रिश्‍ते संजो कर रखते हैं मनोज बाजपेयी



-अविनाश दास 
हिंदी सिने जगत उन चंद फिल्‍मकारों व कलाकारों का शुक्रगुजार रहेगा, जिन्‍होंने हिंदी सिनेमा का मान दुनिया भर में बढ़ाया है। मनोज बाजपेयी उन्हीं चंद लोगों में से एक है। 23 अप्रैल को उनका जन्‍मदिन है। पेशे से पत्रकार और मशहूर ब्‍लॉग ‘मोहल्ला लाइव’ के कर्ता-धर्ता रह चुके अविनाश दास उन्हें करीब से जानते हैं। अविनाश अब सिने जगत में सक्रिय हैं। उनकी फिल्‍म ‘अनारकली आरावाली’ इन गर्मियों में आ रही है। बहरहाल, मनोज बाजपेयी के बारे में अविनाश दास की बातें उन्हीं की जुबानी :   
-अविनाश दास

1998 में सत्‍या रिलीज हुई थी। उससे एक साल पहले मनोज वाजपेयी पटना गए थे। वहां उनकी फिल्‍म तमन्‍ना का प्रीमियर था। साथ में पूजा भट्ट थीं। महेश भट्ट भी थे। जाहिर है प्रेस कांफ्रेंस होना था। जाड़े की सुबह दस बजे मौर्या होटल का कांफ्रेंस हॉल पत्रकारों से भरा हुआ था। बहुत सारे सवालों के बीच एक सवाल पूजा भट्ट से मनोज वाजपेयी के संभावित रोमांस को लेकर था। लगभग दस सेकंड का सन्‍नाटा पसर गया। फिर अचानक मनोज उठे और सवाल पूछने वाले पत्रकार को एक ज़ोरदार थप्‍पड़ लगा दिया। अफरा-तफरी मच गयी। कांफ्रेंस हॉल दो खेमों में बंट गया। महेश भट्ट ने आगे बढ़ कर मामले को शांत किया। यह पूरा दृश्‍य मेरे ज़ेहन में आज भी तैरता रहता है। आज भी मैं मनोज वाजपेयी के साथ बैठ कर उनका हाथ देखता रहता हूं और सतर्क रहता हूं।

बैंडिट क्‍वीन से अलीगढ़ तक की यात्रा में मनोज वाजपेयी ने फिल्‍मी उतार-चढ़ाव के कई रंग देखे हैं। ये तमाम रंग उनकी शख्‍सियत को उस मूल-मंत्र से डिगा नहीं सके, जो उन्‍हें थिएटर के दिनों में मिला था। वह यह कि अभिनय को उस किसान की तरह देखो, जिसकी आंखों में फसल की उम्‍मीद होती है और पसीने में मेहनत, मिट्टी और नमक की खुशबू।

मनोज बिहार में चंपारण के एक ठेठ गांव में पैदा हुए। वहीं पले-बढ़े भी। गांव के उनके घर से सिर्फ पांच-सात मिलोमीटर की दूरी पर गांधी का भितिहरवा आश्रम है। निजी बातचीत में अक्‍सर मनोज को मैंने मनुष्‍यता की बड़ी परिधि पर सामाजिक-राजनीतिक बातें करते हुए देखा है। उन बातों में गांधीवादी आग्रह की एक बारीक सी परत तैरती रहती है। दो साल पहले मनोज के साथ गांव जब मैं उनके गांव गया, तो लोगों से मिल कर उनकी दुख-तकलीफ में शामिल होने का उनका शगल देखा। यह उनकी जिंदगी का वह पहलू है, जो आमतौर पर सफल अभिनेताओं में देखने को नहीं मिलता।

पहले हमारी मुलाकात अक्‍सर दिल्‍ली में हुआ करती थी, जब मनोज आते थे। मैं टीवी में था। हर बार दो दिनों में दस से अधिक लोगों से मिलने का टार्गेट रहता था। ये वे लोग होते थे, जो थिएटर के दिनों में उनके संगी-साथी थे। जब आप सार्वजनिक जिंदगी में होते हैं, तो रोज़ नये रिश्‍ते बनते हैं। ऐसे में सहज रूप से पुराने रिश्‍ते छूटते चले जाते हैं -लेकिन मनोज को उन रिश्‍तों से अपनी पहचान को अलग करते हुए नहीं देखा। नये-पुराने तमाम रिश्‍तों से संवाद की निरंतरता में उनका भरोसा है। गुलज़ार की इन पंक्तियों की तरह, ‘’हाथ छूटे भी तो रिश्‍ते नहीं छोड़ा करते, वक्‍त की शाख से लम्‍हें नहीं तोड़ा करते।‘’

छोटे शहरों या गांवों से आने वाले तमाम संघर्षशील लोगों के लिए मनोज एक प्रेरक व्‍यक्तित्‍व हैं - लेकिन सिर्फ प्रेरणा ही किसी को मनोज जैसा बनने के लिए आसान राह नहीं दे सकती। बहुत कम लोग जानते हैं कि आज जो मनोज वाजपेयी हैं, वहां तक पहुंचने के लिए उन्‍होंने कितनी हाड़-तोड़ मेहनत की है। जिस नेटुआ नाटक से उन्‍होंने दिल्‍ली में एक समर्थ रंग-अभिनेता के बतौर अपनी पहचान स्‍थापित की, उस नेटुआ की तैयारी का किस्‍सा बताते हुए वे अक्‍सर कहते हैं कि उन दिनों सिर्फ दो-तीन घंटे सोते थे और अठारह-अठारह घंटे नृत्‍य का अभ्‍यास किया करते थे। उनके उन दिनों के मित्र भी इस तथ्‍य की तस्‍दीक़ करते हैं।

हसरतों से भरी हुई झोली लेकर बिहार से मुंबई में आना वाला हर आदमी मदद की भरी-पूरी उम्‍मीद के साथ उनसे मिलना चाहता है। बहुतों की मुलाकात हो जाती है और मैंने अनजान लोगों के लिए काम की संभावनाओं पर बात करते हुए मनोज वाजपेयी को देखा है। न सिर्फ बिहार के लोगों के लिए, बल्कि देश के किसी भी कोने से आने वाले लोगों के लिए।

एक बात, जो मुझे यहां लिखनी चाहिए या नहीं, नहीं जानता, पर बात है तो बतायी जानी चाहिए। मनोज की एक बहन दिल्‍ली में रहती हैं। उन्‍होंने एक बार मुझे फोन किया और कहा कि वे फिल्‍मों में कॉस्‍ट्यूम डिज़ाइनिंग का काम करना चाहती हैं। मैंने मनोज से बात की। उन्‍होंने कहा कि उसे आकर संघर्ष करना चाहिए और अपनी प्रतिभा और अपने हुनर से संघर्ष का सफर तय करना चाहिए। यह बात मनोज ने ऐसे समय में कही, जब परिवारवाद का वर्चस्‍व ज्‍यादातर क्षेत्रों में सर चढ़ कर बोल रहा है।

मनोज के बारे में एक बड़ी अच्‍छी बात मैं बताना चाहता हूं। जब भी कोई निर्देशक उनके पास अपनी फिल्‍म की कहानी लेकर जाता है, वे विनम्रतापूर्वक आग्रह करते हैं कि उन्‍हें पटकथा हिंदी में पढ़ने को दी जाए। हिंदी सिनेमा जगत में आमतौर पर पटकथा अंग्रेज़ी में लिखने का चलन है - लेकिन मनोज के पास मैंने ज़्यादातर पटकथाएं हिंदी में देखी हैं। यह हिंदी के लिए किसी भी किस्‍म के गौरव से ज्‍यादा एक अभिनेता की भाषा के प्रति एक सजग संवेदनशीलता दिखाता है।

नये किस्‍म के प्रयोगों को लेकर वे उत्‍साहित रहते हैं। चाहे ये प्रयोग सिनेमा के मोर्चे पर हो या जीवन के मोर्चे पर हो। पिछले दिनों तीन लघु फिल्‍मों में उन्‍होंने अभिनय किया। वे छोटी जगहों पर भी अच्‍छे विषय पर बातचीत वाली गोष्ठियों में उत्‍साह से जाते हैं और बड़े शहरों के चमकीले सभा-सेमिनारों से कन्‍नी काटते रहते हैं। उनका घर हिंदी-मुस्लिम एकता का खूबसूरत प्रतीक चिन्‍ह जैसा है, जहां एक ही जगह पर हम कुरान और गीता को साथ-साथ रखा हुआ पाते हैं। मनोज अपनी पत्‍नी शबाना रजा और बेटी आवा नायला बाजपेयी के संग खुशहाल जीवन जी रहे हैं। 

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