फिल्म लॉन्ड्री : भारत में भी लाहौरी ही रहे प्राण नेविले


फिल्म लॉन्ड्री
भारत में भी लाहौरी ही रहे प्राण नेविले
-अजय ब्रह्मात्मज
प्राण नेविले से मेरा परिचय सबसे पहले ट्विटर के जरिए हुआ.पार्टीशन म्यूजियम के एक अपडेट में मुझे प्राण नेविले का छोटा विडियो दिखा.उस विडियो में वे लाहौर में 1941 में बनी फिल्म ‘खजांची का ज़िक्र कर रहे थे.इस फिल्म ने पूरे देश में हंगामा मचा दिया था.यह अविभाजित भारत की बात है.तब लाहौर भारत का हिस्सा था.उसे ‘पूर्व का पेरिस’ कहा जाता था. अविभाजित भारत में कलकत्ता और बॉम्बे के अलावा लाहौर में भी फिल्म निर्माण की गतिविधियाँ आरम्भ हो चुकी थीं.कलकत्ता और बॉम्बे की तुलना में निर्माण की संख्या और क्वालिटी के हिसाब से लाहौर की फ़िल्में कम और कमतर थीं.हालांकि लाहौर से निकले अभिनेता,अभिनेत्री,गायक और निर्देशक देश भर में अपनी प्रतिभा और कामयाबी से खास जगह बना रहे थे,लेकिन लाहौर में निर्मित फ़िल्में कमाई और कामयाबी में पिछड़ जाती थीं. निर्माता दलसुख पंचोली और निर्देशक मोती बी गिडवानी की फिल्म ‘खजांची की नायिका रमोला थीं.इस फिल्म के एक गीत में रमोला ‘सावन के नज़ारे हैं गाती सहेलियों के साथ साइकिल पर सवार हैं.उनका दुपट्टा लहरा रहा है.प्राण नेविले बता रहे थे कि इस गीत की वजह से ‘खजांची को आधुनिक फिल्म कहा गया था,जिसमें आजाद ख्याल नायिका फिल्म के नायक की तरह साइकिल चला रही थी और बेफिक्र अंदाज में गाना गा रही थी.आज़ादी और विभाजन के पहले की इस फिल्म ने हिंदी सिनेमा पर दूरगामी प्रभाव डाला.
‘खजांची की रिलीज के समय प्राण नेविले की उम्र 19 साल थी.उन्हें उस फिल्म के बारे में सब कुछ याद रहा.उनकी याददाश्त का यह आलम था कि 1937 में के एल सहगल की लाहौर यात्रा के बारे में उन्होंने विस्तार से अपनी पुस्तक ‘के एल सैगल- द डेफिनीटिव बायोग्राफी में लिखा है.तब वे सिर्फ 15 साल के थे.अपने दोस्त के साथ वे के एल सैगल को सुनने गए थे.उन्होंने उमड़ी भीड़ के बीच दो रुपये के टिकट ब्लैक में तीन रुपये में खरीदे थे.उनकी याददाश्त जबरदस्त थी.इसी साल अप्रैल में उनके गुरुग्राम निवास में हुई बातचीत मुझे अच्छी तरह याद है.लाहौर और लाहौर की फिल्म इंडस्ट्री से संबंधित मेरे हर सवाल का उन्होंने दो टूक जवाब दिया था.उन्हें इस बात की ख़ुशी थी कि मैं लाहौर की फिल्म इंडस्ट्री के योगदान को रेखांकित कर रहा हूँ.स्रोत और सामग्री की दिक्कतों का प्रसंग आने पर जब मैंने बताया कि अभी के हालत में लाहौर जाना मुम्किन नहीं है.मैं तो सूचना और प्रसारण मंत्रालय से किसी प्रकार के सहयोग की उम्मीद नहीं कर सकता,क्योंकि अपने लेखों और टिप्पणियों में मैं सत्तारूढ़ पार्टी का विरोधी घोषित हो चूका हूँ.उन्होंने मेरी बात धयान से सुनी और फिर धीमे स्वर में अनोखी सलाह दी. उन्होंने सुझाया कि भाजपा की सरकार के मंत्री के पास तुम पत्र भेजो.उस पत्र में लिखों कि विभाजन के पहले लाहौर में सक्रिय अधिकांश निर्माता और स्टूडियो के मालिक हिन्दू थे. मुझे उनके बारे में पता करना है.देखना सरकार तुम्हारी हर मदद करेगी.मैं अभी तक वह पत्र नहीं लिख सका,लेकिन उनके इस सुझाव से मुझे एहसास हुआ कि वे बिल्कुल व्यवहारिक व्यक्ति और विचारक थे.सार्वजानिक हित में सत्ता का इस्तेमाल उन्हें आता था.हो सकता लम्बे समय तक भारतीय विदेश सेवा में रहने के कारन वे सत्ता के गलियारों और कार्यप्रणाली से वाकिफ हों.
उनके बारे में जानने और उनकी किताबें पढने के बाद मिलने की इच्छा होने पर भी उनसे संपर्क करने का मन नहीं कर रहा था.मुझे हमेशा लगता है कि सक्रिय बुजुर्गों को नाहक तंग नहीं करना चाहिए.मिलने-मिलाने की औपचारिकता में उनका वक़्त खर्च होता है.बहरहाल,ट्विटर की पाकिस्तानी दोस्त अमारा अहमद ने उनसे मुलाक़ात का कहीं ज़िक्र किया था.मैंने अमारा से ही इस बाबत पूछा.अमारा ने सलाह दी कि मुझे उनसे संपर्क कर मिलने का वक़्त माँगना चाहिए.और सचमुच तब मुझे विस्मित ख़ुशी हुई,जब उन्होंने मेरा आग्रह मान लिया और मिलने के लिए तैयार हो गए.निश्चित तारीख को वक़्त से कुछ पहले ही मैं उनके गुरुग्राम निवास पर हाज़िर था.मुझे उनकी स्टडी में बिठा दिया गया.स्टडी में जाते समय मैंने उनकी झलक पा ली थी और यही सोच कर खड़ा रहा कि वे पीछे से आते ही होंगे.5 से 10 मिनट हो गए,लेकिन वे नहीं आये.थोड़ी देर तक उनकी किताबों को निहारने के बाद मैं बैठ गया.ठीक 11 बजे वे आये....11 का वक़्त ही मुकम्मल हुआ था.आने के साथ उन्होंने कहा कि मैं वक़्त पर आ गया.तुम पहले आ गए थे,इसलिए इंतजार करना पड़ा.मेरी हंसी छूट गयी और वे भी हंसने लगे.फिर तो घंटे भर से ज्यादा देर तक मैं कुछ न कुछ पूछता रहा और वे पूरी संजीदगी से मेरी हर जिज्ञासा का जवाब देते रहे.अप्रैल 2018 में उनकी उम्र 96 साल थी.
जी हाँ, उम्र उन्हें छू नहीं पाई थी.वे लगातार सक्रिय और सचेत रहे.भारतीय बुजुर्ग इस उम्र में घर,परिवार और समाज से नाराज़ रहते हैं.उन्हें लगता है कि आज की पीढ़ी नाकारा और नासमझ है.अपनी बातचीत में मैंने महसूस किया कि उन्हें ऐसी कोई शिकायत नहीं है.वे आज की पीढ़ी को संबोधित करना चाहते हैं.उनके संपर्क में रहते हैं.उनके पास ठोस योजनायें थीं.वे उन पर काम कर रहे थे.जब मैंने निवेदन किया कि आप की किताबें हिंदी में आयें और आप हिंदी में भी लेख लिकहें.उन्होंने झट से सूफी संगीत पर लिखा एक लेख थमा दिया और कहा कि इसे छपवा लो.वे अपनी किताबें हिंदी में लाना चाहते थे.इन किताबों का हिंदी अनुवाद आना ही चाहिए.प्राण नेविले लाहौर शहर पर केन्द्रित ‘लाहौर-ए सेंटीमेंटल जर्नी’ नामक किताब लिखी है.इस किताब में उन्होंने अपने दौर के लाहौर का सजीव चित्र शब्दांकित किया है.छोटी-छोटी रवायतों पर विस्तार से लिखा है.वे सही लिखते हैं,’शहर केवल अपने बाज़ार और इमारतों में नहीं होता.यह माहौल,परिवेश,ख़ुशी और ग़म के आलम,पागलपन और उदासी,मौज-मस्ती और सबसे बढ़ कर अपने बाशिंदों में होता है. वे ही उसकी आत्मा होते है.’प्राण नेविले की यह पुस्तक किसी भी शहर की धड़कन को समझने का कारगर टूल देती है.प्राण साहेब ने लाहौर के राजनीतिक और आर्थिक हलचल पर अधिक ध्यान नहीं दिया है.वे लाहौर के उस सांस्कृतिक पहलू को सामने ले आते हैं,जो भारत और पाकिस्तान से अलग लाहौर को उजागर करता है.लाहौरी इस तथ्य में फख्र महसूस करते हैं कि एक भारत है और एक पाकिस्तान है....और एक लाहौर है.विभाजन के पहले के लाहौर के बारे में पढने-जानने पर शिद्दत से यह बात महसूस होती है.
प्राण नेविले का प्राण लाहौर में ही था.वे भारत ज़रूर आ गए थे,लेकिन किसी ब्याहता की तरह वे अपने मायके लाहौर को कभी नहीं भूल पाए.मौका मिलते ही वे लाहौर जाते थे.लाहौर के बारे में खूब लिखते थे. कोठेवालियों पर उनकी किताब शोधपूर्ण मानी जाती है. ब्रिटिश राज के विशेषज्ञ के रूप में उनकी खास पहचान थी.इसके साथ ही भारतीय चित्रकला और कंपनी स्कूल के अवसान पर उनकी महत्वपूर्ण किताब है.उन्होंने सुगम संगीत और फ़िल्मी संगीत पर भी भरपूर लिखा है. वे ठुमरी गायिका नैना देवी के मुरीद और दोस्त थे.उनके जरिए वे बेगम अख्तर से मिले.उन्होंने इन दोनों गायिकाओं पर भी लिखा है.उन्होंने बेगम अख्तर की गायी कुछ ठुमरी और ग़ज़ल एक वक़्त के बाद उनके प्रशंसकों के बीच बिखेरी.दिल्ली में हर साल संगीत सभा का आयोजन उनका खास शगल था.के एल सैगल पर किताब लिखने के साथ ही उनकी गायकी और खूबियों की याद बनाये रखने के लिए उनकी जन्म शताब्दी पर भारत सरकार के सहयोग से भव्य आयोजन करने में वे सफल रहे थे.
चौथे और पांचवे दशक के लाहौर में सांस्कृतिक सामूहिकता थी.अविभाजित भारत का यह शहर उत्तर भारत के पश्चिम का सांस्कृतिक,शैक्षणिक और राजनीतिक केंद्र था.इसके समानान्तर पूर्व में स्थित इलाहाबाद ही प्रभाव में इसके समक्ष ठहरता है.यह तुलनात्मक अध्ययन का विषय हो सकता है कि कैसे और क्यों उत्तर भारत के दोनों शहर आज़ादी के बाद अपनी चमक और धमक बरक़रार नहीं रख सके.और अब तो इलाहाबाद का नाम बदल कर प्रयागराज रखने के साथ योगी आदित्यनाथ ने बची-खुची गरिमा भी समाप्त कर दी.

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