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दरअसल : क्‍यों बेतुका बोलते हैं स्‍टार?

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-अजय ब्रह्मात्‍मज सुल्‍तान की रिलीज के कुछ दिनों पहले सलमान खान के एक कथन से हंगामा मच गया था। उनके पिता सलीम खान ने माफी मांगी,फिर भी एक समूह सलमान खान से नाखुश है। यह वाजिब भी है। सलमान खान सरीखे पॉपुलर स्‍टार की जुबान कैसे फिसल सकती है ? क्‍या बोलते समय उन्‍हें अहसास नहीं रहा होगा कि उनके इस कथन के कई अभिप्राय निकलेंगे। सच कहें तो सलमान खान इतना नहीं सोचते। और फिर इन दिनों बातचीत को मसखरी बना दिया गया है। कोशिश रहती है कि ऐसे सवाल पूछे जाएं कि स्‍टार को हंसी आ जाए। स्‍टार भी पत्रकारों का मनोरंजन करते हैं। कभी अपनी हरकतों से तो कभी अपनी बातों से। इन दिनों हर इवेंट में सवालों का मखौल बना दिया जाता है। मंच पर बैठे स्‍टार और उनके सहयोगी तफरीह लेने लगते हैं। दरअसल,अधिकांश फिल्‍म स्‍टार और डायरेक्‍टर पब्लिक स्‍पीच में अनगढ़ होते हैं। सभी को अमिताभ बच्‍चन और शाह रुख खान की तरह सटीक जवाब देना नहीं आता। अधिकांश हिंदी में तंग हैं,इसलिए वे हिंदी में खुद को एक्‍सप्रेस नहीं कर पाते। ऐसा नहीं है कि उनकी अंग्रेजी बहुत अच्‍छी होती है। सीमित शब्‍दों में सीमित भावों के साथ ही वे अपनी बातें

दरअसल : मिलते हैं जब फिल्‍म स्‍टार

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-अजय ब्रह्मात्‍मज जागरण फिल्‍म फेस्टिवल जारी है। हिंदी प्रदेशों के शहरों में जाने के अवसर मिल रहे हैं। इन शहरों में फिलमें दिखाने के साथ ही जागरण फिल्‍म फेस्टिवल मुंबई से कुछ फिल्‍म स्‍टारों को भी आमंत्रित करता है। इन फिल्‍म स्‍टारों से दोटूक बातचीत होती है। कुछ श्रोताओं को भी सवाल पूछने के मौके मिलते हैं। हर फेस्टिवल की तरह यहां भी फिल्‍मप्रेमी,रंगकर्मी,साहित्‍यप्रेमी और युवा दर्शक होते हैं। उनकी भागीदारी अचंभित करती है। वे पूरे जोश के साथ फेस्टिवल में शामिल होते हैं। अपनी जिज्ञासाएं रखते हैं। अपनी धारणाएं भी जाहिर करते हैं। मैंने गौर किया है कि फिल्‍म स्‍टारों के साथ इन मुलाकातों में दर्शकों में सबसे ज्‍यादा रुचि सेल्‍फी निकालने में होती है। वे दाएं-बाएं हाथें में मोबाइल लिए और बांहें फैलाए सेलिब्रिटी के रास्‍ते में खड़ हो जाते हैं। हर व्‍यक्ति चााहता है कि सेलिब्रिटी उनके कैमरे की तरफ देखे और मुस्‍कराए। चूंकि सेल्‍फी मोड में अपनी छवि दिख रही होती है,इसलिए नजरें नहीं फेरी जा सकती हैं। मजबूरन हर सेलिब्रिटी को मुस्‍कराना पड़ता है। आ खुद ही जोड़ लें कि एक सेल्‍फी में कितना स

दरअसल : निजी जिंदगी,फिल्‍म और प्रचार

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-अजय ब्रह्मात्‍मज सार्वजनिक मंचों पर फिल्‍म स्‍टारों के ऊपर अनेक दबाव रहते होंगे। उन्‍हें पहले से अंदाजा नहीं रहता कि क्‍या सवाल पूछ लिए जाएंगे और झट से दिए जवाब की क्‍या-क्‍या व्‍याख्‍याएं होंगी ? क्‍या सचमुच घर से निकलते समय वे सभी अपने जीवन की नई-पुरानी घटनाओं का आकलन कर उन्‍हें रिफ्रेश कर लेते होंगे ? क्‍या उनके पास संभावित सवालों के जवाब तैयार रहते होंगे ? यह मुश्किल राजनीतिज्ञों और खिलाडि़यों के साथ भी आती होगी। फिर भी फिल्‍म स्‍टारों की निजी जिंदगी पाइकों और दर्शकों के लिए अधिक रोचक होती है। हम पत्र-पत्रिकाओं और टीवी चैनलों पर खबरों के नाम पर उनकी निजी जिंदगी में झांक रहे होती हैं। उनकी प्रायवेसी का हनन कर रहे होते हैं। इस दौर में पत्रकारों के ऊपर भी दबाव है। उनसे अपेक्षा रहती है कि वे कोई ऐसी अंदरूनी और ब्रेकिंग खबर ले आएं,जिनसे टभ्‍आपी और हिट बढ़े। डिजिटल युग में खबरों का प्रभाव मिनटों में होता है। उसे आंका भी जा सकता है। टीवी पर टीआरपी और ऑन लाइन साइट पर हिट से पता चलता है कि उपभोक्‍ता(दर्शक व पाठक) की रुचि किधर है ? जाहिर सी बात है कि अगले अपडेट,पोस्‍ट और न्‍

दरअसल : 2016 की पहली छमाही

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-अजय ब्रह्मात्‍मज 2016 की पहली छमाही के कलेक्‍शन में पिछले साल 2015 की तुलना में 2 करोड़ का इजाफा हुआ है। इस साल पहली छमाही में 1 फिल्‍म ज्‍यादा रिलीज भी हुई है। 2016 में जनवरी से जून के बीच कुल 111 फिल्‍में रिलीज हुई हैं। गौर करें तो 2014 के बाद से पहली छमाही में 100 से ज्‍यादा फिल्‍में रिलीज हो रही हैं। पिछले साल रिलीज फिल्‍मों की संख्‍या 110 और उसके पहले 2014 में केवल 102 रही थी। अगर और पीछे जाएं तो 2009 में पहली छमाही में केवल 33 फिल्‍में ही रिलीज हुई थीं। फिल्‍मों के बाजार और बिजनेस के लिहाज से उत्‍तरोत्‍तर प्रगति हो रही है। बाजार और बिजनेस की बात करें तो पहली छमाही का कुल कलेक्‍शन 1025 करोड़ रहा है। यह राशि बहुत अधिक नहीं है,लेकिन निराशाजनक स्थिति भी नहीं है। पहली छमाही में ‘ एयरलिफ्ट ’ और ‘ हाउसफुल 3 ’ ने 100 करोड़ से अधिक का करोबार किया। संयोग से दोनों ही फिल्‍में अक्षय कुमार की हैं। अक्षय कुमार बाक्‍स आफिस के भरोसेमंद स्‍टार हैं। उनकी फिल्‍में ज्‍यादा हल्‍ला-गुल्‍ला नहीं करतीं। निर्माताओं को लाभ होता है। दूसरी छमाही में भी उनकी फिल्‍में आ रही हैं। अक्षय कुमार की दो

दरअसल : मैड्रिड में हिंदी सिनेमा

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-अजय ब्रह्मात्‍मज पिछले 17 सालों से आइफा वीकएंड के तहत आइफा अवार्ड और अन्‍य इवेंट के आयोजन विदेशों में हो रहे हैं। आइफा सामान्‍य तौर पर भारतीय सिनेमा और विशेष तौर पर हिंदी सिनेमा के   प्रसार में अहम भूमिका निभाता रहा है। अभी तो हिंदी सिनेमा के प्रचारक और प्रसारक के नाम पर कई दावेदार निकल आएंगे,लेकिन इस सच्‍चाई सं इंकार नहीं किया जा सकता कि आइफा ने ही यह पहल की। उन्‍होंने भारतवंशियों और विदेशियों के बीच भारतीय फिल्‍मों और फिल्‍म स्‍टारों ‍को पहुंचाया और उनकी लोकप्रियता को सेलीब्रेट किया। आइफा इस मायने में हिंदी फिल्‍मों के अन्‍य पुरस्‍कारों से अलग और विशेष है। हिंदी फिल्‍म इंडस्‍ट्री और दुनिया भर के प्रशंसकों को आइफा का इंतजार रहता है। इंटरनेशनल मीडिया को हिंदी फिल्‍मों के स्‍टारों से मिलने का मौका मिलता है। प्रशंसकों को खुशी मिलती है कि उन्‍होंने अपने देश में उन स्‍टारों को देख लिया,जिन्‍हें वे जिंदगी भर केवल स्‍क्रीन पर देखते रहे। 17 वें आइफा अवार्ड समारोह का आयोजन स्‍पेन की राजधानी मैड्रिड में किया गया। 23 से 27 जुलाई तक मैड्रिड की गलियां और ऐतिहासिक स्‍थल हिंदी फिलमों के

दरअसल : रिकार्डिंग और डाक्‍युमेंटेशन

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-अजय ब्रह्मात्‍मज पिछले दिनों एक अनौपचारिक मुलाकात में अमिताभ बच्‍चन ने मीडिा से शेयर किया कि अपने यहां डाक्‍यूमेंटेशन का काम नहीं के बराबर होता है। गौर करें तो इस तरफ न तो सरकारी संस्‍थाओं का ध्‍यान है और न ही फिल्‍मी संस्‍थाओं और संगठनों का। किसी के पास आंकड़े नहीं हैं। इन दिनों फिल्‍मों सं संबंधित किसी भी जानकारी के लिए गूगल,विकीपीडिया और आईएमडीबी का सहारा लिया जाता है। वहां सब कुछ प्रामाणिक तरीके से संयोजित नहीं किया गया है। कई बार ऐसा हुआ है कि कोई एक गलत जानकारी ही चलती रहती है। यहां तक कि फिल्‍म बिरादरी के संबंधित सदस्‍य भी उसमें सुधार की कोशिश नहीं करते हैं। खुद के प्रति ऐसी लापरवाही भारत में ही देखी जा सकती है। कुछ लोगों का यह सब फालतू काम लगता है। यह एक दूसरे किस्‍म का अहंकार है कि हम अपने बारे में सब कुछ क्‍यों लिखें और बताएं ? इतिहासकार बताते हैं कि देश में दस्‍तावेजीकरण की परंपरा नहीं रही। हम मौखिक परंपरा के लोग हैं। सब कुछ सुनते और बताते रहे हें। उन्‍हें लिपिबद्ध करने का काम बहुत बाद में किया गया। पहले महाकाव्‍यों और काव्‍य में राजाओं की गौरव गाथाएं लिखी जाती

दरअसल : बधाई आलिया भट्ट

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-अजय ब्रह्मात्‍मज पिछले शुक्रवार को विवादित फिल्‍म ‘ उड़ता पंजाब ’ रिलीज हुई। अभिषेक चौबे की इस फिल्‍म के निर्माताओं में अनुराग कश्‍यप भी हैं। उन्‍होंने इस फिल्‍म की लड़ाई लड़ी। सीबीएफसी के खिलाफ उनकी इस जंग में मीडिया और फिल्‍म इंडस्‍ट्री का साथ रहा। कोर्ट के फैसले से एक कट के साथ ‘ उड़ता पंजाब ’ सिनेमाघरों में पहुंच गई। हाल-फिलहाल में किसी और फिल्‍म को लेकर निर्माता और सीबीएफसी के बीच ऐसा घमासान नहीं हुआ था। इस घमासान में ‘ उड़ता पंजाब ’ विजयी होकर निकली है। इस फिल्‍म में मुख्‍य कलाकारों के परफारमेंस की तारीफ हो रही है। शाहिद कपूर और आलिया भट्ट दोनों ने अपनी हदें तोड़ी हैं। उन्‍होंने निर्देशक अभिषेक चौबे की कल्‍पना को साकार किया है। पिछले शुक्रवार रिलीज के दिन ही ग्‍यारह बजे रात में महेश भट्ट का फोन आया। गदगद भाव से वे बता रहे थे कि आलिया भट्ट की चौतरफा तारीफ हो रही है। उन्‍होंने मुझे मेरी ही बात याद दिलाई। मैं इम्तियाज अली की फिल्‍म ‘ हाईवे ’ की काश्‍मीर की शूटिंग से लौटा था। मैंने उन्‍हें बताया था कि एक पहाड़ी पर मैंने आलिया का जमीन पर गहरी नींद में लेटे देखा। मेरे

दरअसल : हो सकता है एक और विवाद

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-अजय ब्रह्मात्‍मज अभिषेक चौबे की ‘ उड़ता पंजाब ’ पर हाई कोर्ट की सुनवाई से आई खबरों को सही मानें तो केवल एक कट के साथ फिल्‍म रिलीज करने का आदेश मिल जाएगा। पिछले दिनों यह फिल्‍म भयंकर विवाद में रही। फिल्‍म के निर्माताओं में से एक अनुराग कश्‍यप ने सीबीएफसी की आरंभिक आपत्ति के बाद से ही मोर्चा खोल लिया था। सीबीएफसी के पुराने अनुभवों और गुत्थियों की जानकारी होने की वजह से उनके पार्टनर ने अनुराग कश्‍यप को सामने कर दिया था। उन्‍होंने सलीके से अपना विरोध जाहिर किया। और सीबीएफसी के खिलाफ फिल्‍म इंडस्‍ट्री को लामबंद किया। फिल्‍म इंडस्‍ट्री के कुछ संगठन साने आए। सभी फिल्‍मों को अनुराग कश्‍यप जैसा जुझारू और जानकार निर्माता नहीं मिलता। ज्‍यादातर लोग सिस्‍टम से टकराने या उसके आगे खड़े होने के बजाए झुक जाना पसंद करते हैं। ‘ उड़ता पंजाब ’ ने निर्माताओं का राह दिखाई है कि अगर उन्‍हें अपनी क्रिएटिविटी और फिल्‍म पर यकीन है तो तो वे इसी सिस्‍टम में अपनी लड़ाई लड़ कर विजय भी हा‍सिल कर सकते हैं। दरअसल,ज्‍यादातर निर्माता पर्याप्‍त तैयारी और समय के साथ फिल्‍म प्रमाणन बोर्ड नहीं आते। फिल्‍

दरअसल : ठीक नहीं होती व्‍यक्ति पूजा

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-अजय ब्रह्मात्‍मज हम दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र होने का दावा करते हैं। हम यह दोहराने से भी नहीं हिचकते कि अपने देश में अभिव्‍यक्ति की आजादी है। निस्‍संदेह दक्षिण एशिया के अन्‍य देशों के मुकाबले हमारा रिकार्ड बेहतर है। पिछले 68 सालों में बीच-बीच में ऐसे अंतराल भी आए हैं,जब अभिव्‍यक्ति का गला घोंटा गया है। आपात्‍काल को हमेशा याद रखना चाहिए। कभी ऐसा भी लगता है कि प्रत्‍यक्ष तौर पर तो पूरी स्‍वतंत्रता है,लेकिन परोक्ष रूप से इतना कठोर दबाव है कि सभी एक ही राग अलाप रहे हैं। पिछले सालों में ऐसा भी हुआ कि किसी ने कुछ कहा और एक समुदाश्‍ या समूह नाराज हो गया। बगैर संदर्भ और सच को जाने सभी भौं-भौं करने लगे। लोकतंत्र में भीड़ की ऐसी सामूहिकता अराजक और खतरनाक हो जाती है। पिछले दिनों तन्‍मय भट्ट के मजाकिया वीडियो के वायरल होने के बाद जिस ढंग की प्रतिक्रियाएं आई हैं,उन्‍हें सही संदर्भ में देखने की जरूरत है। एआईबी सोशल मीडिया के जरिए समाज के पढे़-लिखे तबके में अपनी पैठ बनाने में कामयाब रहा है। अमेरिकी तर्ज पर यह व्‍यंग्‍य के पुट से हंसने-हंसाने की कोशिश कर रहा है। कुछ समय पहले इसकी तीखी आल

दरअसल : रमन राघव के साथ अनुराग कश्‍यप

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-अजय ब्रह्मात्‍मज अनुराग कश्‍यप ने ‘ बांबे वेलवेट ’ की असफलता की कसक को अपने साथ रखा है। उसे एक सबक के तौर पर वे हमेशा याद रखेंगे। उन्‍होंने हिंदी फिल्‍मों के ढांचे में कुछ नया और बड़ा करने की कोशिश की थी। मीडिया और फिल्‍म समीक्षकों ने ‘ बांबे वेलवेट ’ को आड़े हाथों लिया। फिल्‍म रिलीज होने के पहले से हवा बन चुकी थी। तय सा हो चुका था कि फिल्‍म के फेवर में कुछ नहीं लिखना है। ‍यह क्‍यों और कैसे हुआ ? उसके पीछे भी एक कहानी है। स्‍वयं अनुराग कश्‍यप के एटीट्यूड ने दर्जनों फिल्‍म पत्रकारों और समीक्षकों को नाराज किया। हिंदी फिल्‍म इंडस्‍ट्री और फिल्‍म पत्रकारिता में दावा तो किया जाता है कि सब कुछ प्रोफेशनल है,लेकिन मैंने बार-बार यही देखा कि ज्‍यादातर चीजें पर्सनल हैं। व्‍यक्तिगत संबंधों,मान-अपमान और लाभ-हानि के आधार पर फिल्‍मों और फिल्‍मकारों का मूल्‍यांकन होता है। इसमें सिर्फ मीडिया ही गुनहगार नहीं है। फिल्‍म इंडस्‍ट्री का असमान व्‍यवहार भी एक कारक है। कहते हैं न कि जैसा बोएंगे,वैसा ही काटेंगे। बहरहाल, ‘ बांबे वेलवेट ’ की असफलता को पीछे छोड़ कर अनुराग कश्‍यप ने ‘ रमन राघव 2.

दरअसल : खिलाडि़यों पर बन रहे बॉयोपिक

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-अजय ब्रह्मात्‍मज चंबल के इलाके में ‘ पान सिंह तोमर ’ की कथा तलाश करते समय फिल्‍म के लेखक संजय चौहान को नहीं मालूम था कि वे एक नए ट्रेंड की शुरूआत कर रहे हैं। सीमित बजट में अखबार की एक कतरन को आधार बना कर उन्‍होंने पान सिंह तोमर का जुझारू व्‍यक्तित्‍व रचा,जिसे निर्देश्‍क तिग्‍मांशु घूलिया ने इरफान की मदद से पर्दे पर जीवंत किया। उसके बाद से बॉयोपिक काट्रेड चला। हम ने राकेश ओमप्रकाश मेहरा के निर्देशन में ‘ भाग मिल्‍खा भाग ’ जैसी कामयाब फिल्‍म भी देखी। ‘ पान सिंह तोमर ’ की रिलीज के समय कोर्अ र्ख्‍ख नहीं थी। प्रोडक्‍शन कंपनी को भरोसा नहीं था कि इस फिल्‍म को दर्शक भी मिल पाएंगे। सबसे पहले तो इसकी भाषा और फिर पेशगी पर उन्‍हें संदेह था। लेखक और निर्देशक डटे रहे कि फिल्‍म की भाषा तो बंदेलखंडी ही रहेगी। उनकी जिद काम आई। फिल्‍म देखते समय एहसास नहीं रहता कि हम कोई अनसुनी भाषा सुन रहे हैं। फिलम कामयाब होने के बाद प्रोडक्‍शन कंपनी के आला अधिकारी आनी सोचा और मार्केटिंग रणनीति के गुण गाते रहे। सच्‍चाई सभी को मालूम है कि अनमने ढंग से रिलीज की गई इस फिल्‍म ने दर्शकों को झिंझोड़ दिया था।

दरअसल : मोरना में सलमान खान

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-अजय ब्रह्मात्‍मज पिछले महीने सलमान खान अपनी निर्माणाधीन फिल्‍म ‘ सुल्‍तान ’ की शूटिंग के लिए मुजफ्फरनगर के मोरना गए थे। फिल्‍म के निर्देशक अली अब्‍बास जाफर ने वहां की शूटिंग प्‍लान की थी। यशराज फिल्‍म्‍स के कर्ता-धर्ता आदित्‍य चोपड़ा की सहमति से ही यह संभव हुआ होगा। एक हफ्ते पहले से अखबार के मेरे साथियों की जिज्ञासा आने लगी थी कि शूटिंग की सही जानकारी मिल जाए।उनकी गतिविधि के बारे में पता चल जाए। और अगर मुमकिन हो तो शूटिंग के दौरान की तस्‍वीरों और रिपोर्ट का रास्‍ता निकल आए। तमाम कोशिशों और आग्रह के बावजूद ऐसा नहीं हो सका। यह स्‍वाभाविक है। मुझे भी कई बार लगता है कि शूटिंग के दरम्‍यान दर्शकों और प्रशंसकों को शूटिंग घेरे में नहीं आने देना चाहिए। प्रशंसकों में कौतूहल होता है। वे परिचित स्‍टार को देखने के सुख और उल्‍लास की ललक में भीड़ बढ़ा देते हैं। निश्चित समय में अपना काम पूरा करने के उद्देश्‍य से गई फिल्‍म यूनिट स्‍टार और दर्शकों के मेल-मिलाप और सेल्‍फी की मांग पूरी करने लगे तो सारा समय यों ही बीत जाएगा। मुंबई और दिल्‍ली के दर्शक-प्रशंसक आए दिन फिल्‍म स्‍टारों को यहां-

दरअसल : मनीष शर्मा की लगन और मेहनत

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-अजय ब्रह्मात्‍मज मनीष शर्मा निर्देशित ‘ फैन ’ की चौतरफा तारीफ हो रही है। शाह रुख खान के प्रशंसकों को उनका अभिनेता मिल गया है। कहा और माना जा रहा है कि एक अर्से के बाद शाह रुख खान ने अपनी योग्‍यता और क्षमता का सदुपयोग किया है। वे अनुभवी और समझदार अभिनेता हैं। उन्‍होंने सधे निर्देशकों के साथ बेहतरीन और यादगार फिल्‍में की हैं। वे फिल्‍में बाक्‍स आफिस पर भी चली हैं। अच्‍छी बात है कि वे घोर कमर्शियल फिल्‍में करते समय भी किसी शर्म या अपराध बोध से ग्रस्‍त नहीं रहते हैं। सुधी समीक्षकों और फिल्‍म प्रेमियों की अपने प्रिय कलाकारों से मांग रहती है कि वे केवल सार्थक फिल्‍मों मकें ही काम करें। गौर करें तो कोई भी कलाकार निरर्थक फिल्‍में नहीं करना चाहता। फिर भी यह सच्‍चाई है कि हिंदी फिल्‍मों का मुख्‍य उद्देश्‍य और लक्ष्‍य दर्शकों का मनोरंजन करना होता है। दशकों के प्रयोग और विस्‍तार से हिंदी फिल्‍मों का एक ढांचा बना गया है। अधिकांश फिल्‍मकार उसी ढांचे में काम करते हैं। एक बार सफल हो गए तो आगामी फिल्‍मों में उसी सफलता को दोहराना चाहते हैं। ‘ निर्देशक मनीष शर्मा की पहली फिल्‍म है ‘ फेन ’ । च

दरअसल : छोटे शहरों से आए कलाकार

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-अजय ब्रह्मात्‍मज इन दिनों पत्र-पत्रिकाओं में लगातार लेख,कॉलम और विश्‍लेषण छप रहे हैं कि छोटे शहरों से आए कलाकार मुंबई में मिली सफलता पचा नहीं पाते। असफलता तो और भी हताश करती है। पिछले दिनों एक टीवी कलाकार की आत्‍महत्‍या के बाद सभी के प्रवचन चालू हो गए हैं। ज्ञान बंट रहा है। ज्‍यादातर स्‍तंभकार,लेखक और पत्रकार छोटे शहरों से आए कलाकारों के दबाव और चुनाव पर व्‍यवस्थित बातें करने के बजाए एक हादसे को सभी पर थोप रहे हें। यह संदेश दिया जा रहा है कि छोटे शहरों के युवा हिंदी फिल्‍म इंडस्‍ट्री और टीवी इंडस्‍ट्री के काबिल नहीं होते। अगर किसी को कामयाबी मिल भी गई तो उसका हश्र दुखद होता है। वे गलत फैसले लेते हैं। अपनी अर्जित कामयाबी में ही घुट जाते हैं। ऐसे लोग चंद घटनाओं को सच बताने लगते हैं,जबकि छोटे शहरों से आकर मिले मौके के सदुपयोग से लहलहाती प्रतिभाओं को भी हम देख रहे हें। हम हादसों की खबर देते हें। जलसों को नजरअंदाज करते हैं। मैं स्‍वयं एक गांव से हूं। वहां से कस्‍बे में पढ़ने आया। फिर कथित छोटे शहर में पढ़ाई की। उसके बाद जेएनयू में छह साल रहा। जेएनयू ने आंखें खोल दी। यहीं द