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फिल्‍म समीक्षा : रनिंग शादी

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फिल्‍म रिव्‍यू मूक और चूक से औसत मनोरंजन रनिंग शादी -अजय ब्रह्मात्‍मज   अमित राय की फिल्‍म ‘ रनिंग शादी ’ की कहानी का आधा हिस्‍सा बिहार में है। पटना जंक्‍शन और गांधी मैदान-मौर्या होटल के गोलंबर के एरियल शॉट के अलावा पटना किसी और शहर या सेट पर है। अमित राय और उनकी टीम पटना(बिहार) को फिल्‍म में रचने में चूक गई है। संवादों में भाषा और लहजे की भिन्‍नता है। ब्रजेन्‍द्र काला की मेहनत और पंकज झा की स्‍वाभाविकता से उनके किरदारों में बिहारपन दिखता है। अन्‍य किरदार लुक व्‍यवहार में बिहारी हैं,लेकिन उनके संवादों में भयंकर भिन्‍नता है। शूजित सरकार की कोचिंग में बन रही फिल्‍मों में ऐसी चूक नहीं होती। उनकी फिल्‍मों में लोकल फ्लेवर उभर कर आता है। इसी फिल्‍म में पंजाब का फ्लेवर झलकता है,लेकिन बिहार की खुश्‍बू गायब है। टायटल से डॉट कॉम मूक करने से बड़ा फर्क पड़ा है। फिल्‍म का प्रवाह टूटता है। इस मूक-चूक और लापरवाही से फिल्‍म अपनी संभावनाओं को ही मार डालती है और एक औसत फिल्‍म रह जाती है। भरोसे बिहारी है। वह पंजाब में निम्‍मी के पिता के यहां नौकरी करता है। उसकी कुछ ख्‍वाहिशें हैं,जिनकी

ऑन सेट : रनिंगशादी डॉट कॉम : बेगानी शादी में दीवाने

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ऑन सेट बेगानी शादी में दीवाने -अजय ब्रह्मात्मज     पटियाला के गुरुबख्श कॉलोनी की एक गली में गहमागहमी है। दोमंजिले मकान के अहाते में खड़ी सफेद एंबेस्डर के पास मामा जी अपनी लैम्ब्रेटा स्कूटर के किक मार रहे हैं। पुराना स्कूटर स्टार्ट ही नहीं हो रहा है। उन्हें एडवर्टाइज(ऐड) बनाने के लिए जाना है। तभी सामने से उनका भांजा भरोसे अपने दोस्तों के साथ एक ऑटो से उतरता है। मामा उसे देख कर चौंकते हैं और झेंपते हुए कहते हैं, ‘बेटे तुमने बता दिया होता तो मैं तुझे लेने आ जाता।’ वे अपने सफेद एंबेस्डर की तरफ इशारा करते हुए कहते हैं कि यह सफेद हाथी यूं ही खड़ा रहता है। भरोसे मामा की बातों की सच्चाई जानता है। वह हंसता हुआ पूछता है, ‘मामा, आप स्कूटर क्यों नहीं बदल देते?’ फिर खुद ही कहता है,चलिए धक्के मार देता हूं। अपने मेहमान दोस्तों के साथ भरोसे स्कूटर को धक्का लगाता है।     यह निर्माता शूजीत सरकार और निर्देशक अमित राय की फिल्म ‘रनिंगशादी डॉट कॉम’ का एक दृश्य है। इन दिनों पटियाला में इसके बचे दृश्यों की शूटिंग चल रही है। बातचीत में पता चलता है कि वास्तव में पटियाला में शूट किया जा रहा सीन पटना के किसी

फिल्‍म समीक्षा : काय पो छे

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-अजय ब्रह्मात्मज गुजराती भाषा का 'काय पो छे' एक्सप्रेशन हिंदी इलाकों में प्रचलित 'वो काटा' का मानी रखता है। पतंगबाजी में दूसरे की पतंग काटने पर जोश में निकला यह एक्सप्रेशन जीत की खुशी जाहिर करता है। 'काय पो चे' तीन दोस्तों की कहानी है। तीनों की दोस्ती का यह आलम है कि वे सोई तकदीरों को जगाने और अंबर को झुकाने का जोश रखते हैं। उनकी दोस्ती के जज्बे को स्वानंद किरकिरे के शब्दों ने मुखर कर दिया है। रूठे ख्वाबों को मना लेने का उनका आत्मविश्वास फिल्म के दृश्यों में बार-बार झलकता है। हारी सी बाजी को भी वे अपनी हिम्मत से पलट देते हैं। तीन दोस्तों की कहानी हिंदी फिल्मों में खूब पसंद की जा रही है। सभी इसका क्रेडिट फरहान अख्तर की फिल्म 'दिल चाहता है' को देते हैं। थोड़ा पीछे चलें तो 1981 की 'चश्मेबद्दूर' में भी तीन दोस्त मिलते हैं। सिद्धार्थ, ओमी और जय। 'काय पो चे' में भी एक ओमी है। हिंदी फिल्मों में रेफरेंस पाइंट खोजने निकलें तो आज की हर फिल्म के सूत्र किसी पुरानी फिल्म में मिल जाएंगे। बहरहाल, 'काय पो छे' चेतन भगत के बेस्ट स