दरअसल : छोटे शहरों से आए कलाकार



-अजय ब्रह्मात्‍मज

इन दिनों पत्र-पत्रिकाओं में लगातार लेख,कॉलम और विश्‍लेषण छप रहे हैं कि छोटे शहरों से आए कलाकार मुंबई में मिली सफलता पचा नहीं पाते। असफलता तो और भी हताश करती है। पिछले दिनों एक टीवी कलाकार की आत्‍महत्‍या के बाद सभी के प्रवचन चालू हो गए हैं। ज्ञान बंट रहा है। ज्‍यादातर स्‍तंभकार,लेखक और पत्रकार छोटे शहरों से आए कलाकारों के दबाव और चुनाव पर व्‍यवस्थित बातें करने के बजाए एक हादसे को सभी पर थोप रहे हें। यह संदेश दिया जा रहा है कि छोटे शहरों के युवा हिंदी फिल्‍म इंडस्‍ट्री और टीवी इंडस्‍ट्री के काबिल नहीं होते। अगर किसी को कामयाबी मिल भी गई तो उसका हश्र दुखद होता है। वे गलत फैसले लेते हैं। अपनी अर्जित कामयाबी में ही घुट जाते हैं। ऐसे लोग चंद घटनाओं को सच बताने लगते हैं,जबकि छोटे शहरों से आकर मिले मौके के सदुपयोग से लहलहाती प्रतिभाओं को भी हम देख रहे हें। हम हादसों की खबर देते हें। जलसों को नजरअंदाज करते हैं।
मैं स्‍वयं एक गांव से हूं। वहां से कस्‍बे में पढ़ने आया। फिर कथित छोटे शहर में पढ़ाई की। उसके बाद जेएनयू में छह साल रहा। जेएनयू ने आंखें खोल दी। यहीं दुनिया को समझने की विश्‍वदृघ्टि मिली। देश-दुनिया और दीन-दुनिया की समझ बढ़ी। गांव-कस्‍बे से मिली ग्रंथियां धीरे-धीरे खत्‍म हुईं। मुंबई आने और फिल्‍म पत्रकारिता से जुड़ने पर हिंदी अखबार और फिल्‍मों के हिंदी पत्रकार होने की वजह से अपमान और तिरस्‍कार भी झेले। फिर भी लगे रहे। आज इतना तो कह ही सकते हैं कि अब कोई नजरअंदाज नहीं करता। जरूरत के अनुसार संपर्क बना रहता है और अखबार के लिए आवश्‍यक इंटरव्‍यू और कवरेज की सुविधाएं मिल जाती हैं। हम ने निरंतर प्रयास से हिंदी के प्रसार और प्रभाव का महत्‍व समझाया है। अगर आरंभिक अपमानों से निराश हो जाते और हिम्‍मत हारते तो खुद के साथ हिंदी फिल्‍म पत्रकारिता का भी नुकसान करते। अध्‍ययन,लगन,धैर्य और कोशिश से रास्‍ते सुगम होते हैं। फिल्‍म पत्रकारितो के दो दशकों में छोटे शहरों से आए अनेक कलाकारों से मिला। उनके संघर्ष को समझा। यहां सभी का संघर्ष अलग होता है,क्‍योंकि सभी की परिस्थितियां अलग होती हैं। सभी के सपने कमोबेश समान होते हैं।
मुंबई के ग्‍लैमर जगत से जुड़ने आए कलाकारों पर कई तरह के दबाव रहते हें। अगर आंकड़े जुटाए जाएं तो बमुश्किल बीस प्रतिशत ही ऐसे कलाकार और तकनीशियन मिलेंगे,जिन्‍हें परिवार का पूर्ण समर्थन मिला है। घर के लोगों को नाराज कर अपने सपनों के पीछे मुंबई आए अस्‍सी प्रतिशत लोगों के पास मुसीबत में सहारे के लिए कंधे नहीं होते। सबसे जरूरी है कि कुछ भरोसेमंद दोस्‍त और परिचित हों,जो बगैर किसी पूर्वाग्रह के आप के जय-पराजय की कहानियां सुन सकें। शायद यकीन न हो,लेकिन यह सच्‍चाई है कि यहां खुशियां बांटने के लिए भी ढंग के दोस्‍त नहीं मिलते। प्रतिस्‍पर्धा में कटुता और ईर्ष्‍या इतनी बढ़ गई है कि अपनी जीत से ज्‍यादा खुशी दूसरों की हार में मिलती है। इस चकाचौंध के पीछे का अंधेरा निगलने को तैयार रहता है। कुछ इसके शिकार होते हैं। लेकिन जो समझदारी से काम लेता है। सही संगत में रहता है। अपने सधे कदमों से आगे बढ1ता है। वह कामयाब भी होता है। ग्‍लैमर जगत में कामयाबी का प्रतिशत हजारों में एक होता है और ऊपर के दस की गिनती में सघन मेहनत और उपयोगी अवसरों की जरूरत पड़ती है। असफल और कमजोर के साथ सफल और मजबूत भी इसे किस्‍मत का नाम देते हें। वास्‍तव में हम जिसे किस्‍मत कहते हैं,उसकी बुनियाद में मेहनत होती है। हाथ पर हाथ रखे भाग्‍य के भरोसे बैठे लोगों को फिल्‍म इंडस्‍ट्री तो क्‍या,किसी भी क्षेत्र में कुछ नहीं मिलता।
छोटे शहरों से आए आउटसाइडर के लिए राह आसान नहीं होती। उन्‍हें हर बार परीक्षा से गुजरना पड़ता है और हमेशा उत्‍तीर्ण होना होता है। उनमें से कोई हठात आत्‍महत्‍या जैसा गलत कदम उठा ले तो सभी आउटसाइडर की थू-थू होती है। विशेषज्ञ बताने लगते हैं कि कामयाबी इनकी औकात में नहीं है।     

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