यह गांव आज भी बिजली, पक्‍की सड़क की पहुंच से दूर है। गांव भी नहीं रहा, कोसी नदी के गर्भ में समा गया। बचपन से ही यायावरी प्रवृत्ति का था। जैसे पढ़ाई के लिए इस ठाम से उस ठाम भागते रहे,उसी तरह नौकरी में भी शहरों को लांघते रहे। हर मुश्किल दिनों में फिल्‍मों ने साथ निभाया, जीने की ताकत दी। कल्‍पना करने के गुर सिखाए और सृजन की वास्‍तविकता भी बताई। फिल्‍मों का जो नशा पहले था, आज भी है। मुंबई आया भी इसीलिए कि फिल्‍मों को ही कैरियर बनाना है, यह अलग बात है कि धक्‍के बहुत खाने पड़ रहे हैं। अगर कहूं कि जिस जिस पे भरोसा था वही साथ नहीं दे रहे, तो गलत नहीं होगा। फिर भी संकल्‍प और सपने जीवित हैं। जागते रहो का राज कपूर, गाईड का देव आनंद प्‍यासा का गुरुदत्‍त, आनंद का राजेश खन्‍ना और अमिताभ बच्‍चन,तीसरी कसम के निर्माता शैलेंद्र, अंकु

हिन्दी टाकीज:वो ख्वाबों के दिन, वो फिल्मों के दिन-ज़ेब अख्तर

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हिन्दी टाकीज-३३ ज़ेब अख्तर रांची में रहते हैं. वे पत्रकारिता से जुड़े हैं और फिलहाल प्रभात ख़बर में फीचर संपादक हैं। व्यवसाय छोड़ कर पत्रकारिता में आए ज़ेब अख्तर साफ़ दिल और सोच के लेखक हैं. चवन्नी ने इधर किसी पत्रकार की ऐसी खनकती हँसी नहीं सुनी। हिन्दी और उर्दू में सामान रूप से लिखते हैं.उनका एक कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुका है। एक शोध पुस्तक भी प्रकाशित है। ज़ेब अख्तर फिल्मों के लिए लिखना चाहते हैं। वे लीक से हट कर कुछ फिल्में लिखना चाहते हैं। जब होश संभाला तब टीवी भी नहीं था, छोटे शहर में होने के कारण सिनेमा ही मनोरंजन का एक मात्र साधन हुआ करता था। पिताजी थे तो सख्त लेकिन इतना जानते थे कि जरूरत से ज्यादा कड़ा होना नुकसान पहुंचा सकता है। सो इस मामले में उन्होंने थोड़ी छूट दे रखी थी। गोया गीत गाता चल, हम किसी से कम नहीं, आलम आरा, नहले पे दहला, शोले, मुगल- ए- आजम जैसी फिल्में देखने के लिए हमें इजाजत मिल जाती थीं। लेकिन मन इतने से कहां मानने वाला था। हम तो सभी फिल्में देखना चाहते थे। इसलिए स्कूल से गैरहाजिर होना जरूरी था। क्योंकि रविवार के दिन हम उर्दू पढ़ने मदरसा जाते थे। वहां से गैरहाजिर

हिन्दी टाकीज:सिनेमा ने मुझे बहुत आकर्षित किया-तनु शर्मा

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हिन्दी टाकीज-३२ तनु शर्मा ने यह पोस्ट अपने ब्लॉग महुआ पर लिखी थी.पिछले महीने २४ मार्च को आई यह पोस्ट चवन्नी को हिन्दी टाकीज सीरिज़ के लिए उपयुक्त लगी थी.चवन्नी ने उनसे अनुमति मांगी.तनु ने उदारता दिखाई और अनुमति दे दी। चवन्नी को उनकी तस्वीर चाहिए थी.संपर्क नहीं हो सका तो महुआ से ही यह तस्वीर ले ली.वहां तनु ने अपने बारे में लिखा है...अपने ख्वाबों को संवारती, अपने वजूद को तलाशती, अपने जन्म को सार्थक करने की कोशिश करती,मैं,सिर्फ मैं....... कल रात ब्रजेश्वर मदान सर ने एक मैसेज भेजा था....सिनेमा पर....(वही मदान सर जिन्हें सिनेमा पर लिखने के लिए पहले नेशनल एवॉर्ड से नवाज़ा गया )उसमें लिखा था....शेक्सपियर ने दुनिया को रंगमंच की तरह देखा....जहां हर आदमी अपना पार्ट अदा करके चला जाता है...सिनेमा तब नहीं था...जहां आदमी नहीं उसकी परछाईं होती है.....बाल्कनी...,रियर-स्टॉल....,ड्रैस सर्कल....या फ्रन्ट बैंच पर बैठा वो...परछाईयों में ढूंढता हैं...अपनी परछाईं....कहीं मिल जाए तो उसके साथ हंसता है...रोता है...सिनेमा की इस दुनिया में अपना जिस्म भी पराया होता है....फिल्म खत्म होने के बाद जब....ढूंढता है अप

हिन्दी टाकीज:ज़िन्दगी में लहर फिल्मों ने दी-दीपांकर गिरी

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हिन्दी टाकीज-३१ इस बार हैं दीपांकर गिरी। दीपांकर इन दिनों फिल्मों के लेखक बनने की तैयारी में हैं। साहित्य और सिनेमा का समान अध्ययन किया है उन्होंने। अपने परिचय में लिखते हैं...झारखंड के छोटे से चिमनी वाले शहर के एक साधारण घर में जन्म । लिखने पढने की बीमारी विरासत में मिली,जिसके कारण अंत में जामिया मिलिया में जाकर मास मीडिया में एडमिट हो गया। साहित्य ,कविता,कहानियों की दवाइयां लेकर वहां से निकला और दैनिक भास्कर,प्रभात खबर होते हुए मुंबई की राह पकड़ ली। टीवी सीरियलों ने कुछ दिन रोजी-रोटी चलाई। फिलहाल अपनी फिल्म की स्क्रिप्ट लेकर दफ्तर दर दफ्तर यायावरी,फिर भी बीमारी है कि कतमा होने का नाम नहीं लेती। ज़िन्दगी में लहर फिल्मों ने दी कल की ही बात है... अधिक मौसम नहीं बीते हैं। लगता है जैसे कल की ही बात है और मैं झारखंड के एक छोटे से ऊंघते हुए शहर "चंदपुरा" के पपड़ियां उचटते सिनेमा हाल के बाहर लाइन में लगा हूं और डर इसका कि कहीं टिकट ख़त्म न हो जाए। तमाम धक्कामुक्की के बाद चार टिकट लेने की कामयाबी थोड़ी देर के लिए जिंदगी में खुशबू भर देती है। मल्टीप्लेक्स के कंप्यूटर से निकले टिकटों क

हिन्दी टाकीज: वो दिन याद करो-विपिन चौधरी

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हिन्दी टाकीज -३० हिन्दी टाकीज का सफर तीसवें पड़ाव तक पहुँच गया.इस बार विपिन चौधरी के संस्मरण पढ़ें.विपिन अपने बारे में लिखती हैं, मैं मुख्यतः कवियत्री हूँ। मेरा ब्लाग है http:// vipin-choudhary.blogspot.com के अलावा मेरी कहानियाँ और लेख भी विभिन्न पत्रिकाओं प्रकाशित हुयें हैं कविताओं के दो संग्रह प्रकाशित।फिलहाल मीडिया से सम्बंधित हूँ। उस वक्त फिल्में को देखा नहीं बल्कि जिया जाता था। बात इतनी पुरानी भी नहीं की समय की धूल उसे अपनी ओट में ले लें। टिक्टों के बैल्क का अच्छा खासा व्यापार चलता था उन दिनों। उन्हीं दिनों कुछ अच्छें सपनों के साथ अच्छी फिल्में भी देखी। तब मनोरंजन इतना मंहगा नहीं हुआ करता था, थोडे खर्च में बडा मनोरंजन हो जाया करता था। उस वक्त सिनेमा देखना अच्छा अनुभव हुआ करता था तब फिल्में इतनी समझ में नहीं आती थी और अब फिल्में देखना बखूबी समझ आता है तब सिनेमा देखना कोई दिल को छूने वाला अनुभव नहीं रह गया है। मलटीप्लैक्स सिनेमा वह जादू नहीं पैदा करता जो हमारे छोटे शहर का छोटा सा सिनेमा हाल पैदा किया करता था। इस भडकीलें समय ने सहजता की जो साधारण खूबसूरती होती है वह हमसें छीन ली है

हिन्दी टाकीज:सिनेमा बचपन में 'अद्भुत' लगता था-सुयश सुप्रभ

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हिन्दी टाकीज-२९ सुयश सुप्रभ ...ऐसा लगता है की दो नाम हैं.हिन्दी फिल्मों का सन्दर्भ लें तो कोई जोड़ी लगती है,जैसे सलीम-जावेद,कल्याणजी-आनंदजी.सुयश सुप्रभ एक ही व्यक्ति हैं.दिल्ली में रहते हैं और स्वतंत्र रूप से कई काम करते हैं,जिनमें अनुवाद खास है,क्योंकि वह आजीविका से जुड़ा है.पिछले दिनों चवन्नी दिल्ली गया था तो सुयश से मुलाक़ात हुई.यह संस्मरण सुयश उस मुलाक़ात से पहले चवन्नी के आग्रह पर भेज चुके थे.सुयश अपनी दुनिया या अपनी देखि दुनिया की बातें बातें दुनिया की ब्लॉग में लिखते हैं.उनका एक ब्लॉग अनुवाद से सम्बंधित है.उसका नाम अनुवाद की दुनिया है। सुयश को दुनिया शब्द से लगाव है।सुयश ने सिनेमा की अपनी दुनिया में झाँकने का मौका दिया है. हिन्दी टाकीज का सिलसिला चल रहा है.रफ्तार थोड़ी धीमी है। सिनेमा बचपन में 'अद्भुत' लगता था और आज भी लगता है। दूरदर्शन के ज़माने में रविवार की फ़िल्मों को देखकर जितना मज़ा आता था, उतना मज़ा आज मल्टीप्लेक्स में भी नहीं आता है। उस वक्त वीसीआर पर फ़िल्म देखना किसी उत्सव की तरह होता था। मोहल्ले के लोग एक-साथ बैठकर वीसीआर पर फ़िल्म देखते थे। कुछ 'अक्खड़&#

हिन्दी टाकीज:फिल्मी गानों की किताब ने खोली पोल-ममता श्रीवास्तव

हिन्दी टाकीज-२८ इस बार ममता श्रीवास्तव.ममता गोवा में रहती हैं और ममता टीवी नाम से ब्लॉग लिखती हैं.चवन्नी इनका नियमित पाठक है.ममता की आत्मीय शैली पाठकों से सहज रिश्ता बनती हैं और उनकी बातें किसी कहानी सी महसूस होती हैं.चवन्नी ने उनसे आग्रह किया था इस सीरिज के लिए.ममता ने लेख बहुत पहले भेज दिया था,लेकिन तकनीकी भूलों की वजह से यह लेख पहले पोस्ट नहीं हो सका.उम्मीद है ममता माफ़ करेंगीं और आगे भी अपने संस्मरणों को पढने का मौका देंगीं। चवन्नी ने कई महीनों पहले जब हिन्दी टाकीज नाम से ब्लॉग शुरू किया था तब उन्होंने हमसे भी इस ब्लॉग पर सिनेमा से जुड़े अपने अनुभव लिखने के लिए कहा था पर उसके बाद कुछ महीनों तक तो हमने ब्लॉग वगैरा लिखना-पढ़ना छोड़ दिया था इस वजह से हमने हिन्दी टाकीज पर भी कुछ नही लिखा ।इतने सारे अनुभव और यादें है कि समझ नही आ रहा है कहाँ से शुरू करुँ । पर खैर आज हम cinema से जुड़े अपने अनुभव आप लोगों से बाँटने जा रहे है । सिनेमा या फ़िल्म इस शब्द का ऐसा नशा था क्या अभी भी है कि कुछ पूछिए मत ।वैसे भी ६०-७० के दशक मे film देखने के अलावा मनोरंजन का कोई और ख़ास साधन भी तो नही था । बचप

हिन्दी टाकीज: कोई भी फ़िल्म चुपचाप नहीं आती थी-विष्णु बैरागी

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हिन्दी टाकीज- २७ विष्णु बैरागी रतलाम में रहते हैं.विष्णु बैरागी हों गए हैं और ब्लॉग की दुनिया में सक्रिय हैं. उनके दो ब्लॉग हैं- एकोऽहम् और मित्र-धन ,इसके अलावा विष्णु एजेंट हैं जीवन बीमा निगम के.अपने बारे में वे लिखते हैं....कुछ भी तो उल्लेखनीय नही । एक औसत आदमी जिसे अपने जैसे सड़कछापों की भीड़ में बड़ा आनन्‍द आता है । मैं अपने घर का स्वामी हूं लेकिन यह कहने के लिए मुझे मेरी पत्नी की अनुमति की आवश्यकता होती है पूरी तरह अपनी पत्नी पर निर्भर । दो बच्चों का बाप । भारतीय जीवन बीमा निगम का पूर्णकालकि एजेण्ट । इस एजेन्सी के कारण धनपतियों की दुनिया में घूमने के बाद का निष्कर्ष कि पैसे से अधिक गरीब कोई नहीं । पैसा, जो खुद अकेले रहने को अभिशप्त तथा दूसरों को अकेला बनाने में माहिर । ईशान अभी ग्यारह वर्ष का नहीं हुआ है। छठवीं कक्षा में पढ़ रहा है। चुप बिलकुल ही नहीं बैठ पाता। 'बाल बिच्छू' की तरह सक्रिय बना रहता है। उसे पूरे शहर की खबर रहती है। मैं उसके ठीक पड़ौस में रहता हूँ-एक दीवाल की दूरी पर। आज सवेरे उससे कहा - 'स्लमडाग करोड़पति लगे तो मुझे कहना। देखने चलेंगे।' सुनकर उसने मुझे

हिन्दी टाकीज:जैसे चॉकलेट के लिए पानी, जैसे केक पर आइसिंग- आर अनुराधा

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हिन्दी टाकीज-२६ इस बार अनुराधा...जब चवन्नी ने अनुराधा से आग्रह किया तो विश्वास था की संस्मरण ज़रूर मिलेगा.क्यों होता है आस-विश्वास?मालूम नहीं...अनुराधा अपने बारे में लिखती हैं...मेरे बारे में कुछ खास कहने लायक नहीं है। बस, एक आत्मकथात्मक किताब - इंद्रधनुष के पीछे-पीछे: एक कैंसर विजेता की डायरी लिखी है जिसका रिस्पॉन्स काफी अच्छा रहा। किताब हिंदी के असाहित्यकारों की दुर्लभ बेस्टसेलर्स में गिनी जाती है। हां,मेरा जीवन लगातार सुखद संयोगों की श्रृंखला रहा है, ऐसा मुझे लगता है। कैंसर जैसी बीमारी ने यह किताब लिखवा दी, और मशहूरी दे दी। जब किताब बाजार में आई, उसी हफ्ते दोबारा कैंसर होने का पता चला और पूरे इलाज के दौरान किताब की समीक्षाएं, मीडिया में चर्चा, कमलेश्वर और राजेंद्र यादव और विष्णु नागर और.. जैसे साहित्यकारों द्वारा अपने कॉलमों में किताब का नोटिस लेना, किताब पर डॉक्युमेंटरी फिल्म की शूटिंग और उस फिल्म की सराहना, आउटलुक (अंग्रेजी) पत्रिका द्वारा 15 अगस्त के विशेषांक में वर्ष के 10 यंग हीरोज़ में शामिल किया जाना जैसे संयोग जुड़ते गए और मैं मुझे यह समझने का वक्त ही नहीं मिला कि उसे जीवन क