फिल्‍म समीक्षा : ट्रैफिक



स्‍पीड और भावनाओं का रोमांच
-अजय ब्रह्मात्‍मज

मलयालम और तमिल के बाद राजेश पिल्‍लई ने ट्रैफिक हिंदी दर्शकों के लिए निर्देशित की। कहानी का लोकेशन मुंबई-पुणे ले आया गया। ट्रैफिक अधिकारी को चुनौती के साथ जिम्‍मेदारी दी गई कि वह धड़कते दिल को ट्रांसप्‍लांट के लिए निश्चित समय के अंदर मुंबई से पुणे पहुंचाने का मार्ग सुगम करे। घुसखोर ट्रैफिक हवलदार गोडबोले अपना कलंक धोने के लिए इस मौके पर आगे आता है। मुख्‍य किरदारों के साथ अन्‍य पात्र भी हैं,जो इस कहानी के आर-पार जाते हैं।
मलयालम मूल देख चुके मित्र के मुताबिक लेखक-निर्देशक ने कहानी में काट-छांट की है। पैरेलल चल रही कहानियों को कम किया,लेकिन इसके साथ ही प्रभाव भी कम हुआ है। मूल का खयाल न करें तो ट्रैफिक एक रोमांचक कहानी है। हालांकि हम सभी को मालूम है कि निश्चित समय के अंदर धड़कता दिल पहुंच जाएगा,फिर भी बीच की कहानी बांधती और जिज्ञासा बढ़ाती है। फिल्‍म शाब्दिक और लाक्षणिक गति है। हल्‍का सा रहस्‍य भी है। और इन सब के बीच समर्थ अभिनेता मनोज बाजपेयी की अदाकारी है। मनोज अपनी हर भूमिका के साथ चाल-ढाल और अभिव्‍यक्ति बदल देते हैं। मराठी किरदारों का निभाने में वे पारंगत हो चुके हैं। पिछली फिल्‍म अलीगढ़ में भी उन्‍होंने एक मराठी किरदार ही निभाया था। उसकी पृष्‍ठभूमि अलग थी। हम ने भीखू म्‍हात्रे के रूप में भी उन्‍हें देखा है।
ट्रैफिक में भावनाओं की गतिमान लहरें भी हैं। पॉपुलर फिल्‍म स्‍टार की बेटी और बीवी है। उन्‍हें तकलीफ है कि पिता और पति परिवार को पर्याप्‍त समय नहीं दे रहे। किसी की ख्‍याति के साथ अपराध बोध चिपकाने की मध्‍यवर्गीय मानसिकता से हिंदी फिल्‍मों को निकलना चाहिए। करिअर में उलझा व्‍यक्ति कई बार अपनी प्राथमिकता की वजह से दफ्तर और परिवार में संतुलन नहीं बिठा पाता,लेकिन इसके लिए उसे दोषी ठहराना उचित नहीं है। बहरहाल, इस फिल्‍म में स्टार की बेटी को हर्ट ट्रांसप्‍लांट की जरूरत है। पता चलता है कि मुंबई में एक युवा ब्रेन डेड है। अगर उसके माता-पिता राजी हों और उसका हर्ट समय से पुणे पहुंचा दिया जाए तो लड़की की जान बच सकती है। उनकी सहमति मिलने के बाद ट्रैफिक की समस्‍या है। ढाई घंटे में 160 किलोमीटर जाना है।
ट्रैफिक अधिकारी पर नैतिक और राजनीतिक दबाव डाला जाता है। एक दबाव यह भी है कि वह एक्‍टर की लड़की है। क्‍या किसी चपरासी की लड़की के लिए सांसद,डाक्‍टर और ट्रैफिक अधिकारी इतनी आसनी से तैयार होते और राह सुगम करते? बिल्‍कुल नहीं। फिर तो नाटकीयता भी नहीं आ पाती। सहानुभूति पैदा नहीं होती। हिंदी फिल्‍मों में प्रभावशाली किरदारों और उनकी तकलीफों की ही कहानियां इन दिनों कही जा रही है। फिल्‍म संवेदना के स्‍तर पर टच करती है,क्‍योंकि किसी की जान का माला है। अपना जवान बेटा खोने की घटना है। और भी कथाप्रसंग हैं।
इस फिल्‍म सराहनीय है,क्‍योंकि अलग किस्‍म के विषय को संवेदनशील तरीके से पेश करती है। फिल्‍म में रियल टाइम में ही सारी घटनाएं घटती हैं। इस सिनेमाई रियलिज्‍म से फिल्‍म अपने करीब की लगती है। लेखक और निर्देशक अतिनाटकीयता से बचे हैं। सिनेमैटोग्राफर संतोष थुंडिल ने घटनाओं और भावनाओं की गति को समान स्‍पीड में पेश किया है। हिंदी फिल्‍मों के प्रचलित लटके-झटकों से अलग ट्रैफिक इमोशनल थ्रिलर है। यह फिल्‍म दो किरदारों को प्रायश्चित करने और दूसरे दो किरदारों को स्थितियों को समझने और स्‍वीकार करने की जमीन देती है।
अवधि-104 मिनट
स्‍टार- तीन स्‍टार

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