मामूलीपन की भव्यता बचाने की जद्दोजहद : अनारकली ऑफ आरा


मामूलीपन की भव्यता बचाने की जद्दोजहद : अनारकली ऑफ आरा

-विनीत कुमार


अविनाश दास द्वारा लिखित एवं निर्देशित फिल्म “अनारकली ऑफ आरा” अपने गहरे अर्थों में मामूलीपन के भीतर मौजूद भव्यता की तलाश और उसे बचाए रखने की जद्दोजहद है. इसे यूं कहे कि इस फिल्म का मुख्य किरदार ये मामूलीपन ही है जो शुरु से आखिर तक अनारकली से लेकर उन तमाम चरित्रों एवं परिस्थितियों के बीच मौजूद रहता है जो पूरी फिल्म को मौजूदा दौर के बरक्स एक विलोम ( वायनरी) के तौर पर लाकर खड़ा कर देता है. एक ऐसा विलोम जिसके आगे सत्ता, संस्थान और उनके कल-पुर्जे पर लंपटई, बर्बरता और अमानवीयता के चढ़े प्लास्टर भरभरा जाते हैं.

 एक स्थानीय गायिका के तौर पर अनारकली ने अपनी अस्मिता और कलाकार की निजता( सेल्फनेस) को बचाए रखने के लिए जो संघर्ष किया है, वह विमर्श के जनाना डब्बे में रखकर फिल्म पर बात करने से रोकती है. ये खांचेबाज विश्लेषण के तरीके से कहीं आगे ले जाकर हर उस मामूली व्यक्ति के संघर्ष के प्रति गहरा यकीं पैदा करती है जो शुरु से आखिर तक बतौर आदमी बचा रहना चाहता है. पद और पैसे के आगे हथियार डाल चुके समाज और हारे हुए लोकतंत्र के बीच जो कुछ भी बचा रह जाता है, वह इस फिल्म की क्लाईमेक्स है जिससे गुजरे बिना महसूस नहीं किया जा सकता.

वैसे तो फिल्म की पूरी कथा आरा( बिहार) की अनारकली के इर्द-गिर्द घूमती है जिसमे दर्शक सीन-दर-सीन गुजरने के बीच एक स्तर पर आकर इत्मिनान हो सकते हैं कि किसी दृश्य, संवाद या फिर घटना में गहरे न धंसने पर भी मौटे तौर पर कहानी हाथ से कहीं नहीं जा रही, उसे आगे पकड़ लिया जाएगा. लेकिन कहानी के स्तर पर दिखते इस इकहरेपन के बावजूद इसकी परिधि इतनी बड़ी है कि इसमे विश्वविद्यालय जैसी जगह वीसी के लिए अय्याशी आ अड्डा, थाना पुलिसिया जुल्म और ऐय्याशी का सबसे रेगुलर ठिकाना और कोर्ट-कचहरी मोहल्ले की गप्प-शप में तब्दील कर दिए जाने के तौर पर बहुत साफ दिखाई देते हैं.

फिल्म प्रोमोशन के दौरान इससे जुड़ा कोई भी व्यक्ति, यहां तक कि स्वयं लेखक अविनाश दास, अनारकली के चरित्र को जीती हुई स्वरा भास्कर रंगीला की भूमिका में रहे पंकज त्रिपाठी या सत्ता के एक्सटेंशन वीसी बने संजय मिश्रा ने कहीं इस बात का दावा पेश नहीं किया कि यह फिल्म ढहते लोकतंत्र और सबकुछ महसूस किए जाने के बावजूद तालाबंद जुबान के खिलाफ रचनात्मक प्रतिरोध है. लेकिन पूरी फिल्म में इसका प्रभाव इतना गहरा है कि आपको एक ही साथ एक-एक दृश्यों को लेकर कई स्तर पर पाठ करने की जरुरत पड़ सकती है.

आरा की अनारकली अपने “नो” को पिंक की तरह पंचलाइन में तब्दील नहीं करती. ये नो उसकी गायकी से चलते हुए उसके जीवन में शामिल रहती है. यही कारण है कि फिल्म देखने से पहले ही फिल्म की कहानी के बासी हो जाने और चैरिटेबल माइंड सेट में आकर देखने की संभावना से पूरी तरह बच जाती है. अनारकली से  लेकर अनवर तक अपनी चौतरफा अस्त-व्यस्त जिंदगी के बीच दिमागी स्तर पर इतने व्यवस्थित हैं कि अपने भीतर के कलाकार को, आदमी होने की शर्तों को और प्रतिरोध के स्वर को बचाए रख पाते हैं.

ऐसे दौर में जब एक कलाकार, कलाकारी छोड़कर बाकी सबकुछ कर रहा हो, वीसी छोड़िए, यूनिवर्सिटी का एक प्राध्यापक पढ़ाने के अलावा बाकी सब कर रहा हो, पुलिसिया महकमे के लोग कानून-व्यवस्था को दुरुस्त बनाए रखने के बजाय उसे दीमक की तरह चाटने में लगे हों, पत्रकार खबरों के लिए गांव-मोहल्ले-गलियों में नहीं, चौड़े शीशेवाली गाड़ियों में घूम रहे हों, यह फिल्म अपने पेशे के प्रति गहरी आस्था पैदा करती है. फिल्म की ताकत इस बात में है कि जिस अनारकली को केन्द्रीय चरित्र के तौर पर शामिल किया है, उसकी प्रतिबद्धता अपने काम, अपने पेशे को लेकर इस हद तक है कि उसके लिए कला और जीवन, आत्मसम्मान और जीवकोपार्जन, प्रतिरोध और जीवन मूल्य दो अलग-अलग चीजें नहीं है. यही कारण है कि सिनेमा हॉल से निकलने के बाद दर्शकों को अनारकली चरित्र में महानता की तलाश करने के बजाय अपने आसपास से चटकती चीजों को तलाशने के लिए बेचैन करती हैं…कुछ और नहीं तो इस कड़ी में वो जितना अपने को मामूलीपन के करीब ला पाती हैं, उससे कई गुना ज्यादा सत्ता के बाकी के कल-पुर्जे की फर्जी भव्यता को उतारकर रख देती हैं. वो हमें इस सिरे से भी सोचने पर मजबूर करती है कि हर बात का समाधान दिल्ली नहीं है और बहुत संभव है कि समाधान का शहर अपना छूटा हुआ शहर हो.

सेल्फी के इस दौर में जहां सरकार से लेकर मोबाईल कंपनियां तक इस देश को सेल्फीस्तान में तब्दील कर देने पर आमादा हैं, ऐसे में स्वाभाविक है कि मामूलीपन की भव्यता बचाए रखनेवाले लोग अल्पमत में होंगे. इन अल्पमत के लोगों पर एक ही साथ कई स्तर की जिम्मेदारी होगी. फिल्म में इन जिम्मेदारियों को भाषा के स्तर पर निभाते हुए दिखाया गया है. ऐसे में हम इसके संवादों पर, गानों की पंक्तियों पर द्विअर्थी होने की स्टिकर चस्पाकर आगे नहीं बढ़ सकते. कडाही आपका, अब आप इसमे पूरी तलिए या हलुवा बनाइए, आपकी मर्जी जैसे संवाद एकबारगी तो जरुर सेक्सुअलिटी के कोने से मतलब निकालने का भ्रम पैदा करते हैं लेकिन “हम कौनो सती-सावित्री नहीं है लेकिन इसका इ मतलब नहीं है कि हम गानेवालों को कौनो, कभियो बजा देगा ” जैसे संवादों का स्थायी प्रभाव इतना गहरा है कि एक झटके में ये पूरा वाक्य सर्काज्म में तब्दील हो जाता है. 

इसी क्रम में फिल्म के गीत और उनमे प्रयोग किए शब्दों पर गौर करें तो जो पंक्तियां, जो शब्द मनोरंजन के स्तर पर जितनी सहजता से पेश आते हैं, प्रभाव के स्तर पर उतना ही झकझोरते हैं. व्यावसायिक मंचों की तरह इनका विभाजन “रिवेंज सांग” के रूप में न भी करें तो इसके गीत अपने नायकत्व ( हीरोईक प्रेजेंस) के साथ मौजूद रहते हैं. आप महसूस कर सकेंगे कि एक कथा लेखन और निर्देशन अविनाश दास ने किया है और दूसरा संगीत निर्देशक रोहित शर्मा ने. और तब कहानी, संवाद, अभिनय, गढ़ी गई परिस्थितियों और गीतों का एक क्रम बनता हुआ दिखाई देता है कि मामूलीपन की भव्यता को बचाए रखनेवाले लोग, उसके लिए जीनेवाले लोग और उसकी कद्र करनेवाले लोग अल्पमत में हैं लेकिन सुंदर पक्ष ये है कि अपनी लगातार जद्दोजहद के बीच ये सबके सब एकरेखीय होकर आपस में मिल जाते हैं. ऐसे में बाहरी स्तर की जो विविधता दिखाई देती है और लगता है दिल्ली के तिवारीजी का भला आरा से आई अनारकली के साथ क्या पटरी बैठेगी, टीनएजर अनवर अपनी उम्र के बाकी लुक्का लोगों से अलग कैसे हो सकता है, फिल्म अपनी बुनावट में एक खूबसूरत और राजनीतिक स्तर पर परफेक्ट कथा के जरिए ये क्रम तैयार करने में सफल होती है. आप चाहें तो कह सकते हैं कि ये सिर्फ सिनेमाई स्तर का पोएटिक जस्टिस नहीं, जीवन के बहुत करीब से होकर गुजर जानेवाली घटना है.

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आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (26-03-2017) को

"हथेली के बाहर एक दुनिया और भी है" (चर्चा अंक-2610)

पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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