फिल्म समीक्षा : अंग्रेजी में कहते हैं

फिल्म समीक्षा
बत्रा साहब की प्रेमकहानी
अंग्रेजी में कहते हैं 
- अजय ब्रह्मात्मज 

हरीश व्यास की बनारस की पृष्ठभूमि पर बनी 'अंग्रेजी में कहते हैं' संजय मिश्रा की अदाकारी के लिए देखी जानी चाहिए। अभिनेता संजय मिश्रा के दो रूप हैं। एक रूप में वे मुख्यधारा की मसाला फिल्मों में हंसाने के काम आते हैं।  इन फिल्मों में का हीरो कोई भी हो,दर्शकों को संजय मिश्रा का इंतज़ार रहता है। दूसरे रूप में वे तथाकथित छोटी फिल्मों में दर्शकों को रुलाते हैं। यूँ कहें कि आम दर्शकों के दर्द को परदे पर बखूबी उतारते हैं। 'अंग्रेजी में कहते हैं' में वे पोस्टल डिपार्टमेंट के मामूली कर्मचारी हैं। इस फिल्म में उनका नाम यशवंत बत्रा है। अगर बत्रा की जगह वे व्यास,मिश्रा या पांडेय होते या श्रीवास्तव,सिंह या चौधरी भी होते तो तो फिल्म बनारस का सही प्रतिनिधित्व करती है। तात्पर्य यह की हिंदी फिल्मों के निर्देशकों पर पंजाबी किरदारों का इतना दवाब रहता है की 'अंग्रेजी में कहते हैं' जैसी फिल्मों के नायक का सरनेम वे नहीं बदल पाते। मनो नायक बनने और इश्क़ करने का हक़ केवल पंजाबियों को है। 
उनका सरनेम भले ही बत्रा हो।  बाकि मिजाज और व्यवहार में वह बनारसी हैं। बत्रा निवास उनके पूर्वजों ने बनवाया। उनका बचपन उसी घर में गुजरा है। घर की दीवारें भी उन्हें जानती हैं। यशवंत बत्रा उत्तर भारत के उस पुरुष के प्रतिनिधि हैं,जो कर्तव्य निर्वाह में ही ज़िन्दगी गुजार देता है। वह दफ्तर आएं-जाएँ और बीवी घर संभालें। ऐसे पतियों को अपनी बीवी का ख्याल नहीं रहता। उनके लिए घर की यही व्यवस्था प्यार का पर्याय है। यशवंत को ही किरण का कहाँ ख्याल रहता है।  उनकी रुटीन ज़िंदगी में बेटी प्रीती के प्यार से खलल पड़ता है। बेट-बाप के संवादों से यह बात निकलती है कि उन्होंने बीवी की भावनाओं को समझने की कोशिश ही नहीं की। इसके साथ ही वह हीं ग्रंथि के भी शिकार हैं,क्योंकि ससुराल में अनचाहे ही उनका मजाक हो जाया करता है।  उनकी आर्थिक दिक्कतों का ज़िक्र होता है। 
यशवंत एक समय के बाद रोमांस और प्यार के आभाव के अहसास से गुजरते हैं तो उन्हें श रुख खान बनने का ख्याल आता है। वह अपनी किरण को मोहित करने असफल प्रयास में जुट जाते हैं। इस प्रक्रिया में दो उत्पेरक हैं। एक तो उनकी बेटी प्रीती और उसका प्रेमी/पति जुगनू और दुसरे फ़िरोज़ और सुमन की जोड़ी।  दोनों जोड़ियों ने फिल्म को आगे बढ़ने और संजय मिश्रा की अदाकारी को सांद्र बनाने में महती योगदान किया है। चर्चित पंकज त्रिपाठी कुछ दृश्यों में ही मोहक अंदाज से प्रभावित करते हैं। प्रीति (शिवांगी रघुवंशी) और जुगनू(अंशुमान झा) अपनी भूमिकाओं का बेहतर निर्वाह करते हैं। 
किरण बानी एकावली खन्ना को लेखक का समर्थन नहीं था,फिर भी वह अपनी मौजूदगी और अभिनय से याद रहती हैं। बगैर मेलोड्रामा के ही वह अपने जज़्बात जाहिर करती हैं। हाँ,ब्रजेन्द्र कला का ज़िक्र करना ही होगा। उनकी उपस्थिति ही दृश्य में रूचि बढ़ा देती है। 
फिल्म के किरदारों की तरह फिल्म का परिवेश और निर्माण भी आर्थिक तंगी का शिकार लगता है। इस फिल्म में और भी संभावनाएं थीं। संवादों में चुटीला बनारसीपन आ सकता था। 
अवधि - 108 मिनट 
*** तीन स्टार

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