दरअसल : समीक्षकों की समस्याएं


-अजय ब्रह्मात्मज
    हर शुक्रवार को एक से अधिक फिल्में रिलीज होती हैं। महीने और साल में ऐसे अनेक शुक्रवार भी आते हैं,जब तीन से अधिक फिल्मों की रिलीज की घोषणा रहती है। हम समीक्षकों के लिए यह मुश्किल हफ्ता होता है। सोमवार से ही समीक्षकों की चिंता आरंभ हो जाती है। चिंता यह रहती है कि कैसे समय रहते हफ्ते की सारी फिल्में देख ली जाएं और उनके रिव्यू लिख दिए जाएं। वेब पत्रकारिता के आरंभ होने के साथ ही यह दबाव बढ़ गया था कि जल्दी से जल्दी फिल्मों के रिव्यू पोस्ट कर दिए जाएं। पहले जैसी मजबूरी नहीं रह गई थी कि अखबार सुबह आएगा,इसलिए शाम तक रिव्यू लिखे जा सकते हैं। फिल्मों के प्रिव्यू शो गुरुवार तक हो जाते थे। समीक्षकों के पास पर्याप्त समय रहता था। वे फिल्मों के संबंध में ढंग से विचार कर लेते थे। अपनी राय को निश्चित फॉर्म देते थे। रिव्यू भी रविवार को छपते थे,इसलिए फिल्मों के रिव्यू में जल्दबाजी की उक्तियां या सोद्देश्य उलटबांसियां नहीं होती थीं। अभी ऐसा लग सकता है कि तब सब कुछ धीमी गति से चलता रहा होगा। हां,गति धीमी थी,लेकिन दिशा स्पष्ट थी। इन दिनों तो फिल्में देख कर निकलो और आधे घंटे में रिव्यू लिख दो।
    अभी स्थितियां बदल रही हैं। फेसबुक और ट्विटर जैसे सोशल मीडिया नेटवर्क के आने के बाद एक तो हर दर्शक अपनी राय अभिव्यक्त कर रहा है। दूसरे,बारिश के मेढकों की तरह समीक्षकों की संख्या और टर्र-टर्र बढ़ गई है। ऐसा दबाव बढ़ा है कि रेगुलर समीक्षक भी जल्दबाजी में आ जाते हैं। सभी की कोशिश रहती है कि यथाशीघ्र रिव्यू को ऑन लाइन या किसी और तरीके से सार्वजनिक कर दें। पता चला है कि मुंबई और दिल्ली में ऐसे कथित समीक्षक आ गए हैं,जो निर्माताओं पर दबाव डालते हैं कि उनके रिव्यू और दिए गए स्टारों का उल्लेख फिल्मों के रिव्यू ऐड में हो। रिव्यू ऐड में जगह पाने के लिए चार और पांच स्टार देने से भी बाज नहीं आते कथित समीक्षक। समीक्षकों की एक नई फसल आई है,आरजे ़ ़ ़आरजे फलां,फलां। क्या कल को समीक्षकों के नाम के आगे क्रिटिक या रिव्यूअर लिखा जाने लगेगा?
    पिछले हफ्ते मैंने एक फिल्म से संबंधित व्यक्ति से पूछा कि उनकी फिल्म का प्रिव्यू कब है? उनका टका सा जवाब मिला,हमलोग शुक्रवार को ही फिल्म दिखाएंगे। कुछ खास लोगों के लिए एक शो रखा है। आइए,साथ देखेंगे। मैंने मन में सोचा कि अगर शुक्रवार को ही फिल्म देखनी है तो क्यों न अपनी सुविधा से घर के पास के थिएटर में देख लूं। पैसे जरूर खर्च होंगे,लेकिन समय की बचत होगी। मैंने ऐसा ही किया। एक फिल्म के लिए यह विकल्प सही है। दो-तीन फिल्में हों तो या तो फिल्में छोडऩी पड़ेंगी या फिर हर अखबार में दो-तीन रिव्यूअर रखने पड़ेंगे। एक रास्ता यह भी हो सकता है कि रिव्यू शनिवार की जगह रविवार को अखबारों में छपें। सूचना है कि फिल्म निर्माता जल्दी ही एकमत होने वाले हैं कि वे अपनी फिल्में शुक्रवार से पहले समीक्षकों को नहीं दिखाएंगे। प्रिव्यू शो का चलन खत्म कर दिया जाएगा। इस निर्णय पर पहुंचने की एकमात्र वजह यह है कि शुक्रवार की सुबह या उसके पहले रिव्यू नहीं आएं। फिल्मों का निगेटिव रिव्यू के संभावित नुकसान से बचाया जा सके। फिल्म की जानकारी दर्शकों को नहीं मिले। इससे बुरी फिल्मों को लाभ हो सकता है,लेकिन अच्छी फिल्मों का नुकसान भी निश्चित है।
    भारत में फिल्म पत्रकारिता एक बड़ा ढोंग बनती जा रही है। इन दिनों कोई भी स्टार या निर्देशक रिलीज के पहले दिए जा रहे इंटरव्यू में फिल्म की भनक नहीं लगने देता। फिर भी इंटरव्यू किए जाते हैं और वे छपते भी हैं। सारी बातचीत बगैर फिल्म देखे उस अदृश्य सृजन के बारे में होती है,जिसके बारे में इंटरव्यू देने वाले को सब कुछ पता रहता है और इंटरव्यू लेने वाला फिल्म से पूरी तरह से अनभिज्ञ रहता है। अब फिल्मों के प्रिव्यू शो के चलन को रद्द कर मालूम नहीं निर्माता क्या हासिल करेंगे और कहां पहुंचेंगे? फिलहाल समीक्षकों की समस्याएं बढ़ती जा रही हैं।

Comments

Popular posts from this blog

तो शुरू करें

फिल्म समीक्षा: 3 इडियट

फिल्‍म समीक्षा : आई एम कलाम