सिनेमालोक : जब गीतों के बोल बनते हैं मुहावरा

सिनेमालोक

जब गीतों के बोल बनते हैं मुहावरा

-अजय ब्रह्मात्मज

दस दिनों पहले अतुल मांजरेकर  की फिल्म ‘फन्ने खान' का एक गाना जारी हुआ था.इस सवालिया गाने की पंक्तियाँ हैं,’
खुदा तुम्हें प्रणाम है सादर
पर तूने दी बस एक ही चादर
क्या ओढें क्या बिछायेंगे
मेरे अच्छे दिन कब आयेंगे
मेरे अच्छे दिन कब आयेंगे
दो रोटी और एक लंगोटी
एक लंगोटी और वो भी छोटी
इसमें क्या बदन छुपाएंगे
मेरे अच्छे दिन कब आयेंगे अच्छे दिन कब आयेंगे?
गाना बेहद पोपुलर हुआ.इसे सोशल मीडिया पर शेयर किया गया.यह देश के निराश नागरिकों का गाना बन गया.’अच्छे दिनों' के वाडे के साथ आई वर्तमान सरकार से लोग इसी गाने के बहाने सवाल करने लगे.सवाल का स्वर सम्मोहिक हुआ तो नुमैन्दों के कान खड़े हुए.कुछ तो हुआ कि जल्दी ही महज दस दिनों में इसी गाने की कुछ और पंक्तिया तैरने लगीं.अब उसी गाने का विस्तार है…
जो चाह था
हो ही गया वो
अब न कोई खुशियाँ रोको
सपनों ने पंख फैलाये रे
मेरे अच्छे दिन हैं आये रे.
ऐसा माना जा रहा है कि निर्माता-निर्देशक पर दबाव पड़ा तो उन्होंने इस गीत को बदल दिया.’अच्छे दिन कब आयेंगे?’ के सवाल को ‘अच्छे दिन आये रे' कर दिया और सपनों के पंख फैलाने की बात कही.निर्देशक अतुल मांजरेकर का बयान आया है कि इस गाने के अकारण राजनीतिकरण से बात बढ़ी और निर्माताओं के पास कॉल आये. किसी भी प्रकार के विवाद से बचने के लिए गीत का अगला हिस्सा डालना पड़ा.
इरशाद कामिल ने बताया कि मूल रूप में पूरा गाना यूँ ही लिखा गया है.किसी दबाव में पंक्तियाँ नहीं बदली गयी हैं.कुछ गानों में ख़ुशी और ग़म के वर्सन होते हैं,कुछ में आशा-निराशा के.इस गाने में आशा-निराशा को व्यक्त करते शब्द हैं.दोनों वर्सन आगे-पीछे ज़रूर आये हैं.लोगबाग जो मतलब निकाल रहे हैं,वैसा कुछ नहीं हुआ है.’ फिल्मों,फ़िल्मी गानों और संवादों में दर्शक अपनी उम्मीदें,गुस्सा और शिकायतें पा जाते हैं तो वे उसे सराहते हैं और उन्हें अपनी पंक्तिया बना लेते हैं.यह किसी गीतकार और संवाद लेखक की अप्रतिम सफलता होती है कि उसके बोल और संवाद मुहावरे बन जाएँ.इरशाद कामिल के गीतों में यह प्रभाव मिलता है.उनके गीत वर्तमान समय के भाव और मंशा को बहुत खूबसूरती के साथ बगैर आक्रामक हुए व्यक्त करते हैं.इस बार भी ऐसा ही हुआ है.
इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि इस गीत के पहले बोलों ने समाज के नाखुश और निराश नागरिकों को वाणी दी.यही करण है कि वे अपने आम सवालों को इस गीत के बहाने पोस्ट करने लगे.सत्ताधारी शक्तियां हमेशा ऐसे मौकों पर अतिरिक्त तौर पर सावधान रहती हैं.अगर सत्ता निरकुंश हो तो ज्यादा सजग रहती है.वह बवंडर बनने के पहले ही हवा का रुख बदलती है.निश्चित ही निर्माताओं को फ़ोन आये होंगे.हो सकता है,उन्हें आग्रह के अंदाज में आदेश दिया गया हो.निर्माता डरपोक नहीं होते.उन्हें विवाद से संभावित हानि का व्यवसायिक डर रहता है.अगर अभिव्यक्ति का डर रहता तो इस गाने की रिकॉर्डिंग ही नहीं होती.हम जानते हैं कि राकेश ओमप्रकाश मेहरा साहसी निर्माता-निर्देशक हैं.उनकी ‘रंग दे बसंती’ मिसाल है. लेकिन यह भी सच है कि इन दिनों ढेर सारे लेखक निजी अंकुश के साथ लेखन कर रहे हैं.यह प्री सेंसरशिप है.यह अभिव्यक्ति को सीमित और संकीर्ण कर रही है.
फिलहाल यह तो जाहिर हुआ कि सरकार और सत्ता गीत के बोलों से भी घबराती है.

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