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दरअसल : किसे परवाह है बच्‍चों की

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-अजय ब्रह्मात्‍मज वैसे भी वर्तमान सरकार को पिछली खास कर कांग्रेसी सरकारों की आरंभ की गई योजनाएं अधिक पसंद नहीं हैं। उन योजनाओं को बदला जा रहा है। जिन्‍हें बदल नहीं सकते,उन्‍हें नया नाम दिया जा रहा है। लंबे समय तक 14 नवंबर बाल दिवस के रूप में पूरे देश में मनाया जाता रहा है। 14 नवंबर देश के पहले प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरू का जन्‍मदिन है। चूंकि बचचों से उन्‍हें अथाह प्रेम था,इसलिए उनके जन्‍मदिन को बाल दिवस का नाम दिया गया। 40 की उम्र पार कर चुके व्‍यक्तियों को याद होगा कि स्‍कूलों में बाल दिवस के दिन रंगारंग कार्यक्रम होते थे। बच्‍चों के प्रोत्‍साहन और विकास के लिए खेल और सांस्‍कृतिक कार्यक्रम आयोजित किए जाते थे। कह सकते हैं कि तब बच्‍चों के लिए मनोरंजन के विकल्‍प कम थे,इसलिए ऐसे कार्यक्रमों में बच्‍चों और उनके अभिभावकों की अच्‍छी भागीदासरी होती थी। इस साल 14 नवंबर आया और गया। देश के अधिकांश नागरिकों का समय बाल दिवस के पहले कतारों में बीत गया। वे अपनी गाढ़ी कमाई के पुराने पड़ गए नोटों को बदलवाने में लगे थे। उन्‍हें अपने बच्‍चों की सुधि नहीं रही। कमोबेसा सिनेमा में भी यही

दरअसल : इस बार फिल्‍म बाजार

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-अजय ब्रह्मात्‍मज सन् 2007 में एनएफडीसी ने गवा में आयेजित इंटरनेशनल फिल्‍म फेस्टिवल के दौरान फिल्‍म बाजार का आयोजन आरंभ किया था। आरंभिक आशंका के बाद इसने अभियान का रूप ले लिया है। दक्षिण एशिया में इस स्‍तर का कोई फिल्‍म बाजार आयेजित नहीं होता। 2015 में 38 देशों के 1152 प्रतिनिधियों ने इसमें हिस्‍सा लिया,जिनमें 242 विदेशों से आए थे। अभी कई देशों से डिस्‍ट्रीब्‍यूटर,प्रोड्यूसर और फेस्टिवल क्‍यूरेटर फिल्‍म बाजार में आते हैं। यहां युवा फिल्‍मकारों को दिशा मिलती है। उनके लिए संभावनाएं बढ़ती हैं। फिल्‍म बाजार के प्रयास से ही पिछले कुछ सालों की चर्चित और पुरस्‍कृत फिल्‍में बन पाईं। हाल ही में मामी और टोक्‍यो में पुरस्‍कृत अलंकृता श्रीवास्‍तव की फिल्‍म ‘ लिपस्टिक अंडर माय बुर्का ’ ने यहीं से प्रयाण किया था। पिछले सालों में ‘ लंचबॉक्‍स ’ , ’ चौथी कूट ’ , ’ कोर्ट ’ और ‘ तिली ’ जैसी फिल्‍मों को यहीं से उड़ान मिली। फिल्‍म बाजार भारत के युवा फिल्‍मकारों के लिए क्रिएटिव संधिस्‍थल बन गया है। हर साल सैकड़ों युवा उद्यमी फिल्‍मकार यहां पहुंचते हैं और फिल्‍मों के ट्रेंड और बाजार से वाकिफ ह

दरअसल : रोमांटिक फिल्‍मों की कमी

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दरअसल... रोमांटिक फिल्‍मों की कमी -अजय ब्रह्मात्‍मज कभी हिंदी फिल्‍मों का प्रमुख विषय प्रेम हुआ करता था। प्रेम और रोमांस की कहानियां दर्शकों को भी अच्‍छी लगती थीं। दशकों तक दर्शकों ने इन प्रेम कहानियों को सराहा और आनंदित हुए। आजादी के पहले और बाद की फिल्‍मों में प्रेम के विभिन्‍न रूपों को दर्शाया गया। इन प्रेम कहानियों में सामाजिकता भी रहती थी। गौर करें तो आजादी के बाद उभरे तीन प्रमुख स्‍टारों दिलीप कुमार,देव आनंद और राज कपूर ने अपनी ज्‍यादार फिल्‍मों में प्रेमियों की भूमिकाएं निभाईं। हां,वे समाज के भिन्‍न तबकों का प्रतिनिधित्‍व करते रहे। इस दौर की अधिकांश फिल्‍मों में प्रेमी-प्रेमिका या नायक-नायिका के मिलन में अनेक कठिनाइयां और बाधाएं रहती थीं। प्रेमी-प्रेमिका का परिवार,समाज और कभी कोई खलनायक उनकी मुश्किलें बढ़ा देता था। दर्शक चाहते थे कि उनके प्रेम की सारी अड़चनें दूर हों और वे फिल्‍म की आखिरी रील तक आते-आते मिल रूर लें। इन तीनों की अदा और रोमांस को अपनाने की कोशिश बाद में आए स्‍टारों ने की। कुछ तो जिंदगी भर किसी न किसी की नकल कर ही चलते रहे। धर्मेन्‍द्र जैसे एक्‍टर न

दरअसल : खतरनाक है यह उदासी

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-अजय ब्रह्मात्‍मज मालूम नहीं करण जौहर की ‘ ऐ दिल है मुश्किल ’ देश भर में किस प्रकार से रिलीज होगी ? इन पंक्तियों के लिखे जाने तक असंमंजस बना हुआ है। हालांकि केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह और महाराष्‍ट्र के मुख्‍यमंत्री देवेन्‍द्र फड़नवीस ने करण जौहर और उनके समर्थकों को आश्‍वासन दिया है कि किसी प्रकार की गड़बड़ी नहीं होने दी जाएगी। पिछले हफ्ते ही करण जौहर ने एक वीडियो जारी किया और बताया कि वे आहत हैं। वे आहत हैं कि उन्‍हें देशद्रोही और राष्‍ट्रविरोधी कहा जा रहा है। उन्‍होंने आश्‍वस्‍त किया कि वे पड़ोसी देश(पाकिस्‍तान) के कलाकारों के साथ काम नहीं करेंगे,लेकिन इसी वीडियो में उन्‍होंने कहा कि फिल्‍म की शूटिंग के दरम्‍यान दोनों देशों के संबंध अच्‍छे थे और दोस्‍ती की बात की जा रही थी। यह तर्क करण जौहर के समर्थक भी दे रहे हैं। सच भी है कि देश के बंटवारे और आजादी के बाद से भारत-पाकस्तिान के संबंध नरम-गरम चलते रहे हैं। राजनीतिक और राजनयिक कारणों से संबंधों में उतार-चढ़ाव आता रहा है। परिणामस्‍वरूप फिल्‍मों का आदान-प्रदान प्रभावित होता रहा है। कभी दोनों देशों के दरवाजे बंद हो जाते

दरअसल : फिल्‍म गीतकारों को दें महत्‍व

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-अजय ब्रह्मात्‍मज 2016 के लिए साहित्‍य का नोबेल पुरस्‍कार अमेरिकी गायक और गीतकार बॉब डिलन को मिला है। इस खबर से साहित्यिक समाज चौंक गया है। भारत में कुछ साहित्‍यकारों ने इस पर व्‍यंग्‍यात्‍मक टिप्‍पणी की है। उन्‍होंने आशंका व्‍यक्‍त की है कि भविष्‍य में भारत में साहित्‍य और लोकप्रिय साहित्‍य का घालमेल होगा। वहीं उदय प्रकाश ने अपने फेसबुक वॉल पर स्‍टेटस लिखा... ‘ बॉब डिलन के बाद क्या हम हिंदी कविता के भारतीय जीनियस गुलज़ार जी के लिए सच्ची उम्मीद बांधें ?’ ऐसी उम्‍मीद गलत नहीं है। हमें जल्‍दी से जल्‍दी इस दिशा में विचार करना चाहिए। हिंदी फिल्‍मों के गीतकारों और कहानीकारों के सृजन और लेखन को रेखांकित कर उन्‍हें पुरस्‍कृत और सम्‍मानित करने की दिशा में पहल करनी चाहिए। हिंदी कहानीकार तेजेन्‍द्र शर्मा दशकों से हिमायत कर रहे हैं कि शैलेन्‍द्र के गीतों का साहित्यिक दर्जा देकर उनका अध्‍ययन और विश्‍लेषण करना चाहिए। उन्‍हें पाठ्यक्रम में शामिल करना चाहिए। उनके इस आग्रह को साहित्‍यकार और हिंदी के अध्‍यापक सिरे से ही खारिज कर देते हैं। हिंदी में धारणा बनी हुई है कि अगर कोई लोक्रिपय माध्‍

दरअसल : भिखारी के तीन चेंज

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-अजय ब्रह्मात्‍मज यह कानाफूसी नहीं है। स्‍वयं करण जौहर ने स्‍वीकार किया है। इस प्रसंग से पता चलता है कि हमारे फिल्‍मकार अपने समाज से कितना कटे हुए हैं। वे जिस दुनिया में रहते हैं और पर्दे पर जिस दुनिया को रचते हैं,वह वास्‍तविक दुनिया से कोसों दूर उनके खयालों में रहती है। हमें पर्दे पर रची उनकी दुनिया भले ही आकर्षक और सपने की तरह लगे,उसमें रमने का मन भी करे,उसकी चौंधियाहट से हम विस्मित होते रहे....लेकिन सच से उनका वास्‍ता नहीं होता। वस्‍तु,चरित्र,दृश्‍य,प्रसंग और कहानियां सब कुछ वायवीय होती हैं। जीवन के कड़वे और मीठे अनुभवों की काल्‍पनिक उड़ान से कहानियां रची जाती हैं। उन कहानियों को जब कलाकार पर्दे पर जीते हैं तो वह फिल्‍म का रूप लेती हैं। जरूरी है जीवनानुभव....इसके अभाव में इधर अनेक फिल्‍मकार आए हैं,जिन्‍होंने फिल्‍मों में एक वायवीय और चमकदार दुनिया रची है। एक बार सुधीर मिश्रा से बात हो रही थी। उनसे मैंने पूछा कि कुछ फिल्‍मकारों की फिल्‍में और उनमें किरदारों की मनोदशा इतनी नकली क्‍यों लगती है ? उन्‍होंने सवाल खत्‍म होते ही कहा, ’ क्‍योंकि उन्‍हें नकली लोग रच रहे होते हैं। ऐ

दरअसल : तनिष्‍ठा और सोनम

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-अजय ब्रह्मात्‍मज तनिष्‍ठा चटर्जी की फिल्‍म ‘ पार्च्‍ड ’ हाल ही में रिलीज हुई। इस फिल्‍म में तनिष्‍ठा चटर्जी ने रानी का किरदार निभाया था। छोटी उम्र में शादी के बाद विधवा हो गई रानी अपने बेटे को पालती है और आदर्श मां के तौर पर समाज में पूछी जाती है। अचानक उसके जीवन में एक चाहनेवाला आता है और फिर वह शरीर के स्‍फुरण से परिचित होती है। तनिष्‍ठा ने इस किरदार को बखूबी निभाया। एनएसडी से प्रशिक्षित तनिष्‍ठा ने अनेक हिंदी और इंटरनेशनल फिल्‍मों में काम कर प्रतिष्‍ठा अर्जित की है। वह पुरस्‍कृत भी हो चुकी हैं। हिंदी सिनेमा में जो थोड़ी-बहुत पैरेलल और कलात्‍मक फिल्‍में बन रही हैं,उनमें सभी की चहेती हैं तनिष्‍ठा चटर्जी। उनका एक अलग मुकाम है। पिछले दिनों इसी फिल्‍म के प्रचार के सिलसिले में वह एक कॉमेडी शों में गई थीं। यह विडंबना है कि मास अपील रखने वाली हिंदी फिल्‍में प्रचार के लिए टीवी शो का सहारा लेती हैं। ऐसे ही एक कॉमेडी शो में तनिष्‍ठा चटर्जी का मजाक उड़ाया गया। यह मजाक उनके रंग(वर्ण) को लकर था। तनिष्‍ठा ने आपत्ति की और बाद में चैनल के अधिकारियों से भी शिकायत की। उन्‍होंने फेसबुक

दरअसल : पिंक फिल्‍म तो पसंद आई...उसकी फिलासफी?

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-अजय ब्रह्मात्‍मज शुजीत सरकार की देखरेख में बनी ‘ पिंक ’ देश-विदेश के दर्शकों को पसंद आई है। उसके कलेक्‍शन से जाहिर है कि दर्शक सिनेमाघरों में जाकर ‘ पिंक ’ देख रहे हैं। दूसरे हफ्ते में भी फिल्‍म के प्रति दर्शकों का उत्‍साह बना रहा है। रितेश शाह की लिखी इस फिल्‍म को बांग्‍ला के पुरस्‍कृत निर्देशक अनिरूद्ध राय चौधरी ने निर्देशित किया है। सोशल मीडिया से लेकर घर-दफ्तर तक में इस फिल्‍म की चर्चा हो रही है। ज्‍यादातर लोग इस फिल्‍म के पक्ष में बोल रहे हैं। लेखक-निर्देशक ने बड़ी खूबसूरती से लड़कियों के प्रति बनी धारणाओं को ध्‍वस्‍त किया है। कोट्र में जिरह के दौरान बुजुर्ग वकील दीपक सहगल(अमिताभ बच्‍चन) के तर्कों से असहमत नहीं हुआ जा सकता। उनके तर्कों का कटाक्ष चुभता है। ‘ पिंक ’ की फिलासफी उस ‘ ना ’ पर टिकी है,जो किसी लड़की को अपनी तरह से जीने की आजादी दे सकती है। दीपक सहगल कहते हैं, ’ ‘ ना सिर्फ एक शब्‍द नहीं है , एक पूरा वाक्‍य है अपने आप में...इसे किसी व्‍याख्‍या की जरूरत नहीं है। नो मतलब नो...परिचित , फ्रेंड , गर्लफ्रेंड , सेक्‍स वर्कर या आपकी अपनी बीवी ही क्‍यों न हो...नो म

दरअसल : टीवी पर आ रहे फिल्‍म कलाकार

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-अजय ब्रह्मात्‍मज देश-विदेश फिल्‍म कलाकार टीवी पर आ रहे हैं। वे टीवी के रिएलिटी,फिक्‍शन,टॉक और गेम शोज का हिस्‍सा बनते हैं। यह उनकी कमाई और क्रिएटिविटी का कारगर जरिया है। इससे उनकी दृश्‍यता(विजीबिलिटी) बनी रहती है। काम करने के पैसे मिलते हैं सो अलग। भारत में टीवी के पॉपुलर होने और सैटेलाइट चैनलों के आने के बाद टीवी शोज में फिल्‍म कलाकारों को लाने का चलन बढ़ा। ‘ कौन बनेगा करोड़पति ’ के साथ अमिताभ बच्‍चन का टीवी पर आना सबसे उल्‍लेखनीय रहा। उसके बाद से तो तांता लग गया। सभी टीवी शोज करने लगे। फिर भी फिक्‍शन शोज में उनकी मौजूदगी कम रही। गौर करें तो भारत में फिल्‍म कलाकार अपनी पॉपुलैरिटी के दौरान टीवी का रुख नहीं करते हैं। भारत में हाशिए पर आ चुके फिल्‍म कलाकार ही टीवी के फिक्‍शन शोज में आते हैं। पिछले दशकों में किरण कुमार हों या अभी शबाना आजमी। इन सभी को टीवी पर देखना अच्‍छा लगता है। बात तब गले से नीचे नहीं उतरती,जब वे टीवी पर अपनी मौजूदगी के लिए बेतुके तर्क देने लगते हैं। उन्‍हें अचानक टीवी सशक्‍त माध्‍यम लगने लगता है। उन्‍हें क्रिएटिविटी के लिए यह मीडियम जरूरी जान पड़ता है। सभी

दरअसल : बॉयोपिक में हूबहू चेहरा

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-अजय ब्रह्मात्‍मज इस महीने की आखिरी तारीख 30 सितंबर को ‘ एमएस धौनी ’ रिलीज हो रही है। इसे नीरज पांडे ने निर्देशित किया है। फिलम में शीर्षक भूमिका सुशांत सिंह राजपूत निभा रहे हैं। उन्‍होंने ढाई सालों की कड़ी महनत के बाद धौनी के किरदार को स्‍क्रीन पर चरितार्थ किया है। उन्‍होंने सधी महनत और लगन से धौनी की चाल-ढाल पकड़ी है। उनकी तरह विकेट कीपिंग,फील्डिंग और बैटिंग करने का तरीका सीखा है। उम्‍मीद है धौनी की भूमिका में वे पसंद आएं। हम ने कुछ महीनों और सालों पहले ‘ सरबजीत ’ , ’ मैरी कॉम ’ , ’ मिल्‍खा सिंह ’ और ‘ पान सिंह तोमर ’ आदि फिल्‍में देखीं। इनमें से किसी भी फिल्‍म में कलाकार का चेहरा किरदार से नहीं मिल रहा था। हो सकता है कि उनकी बॉडी लैंग्‍वेज मिल रही हो,लेकिन उनका तुलनात्‍मक अध्‍ययन नहीं हुआ है। सवाल है कि क्‍या बॉयोपिक में किरदार और कलाकार के चहरे की साम्‍यता जरूरी नहीं है ? अगर है तो हम हिंदी फिल्‍मों में उस पर ध्‍यान क्‍यों नहीं दे रहे हैं ?   एक मान्‍यता है कि सिनेमा में अशिक्षित हिंदी दर्शकों को कुछ भी इमोशन और एंगेजिंग परोस दो तो वे संतुष्‍ट हो जाते हैं। उनका मनोरंजन

दरअसल : प्रयोग बढ़ा है हिंदी का,लेकिन...

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-अजय ब्रह्मात्‍मज हिंदी फिल्‍म इंडस्‍ट्री में हिंदी के चलन पर इस स्‍तंभ में ‘ हिंदी दिवस ’ के अवसर पर लिखे गए रस्‍मी लेखों के अलावा भी हिंदी के चलन पर कुछ तथ्‍य आते रहे हैं। निश्चित ही धीरे-धीरे यह स्थिति बन गई है कि सेट या दफ्तर में चले जाएं तो थोड़ी देर के लिए कोई भी हिंदीभाषी वहां प्रचलित अंग्रेजी से संकोच और संदेह में आ सकता है। फिलमें जरूर हिंदी में बनती हैं,लेकिन फिल्‍मी हस्तियों के व्‍यवहार की आम भाषा अंग्रेजी हो चुकी है। बताने की जरूरत नहीं स्क्रिप्‍ट,पोस्‍टर और प्रचार अंगेजी में ही होते हैं। पिछले दिनों भारत भ्रमण पर आए एक विदेशी युवक ने अपने यात्रा संस्‍मरण में इस बात पर आश्‍चर्य व्‍यक्‍त किया कि शहर के सारे लोग हिंदी बोल रहे हैं,लेकिन दुकानों के नाम और अन्‍य साइन बोर्ड अंग्रेजी में लिखे हुए हैं। हिंदी फिल्‍म इंडस्‍ट्री में अंग्रेजी के प्रति झुकाव के संबंध में कटु विचार प्रकट कर रहे हिंदीभाषियों को सबसे पहले अपने गांव,कस्‍बे और समाज में आ रहे परिवर्तन में हस्‍तक्षेप करना चाहिए। हिंदी फिल्‍म इंडस्‍ट्री में लगभग दो दशक के अपने अनुभवों के आधार पर मैं कह सकता हूं कि

दरअसल : पायरेसी,सिनेमा और दर्शक

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-अजय ब्रह्मात्‍मज पारेसी के खिलाफ जंग छिड़ी है। पिछले महीनों में कुछ फिल्‍में ठीक रिलीज के पहले लीक हुईं। जाहिर है इससे उन फिल्‍मों का नुकसान हुआ। सरकार भी पायरेसी के खिलाफ चौकस है। तमाम कोशिशों के बावजूद पायरेसी का काट नहीं मिल पा रहा है। अभी नियम सख्‍त किए गए हैं। आर्थिक दंड की रकम और सजा की मियाद बढ़ा दी गई,लेकिन पायरेसी बदस्‍तूर जारी है। मुंबई की लोकल ट्रेनों में कुछ सालों पहले तक शाम के अखबार होते थे। किसी जमाने में देश में शाम सबसे ज्‍यादा अखबार मुंबई में निकला करते थे। अभी कुछ के प्रकाशन बंद हो गए। कुछ किसी प्रकार निकल रहे हैं। वे शाम के बजाए सुबह के अखबार हो गए हैं। आप शाम में इन ट्रेनों में सफर करें तो पाएंगे कि सभी अपने स्‍मार्ट फोन में लीन हैं। उनमें से अधिकांश फिल्‍में देख रहे होते हें। ताजा फिल्‍में...और कई बार तो फिलमें रिलीज के पूर्व थिएटर से पहले स्‍मार्ट फोन में पहुंच जा रही हैं। पहले अखबार बांट कर पढ़ते थे। अब फिल्‍में बांट कर देखते हैं। अपरिचितों को भी फिल्‍म फाइल ट्रांसफर करने में किसी को गुरेज नहीं होता। सिर्फ मुंबई में ही नहीं,देश के हर छ

दरअसल : जरूरी है सरकारी समर्थन

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-अजय ब्रह्मात्‍मज इन दिनों विभिन्‍न राज्‍य सरकारें फिर से सिनेमा पर गौर कर रही हैं। अपने राज्‍यों के पर्यटन और ध्‍यानाकर्षण के लिए उन्‍हें यह आसान रास्‍ता दिख रहा है। इस साल गुजरात और उत्‍तर प्रदेश की सरकारों को पुरस्‍कृत भी किया गया। उन्‍हें ‘ फिल्‍म फ्रेंडली ’ स्‍टेट कहा गया। फिल्‍मों के 63 वें राष्‍ट्रीय पुरस्‍कारों में एक नई श्रेणी बनी। बताया गया था कि इससे राज्‍य सरकारें फिल्‍मों के प्रोत्‍साहन के लिए आगे आएंगी। इसके साथ ही सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के अधीन कार्यरत एनएफडीसी(नेशनल फिल्‍म डेवलपमंट कारपोरेशन) के दिल्‍ली कार्यालय में फिल्‍म फैसिलिटेशन विभाग खोला गया। उद्देश्‍य यह है कि फिल्‍मकारों को साथ लाया जाए और उन्‍हें फिल्‍में बनाने की सुविधाएं दी जाएं। एनएफडीसी सालों सार्थक फिल्‍मों के समर्थन में खड़ी रही। इसके सहयोग से पूरे देश में युवा फिल्‍मकार अपनी प्रतिभाओं और संस्‍कृति के साथ सामने आए। हालांकि फिल्‍मों के लिए एनएफडीसी सीमित फंड ही देती थी,लेकिन उस सीमित फंड में ही युवा फिल्‍मकारों ने प्रयोग किए और समांतर सिनेमा अभियान खड़ा कर दिया। अब पैरेलल,समांतर या वैकल्प

दरअसल : सोशल मीडिया के दौर में फिल्‍म समीक्षा

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-अजय ब्रह्मात्‍मज पिछले हफ्ते जयपुर में था। वहां ‘ टॉक जर्नलिज्‍म ’ के एक सत्र में विष्‍य था ‘ सोशल मीडिया के दौर में किसे चाहिए फिल्‍म समीक्षक ?’ । सचमुच अभी सोशल मीडिया पर जिस तेजी और अधिकता में फिल्‍मों पर टिप्‍पणियां आ रही हैं,उससे जो यही आभास होता है कि शायद ही कोई फिल्‍म समीक्षा पढ़ता होगा। अखबारों और चैनलों पर नियमित समीक्षकों की समीक्षा आने के पहले से सोशल मीडिया साइट पर टिप्‍पणियां चहचहाने लगती हैं। इनके दबाव में मीडिया हाउस भी अपने साइट पर यथाशीघ्र रिव्‍यू डालने लगे हैं। एक प्रतिष्ठित अंग्रेजी अखबार तो प्रीव्‍यू में रिव्‍यू का भ्रम देता है। केवल आखिर में एक पंक्ति रहती है कि हमारे समीक्षक की समीक्षा का इंतजार करें। हम जल्‍दी ही पोस्‍ट करेंगे। सभी हड़बड़ी में हैं। डिजिटल युग में आगे रहना है तो ‘ सर्वप्रथम ’ होना होगा। जो सबसे पहले आएगा,उसे सबसे ज्‍यादा हिट मिलेंगे। इस दबाव में कंटेंट पर किसी का ध्‍यान नहीं है। पहले बुधवार या गुरूवार को निर्माता फिल्‍में दिखाते थे। अखबारों में शनिवार और रविवार को इंटरव्‍यू छपते थे। फिल्‍मों पर विस्‍तार से चर्चा होती थी। आज के पाठक