रोज़ाना : फिल्‍में नहीं,चमके सितारे



रोज़ाना
फिल्‍में नहीं,चमके सितारे
-अजय ब्रह्मात्‍मज

भारत में सबसे अधिक फिल्‍में बनती हैं। यहां की फिल्‍म इंडस्‍ट्री हॉलीवुड के मुकाबले खड़ी है। अब तो दंगल और बाहुबली का उदाहरण दिया जा सकता है कि हमारी फिल्‍में 1000 करोड़ से अधिक का कलेक्‍शन करती हैं। निश्चित ही आगामी वर्षें में भारतीय फिल्‍मों का कैनवास बड़ा होगा। बड़े पैमाने पर तकनीकी गुण्‍वत्‍ता के साथ उनका निर्माण और वितरण होगा। अधिकाधिक आय की संभावनाएं बनेंगी। इस प्रयाण के बावजूद जब इंटरनेशनल फेस्टिवल और मंचों पर भारतीय फिल्‍में नहीं दिखतीं तो अफसोस होता है। मन मसोस कर रह जाना पड़ता है।
हाल ही में संपन्‍न कान फिल्‍म समारोह की भारतीय मीडिया में चर्चा रही। रोजाना कुछ तस्‍वीरें छपती रहीं। मुख्‍य रूप से ऐश्‍वर्या राय बच्‍चन,सोनम कपूर और दीपिका पादुकोण की आकर्षक और नयनाभिरामी तस्‍वीरों से पत्र-पत्रिकाएं भरी रहीं। हम ने यह भी देखा कि उन्‍हें घेरे फोटोग्राफर खड़ रहे और उन्‍होंने मटकते हुए रेड कार्पेट पर पोज किया। ऐश्‍वर्या राय बच्‍चन 2002 से कान फिल्‍म समारोह में जा रही हैं। सोनम कपूर को भी छह साल हो गए। इस साल दीपिका पादुकोण के भी कदम रेड कार्पेट चूमते रहे। संयोग है कि भारत की तीनों अभिनेत्रियां एक सौंदर्य प्रसाधन के विज्ञापन के सिलसिले में वहां थीं। उनका अपनी या दूसरों की फिल्‍मों से कोई लेना-देना नहीं था। एक कंपनी भारतीय अभिनेत्रियों का इस्‍तेमाल अपने प्रोडक्‍ट के प्रचार के लिए कर रही थी और हम भारतीय अपनी अभिनेत्रियों की उपलब्धियों पर इठला रहे थे। उन अभिनेत्रियों की व्‍यक्तिगत उपलब्धि से इंकार नहीं किया जा सकता,लेकिन कान फिल्‍म समारोह आखिर फिल्‍मों का समारोह है। अगर भारत की फिल्‍में किसी उल्‍लेखनीय श्रेणी में वहां शामिल नहीं हैं तो हमें सोचने की जरूरत है।
सिर्फ अभिनेत्रियां ही नहीं। भारत सरकार का प्रतिनिधिमंडल भी वहां रहता है। कुछ निर्माता निजी तौर पर वहां जाते हैं। कुछ अपनी फिल्‍मों की शोकेसिंग करते हैं। जैसे कि नंदिता दास ने मंटो का पोस्‍टर रिलीज किया। -संघमित्रा के साथ एआर रहमान और श्रुति हसन मौजूद रहे। प्रियंका चोपड़ा की मां मधु चोपड़ा अपनी सिक्‍कमी फिल्‍म पाहुना का ट्रेलर दिखाने गई थीं। फंड ,निवेश और रुचि जुटाने के लिए ऐसी कवायदें की जाती हैं। यह भी माना जाता है कि वहां दिखाने के बाद देश के दर्शकों और निवेशकों की रुचि भी बढ़ती है। सवाल फिर भी बना रहता है कि आखिर क्‍यों भारतीय फिल्‍में शामिल नहीं हो सकीं? क्‍या हमारी फिल्‍में उस स्‍तर की नहीं होतीं या हमारे छोटे-मझोले फिल्‍मकार फिल्‍म फेस्टिवल के बारे में सोच ही नहीं पाते।
इस साल एफटीआईआई की पायल कपाडि़या की फिल्‍म आफ्टरनून क्‍लाउड्स स्‍टूडेंट श्रेणी में शामिल हुई थी,जिसकी मीडिया में कोई चर्चा नहीं थी।
(कृपया इसे छोटा न करें हर गुरूवार की तरह।)

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