दरअसल : फिल्‍म इंडस्‍ट्री के फरजी

-अजय ब्रह्मात्‍मज 
 बहुत पहले रहीम ने लिखा था ¸ ¸ ¸
जो रहीम ओछो बढ़ै,तो अति ही इतराय।
प्यादा से फरजी भयो,टेढ़ो टेढ़ो जाय।।
    हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में आए दिन कोई न कोई प्यादा से फरजी होता है और उसकी चाल बदल जाती है। हर शुक्रवार के साथ जहां कलाकारों,निर्देशकों और निर्माताओं की पोजीशन बदलती है,वहां बदलाव ही नियमित प्रक्रिया है। रोजाना हजारों महात्वाकांक्षी हिंदी फिल्मों में अपनी मेहनत से जगह बनाने मुंबई पहुंचते हैं। उनमें से कुछ की ही मेहनत रंग लाती है। धर्मभीरू और भाग्यवादी समाज में सफलता के विश्लेषण के बजाए सभी उसे किस्मत से जोड़ देते हैं। अजीब सी बात है कि सफल और कामयाब भी आनी कामयाबी को नसीब और किस्मत का नतीजा मानते हैं। सच्चाई यह है कि हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में लगनशील और मेहनती ही सफल होते हैं। प्रतिभा हो तो सहूलियत होती है। रास्ते सुगम होते हैं। किस्मत और संयोग तो महज कहने की बातें हैं।
    फिल्म इंडस्ट्री में कहा और माना जाता है कि यहां धैर्य के साथ लक्ष्य की ओर बढ़ता व्यक्ति अवश्य सफल होता है। शायद ही किसी को एकबारगी कामयाबी नहीं मिलती। पिछले डेढ़ दशकों में सैकड़ों कामयाब व्यक्तियों से बात करने के बाद मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हू कि हर किसी को पांच से आठ सालों तक एड़ी-चोटी की मेहनत करनी पड़ी है। फिल्म इंडस्ट्री से सीधे जुड़े व्यक्तियों की बात अलग है। वह तो भारतीय समाज के हर क्षेत्र में पिता के पेशे में आई संतान को आरंभिक सुविधाएं मिल जाती हैं। हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में भी स्टारपुत्रों और अन्यों को शुरूआती सहूलियत मिलती है। उसके बाद उनकी प्रतिभा और मेहनत ही काम आती है। अनेक उदाहरण हैं जहां दर्शकों ने साधारण और प्रतिभाहीनों को उभरने और जमने नहीं दिया। कई ऐसे भी उदाहरण हैं जब एक छोटी शुरूआत से कुछ ने ऊंची ऊंचाई और मशहूरियत हासिल की।
    सफलता की इस चढ़ाई में थोड़ी सी भी गफलत हो तो पांव फिसलते हैं। और फिर ढलान और पतन ही होता है। मैंने गौर किया है कि बाहर से फिल्म इंडस्ट्री में आई प्रतिभाएं ऐसी द¸र्घटनाओं की ज्यादा शिकार होती है। उन्हें समय पर संभलने का सपोर्ट नहीं मिल पाता। सफलता के साथ मिली चमक-दमक में आंखें चौंधिया जाती हैं और पता नहीं चलता कि अगला कदत सही और सीधा पड़ा या टेढ़ा। कई बर एहसास होने तक चाल और राह टेढ़ी हो चुकी रहती है। प्यादा से फरजी होना वास्तव में सामान्य से विशेष होने की प्रक्रिया है। दिक्कत यह है कि विशेष होते ही अहंकार हावी होता है। अहंकार आने के बाद व्यक्ति सबसे पहले उनसे दूर होता है,जिनके सहारे या दम पर वह आरंभिक पहचान हासिल करता है। फिल्म इंडस्ट्री में कुछ लोग ऐसे मिल जाएंगे जो पहला मौका देने वालों से अधिक मशहूर और बड़े हो जाने पर उनका हाथ थामे रहते हैं। वहीं ज्यादातर सफलता मिलते ही सबसे पहले सीढ़ी को लात मार देते हैं। पुराने दोस्तों और परिचितों के प्रति उनका रवैया और व्यवहार बदल जाता है। वे सामान्य शिष्टाचार का भी पालन नहीं करते। दरअसल,ऐसे मतलबी लोग कामयाबी के बाद पुराने संबंधों को काट देते हैं। उन्हें उन संबंधों को ढोना भारी लगने लगता है।
    रहीम ने सही देखा और कहा है कि प्यादा से फरजी बनते ही कुछ की चाल बदल जाती है। हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में हमेशा से ऐसे फरजी रहे हैं। वे अपनी कामयाबी नहीं संभाल पाते। बहुत कम लोग ऐसे होते हैं,जो कामयाबी के बाद भी विनम्र बने रहें। पिछले दिनों ऐसे फरजियों से सामना हुआ। अभी-अभी उन्हें कामयाबी और पहचान मिली है। वे उग्र और बदतमीज हो गए हैं। उन्होंने लगे हाथ मीडिया के लोगों को गाली देना और अपने साथ के लोगों को नजरअंदाज करना आरंभ कर दिया है। दुख की बात है कि उन्होंने अपने उन साथियों से दूरी बना ली है,जिनके साथ कभी स्ट्रगल किया और उनसे मदद ली। ऐसे लोगों में से कुछ तो संबंध की कीमत लगा कर रिश्तों को पैसों में तब्दील कर देते हैं। आर्थिक मदद कर वे पिछले और मिले सहयोग की इतिश्री कर लेते हैं।


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