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दरअसल : डराती है हकीकत

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दरअसल... डराती है हकीकत -अजय ब्रह्मात्‍मज आज देश के कुछ सिनेमाघरों में ‘ जॉली एलएलबी2 ’ रिलीज होगी। रिलीज के हफ्ते में यह चर्चा में रही। सभी जानते हैं कि इस फिल्‍म में जज और देश की न्‍याय प्रणाली के चित्रण पर एक वकील ने आपत्ति की। कोर्ट ने उसका संज्ञान लिया और फसला फिल्‍म के खिलाफ गया। फिल्‍म से चार दृश्‍य निकाल दिए गए। उन दृश्‍यों की इतनी चर्चा हो चुकी है कि दर्शक समझ जाएंगे कि वे कौन से सीन या संवाद रहे होंगे। कुछ सालों के बाद इस फिल्‍म को देख रहे दर्शकों को पता भी नहीं चलेगा कि इस फिल्‍म के साथ ऐसा कुछ हुआ था। हां,फिल्‍म अध्‍येता देश में चल रहे सेंसर और अतिरिक्‍त सेंसर के पर्चों में इसका उल्‍लेख करेंगे। निर्माता ने पहले सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की थी,लेकिन उन्‍होंने उसे वापिस ले लिया। उन्‍होंने लेखक-निर्देशक को सीन-संवाद काटने के लिए राजी कर लिया। लेखक-निर्देशक की कचोट को हम समझ सकते हैं। उनका अभी कुछ भी बोलना उचित नहीं होगा। उससे कोट्र की अवमानना हो सकती है। सवाल है कि क्‍या कोर्अ-कचहरी की कार्य प्रणाली पर सवाल नहीं उठाए जा सकते ? क्‍या उनका मखौल नहीं उड़ाया

दरअसल : एकाकी हैं करण जौहर

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दरअसल     एकाकी हैं करण जौहर -अजय ब्रह्मात्‍मज         करण जौहर की ‘ ऐन अनसुटेबल ब्‍वॉय ’ मीडिया में चर्चित है। इसके कुछ अंश विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में छपे हैं। किताबों से वैसे रोचक प्रसंग लिए गए हैं, जहां करण जौहर अपने सेक्सुऐलिटी के बारे में नहीं बताना चाहते। वे सेक्स की बातें करते हैं, लेकिन अपने सेक्स ओरिएंटेशन को अस्पष्‍ट रखते हैं। उनकी अस्पष्‍टता के कई मायने निकाले जा रहे हैं। शायद पाठकों को मजा आ रहा होगा। करण जौहर बेहद स्मार्ट फिल्मी हस्ती हैं। उन्होंने दर्शकों और पाठकों को मुग्ध करने और अपने प्रति आकर्षित करने की कला सीख ली है। वह हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के पहली डिजाइनर पर्सनैलिटी हैं, जिनके बात-व्‍यवहार से लेकर चाल-ढाल और प्रस्तुति सब कुछ नपी-तुली होती है। उन्हें मालूम है कि उनका लेफ्ट प्रोफाइल ज्यादा अच्छा लगता है तो कैमरे के सामने आते ही वे हल्का सा दाहिना एंगल ले लेते हैं। फिल्म इंडस्ट्री में ऐसा सधा व्‍यक्तित्व नहीं है। पत्र-पत्रिकाओं में शाह रुख खान से उनके संबंध और काजोल से बिगड़ते रिश्‍तों के विवरण के अंश भी प्रकाशित हुए। दरअसल, फिल्मों से संबंधित हर किस

दरअसल : चित्रगुप्‍त की जन्‍म शताब्‍दी

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दरअसल.... चित्रगुप्‍त की जन्‍म शताब्‍दी -अजय ब्रह्मात्‍मज 2017 हुनरमंद संगीतकार चित्रगुप्‍त का जन्‍म शताब्‍दी वर्ष है। इंटरनेट पर उपलब्‍ध सूचनाओं के मुताबिक उन्‍होंने 140 से अधिक फिल्‍मों में संगीत दिया। बिहार के गोपालगंज जिले के कमरैनी गांव के निवासी चित्रगुप्‍त का परिवार अध्‍ययन और ज्ञान के क्षेत्र में अधिक रुचि रखता था। चित्रगुप्‍त के बड़े भाई जगमोहन आजाद चाहते थी। उनका परिवार स्‍वतंत्रता आंदोलन से भी जुड़ा था। कहते हैं चित्रगुप्‍त पटना के गांधी मैदान की सभाओं में हारमोनियम पर देशभक्ति के गीत गाया करते थे। बड़े भाई के निर्देश और देखरेख में चित्रगुप्‍त ने उच्‍च शिक्षा हासिल की। उन्‍होंने डबल एमए किया और कुछ समय तक पटना में अध्‍यापन किया। फिर भी उनका मन संगीत और खास कर फिल्‍मों के संगीत से जुड़ रहा। आखिरकार वे अपने दोस्‍त मदन सिन्‍हा के साथ मुंबई आ गए। उनके बेटों आनंद-मिलिंद के अनुसार चित्रगुप्‍त ने कुछ समय तक एसएन त्रिपाठी के सहायक के रूप में काम किया। उन्‍होंने पूरी उदारता से चित्रगुप्‍त को निखरने के मौके के साथ नाम भी दिया। आनंद-मिलिंद के अनुसार बतौर संगीतकार चित्रग

दरअसल : इंतजार है ईमानदार जीवनियों का

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दरअसल... इंतजार है ईमानदार जीवनियों का -अजय ब्रह्मात्‍मज इस महीने ऋषि कपूर और करण जौहर की जीवनियां प्रकाशित होंगी। यों दोनों फिल्‍मी हस्तियों की जीवनियां आत्‍मकथा के रूप में लाई जा रही हैं। उन्‍होंने पत्रकारों की मदद से अपने जीवन की घटनाओं और प्रसंगों का इतिवृत पुस्‍तक में समेटा है। मालूम नहीं आलोचक इन्‍हें जीवनी या आत्‍मकथा मानेंगे ? साहित्यिक विधाओं के मुताबिक अगर किसी के जीवन के बारे में कोई और लिखे तो उसे जीवनी कहते हैं। हां,अगर व्‍यक्ति स्‍वयं लिखता है तो उसे आत्‍मकथा कहेंगे। देव आनंद(रोमासिंग विद लाइफ) और नसीरूद्दीन शाह(एंड देन वन डे: अ मेम्‍वॉयर) ने आत्‍मकथाएं लिखी हैं। दिलीप कुमार की ‘ द सब्‍सटांस ऐंड द शैडो : ऐन ऑटोबॉयोग्राफी ’ आत्‍मकथा के रूप में घोषित और प्रचारित होने के बावजूद आत्‍मकथा नहीं कही जा सकती। यह जीवनी ही है,जिसे उदय तारा नायर ने लिखा है। इसी लिहाज से ऋषि कपूर और करण जौहर की पुस्‍तकें मुझे जीवनी का आभास दे रही है। हिंदी फिल्‍मों के स्‍टार और फिल्‍मकार अपने जीवन प्रसंगों के बारे में खुल कर बातें नहीं करते। नियमित इंटरव्‍यू में उनके जवाब रिलीज हो र

दरअसल : स्‍वागत 2017,अलविदा 2016

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दरअसल... स्‍वागत 2017,अलविदा 2016 -अजय ब्रह्मात्‍मज 2016 समाप्‍त होते-होते नीतेश तिवारी की ‘ दंगल ’ ने हिंदी फिल्‍म इंडस्‍ट्री पर छाए शनि को मंगल में बदल दिया। इस फिल्‍म के अपेक्षित कारोबार से सभी खुश हैं। माना जा रहा है कि ‘ दंगल ’ का कारोबार पिछले सारे रिकार्ड को तोड़ कर एक नया रिकार्ड स्‍थापित करेगा। ‘ दंगल ’ की कामयाबी दरअसल उस ईमानदारी की स्‍वीकृति है,जो आमिर खान और उनकी टीम ने बरती। कभी सोच कर देखें कि कैसे एक निर्देशक,स्‍टार और फिल्‍म के निर्माता मिल कर एक ख्‍वाब सोचते हैं और सालों उसमें विश्‍वास बनाए रखते हैं। ‘ दंगल ’ के निर्माण में दो साल से अधिक समय लगे। आमिर खान ने किरदार के मुताबिक वजन बढ़ाया और घटाया। हमेशा की तरह वे अपने किरदार के साथ फिल्‍म निर्माण के दौरान जीते रहे। उनके इस समर्पण का असर फिल्‍म यूनिट के दूसरे सदस्‍यों के लिए प्रेरक रहा। नतीजा सभी के सामने है। ‘ दंगल ’ साल के अंत में आई बेहतरीन फिल्‍म रही। इसके साथ 2016 की कुछ और फिल्‍मों का भी उल्‍लेख जरूरी है। हर साल रिलीज हुई 100 से अधिक फिल्‍मों में से 10-12 फिल्‍में ऐसी निकल ही आती हैं,जिन्‍हें

दरअसल : प्रचार का ‘रईस’ तरीका

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दरअसल, प्रचार का ‘ रईस ’ तरीका - अजय बह्मात्‍मज कुछ समय पहले शाह रुख खान ने अगले साल के आरंभ में आ रही अपनी फिल्‍म ‘ रईस ’ का ट्रेलर एक साथ 3500 स्‍क्रीन में लांच किया। आप सोच सकते हैं कि इसमें कौन सी नई बात है। यों भी फिल्‍मों की रिलीज के महीने-डेढ़ महीने पहले फिल्‍मों के ट्रेलर सिनेमाघरों में पहुंच जाते हैं। मीडिया कवरेज पर गौर किया हो तो ट्रेलर लांच एक इवेंट होता है। बड़ी फिल्‍मों के निर्माता फिल्‍म के स्‍टारों की मौजूदगी में यह इवेंट करते हैं। प्राय: मुंबई के किसी मल्‍टीप्‍लेक्‍स में इसका आयेजन होता है। फिर यूट्यूब के जरिए या और सिनेमाघरों में दर्शक उन्‍हें देख पाते हैं। इन दिनों कई बार पहले से तारीख और समय की घोषण कर दी जाती है और ट्रेलर सोशल मीडिया पर ऑन लाइन कर दिया जाता है। इस बर लांच के समय देश के दस शहरों के सिनेमाघरों में आए दर्शकों ने उनके साथ इटरैक्‍ट किया। आमिर खान और शाह रुख खान अपनी फिल्‍मों के प्रचार के नायाब तरीके खोजते रहते हैं। वे अपने इन तरीकों से दर्शकों और बाजार को अचंभित करते हैं। उनकी फिल्‍मों के प्रति जिज्ञासा बढ़ती है और उनकी फिल्‍में हिट

दरअसल : ’कयामत से कयामत तक’ की कहानी

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दरअसल.... ’ कयामत से कयामत तक ’ की कहानी -अजय ब्रह्मात्‍मज 29 अप्रैल 1988 को रिलीज हुई मंसूर खान की फिल्‍म ‘ कयामत से कयामत तक ’ का हिंदी सिनेमा में खास स्‍थान है। नौवां दशक हिंदी सिनेमा के लिए अच्‍छा नहीं माना जाता। नौवें दशक के मध्‍य तक आते-आते ऐसी स्थिति हो गई थी कि दिग्‍गजों की फिल्‍में भी बाक्‍स आफिस पर पिट रही थीं। नए फिल्‍मकार भी अपनी पहचान नहीं बना पा रहे थे। अजीब दोहराव और हल्‍केपन का दोहराव और हल्‍केपन का दौर था। फिल्‍म के कंटेट से लेकर म्‍यूजिक तक में कुछ भी नया नहीं हो रहा था। इसी दौर में मंसूर खान की ‘ कयामत से कयामत तक ’ आई और उसने इतिहास रच दिया। इसी फिलम ने हिंदी फिल्‍म इंडस्‍ट्री को आमिर खान जैसा अभिनेता दिया,जो 29 सालों के बाद भी कामयाब है। हमें अगले हफ्ते उनकी अगनी फिल्‍म ‘ दंगल ’ का इंतजार है। दिल्‍ली के फिल्‍म लेखक गौतम चिंतामणि ने इस फिलम के समय,निर्माण और प्रभाव पर संतुलित पुस्‍तक लिखी है। हार्पर का‍लिंस ने इसे प्रकाशित किया है। गौतम लगातार फिल्‍मों पर छिटपुट लेखन भी किया करते हैं। उन्‍होंने राजेश खन्‍ना की जीवनी लिखी है,जिसमें उनके एकाकीपन को

दरअसल : लोकप्रिय स्‍टार और किरदार

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दरअसल... लोकप्रिय स्‍टार और किरदार -अजय ब्रह्मात्‍मज हाल ही में गौरी शिंदे निर्देशित ‘ डियर जिंदगी ’ रिलीज हुई है। इस फिल्‍म को दर्शकों ने सराहा। फिल्‍म में भावनात्‍मक रूप से असुरक्षित क्‍यारा के किरदार में आलिया भट्ट ने सभी को मोहित किया। उनकी उचित तारीफ हुई। ऐसी तारीफों के बीच हम किरदार के महत्‍व को नजरअंदाज कर देते हैं। हमें लगता है कि कलाकार ने उम्‍दा परफारमेंस किया। कलाकारों के परफारमेंस की कद्र होनी चाहिए,लेकिन हमें किरदार की अपनी खासियत पर भी गौर करना चाहिए। दूसरे,कई बार कलाकार किरदार पर हावी होते हैं। उनकी निजी छवि और लोकप्रियता किरदार को आकर्षक बना देती है। किरदार और कलाकार की पसंदगी की यह द्वंद्वात्‍मकता हमारे साथ चलती है। कभी कलाकार अच्‍दा लगता है तो कभी कलाकार। हम सभी जानते और मानते हैं कि सलमान खान अत्‍यंत लो‍कप्रिय अभिनेता हैं। समीक्षक उनकी और उनकी फिल्‍मों की निंदा और आलोचना करते रहे हैं,लेकिन इनसे उनकी लो‍कप्रियता में कोई कमी नहीं आई है। एक बार बातचीत के क्रम में जब मैंने उनसे ही उनकी लोकप्रियता को डिकोड करने के लिए कहा तो उन्‍होंने मार्के की बात कह

दरअसल : वर्चुअल रियलिटी

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दरअसल... वर्चुअल रियलिटी -अजय ब्रह्मात्‍मज पिछलें दिनों गोवा में आयोजित फिल्‍म बाजार में वर्चुअल रियलिटी के प्रत्‍यक्ष एहसास के लिए एक कक्ष रखा गया था। फिल्‍म बाजार में आए प्रतिनिधि इस कक्ष में जाकर वर्चुअल रियलिटी का अनुभव ले सकते थे। कुछ सालों से ऑडियो विजुअल मीडियम की यह नई खोज सभी को आकर्षित कर रही है। अभी प्रयोग चल रहे हैं। इसे अधिकाधिक उपयोगी और किफायती बनाने का प्रयास जारी है। यह तकनीक तो कुछ महीनों या सालों में अासानी से उपलब्‍ध हो जाएगी। अब जरूरत है ऐसे कल्‍पनाशील लेखकों की जो इस तकनीक के हिसाब से स्क्रिप्‍ट लिख सकें। अभी तक मुख्‍य रूप से इवेंट या समारोहों के वीआर(वर्चुअल रियलिटी) फुटेज तैयार किए जा रहे हैं। मांग और मौजूदगी बढ़ने पर हमें कंटेंट की जरूरत पड़ेगी। वर्चुअल रियलिटी 360 डिग्री और 3डी से भी आगे का ऑडियो विजुअल अनुभव है। वर्चुअल रियलिटी का गॉगल्‍स या चश्‍मे की तरह का खास उपकरण आंखों पर चड़ा लेने और ईयर फोन कान पर लगा लेने के बाद हम अपने परिवेश से कट जाते हैं। हमारी आंखों के सामने केवल दृश्‍य होते हैं और कानों में आवाजें...किसी भी स्‍थान पर बैठे रहने के

दरअसल : सितारों के बच्‍चे

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दरअसल... सितारों के बच्‍चे -अजय ब्रह्मात्‍मज हम यह मान कर चलते हैं कि फिल्‍म इंडस्‍ट्री में सितारों और अन्‍य सेलिब्रिटी के बच्‍चे बड़ चैन व आराम से रहते होंगे। सुख-सुविधाओं के बीच पल रहे उनके बच्‍चों को किसी प्रकार की तकलीफ नहीं होगी। जरूरत की सारी चीजें उन्‍हें मिल जाती होंगी और उनकी ख्‍वाहिशें हमेशा पूरी होती होंगी। ऐसा है भी और नहीं भी है। मां-बाप की लोकप्रियता की वजह से इन बच्‍चों की परवरिश समान आर्थिक समूह के बच्‍चों से अलग हो जाती है। बचपन से ही उन्‍हें यह एहसास हो जाता है कि उनके मां-बाप कुछ खास हैं। सोशल मीडिया और मीडिया के कारण छोटी उम्र में ही उन्‍हें पता चल जाता है कि वे अपने सहपाठियों और स्‍कूल के दोस्‍तों से अलग हैं। ऐसे बचपन के अनुभव के बाद स्‍टार बने कलाकारों ने निजी बातचीत में स्‍वीकार किया है कि हाई स्‍कूल तक आते-आते उनके दोस्‍तों का व्‍यवहार बदल जाता है। वे या तो दूरी बना लेते हैं या उनकी अपेक्षाएं बढ़ जाती हैं। दोनों ही स्थितियों में सितारों के बच्‍चे समाज से कट जाते हैं। उनका बचपन नार्मल नहीं रह जाता। वे दूसरे सितारों के बच्‍चों के साथ नकली और दिखावटी

दरअसल : किसे परवाह है बच्‍चों की

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-अजय ब्रह्मात्‍मज वैसे भी वर्तमान सरकार को पिछली खास कर कांग्रेसी सरकारों की आरंभ की गई योजनाएं अधिक पसंद नहीं हैं। उन योजनाओं को बदला जा रहा है। जिन्‍हें बदल नहीं सकते,उन्‍हें नया नाम दिया जा रहा है। लंबे समय तक 14 नवंबर बाल दिवस के रूप में पूरे देश में मनाया जाता रहा है। 14 नवंबर देश के पहले प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरू का जन्‍मदिन है। चूंकि बचचों से उन्‍हें अथाह प्रेम था,इसलिए उनके जन्‍मदिन को बाल दिवस का नाम दिया गया। 40 की उम्र पार कर चुके व्‍यक्तियों को याद होगा कि स्‍कूलों में बाल दिवस के दिन रंगारंग कार्यक्रम होते थे। बच्‍चों के प्रोत्‍साहन और विकास के लिए खेल और सांस्‍कृतिक कार्यक्रम आयोजित किए जाते थे। कह सकते हैं कि तब बच्‍चों के लिए मनोरंजन के विकल्‍प कम थे,इसलिए ऐसे कार्यक्रमों में बच्‍चों और उनके अभिभावकों की अच्‍छी भागीदासरी होती थी। इस साल 14 नवंबर आया और गया। देश के अधिकांश नागरिकों का समय बाल दिवस के पहले कतारों में बीत गया। वे अपनी गाढ़ी कमाई के पुराने पड़ गए नोटों को बदलवाने में लगे थे। उन्‍हें अपने बच्‍चों की सुधि नहीं रही। कमोबेसा सिनेमा में भी यही

दरअसल : इस बार फिल्‍म बाजार

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-अजय ब्रह्मात्‍मज सन् 2007 में एनएफडीसी ने गवा में आयेजित इंटरनेशनल फिल्‍म फेस्टिवल के दौरान फिल्‍म बाजार का आयोजन आरंभ किया था। आरंभिक आशंका के बाद इसने अभियान का रूप ले लिया है। दक्षिण एशिया में इस स्‍तर का कोई फिल्‍म बाजार आयेजित नहीं होता। 2015 में 38 देशों के 1152 प्रतिनिधियों ने इसमें हिस्‍सा लिया,जिनमें 242 विदेशों से आए थे। अभी कई देशों से डिस्‍ट्रीब्‍यूटर,प्रोड्यूसर और फेस्टिवल क्‍यूरेटर फिल्‍म बाजार में आते हैं। यहां युवा फिल्‍मकारों को दिशा मिलती है। उनके लिए संभावनाएं बढ़ती हैं। फिल्‍म बाजार के प्रयास से ही पिछले कुछ सालों की चर्चित और पुरस्‍कृत फिल्‍में बन पाईं। हाल ही में मामी और टोक्‍यो में पुरस्‍कृत अलंकृता श्रीवास्‍तव की फिल्‍म ‘ लिपस्टिक अंडर माय बुर्का ’ ने यहीं से प्रयाण किया था। पिछले सालों में ‘ लंचबॉक्‍स ’ , ’ चौथी कूट ’ , ’ कोर्ट ’ और ‘ तिली ’ जैसी फिल्‍मों को यहीं से उड़ान मिली। फिल्‍म बाजार भारत के युवा फिल्‍मकारों के लिए क्रिएटिव संधिस्‍थल बन गया है। हर साल सैकड़ों युवा उद्यमी फिल्‍मकार यहां पहुंचते हैं और फिल्‍मों के ट्रेंड और बाजार से वाकिफ ह