काल्पनिक इतिहास की सांप्रदायिक मंशाएंः ‘पद्मावत’

यह लेख जवरीमल्‍ल पारख ने लिखा है। ‘पद्मावत’ के प्रशंसक और आलोचक दोनों इसे पढें। यह लेख संजय लीला भंसाली की मंशा और मंतव्‍य को समझने में मदद करेगा।
samayantar ke March 2018 men prakashit aalekh
काल्पनिक इतिहास की सांप्रदायिक मंशाएंः ‘पद्मावत’
जवरीमल्ल पारख
संजय लीला भंसाली की फ़िल्म अपने बदले नाम ‘पद्मावत’ के साथ जनवरी के अंतिम सप्ताह में प्रदर्शित हो गयी। फ़िल्म को लेकर विवाद की शुरुआत उसके निर्माण के दौरान ही हो गयी थी। बिना देखे और उसके बारे में फैली अफवाहों के आधार पर फ़िल्म के विरुद्ध आंदोलन शुरू हुआ। इस खबर के आने के बाद कि फ़िल्म 1 दिसंबर 2017 को रिलीज होगी, यह आंदोलन और तेज हो गया। इसे भारतीय जनता पार्टी और संघ परिवार का सक्रिय समर्थन मिला। यह आरोप लगाया गया कि फ़िल्म में रानी पद्मावती का जिस ढंग से चित्रण किया गया है वह उनके ऐतिहासिक चरित्र के अनुरूप नहीं है। उन्हें सबके सामने नृत्य करते दिखाया गया है। एक स्वप्न दृश्य में अलाउद्दीन खिलजी और पद्मिनी को प्रेम करते दिखाया गया है। फ़िल्म में पद्मिनी के गौरवशाली चरित्र को लांछित किया गया है और इस तरह राजपूतों की आन, बान और शान को कलंकित किया गया है। करणी सेना ने मांग की कि फ़िल्म उन्हें दिखाई जाए और जब वह मंजूरी दे तब ही उसे प्रदर्शित किया जाए। कई राज्यांे के भाजपा मुख्यमंत्रियों ने घोषणा कर दी कि वे अपने राज्यों में फ़िल्म को रिलीज नहीं होने देंगे। यहां तक कि मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चैहान ने पद्मिनी को राष्ट्रमाता घोषित कर दिया। आंदोलन इस हद तक उग्र होता गया कि भंसाली को जान से मारने और पद्मिनी की भूमिका निभाने वाली अभिनेत्री दीपिका पादुकोन की नाक काट लाने की खुले आम धमकियां दी गयीं। लगभग तीन महीने तक टीवी चैनलों पर फ़िल्म को लेकर बहस के नाम पर घमासान मचा रहा। सारे देश में सांप्रदायिक माहौल बनाया गया। स्पष्टतः फ़िल्म के विरोध के बहाने हिंदू ध्रुवीकरण की कोशिश की गयी ताकि गुजरात के चुनावों में और कुछ ही समय बाद होने वाले मध्यप्रदेश और राजस्थान राज्यों के चुनावों में लाभ उठाया जा सके।
ऐसा वातावरण बना दिया गया कि फ़िल्म प्रमाणन बोर्ड (सेंसर बोर्ड) पर भी उसका दबाव दिखायी देने लगा। बोर्ड ने फ़िल्म में ऐसे परिवर्तन करने के लिए कहा जिससे राजपूती इतिहास से उसका संबंध दिखायी न दे। फ़िल्म के आरंभ में यह घोषणा जोड़ी गयी कि यह फ़िल्म मलिक मोहम्मद जायसी के महाकाव्य ‘पदमावत’ (1540 ई.) पर आधारित है और इसके ऐतिहासिक होने का कोई दावा फ़िल्म नहीं करती है। अलाउद्दीन खिलजी और पद्मिनी का स्वप्न दृश्य फ़िल्म में पहले से ही नहीं था, या बाद में हटाया गया, कहना इसलिए मुश्किल है क्योंकि प्रदर्शित फ़िल्म में ऐसा कोई दृश्य नहीं है। यहां तक कि फ़िल्म के किसी एक फ्रेम में भी पद्मिनी और अलाउद्दीन खिलजी एक साथ दिखायी नहीं देते। सेंसर बोर्ड द्वारा फ़िल्म के प्रदर्शन की अनुमति दिये जाने के बावजूद भाजपा शासित राज्यों ने फ़िल्म के प्रदर्शन पर रोक लगाये रखी। इन स्थितियो में मजबूर होकर संजय लीला भंसाली को सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाना पड़ा।
फ़िल्म पर विवाद के दौरान पद्मिनी की ऐतिहासिकता और अनैतिहासिकता को लेकर काफी कुछ लिखा गया। प्रतिबंध समर्थकों के अनुसार पद्मिनी एक ऐतिहासिक चरित्र है और अलाउद्दीन खिलजी के साथ युद्ध के दौरान पद्मिनी सहित राजपूत स्त्रियों ने अपने सम्मान की रक्षा के लिए जौहर किया था जबकि अधिकतर इतिहासकार पद्मिनी और जौहर दोनों को काल्पनिक मानते हैं। अलाउद्दीन खिलजी ने 1296 से 1316 ई. तक दिल्ली पर शासन किया था। उसने यह सत्ता अपने चाचा और श्वसुर जलालुद्दीन खिलजी की हत्या कर हासिल की थी। बीस साल के शासन काल में उसने लगातार अपने राज्य का विस्तार किया। चितौड़गढ़ पर उसने 1303 के आसपास हमला किया था। उस हमले का विवरण अमीर खुसरो ने फारसी में लिखे ग्रंथ ‘खजै़तुल फतह’ में किया है जो उस दौरान सुलतान के साथ थे। लेकिन उसमें पद्मिनी जैसी किसी रानी का कोई उल्लेख नहीं मिलता और न ही जौहर का।
अलाउद्दीन ने अपने शासन के दौरान कई ऐसे काम किये जिसने इतिहास में उसे एक खास मुकाम हासिल है। बावजूद इसके कि उसने हिंदुओं पर जजिया कर लगाया था लेकिन उसके शासन का आधार शरीयत नहीं था। वह ईश्वर में यकीन करता था लेकिन धार्मिक प्रवृत्ति का नहीं था। उसने अपने रिश्तेदारों और शासन से जुड़े अधिकारियों पर भी कई तरह के अंकुश लगाये। वह पहला ऐसा शासक था जिसने किसानों की पैदावार का उचित मूल्य निर्धारित करने का चलन आरंभ किया। व्यापारियो के लिए भी उसने चीजों की कीमतें तय कर दी थीं और तय कीमतों से ज्यादा वसूलने वालों के लिए कठोर सजा भी मुकर्रर कर दी थी। रिश्वतखोरी और भ्रष्टाचार खत्म करने के लिए भी उसने कड़े कानून बनाये थे। अपनी विशाल सेना के लिए उसने सस्ते दामों पर चीजें मुहैया कराईं। अपनी इसी सेना के बल पर उसने न सिर्फ मंगोलों के हमले को रोका वरन सभी दिशाओं में विजय भी हासिल की।
चितौड़ पर अलाउद्दीन की विजय की कथा में पद्मिनी का उल्लेख पहली बार ‘पदमावत’ में ही आता है जो अलाउद्दीन की मृत्यु के लगभग सवा दो सौ साल बाद लिखा गया था। इतिहासकार रजत दत्त के अनुसार इसी के बाद राजस्थान के चारण कवियों ने पद्मिनी का उल्लेख अपनी काव्य रचनाओं में किया है। हेमरतन की ‘गोरा बादल चैपाई’ (1589), नेनसी मोहता की ‘ख्यात’ (1660), ‘सिसोद वंशावली’ (1657) और ‘रावल रणजी री वात’ (1691) में पद्मिनी का उल्लेख मिलता है। लेकिन पद्मिनी को एक सूफी कवि की कल्पना और बाद में चारण कवियों द्वारा उसे दंतकथा में बदलने की कोशिश को ऐतिहासिक पात्र में बदलने का काम सबसे अविश्वसनीय इतिहासकार कर्नल जेम्स टाॅड ने किया जिन्होंने अपने ग्रंथ ‘एनल्स एंड एंटीक्विटीज आॅफ राजस्थान’ (1829) में पद्मिनी का ऐतिहासिक व्यक्ति के रूप में उल्लेख किया है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपने ग्रंथ ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ (1940) में वीरगाथा काल की रचनाओं पर विचार करते हुए कहा है कि इस काल के कवियों ने अपने ग्रंथों मे भले ही ऐतिहासिक चरित्रों की कथा कही हो लेकिन उन्होंने ऐतिहासिक तथ्यों का सदैव अनुकरण नहीं किया। उनका मकसद अपने आश्रयदाता राजा की वीरता का गुणगान करना होता था और इसके लिए वे काल्पनिक प्रसंगों को भी समाविष्ट करते थे। इन काल्पनिक प्रसंगों में प्रेम कथा जरूर होती थी। उन्हीं के शब्दों में “जैसे योरप में वीरगाथाओं का प्रसंग ‘युद्ध और प्रेम’ रहा, वैसे ही यहां भी था। किसी राजा की कन्या के रूप का संवाद पाकर दलबल के साथ चढ़ाई करना और प्रतिपक्षियों को पराजित कर उस कन्या को हरकर लाना वीरों के गौरव और अभिमान का काम माना जाता था। ...जहां राजनीतिक कारणों से भी युद्ध होता था वहां भी उन कारणों का उल्लेख न कर कोई रूपवती स्त्री ही कारण कल्पित करके रचना की जाती थी।” यह बात सिर्फ ‘पृथ्वीराज रासो’ और ‘हम्मीर रासो’ पर ही नहीं लागू होती, ‘पदमावत’ महाकाव्य पर भी लागू होती है जिसे एक सूफी कवि ने लिखा था।
पद्मिनी की ऐतिहासिकता को सिद्ध करना मुश्किल है लेकिन यह भी सही है कि ‘पदमावत’ काव्य और उसके बाद चारणों द्वारा रचे गये ग्रंथों, दंतकथाओं और लोकश्रुतियों ने इस काल्पनिक चरित्र को लोगों की स्मृतियों में एक जीवित और ऐतिहासिक चरित्र बना दिया। लोक में ऐसी कई दंतकथाएं प्रचलित होती रही हैं जो ऐतिहासिक तथ्यों से मेल नहीं खातीं। ऐतिहासिक पात्रों और प्रसंगों को लेकर रचे जाने वाले साहित्य में इतिहास के तथ्यों का यथावत उल्लेख नहीं होता और न होना आवश्यक है। हजारी प्रसाद द्विवेदी के प्रख्यात उपन्यास ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ में बाणभट््ट और हर्षदेव को छोड़कर प्रायः सभी पात्र काल्पनिक हैं लेकिन इससे उनके उपन्यास का महत्त्व कम नहीं हो जाता। प्रसाद के नाटकों और वृंदावनलाल वर्मा के उपन्यासों के बारे में भी यही सत्य है। इसलिए ऐतिहासिक घटनाओं और पात्रों को लेकर लिखे गये साहित्य या उन पर बनायी गयी फ़िल्मों का मूल्यांकन केवल ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर नहीं किया जा सकता और ऐसा किया जाना आवश्यक भी नहीं है क्योंकि साहित्य या फ़िल्म इतिहास नहीं हैं। वे सृजनात्मक कला रचनाएं हैं और उनका मूल्यांकन रचनाकार के उद्देश्य, उसके दृष्टिकोण और रचना की प्रासंगिकता के संदर्भ में किया जाना चाहिए।
प्रासंगिकता की कसौटी/रचनात्मक संभावनाओं का बाजारीकरण
ऐतिहासिक चरित्रों की जो लोक चेतना में छवि है, उस छवि के बिल्कुल विपरीत छवि अपनी कलाकृति में गढ़ने की कोशिश को भी प्रायः लोगों के गले उतारना मुश्किल होता है। फिर भी, श्रेष्ठ कलाकार इस लोक प्रसिद्ध छवि को बनाए रखकर भी उसमें ऐसे रंग भरने में कामयाब हो जाते हंै जो उस छवि को नया रूपाकार दे देती है। इस प्रक्रिया में लोक प्रसिद्ध छवि को नष्ट किये बिना इस नयी छवि को भी जनमानस स्वीकार कर लेता है। ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ में बाणभट्ट की ऐतिहासिक छवि को विस्थापित किये बिना द्विवेदी जी बाण की एक नयी छवि निर्मित करते हैं। इसी तरह ‘मुग़ले आज़म’ में के. आसिफ़ भी अकबर की लोक प्रसिद्ध छवि को बनाये रखकर भी फ़िल्म यह बताने में नहीं हिचकिचाती कि अकबर अन्य मध्ययुगीन शासकों की तरह एक निरंकुश शासक था और उसकी यह निरंकुशता संगतराश की चित्रकारी और अनारकली के प्रति उसके रवैये से सामने आती है। ऐतिहासिक कथानकों पर फ़िल्म बनाने वाले फ़िल्मकार का दृष्टिकोण सदैव प्रगतिशील और जनोन्मुखी हो यह आवश्यक नहीं है। संजय लीला भंसाली की फ़िल्म ‘पद्मावत’ पर विचार करते हुए उसकी कथावस्तु और प्रमुख चरित्रों की ऐतिहासिकता और ‘पदमावत’ महाकाव्य के फ़िल्मांतरण की सफलता या असफलता से ज्यादा महत्त्वपूर्ण प्रश्न एक फ़िल्म के रूप में उसकी प्रासंगिकता और प्रभाव का है।
फ़िल्म ‘पद्मावत’ (2018) संजय लीला भंसाली के निर्देशन में बनने वाली नौवीं फ़िल्म है। निर्देशक के तौर पर उनकी पहली फ़िल्म ‘खामोशीः द म्युजिकल’ थी जो 1996 में प्रदर्शित हुई थी और जिसे काफ़ी सराहना मिली थी। 1999 में उन्होंने ‘हम दिल दे चुके सनम’ फ़िल्म का निर्देशन किया था जिसके निर्माता भी वही थे। यह फ़िल्म भी बाॅक्स आॅफिस पर काफी कामयाब रही थी। उनके द्वारा निर्देशित अन्य फ़िल्मों में ‘देवदास’ (2002), ‘ब्लेक’ (2005), ‘सांवरिया’ (2007), ‘गुज़ारिश’ (2010), ‘गलियों की रासलीला-रामलीला’ (2013), ‘बाजीराव मस्तानी’ (2015) और ‘पद्मावत’ हैं। अपनी अंतिम चार फ़िल्मों के संगीत निर्देशक भी वे ही थे। ‘सांवरिया’ और ‘गुज़ारिश’ को छोड़कर शेष सभी फ़िल्में बाॅक्स आॅफिस पर जबर्दस्त कामयाब रही हैं।
भंसाली की पहचान लोकप्रिय विधा में लोकप्रिय अभिनेताओं को लेकर संगीतमय रूमानी फ़िल्म बनाने वाले फ़िल्मकार के तौर पर रही है। उनकी पहली फ़िल्म ‘खामोशीः द म्युजिकल’ से वे एक संवेदनशील और समर्थ फ़िल्मकार के रूप में सामने आये थे। लेकिन दूसरी और तीसरी फ़िल्मों से यह साफ हो गया था कि व्यावसायिकता उनके लिए अन्य बातों से ज्यादा महत्त्व रखती है। ‘खामोशी’ संगीत प्रधान रोमांटिक कथा पर आधारित एक अच्छी और साफ सुथरी फ़िल्म थी। लेकिन ‘हम दिल दे चुके सनम’ और ‘देवदास’ में आभिजात्य वैभव और मध्ययुगीन पारिवारिक मूल्यों को महिमामंडित करते हुए उन्होंने जबर्दस्त व्यावसायिक सफलता हासिल की।
‘देवदास’ अतिमहत्त्वाकांक्षी फ़िल्म थी और उसे अपार सफलता मिली थी। लेकिन जिन लोगों ने शरतचंद्र चट्टोपाध्याय के उपन्यास को पढ़ा है और इस पर बनी पी.सी. बरुआ की 1935 में बनी फ़िल्म और 1955 में बनी बिमल राॅय की इसी नाम की फ़िल्मों को देखा है, वे जानते हैं कि संजय लीला भंसाली की फ़िल्म मूलकथा के साथ न सिर्फ़ न्याय नहीं करती वरन इस लोकप्रिय उपन्यास के व्यावसायिक दोहन की अत्यंत भौंडी कोशिश थी। भंसाली की फ़िल्म ‘देवदास’ पहले इसी नाम से बनी दोनों फ़िल्मों की तुलना में तकनीकी दृष्टि से काफी आगे है। उसकी विलासपूर्ण भव्यता, उसके हर फ्रेम और हर शाॅट में दिखाई देने वाली चमक और शान दर्शकों को जल्दी ही यह आभास करा देती है कि वह एक ऐसी फ़िल्म देख रहे हैं जिसके अभिजात चरित्रों का संबंध सिर्फ़ अपनी दुनिया से है। वहां न समाज की रूढ़ियों का दबाव है और न उससे न लड़ पाने के अपराध बोध से टूटता व्यक्ति है। न वह स्त्री है जो सामाजिक मर्यादाओं पर बली चढ़ा दी गयी है और न ही वह नायक जिसकी कथित सभ्य समाज में कोई जगह नहीं है। 1935 और 1955 में बनी फ़िल्में देवदास के दुख का न तो जश्न मनाती नज़र आती है और न प्रेम का परिहास करती हैं। उनका अभिजात एक टूटते सामंती समाज का अभिजात है जबकि भंसाली के ‘देवदास’ का अभिजात औपनिवेशिक सत्ता के साथ गठजोड़ कर उससे ताकत हासिल करने वाला अभिजात है। जहां समाज की रूढ़िया नहीं बल्कि स्वार्थ के कुचक्र दूसरों के प्रेम के मार्ग में कांटे बोते हैं। भंसाली के ‘देवदास’ में देवदास की त्रासदी का रूपांतरण यदि एकता कपूर के धारावाहिकों के आपराधिक अभिजातवाद में हुआ है, तो उसकी प्रस्तुति की शैली में रीतिवाद का पुनरुत्थान दिखाई देता है। यह उत्तर आधुनिकता की विचारधारा से उपजी फ़िल्म है जो एक साहित्यिक रचना की आड़ लेकर रचनात्मक संभावनाओं का बाजारीकरण करती है। यह सर्जनशीलता नहीं है। इसमें न तो मौजूदा समाज को समझने की कोशिश है और न ही बीसवीं सदी के उन आरंभिक दशकों को जिसने ‘देवदास’ उपन्यास की रचना की।
प्रतिगामी सोच का फ़िल्मकार
‘देवदास’ से बहुत भिन्न नहीं थी ‘बाजाीराव मस्तानी’। यह फ़िल्म पेशवा बाजीराव (1700-40) और उनकी दूसरी पत्नी मस्तानी की प्रेमकथा पर आधारित है। पेशवा बाजीराव मराठा शासन में मुख्य सेनापति थे जिन्हें यह पद उनके पिता की मृत्यु के बाद मिला था। पेशवा मराठा साम्राज्य में बहुत शक्तिशाली हो गये थे। सत्ता पर वास्तविक अधिकार पेशवा बाजीराव के पास ही रहा। बाजीराव एक वीर सेनानायक था और उसने अपने बीस साल के शासन में कई लड़ाइयां लड़ीं और प्रत्येक लड़ाई में विजयी हुआ। बाजीराव को भी शिवाजी की तरह ऐसे हिंदू शासक की तरह देखा जाता है जिसने मुस्लिम शासकों के विरुद्ध लगातार लड़ाइयां लड़ीं और उन्हें परास्त किया। मस्तानी राजपूत राजा छत्रसाल और उसकी मुस्लिम पत्नी की बेटी थी। ‘देवदास’ की तरह इस फ़िल्म को भी भंसाली ने वैभवपूर्ण साजसज्जा, चटकीली-भड़कीली वेशभूषाओं और अतिरंजनापूर्ण नाटकीयता से भरपूर मसाला फ़िल्म बना दिया था। बाजीराव के चरित्र को जिस तरह महिमामंडित किया गया है, वह ऐतिहासिक सच्चाइयों से मेल नहीं खाता।
यह सही है कि बाजीराव ने एक मुस्लिम लड़की से प्रेम किया और उसके लिए उसने अपनी माता राधा बाई और अपने ब्राह्मण रिश्तेदारों का विरोध भी झेला लेकिन पेशवाओं का राज कोई आदर्श राज नहीं था। मराठा सेनाओं द्वारा भारी लूटपाट, मनमाने ढंग से किसानों से करों की वसूली और दलितों का भयावह उत्पीड़न पेशवाओं के राज की असली पहचान थी। भंसाली ‘बाजीराव मस्तानी’ फ़िल्म में पेशवाओं के शासन के इन नकारात्मक पक्ष की न सिर्फ़ उपेक्षा करते हैं वरन एक शक्तिशाली हिंदू सेनानायक के रूप में बनी उनकी पहचान को ही और अधिक महिमामंडित और वैभवपूर्ण बनाकर पेश करते हैं।
संजय लीला भंसाली यथास्थितिवादी सोच के प्रतिगामी फ़िल्मकार हैं। अपनी फ़िल्मों के लिए कहानियों का चयन करते हुए पात्रों के बीच भावनात्मक संघर्ष द्वारा अतिनाटकीयता पैदा करने पर उनका अधिक बल रहता है। इसी वजह से उनकी फ़िल्में बहुत कोलाहलपूर्ण (लाउड) और प्रदर्शनप्रिय होती हैं। वे बहुत अधिक दिखाने और सुनाने में यकीन करते हैं। इसके लिए वे फ़िल्म को भव्य और वैभवपूर्ण बनाने की कोशिश करते हैं। वे चटकीले रंगों, भव्य साजसज्जा और विशाल सेटों का इस्तेमाल करते हैं। यह विशेषता उनकी सभी फ़िल्मों में प्रायः देखी जा सकती है। स्पष्ट है कि वैभवशाली भव्यता साधारण लोगों के जीवन में नहीं हो सकती, इसलिए उनकी अधिकतर फ़िल्मों में सामंती पृष्ठभूमि वाले शासकवर्गीय संपत्तिशाली लोगों की कहानियां कहती हैं। उनकी बाद की तीन फ़िल्मों में हिंसा एक अनिवार्य तत्व की तरह जुड़ी नजर आती है। प्रेम कहानी और हिंसक युद्धों को समानांतर रखते हुए वे अपनी फ़िल्म का तानाबाना बुनते हैं। ‘बाजीराव मस्तानी’ और ‘पद्मावत’ में व्यक्ति प्रेम को राष्ट्र प्रेम से जोड़ दिया गया है और इस तरह युद्ध के दौरान होने वाली हिंसा को एक राष्ट्रवादी औचित्य प्रदान किया गया है। ‘पद्मावत’ उनके इस युद्धोन्मादी राष्ट्रवादी दृष्टिकोण का चरम है।
वह ‘बाजीराव मस्तानी’ की ही अगली कड़ी है। फ़िल्म से जाहिर है कि इसका न तो ऐतिहासिक तथ्यों से कोई संबंध है और न ही जायसी की रचना ‘पदमावत’ से। ऐतिहासिक तथ्य सिर्फ़ इतना है कि अलाउद्दीन खिलजी ने चितौड़गढ़ पर हमला किया था और उस पर विजय प्राप्त की थी। जहां तक जायसी के ‘पदमावत’ का सवाल है, फ़िल्म में कुछ प्रसंग और कुछ पात्र ‘पदमावत’ से लिये गये हैं लेकिन फ़िल्मकार ने उन्हें अपने ढंग से पेश किया है। मसलन, महाकाव्य में राजा रतनसेन (न कि रतनसिंह) सिंहल द्वीप नागमती के लिए मोती लेने नहीं जाता वरन पद्मिनी को हासिल करने ही जाता है जिसके सौंदर्य का बखान हीरामन सुआ करता है और उसको सुनकर राजा मूर्छित हो जाता है। महाकाव्य का सिंहल द्वीप वर्तमान श्री लंका नहीं है वरन वहां तक पहुंचने के लिए सात समुद्र पार करने पड़ते हैं। रतनसेन जोगी के वेश में सिंहल द्वीप जाता है और बहुत सी कठिनाइयों के बाद वह पद्मिनी को प्राप्त करने में कामयाब होता है। सिंहल द्वीप में ही उनका विवाह होता है। फिर वे दोनों चितौड़गढ़ लौट आते हैं। यह पूरी कथा महाकाव्य के दो तिहाई हिस्से में फैली हुई है और तरह तरह की चमत्कारिक घटनाओं और मिथकीय चरित्रों से भरी है। जबकि फ़िल्म में यह शुरू का बहुत छोटा सा हिस्सा है और उसका भी महाकाव्य की कथा से कोई संबंध नहीं है।
महाकाव्य में राघवचेतन राजपुरोहित नहीं वरन रतनसेन के दरबार का तांत्रिक होता है और अपनी जादुई विद्या द्वारा झूठ को सच साबित कर देता है। ऐसा ही एक झूठ पकड़े जाने पर रतनसेन उसे अपने राज्य से निष्कासित करता है, न कि पद्मिनी को छुपकर देखने के अपराध में। एक ब्राह्मण के दरबार से निकाले जाने की घटना से किसी अनिष्ट की आशंका से भयभीत होकर पद्मिनी राघवचेतन को दान स्वरूप अपने हाथ का कंगन दे देती है और यही कंगन बाद में राघव चेतन अलाउद्दीन को अपनी बात की सच्चाई के प्रमाण के रूप में पेश करता है। महाकाव्य में पद्मिनी दिल्ली जाने के लिए तैयार होती है लेकिन वह नहीं जाती जबकि फ़िल्म में वह स्वयं गोरा और बादल के साथ जाती है और अलाउद्दीन की पत्नी मेहरुन्निसा की मदद से रतनसेन को छुड़ा लाती है। महाकाव्य के अनुसार चितौड़ लौटने के बाद जब रतनसेन को मालूम पड़ता है कि कुंभलनेर का राजा देवपाल भी पद्मिनी को हासिल करने के लिए छल-कपट कर रहा है तो रतनसेन क्रोधित हो जाता है और कुंभलनेर पर हमला बोल देता है। युद्ध में लड़ते हुए देवपाल और रतनसेन दोनों मारे जाते हैं। नागमती और पद्मिनी दोनों ही रतनसेन के शव के साथ सती हो जाती हैं। जब सुलतान सेना लेकर चितौड़गढ़ पर चढ़ाई करता है और युद्ध में विजय प्राप्त कर किले में प्रवेश करता है तो वहां राख के ढेर के अलावा उसे कुछ नहीं मिलता। इसके विपरीत देवपाल की कथा फ़िल्म से पूरी तरह गायब है। ‘पदमावत’ महाकाव्य में रतनसेन अलाउद्दीन के साथ युद्ध करते हुए नहीं मारा जाता और न ही पद्मिनी अलाउद्दीन के हाथों अपमानित होने से बचने के लिए जौहर करती है जैसाकि फ़िल्म में दिखाया गया है। इसलिए फ़िल्म अपने सार में भी और विस्तार में भी ‘पदमावत’ महाकाव्य का रूपांतरण नहीं है। अगर इसकी कहानी किसी के सबसे नजदीक है तो बाद में गढ़ी गयी दंतकथाओं और जनश्रुतियों के जिनके गढ़ने में चारणों का और जिसे इतिहास बताने में कर्नल जेम्स टाॅड जैसे औपनिवेशिक इतिहासकारों का हाथ है जो मध्ययुग के पूरे इतिहास को हिंदुओं और मुसलमानों के बीच संघर्ष के रूप में दिखाते हैं।
करणी सेना और भाजपा द्वारा फ़िल्म पर जो-जो आरोप लगाये गये फ़िल्म से वे सही साबित नहीं होते वरन इसके विपरीत फ़िल्म उन्हीं विचारों की वाहक बनकर सामने आती है जिनका प्रतिनिधित्व करणी सेना और भारतीय जनता पार्टी करती हैं। पहले की फ़िल्मों के विश्लेषण से यह स्पष्ट है कि भंसाली उसी वैचारिक दायरे में अपनी फ़िल्में बनाते हैं जिनका प्रतिनिधित्व भारतीय जनता पार्टी करती है और ‘पद्मावत’ इसका अपवाद नहीं है। पहले की किसी भी फ़िल्म से ज्यादा उग्र ढंग से यह हिंदुत्व राजनीति की वाहक है। यह फ़िल्म उस गढे़ गये सांप्रदायिक इतिहास की पुनर्रचना है जिसमें मुस्लिम शासक सदैव विदेशी आक्रमणकारी, युद्धोन्मादी, क्रूर, बर्बर और हिंसक होते हैं। सत्ता हासिल करने के लिए वे नजदीक से नजदीक रिश्तेदार की हत्या कर डालते हैं। स्त्री को वे भोग की वस्तु समझते हैं और उन्हें पाने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं। उनके इन्हीं अत्याचारों के कारण राजपूत स्त्रियों को अपनी अस्मिता बचाने के लिए जौहर (सामूहिक आत्मदाह) का मार्ग अपनाना पड़ा था। यह फ़िल्म इतिहास की इसी सांप्रदायिक समझ का अनुकरण करती है।
फ़िल्म में अलाउद्दीन खिलजी को जिस ढंग से पेश किया गया है, वह ऐतिहासिक अलाउद्दीन से मेल नहीं खाता, वह ‘पदमावत’ महाकाव्य के अलाउद्दीन से भी मेल नहीं खाता। श्याम बेनेगल के धारावाहिक ‘भारतः एक खोज’ के एपिसोड 25 में ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर अलाउद्दीन के जीवन और कार्यों से जुड़े प्रसंगों का नाट्य रूपांतरण प्रस्तुत किया गया था। उसे देखने से स्पष्ट होता है कि अलाउद्दीन खिलजी की जो छवि फ़िल्म ‘पद्मावत’ में गढ़ी गयी है, वह पूरी तरह से अनैतिहासिक है।
फ़िल्म में अलाउद्दीन खिलजी को बर्बर, हिंसक और व्यभिचारी बताया गया है। जिस तरह उसे अपने नजदीकी लोगों की निर्मम हत्या करते हुए, औरतों को अपनी हवस का शिकार बनातेे हुए दिखाया गया है वह उसके वास्तविक चरित्र से मेल नहीं खाता। लंबे और खुले बाल रखना, क्रूर हँसी हँसना, मांस को जानवरों की तरह खाना, यहां तक कि नाचते और गाते हुए भी शरीर और चेहरे पर क्र्रूर भाव प्रकट करना उसके चरित्र को एक खास सांचे में ढालता है। इसके विपरीत रतनसेन को सुसंस्कृत, सभ्य और शिष्ट आचरण करता हुआ दिखाया गया है। एक ओर खिलजी अपनी पत्नी मेहरुन्निसा के साथ क्रूर ढंग से पेश आता है, उसे सार्वजनिक रूप से अपमानित करता है जबकि रतनसेन पद्मिनी के सम्मान का सदैव ध्यान रखता है। खिलजी से मेहरुन्निसा भय खाती है जबकि पद्मिनी रतनसेन से प्रेम करती है और पति की सेवा करना ही अपना धर्म समझती है। उसके लिए अपने प्राणों तक की आहूति देने को तैयार हो जाती है। खिलजी के खाने के असभ्य तरीके के विपरीत रतनसेन के यहां जब अलाउद्दीन के सामने चांदी की थाली में भोजन पेश किया जाता है तो ऐसा दिखाने का प्रयास किया गया है कि वह शाकाहारी भोजन है और जिसे बहुत ही शिष्टाचार के साथ पेश किया गया है। खिलजी और रतनसेन की यह जो भिन्न और विपरीत छवियां पेश की गयी है, उसके पीछे की प्रेरणा विद्वेेषपूर्ण और सांप्र्रदायिक है। यह उस सांप्रदायिक और सवर्ण हिंदू मानसिकता को पुष्ट करती है जिसके अनुसार हिंदू शाकाहारी होता है, अहिंसक होता है और स्त्री को देवी समझ कर पूजा करता है जबकि मुसलमान मांसाहारी होता है, हिंसक और बर्बर होता है और स्त्री पर अत्याचार करने वाला व्यभिचारी होता है। फ़िल्म के अनुसार खिलजी इसी बर्बर मुस्लिम मानसिकता का प्रतिनिधि है और रतनसेन और पद्मिनी सुसंस्कृत हिंदू मानसिकता का।
सती प्रथा का महिमामंडन
फ़िल्म आरंभ से अंत तक राजपूती गौरव का महिमामंडन करती है। उन्हें ऐसी वीर जाति के रूप में पेश किया गया है जो अपने आत्मसम्मान के लिए अपनी जान दे भी सकती है और जान ले भी सकती है। इसी आत्मसम्मान की रक्षा के लिए राजपूती स्त्रियां सामूहिक आत्मदाह करने से भी नहीं डरती। फ़िल्म के आरंभ में यद्यपि कहा गया है कि फ़िल्म सती प्रथा का समर्थन नहीं करती लेकिन फ़िल्म में जौहर के पूरे कृत्य को जिस विस्तार से धार्मिक परंपरा का पालन करते हुए भव्यता से दिखाया गया है वह शर्मनाक भी है और खतरनाक भी। संजय लीला भंसाली ने जौहर को युद्ध का ही एक रूप बताकर उसका औचित्य सिद्ध करने की कोशिश की है। जबकि यह पितृसत्तात्मक सोच का सर्वाधिक घृणित रूप है जो सतीत्व की रक्षा के नाम पर स्त्री को जबरन आत्महत्या की ओर धकेलता है। सती और जौहर न तो राजपूत परंपरा का अनिवार्य हिस्सा है और न ही युद्धों में शत्रुओं के हाथों में पड़ने से पहले आत्मसम्मान की रक्षा के लिए राजपूत औरतें हमेशा जौहर करती थीं। सच्चाई यह है कि युद्ध के बिना भी राजपूत राजाओं के मरने पर उनकी रानियों को ही नहीं उनकी दासियों को भी सती प्रथा के नाम पर सामूहिक रूप से आत्मदाह के लिए मजबूर किया जाता था।
राजपूत रानियों का इतिहास एक आयामी नहीं है। 1298 में अलाउद्दीन की सेनाओं ने गुजरात के शासक करणदेव पर हमला किया था। इस हमले में करण देव की पत्नी कमला देवी को गिरफ़्तार कर दिल्ली ले आया गया था जबकि करण देव अपनी बेटी देवल देवी को लेकर दक्षिण भाग गया था जहां उसने देवगिरी के शासक रामचंद्र देव के यहां शरण ली थी। दिल्ली में अलाउद्दीन ने कमला देवी से विवाह कर लिया और उसे अपनी तीसरी रानी बना लिया था। इसी कमला देवी को लेकर छायावादी कवि जयशंकर प्रसाद ने ‘प्रलय की छाया’ नाम से मुक्त छंद में लंबी कविता लिखी है। देवल देवी का विवाह उसकी मां कमला देवी अलाउद्दीन के बेटे खिज्र खां से करवाती है। खिज्र खां और देवल देवी की प्रेम कथा पर अमीर खुसरो ने एक मसनवी भी लिखी थी। राजपूत राजा अपनी बेटियां मुस्लिम शासकों से ब्याहते आये हैं। उन राजपूती रानियों के बेटे हिंदुस्तान के शासक भी बनते रहे हैं। यह तथ्य इस बात का प्रमाण है कि उनके बीच रिश्तेदारियां एक दूसरे को नीचा दिखाने के लिए या राजपूतों को अपमानित करने के लिए नहीं होती थीं। रणथंभौर की रानी ने अपनी रक्षा के लिए मुग़ल बादशाह हुमायूँ के पास राखी भिजवाई थी और हुमायूँ ने रानी की मदद की थी। पद्मिनी को राजपूती गौरव और बलिदान का प्रतीक बनाकर पेश करने के पीछे जातिपरस्त और सांप्रदायिक सोच काम कर रही है। अन्यथा मीरा बाई भी उसी राजपूती परंपरा से आती है जिसने अपने पति के साथ सती होने की बजाए अपना स्वतंत्र रास्ता चुना और उस रास्ते पर चलने के लिए हर तरह के खतरे का सामना भी किया। मीराबाई पर किसी मुस्लिम शासक ने नहीं वरन उनके अपने परिवार के लोगों ने जुल्म ढाये थे। इन अत्याचारों से पीड़ित होकर ही मीरा को मेवाड़ छोड़कर गुजरात जाना पड़ा था।
व्यावसायिक और राजनीतिक निहितार्थ
यहां यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि जौहर जैसी स्त्री विरोधी घृणित परंपरा के महिमामंडन को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर दिखाये जाने की छूट मिलनी चाहिए? क्या इस फ़िल्म के विरुद्ध चलाये जा रहे आंदोलन का विरोध कर लोकतांत्रिक अधिकारों के समर्थकों ने गलती की है? ‘पद्मावत’ अपने मंतव्य में सांप्रदायिक विद्वेष फैलाने वाली, उच्च जातीय अहंकार को बढ़ावा देने वाली और स्त्री पराधीनता को महिमामंडित करने वाली फ़िल्म है और इसी वजह से यह फ़िल्म संविधान के आधारभूत मूल्यों- धर्मनिरपेक्षता, स्वतंत्रता और समानता के विरुद्ध खड़ी नज़र आती है। फ़िल्म प्रमाणन बोर्ड अपने दायित्व का निर्वाह करने में न केवल पूरी तरह नाकामयाब रहा है वरन प्रतिगामी आंदोलन के दबाव में आकर उसने जौहर जैसी अमानुषिक परंपरा को दिखाने की भी पूरी छूट दे दी है।
बाॅक्स आॅफिस के आंकड़ों से स्पष्ट है कि ‘पद्मावत’ एक कामयाब फ़िल्म साबित हुई है। 180 करोड़ में बनी इस फ़िल्म ने कई गुना ज्यादा कमाई की है। इसके विरुद्ध चले आंदोलन ने इसकी व्यावसायिक सफलता को पहले से ही सुनिश्चित कर दिया था। ‘पद्मावत’ के संदर्भ मंे इस तथ्य को भी ध्यान में रखना चाहिए कि इस फ़िल्म का निर्माण ‘भंसाली प्रोडक्शंस’ और ‘वायकम 18 मोशन पिक्चर्स’ ने मिलकर किया था। ‘वायकम 18 मोशन पिक्चर्स’ ‘वायकम 18’ की सहायक कंपनी है जो ‘वायकम’ और ‘नेटवर्क 18’ का संयुक्त उपक्रम है। ‘नेटवर्क 18’ की मालिक रिलायंस इंडस्ट्रीज है जो फ़िल्म निर्माण के अलावा कई टीवी चैनलों की भी मालिक है। ज्यादातर उन चैनलों की जिन पर फ़िल्म को लेकर बहसें चल रही थीं। रिलायंस इंडस्ट्रीज के मालिक मुकेश अंबानी है और उनकी भाजपा सरकार और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से निकटता एक सर्वज्ञात तथ्य है। इसलिए यह निष्कर्ष निकालना गलत न होगा कि इस फ़िल्म के विरुद्ध चलाया गया आंदोलन ‘स्वतःस्फूर्त’ नहीं वरन राजनीतिक लाभ के लिए छेड़ा गया जानबूझ कर खड़ा किया गया (मेनुफेक्चर्ड) आंदोलन था। यह भारतीय समाज को और पीछे धकेलने के संघ परिवार के विराट अभियान का ही एक हिस्सा था। दूसरे शब्दों में फ़िल्म अपनी राजनीतिक मंशा में भी सफल रही है।
‘पद्मावत’ विरोधी आंदोलन और उसकी सफलता मे निहित चुनौती जितनी दिखायी दे रही है, उससे ज्यादा भयावह और विकराल है। भविष्य में बनने वाली फ़िल्मों, लिखी जाने वाली किताबों पर ऐसे या इनसे भी उग्र हमले हो सकते हैं जो संघ परिवार के सांप्रदायिक फासीवादी अभियान के विरुद्ध जाते हों। ‘पद्मावत’ फ़िल्म का उदाहरण इस बात का एक और सबूत है कि संघ परिवार के लिए किसी भी मसले पर लोगों को आंदोलित करने के लिए किसी ऐतिहासिक प्रमाण, तर्कशीलता और वैज्ञानिक दृष्टि की आवश्यकता नहीं है। वह लोगों की धर्म, जाति और समाज संबंधी रूढ़िबद्ध अवधारणाओं और विश्वासों का इस्तेमाल करता है, उनके अज्ञान का फायदा उठाता है और परंपरा, धर्म और राष्ट्र से जोड़कर उनको भावनात्मक रूप से उद्वेलित और आंदोलित करता है। साहित्य, कला और संस्कृति का पूरा क्षेत्र लंबे समय से उनके हमले की जद में आया हुआ है। भारतीय संस्कृति के नाम पर वे लोगों के खानपान, वेशभूषा, रहन-सहन और उनकी अभिरुचियों तक को नियंत्रित करने का प्रयास कर रहे हैं। वे कभी भी किसी को निशाना बना सकते हैं। स्थितियां इसलिए और भी भयावह है कि रचनात्मक आजादी और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर संघ परिवार के हमले के विरुद्ध लड़ने के लिए कोई विश्वसनीय राजनीतिक संगठन दूर तक साथ आने के लिए तैयार नहीं है।

Comments

Popular posts from this blog

तो शुरू करें

फिल्म समीक्षा: 3 इडियट

फिल्‍म समीक्षा : आई एम कलाम