दस फीसदी भी नहीं दिया : मनोज बाजपेयी




-अमित कर्ण

मनोज बाजपेयी के लिए साल 2016 इकट्ठी खुशियां व फख्र की अनुभूतियां लेकर आया है। साल के शुरूआती महीनों में ‘अलीगढ़’, पिछले दिनों ‘ट्रैफिक’ और अब ‘बुधिया : बॉर्न टु रन’ उनकी दमदार अदायगी व मौजूदगी से निखरी। वे अलग ऊंचाई हासिल कर गईं। हैरत यह है कि 22 साल से अदाकारी करने के बावजूद उनमें बेहतर परफॉरमेंस की भूख नहीं मिटी है। उन्होंने खुद को यंत्रवत सा बनने नहीं दिया है।
- अदाकारी में महारथ होने के बावजूद उसके प्रति आज भी अपनी भूख कैसे बनाए रखते हैं।
0 उस भूख को जगाने की जरूरत नहीं पड़ती। ‘देवदास’ में दिलीप साहब ने कहा था न ‘यह कभी न बुझने वाली प्यास’ है। यह इतनी जल्दी जाने वाला नहीं है। अभी मेरे भीतर जितना है, उसका तो दस फीसदी भी बाहर नहीं आया है। मुझे अपना हर पिछला काम कचोटता रहता है। उसमें कमी महसूस होती रहती है। वह चीज मुझे खाली करता रहता है। हमेशा लगता है कि मैं बहुत कुछ दे सकता हूं, मगर वैसे रोल नहीं आ रहे। इसलिए जैसे ही एक असरदार किरदार मिलता है तो खुद को उस की तैयारियों पर न्यौछावर कर देता हूं। 
-इसे हम महज इ्त्तेफाक ही कहें कि इन दिनों ज्यादतर वैसी फिल्में आ रही हैं, जो असल घटना से प्रेरित कहानियों पर केंद्रित हैं।
 0 जी बिल्कुल। हम उसे ट्रेंड इसलिए मान लेते हैं कि एक ही दौर में उसी ढर्रे की ढेर सारी फिल्में आने लगती हैं। तकरीबन सभी कलाकार व फिल्मकार उस चीज का अनुसरण करने लग जाते हैं। शुरू में मगर हर नया जॉनर व बेलीक वाली फिल्में इत्तेफाक ही होती हैं। कल को दो-तीन एक्शन फिल्मों को सफलता मिलने दीजिए। फिर देखिए उस जॉनर की फिल्में धड़ाधड़ बनने लगेंगी। अभी यह जो ‘बुधिया : बॉर्न टु रन’ है, वह हमने बहुत पहले शूट कर लिया था। ऐसी कहानियां भेड़-चाल वाले ट्रेंड को देखकर नहीं बनती। ऐसी कहानियां होती हैं, जिनसे लेखक-निर्देशक को बेपनाह मुहब्बत होती है और फिल्म बन जाती है। भले उसके सामने कितनी ही दिक्कतें क्यों न आएं। इस फिल्म के तो वितरक ढूंढने में हमें एक साल लग गए। लंबा वक्त लगा कॉरपोरेट को एक्साइट करने में। जो छोटी बजट की फिल्मों के निर्माण व रिलीज की यात्रा होती है, वह ढेर सारी जद्दोजहद से लैस होती है।
-एकल निर्माताओं की जगह कॉरपोरेट्स ने ले ली है। उन्होंने छोटी फिल्मों की यात्रा पहले के मुकाबले सुगम की है या दुष्‍कर।       
0 एक समय पर उन्होंने राहें आसान बना दी थीं। उनकी दिलचस्‍पी के रडार पर छोटी फिल्में थीं। अब उनका रुझान फिर से बड़ी फिल्मों की तरफ हो गया है। लिहाजा छोटी फिल्मों की यात्रा फिर से मुश्किल भरी हो गई है। दूसरी चीज यह भी कि जिन लोगों ने छोटी फिल्मों की बेहतरी की मुहिम चलाई थी, वे बड़ी फिल्में बनाने लगे हैं। उनकी पहली पसंद सितारे बन चुके हैं। यह जायज भी है। वे गलत नहीं कर रहे हैं। बाजारवाद हर ओर हावी हो रहा है। ऐसे में ‘बुधिया...’ जैसी फिल्मों की निर्माण प्रक्रिया को एन्‍ज्वॉय करना होगा, तब बात बनेगी। वैसे भी इसकी कहानी सब के सामने आना बहुत जरूरी है।
-क्या है इसकी कहानी और डायरेक्टर बता रहे थे कि यह बुधिया व बिरंची दास की सम्मलित बायोपिक है।
यह उड़ीसा के उसी बुधिया सिंह की कहानी है, जिसने महज सात घंटे में बिना रुके 65 किलोमीटर की दौड़ लगाई थी। उसका नाम लिम्का बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स में दर्ज हुआ था। वह भी तब, जब उसके पास किसी किस्‍म के संसाधन नहीं थे। उसकी मां ने गरीबी से आजिज आ उसे महज 800 रुपए में बेच दिया था। उस पर बिरंची की नजर पड़ती है। बुधिया में दौड़ने की खूबी महसूस होती है और वह उसे ट्रेन करता है। हमारी फिल्म बिरंची की नजरों बुधिया की विजय गाथा है। तभी यह दोनों की सम्मलित बायोपिक है।
- आप ऐसी फिल्मों की यात्रा एन्‍ज्वॉय कर रहे हैं।
जी बिल्कुल। मैं कतई डींगें नहीं हांकता कि मैं पांच फिल्में कर रहा हूं कि सात। इस साल मेरी सभी फिल्में इत्तफाकन इकट्ठी आ रही हैं। वे सब की सब बहुत पहले ही बन चुकी थीं। यह साल उनके लिए भाग्यशाली रहा। हरेक को वितरक व स्‍टूडियो मिले। अब एक के बाद एक आ रही हैं। रहा सवाल आने वाली फिल्मों का तो उनके बारे में मैं चुप ही रहता हूं। जब तक कि वे बिक नहीं जातीं। सब को यही लगेगा कि मनोज बाजपेयी की तो पांचों ऊंगलियां घी में हैं। असल में जबकि उन सबकी यात्रा लंबी और संघर्षों से परिपूर्ण रही हैं।
- ऐसी फिल्मों में इरादतन लार्जर दैन लाइफ मुद्दे रखे जाते हैं ताकि ऑडिएंस को आकर्षित किया जा सके।
0 ऐसा नहीं है। वह एंगेज करने वाली कहानी ढूंढ रही होती है। वरना बड़े-बड़े मुद्दों पर घटिया फिल्में भी बनी हैं। अगर कोई लेखक फिल्म में इरादतन मुद्दा को घुसेड़ेगा तो कहानी भटक जाएगी। हमारे दर्शक ड्रामा ढूंढते हैं। नई चीज अनुभव कर सिनेमाघरों से निकलना चाहते हैं। ‘बुधिया’ में लोगों को नई बात मिलेगी। इसकी कहानी मेरे पास छह-सात साल पहले आई थी। उन दिनों मैं बुधिया सिंह की हर न्यूज को फॉलो कर रहा था। उन दिनों मैं न्यूज चैनल बहुत देखा भी करता था। अब भले नहीं देखता। बहरहाल, बिरंची में मुझे महसूस हुआ कि वह नेकदिल इंसान है। वह संसाधनविहीन प्रतिभावानों के लिए बहुत कुछ करना चाहता है, लेकिन कर नहीं पा रहा है। हालांकि वह किसी विचारधारा के तहत वह काम नहीं कर रहा था। वह सरकारी अनुदान मिलने की फिराक में रहता था। ताकि उसका जूडा स्‍कूल चलता रहे। उसका यह विरोधाभास मुझे पसंद आया।
-आज के दौर को सिनेमा का स्‍वर्णयुग कह सकते हैं।
0 उसकी शुरूआत भर है। स्‍वर्णयुग है नहीं। जिस दिन इंटरनेट पर सारी फिल्में उपलब्ध होंगी। बीच से वितरकों का नेक्सस खत्म हो। जब हमें पता लगेगा कि ‘अलीगढ़’ का पैसा सीधा निर्माताओं की जेब में आए। हर कोने में सिनेमाघर खुले। इस देश में इतनी ताकत है कि हम हर दूसरी फिल्म ‘एवेंजर्स’ के स्‍केल की बना सकते हैं, मगर वह नहीं हो रहा। वजह यह कि हमारे पास सिनेमाघर ही कम हैं। आबादी का बहुत कम हिस्सा ही थिएटर जाकर फिल्में देख रहा है। उसमें इजाफा हो जाए तो 300-500 करोड़ की फिल्में बन सकती हैं। हां, हम जैसे कलाकार बहुत व्यस्‍त हैं, पर स्‍वर्णयुग कहलाने के लिए अभी और बेहतर सिनेमाई माहौल की दरकार है।
-अमित कर्ण    
       


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