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Showing posts from April, 2016

रिश्‍ते संजो कर रखते हैं मनोज बाजपेयी

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-अविनाश दास   हिंदी सिने जगत उन चंद फिल्‍मकारों व कलाकारों का शुक्रगुजार रहेगा, जिन्‍होंने हिंदी सिनेमा का मान दुनिया भर में बढ़ाया है। मनोज बाजपेयी उन्हीं चंद लोगों में से एक है। 23 अप्रैल को उनका जन्‍मदिन है। पेशे से पत्रकार और मशहूर ब्‍लॉग ‘मोहल्ला लाइव’ के कर्ता-धर्ता रह चुके अविनाश दास उन्हें करीब से जानते हैं। अविनाश अब सिने जगत में सक्रिय हैं। उनकी फिल्‍म ‘अनारकली आरावाली’ इन गर्मियों में आ रही है। बहरहाल, मनोज बाजपेयी के बारे में अविनाश दास की बातें उन्हीं की जुबानी :    -अविनाश दास 1998 में सत्‍या रिलीज हुई थी। उससे एक साल पहले मनोज वाजपेयी पटना गए थे। वहां उनकी फिल्‍म तमन्‍ना का प्रीमियर था। साथ में पूजा भट्ट थीं। महेश भट्ट भी थे। जाहिर है प्रेस कांफ्रेंस होना था। जाड़े की सुबह दस बजे मौर्या होटल का कांफ्रेंस हॉल पत्रकारों से भरा हुआ था। बहुत सारे सवालों के बीच एक सवाल पूजा भट्ट से मनोज वाजपेयी के संभावित रोमांस को लेकर था। लगभग दस सेकंड का सन्‍नाटा पसर गया। फिर अचानक मनोज उठे और सवाल पूछने वाले पत्रकार को एक ज़ोरदार थप्‍पड़ लगा दिया। अफरा-तफरी मच गयी। का

गंगा के लिए प्रेम जगाना है - दीया मिर्जा

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सिर्फ एक नदी नहीं है गंगा - दीया मिर्जा -अजय ब्रह्मात्मज दीया मिर्जा हाल ही में गंगा की यात्रा से लौटी हैं। वह लिविंग फूड्ज के शो ‘ गंगा-द सोल ऑफ इंडिया ’ की मेजबान हैं। यह शो 1 मई से आरंभ होगा। इस शो में दीया ने गंगा के किनारे-किनारे और कभी गंगा की धार में यात्रा की। उन्‍होंने गंगा के किनारे बसे गांव,कस्‍बों और शहरों को करीब से देखा। इस नदी की विरासत को समझा। दीया पिछले कई सालों से पर्यावरण और प्रकृति के मुद्दों से जुड़ी हुई हैं। वे इनसे संबंधित अनेक संस्‍थाओं की सदस्‍य हैं। उनकी गतिविधियों में जम कर हिस्‍सा लेती हैं।   बातचीत के क्रम में उन्‍होंने बताया कि वह संचार माध्‍यमों में काम कर रहे लोगों की समझ के लिए प्रकृति के गंभीर विषयों पर बैठक करती हैं। इसमें परिचित और प्रभावशाली लोग आते हैं। ऐसी बैठकों में उनकी जागरूकता बढ़ती है,जिसे वे अपने काम और संपर्क के लोगों के बीच बांटते हैं। वह कहती हैं, ’ शहरों की स्‍कूली शिक्षा में हम प्रकृति और पर्यावरण के बारे में पढ़ते हैं। बड़े होने पर अपनी नौकरी या कारोबार में इस कदर व्‍यस्‍त हो जाते हैं कि हम उन जानकारियों का इस्‍तेमाल नह

फिल्‍म समीक्षा : संता बंता प्रायवेट लिमिटेड

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फूहड़ हास्‍य,लचर अभिनय -अजय ब्रह्मात्‍मज आकाशदीप साबिर की फिल्‍म ‘ संता बंता प्रायवेट लिमिटेड ’ हर लिहाज से एक फूहड़ और लचर फिल्‍म है। अगर कुछ देखने लायक है तो वह केवल फिजी की खूबसूरती है। यह फिल्‍म नमूना है कि कैसे बमन ईरानी,संजय मिश्रा और जॉनी लीवर जैसे अभिनेताओं का बेजा इस्‍तेमाल किया जा सकता है। ताज्‍जुब है कि इसे वॉयकॉम 18 का सहयोग भी मिला है। अगर वे किसी होनहार और संभावनाशील निर्देशक की सोच को ऐसा समर्थन दें तो फिल्‍म इंडस्‍ट्री में कुछ नई प्रतिभाएं भी आएं। बहरहाल,बमन ईरासनी और वीर दास लतीफों से मशहूर हुए संता और बंता के किरदार में हैं। कुद लतीफों को सीन में तब्‍दील कर दिया गया है। उनमें जरूर हंसी आ जाती है। ऐसी हंसी तो ह्वाट्स ऐप के लतीफे पढ़ कर भी आती है। लतीफों से आगे बढ़ कर जैसे ही फिल्‍म में ड्रामा आता है,वैसे ही निर्देशक आकाशदीप साबिर अपनी अयोग्‍यता जाहिर कर देते हैं। बमन ईरानी,संजय मिश्रा और जॉनी लीवर घिसे-पिटे लतीफों से ही हंसाने की कोशिश करते हैं। अपनी कोशिशों में वे ज्‍यादातर असफल रहते हैं,क्‍योंकि उन्‍हें कोई सपोर्ट नहीं मिलता। अव

फिल्‍म समीक्षा : लाल रंग

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माटी की खुश्‍बू और रंग -अजय ब्रह्मात्‍मज सय्यद अहमद अफजाल की ‘ लाल रंग ’ को नजरअंदाज या दरकिनार नहीं कर सकते। हिंदी की यह ठेठ फिल्‍म है,जिसमें एक अंचल अपनी भाषा,रंग और किरदारों के साथ मौजूद है। फिल्‍म का विषय नया और मौजूं है। पर्दे परदिख रहे नए चेहरे हैं। और साथ ही पर्दे के नीछे से भी नई प्रतिभाओं का योगदान है। यह फिल्‍म अनगढ़,अधपकी और थोड़ी कच्‍ची है। यही इसकी खूबी और सीमा है,जो अंतिम प्रभाव में कसर छोड़ जाती है। अफजाल ने दिल्‍ली से सटे हरियाणा के करनाल इलाके की कथाभूमि ली है। यहां शंकर मलिक है। वह लाल रंग के धंधे में है। उसके घर में एक पोस्‍टर है,जिस पर सुभाष चंद्र बोस की तस्‍वीर है। उनके प्रसिद्ध नारे में आजादी काट कर पैसे लिख दिया गया है- तुम मुझे खून दो,मैं तुम्‍हें पैसे दूंगा। शंकर मलिक अपने धंधे में इस कदर लिप्‍त है कि उसकी प्रेमिका परिवार के दबाव में उसे छोड़ जाती है। नृशंस कारोबार में होने के बावजूद वह दोस्‍तों की फिक्र करता है। इस कारोबार में वह एक नए लड़के(अक्षय ओबेराय) को शामिल करता है। धंधे के गुर सिखता है,जो आगे चल कर उसका गुरू बनने की कोशिश करता है।

फिल्‍म समीक्षा : निल बटे सन्‍नाटा

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मलिन बस्‍ती में उजास -अजय ब्रह्मात्‍मज स्‍वरा भास्‍कर अपनी पीढ़ी की साहसी अभिनेत्री हैं। दो कलाकारों में किसी प्रकार की तुलना नहीं करनी चाहिए। फिर भी कहा जा सकता है कि नवाजुद्दी सिद्दीकी की तरह उन्‍होंने मुख्‍यधारा और स्‍वतंत्र स्‍वभाव की फिल्‍मों में एक संतुलन बिठाया है। हम ने उन्‍हें हाल ही में ‘ प्रेम रतन धन पायो ’ में देखा। ‘ निल बटे सन्‍नाटा ’ में उन्‍होंने 15 साल की बेटी की मां की भूमिका निभाई है। हिंदी फिल्‍म इंडस्‍ट्री में इमेज के प्रति अतिरिक्‍त सजगता के दौर में ऐसी भूमिका के लिए हां कहना और उसे पूरी संजीदगी और तैयारी के साथ निभाना उल्‍लेखनीय है। आगरा की इस कहानी में ताजमहल के पीछे की मलिन बस्‍ती में रह रही चंदा सहाय बर्तन-बासन और खाना बनाने का काम करती है। उसकी एक ही ख्‍वाहिश है कि उसकी बेटी अपेक्षा पढ़-लिख जाए। मगर बेटी है कि उसका पढ़ाई में ज्‍यादा मन नहीं लगता। गणित में उसका डब्‍बा गोल है। बेटी की पढाई के लिए वह हाड़-तोड़ मेहनत करती है। बेटी है कि मां की कोशिशों से बिदक गई है। वह एक नहीं सुनती। उल्‍टा मां को दुखी करने की पूरी कोशिश करती है। कुछ उम्र का

दरअसल : छोटे शहरों से आए कलाकार

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-अजय ब्रह्मात्‍मज इन दिनों पत्र-पत्रिकाओं में लगातार लेख,कॉलम और विश्‍लेषण छप रहे हैं कि छोटे शहरों से आए कलाकार मुंबई में मिली सफलता पचा नहीं पाते। असफलता तो और भी हताश करती है। पिछले दिनों एक टीवी कलाकार की आत्‍महत्‍या के बाद सभी के प्रवचन चालू हो गए हैं। ज्ञान बंट रहा है। ज्‍यादातर स्‍तंभकार,लेखक और पत्रकार छोटे शहरों से आए कलाकारों के दबाव और चुनाव पर व्‍यवस्थित बातें करने के बजाए एक हादसे को सभी पर थोप रहे हें। यह संदेश दिया जा रहा है कि छोटे शहरों के युवा हिंदी फिल्‍म इंडस्‍ट्री और टीवी इंडस्‍ट्री के काबिल नहीं होते। अगर किसी को कामयाबी मिल भी गई तो उसका हश्र दुखद होता है। वे गलत फैसले लेते हैं। अपनी अर्जित कामयाबी में ही घुट जाते हैं। ऐसे लोग चंद घटनाओं को सच बताने लगते हैं,जबकि छोटे शहरों से आकर मिले मौके के सदुपयोग से लहलहाती प्रतिभाओं को भी हम देख रहे हें। हम हादसों की खबर देते हें। जलसों को नजरअंदाज करते हैं। मैं स्‍वयं एक गांव से हूं। वहां से कस्‍बे में पढ़ने आया। फिर कथित छोटे शहर में पढ़ाई की। उसके बाद जेएनयू में छह साल रहा। जेएनयू ने आंखें खोल दी। यहीं द

दिखने लगी है मेरी मेहनत - रणदीप हुडा

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-अजय ब्रह्मात्‍मज रणदीप हुडा व्‍यस्‍त हैं। बहुत काम कर रहे हैं। तीन फिल्‍में पूरी कीं। तीनों बिल्‍कुल अलग-अलग और तीनों में काफी मेहनत करनी पड़ी। एक साल में 35 किलाग्राम वजन घटाना और बढ़ाना पड़ा। घुड़सवारी को शौक स्‍थगित रखना पड़ा। घोड़ों के साथ वे भी थोड़े अस्‍वस्‍थ चल रहे हैं। -वजन घटाना और बढ़ाना दोनों ही मुश्किल प्रक्रिया है। उधर आमिर ने वजन बढ़ाया और फिर घटाया। आप ने वजन घटाया और फिर बढ़ाया। 0 मैं तो फिर भी जवान हूं। आमिर की उम्र ज्‍यादा है। उनके लिए अधिक मुश्किल रही होगी। उम्र बढ़ने के साथ दिक्‍क्‍ते बढ़ती हैं। ‘ सरबजीत ’ के लिए वजन कम किया और ‘ दो लफ्जों की कहानी ’ के लिए 95 किलो वजन करना पड़ा। सिफग्‍ चर्बी नहीं घटानी होती। मांसपेशियों को भी घटाना होता है। उससे तनाव होता रहता है। - इन दोनों फिल्‍मों के बीच में ‘ लाल रंग ’ आया ? क्‍या फिल्‍म है ? 0 जी,यह अच्‍छा ही रहा। हिंदुस्‍तान में ज्‍यादातर फिल्‍में हवा में होती हैं। उनके शहर या ठिकानों के नाम नहीं होते। मेरी रुचि ऐसी कहानियों में रहती है,जिनका ठिकाना हो। पता हो कि किस देश के किस इलाके की कहानी कही जा

हंसमुख है मेरा किरदार :पंकज त्रिपाठी

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-अमित कर्ण पंकज त्रिपाठी उन चंद कलाकारों में से एक हैं, जो कमर्शियल व ऑफबीट फिल्‍मों के बीच उम्‍दा संतुलन साध रहे हैं। मसलन हाल के दिनों में ‘ मसान ’ और ‘ दिलवाले ’ । अब उनकी ‘ निल बटे सन्‍नाटा ’ आ रही है। वे इसमें स्‍कूल प्रिसिंपल बने हैं। -फिल्‍म में आप लोग कहीं प्रौढ़ शिक्षा अभियान का प्रचार तो नहीं कर रहे हैं ? पहली नजर में मुझे भी यही लगा था, पर ऐसा नहीं है। यह आप को हंसा-रुला व प्रेरित कर घर भेजेगी। इसमें मनोरंजन करने के लिए किसी प्रकार के हथकंडों का इस्‍तेमाल नहीं है। बड़ी प्‍यारी व प्‍योर फिल्‍म है। इससे हर वे लोग जुड़ाव महसूस करेंगे, जो अपने दम पर मकबूल हुए हैं। मैं इसमें हंसमुख श्रीवास्‍तव की भूमिका में हूं। वह शिक्षक है। -वह किस किस्‍म का शिक्षक है। खडूस या नाम के अनुरूप हंसमुख। साथ ही इसमें आप ने क्‍या रंग भरे हैं ? मैं निजी जीवन में जिन तीन-चार शिक्षकों का मुरीद रहा हूं, उनकी खूबियों-खामियों को मैंने इसमें समेटा है। एक लक्ष्‍मण प्रसाद थे। जगतकुमार जी थे। राम जी मास्‍टर साहब थे। गणित पढ़ाने वाले टीचर अमूमन बोरिंग होते हैं, मगर श्रीवास्‍तव जी ऐसा नहीं है।

ख्‍वाब कोई बड़ा नहीं होता - स्‍वरा भास्‍कर

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-अमित कर्ण स्‍वरा भास्‍कर मेनस्‍ट्रीम सिनेमा में अपनी दखल लगातार बढ़ा रही हैं। वे ‘प्रेम रतन धन पायो’ के बाद अब एक और बड़े बैनर की ‘निल बटे सन्‍नाटा’ में हैं। वह भी फिल्‍म की बतौर मेन लीड। इसके अलावा ‘आरावाली अनारकली’ भी उन्‍हीं के कंधों पर टिकी है। -बहुत दिनों बाद विशुद्ध हिंदी में टाइटिल आया है। साथ ही देवनागिरी लिपि में पोस्‍टर। क्‍या कुछ है ‘निल बटे सन्‍नाटा’ में। पश्चिमी उत्‍तर प्रदेश और दिल्‍ली के इलाकों में ‘निल बटे सन्‍नाटा’ बड़ी जाना-पहचाना तकियाकलाम है। यह उन लोगों के लिए प्रयुक्‍त होता है, जो गया-गुजरा है। जो गौण है और जिसका जिंदगी में कुछ नहीं हो सकता हो। बहरहाल इसकी कहानी एक मां और उसकी 13 साल की ढीठ बेटी के रिश्‍तों पर केंद्रित है। मां लोगों के घरों में नौकरानी है। वह दसवीं फेल है। वह नहीं चाहती कि उसकी बेटी का भी वही हश्र हो, मगर उसकी बेटी फेल होने की पूरी तैयारी में है। दिलचस्‍प मोड़ तब आता है, जब उसकी मां खुद दसवीं पास करने को उसी के क्‍लास में दाखिला ले लेती है। दोनों का द्वंद्व क्‍या रंग लाता है, वह इस फिल्‍म में है। यह फिल्‍म दरअसल कहना चाहती है

फिल्‍म समीक्षा : फैन

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फैन **** चार स्‍टार पहचान और परछाई के बीच -अजय ब्रह्मात्‍मज यशराज फिल्‍म्‍स की ‘ फैन ’ के निर्देशक मनीष शर्मा हैं। मनीष शर्मा और हबीब फजल की जोड़ी ने यशराज फिल्‍म्‍स की फिल्‍मों को नया आयाम दिया है। आदित्‍य चोपड़ा के सहयोग और समर्थन से यशराज फिल्‍म्‍स की फिल्‍मों को नए आयाम दे रहे हैं। ‘ फैन ’ के पहले मनीष शर्मा ने अपेक्षाकृत नए चेहरों को लेकर फिल्‍में बनाईं। इस बार उन्‍हें शाह रुख खान मिले हैं। शाह रुख खान के स्‍तर के पॉपुलर स्टार हों तो फिल्‍म की कहानी उनके किरदार के आसपास ही घूमती है। मनीष शर्मा और हबीब फैजल ने उसका तोड़ निकालने के लिए नायक आर्यन खन्‍ना के साथ एक और किरदार गौरव चान्‍दना गढ़ा है। ‘ फैन ’ इन्‍हीं दोनों किरदारों के रोचक और रोमांचक कहानी है। मनीष शर्मा की ‘ फैन ’ गौरव चान्‍दना की कहानी है। दिल्‍ली के मध्‍यवर्गीय मोहल्‍ले का यह लड़का आर्यन खन्‍ना का जबरा फैन है। उसकी जिंदगी आर्यन खन्‍ना की धुरी पर नाचती है। वह उनकी नकल से अपने मोहल्‍ले की प्रतियोगिता में विजयी होता है। उसकी ख्‍वाहिश है कि एक बार आर्यन खन्‍ना से पांच मिनट की मुलाकात हो जाए तो उसक

गलतियां भी हों अच्‍छी वाली - शाह रुख खान

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-जागरण फीचर टीम शाह रुख खान बीते 25 सालों से फिल्‍म इंडस्‍ट्री में सक्रिय हैं। पांच दिनों बाद उनकी ‘फैन’ रिलीज हो रही है। यह फिल्‍म फैन व स्‍टार के रिश्‍ते को समर्पित है। फिल्‍म की जानकारी लेने व शाह रुख की सोच-अप्रोच जानने दैनिक जागरण की फीचर टीम एक अप्रैल की रात 10 बजे मुंबई स्थित यशराज स्‍टूडियो पहुंची। दिन- रात काम करने के आदी शाह रुख खान फिल्‍म की डबिंग में व्‍यस्‍त मिले। आखिरकार रात 12 बजे शाह रुख खान का बुलावा आया। उनकी वैनिटी वैन में टीम का स्‍वागत हुआ। उस वक्‍त वे फोन पर अपनी बेटी सुहाना की कुशलक्षेम ले रहे थे, जिसमें एक पिता की चिंता साफ झलक रही थी। पेश है उनसे खुली बातचीत : फीचर टीम -फैंस का स्‍टार की जिंदगी पर कितना हक होना चाहिए ? ईमानदार जवाब बहुत अलग है, मैं फिर भी बताता हूं। खासकर खुद के संदर्भ में। मुझे ऐसा लगता है कि लोकप्रियता अपने संग डर लेकर आती है। लोकप्रिय लोग डरने लग जाते हैं। इस बात का डर कि मेरा काम लोगों को पसंद नहीं आया तो पिछले 25 सालों में कमाया नाम बेकार हो जाएगा। यह डर मन में समाते ही स्‍टार वही करने लग जाता है, जो दो करोड़ लोगों को पसं