दरअसल : सेंसर बोर्ड का ताजा हाल

-अजय ब्रह्मात्मज
    बुधवार 21 जनवरी तक केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड के आधिकारिक वेबसाइट पर नए अध्यक्ष का नाम नहीं लगाया गया था। लीला सैंपसन के इस्तीफा देने के बाद नई सरकार ने आनन-फानन में अध्यक्ष की नियुक्ति के साथ 9 नए सदस्यों की भी नियुक्ति कर दी गई। वेबसाइट पर पुराने 23 सदस्यों के नाम ही लगे थे। उस सूची में नए सदस्यों के नाम नहीं शामिल हो सके थे। डिजीटल युग में प्रवेश करने के बाद भी यह स्थिति है। यह सिर्फ आलस्य नहीं है। वास्तव में यह मानसिकता है,जो ढेर सारी नवीनताओं के प्रति तदर्थ रवैया रखती है। कायदे से नई नियुक्तियों के साथ ही वेबसाइट पर नामों का परिवत्र्तन हो जाना चाहिए था। सेंसर बोर्ड के नए सदस्यों और अध्यक्ष की नियुक्ति से बौखलाए लोगों को यह समझ लेना चाहिए कि भविष्य में भी यही रवैया रहेगा। बदलने के बावजूद ज्यादातर कामकाज पूर्ववत चलता रहेगा।
    नए अध्यक्ष और बोर्ड के सदस्यों के बारे में कहा जा रहा है कि वे भाजपा के करीब हैं। उनमें से कुछ सदस्यों के बारे में यह भी कहा जा रहा है कि उनके संबंध संघ से रहे हैं। मुमकिन है ऐसा हो। तब भी हमें यह ध्यान में रखना होगा कि भारत में सेंसर बोर्ड के सदस्यों और अध्यक्ष की नियुक्ति सत्तारूढ़ पार्टी की मनमर्जी से होती है। हा सरकार की यह मंशा रहती है कि सारे सदस्य और अध्यक्ष उनके वश में रहें ताकि वक्त-जरूरत पडऩे पर उनका उपयोग किया जा सके। 15 जनवरी 1951 से अभी तक के 63 सालों में 27 अध्यक्षों की नियुक्तियां हुई है। अध्यक्ष का कार्यकाल तीन सालों का होता है। अतीत में अधिकांश अध्यक्षों ने तीन सालों का कार्यकाल पूरा नहीं किया। केवल शक्ति सामंत और शर्मिला टैगोर सात-सात सालों तक अध्यक्ष रहे थे। पिछली अध्यक्ष लीला सैंपसन का कार्यकाल पिछले साल अप्रैल में ही पूरा हो गया था। उनकी जगह नई नियुक्ति पर विचार चल ही रहा था कि उन्होंने एमएसजी फिल्म को प्रदर्शन की अनुमति दिए जाने को मुद्दा बना कर इस्तीफा दे किया। उनके इस्तीफे की वजह और मीडिया कवरेज से ही नई नियुक्तियों पर सभी का ध्यान गया। शोर है कि नई नियुक्तियों में भाजपा और संघ के करीबियों को प्राथमिकता दी गई है।
    गौर करें तो 1951 में सेंसर बोर्ड की स्थापना के बाद से नेहरू के विचारों से प्रेरित होकर यह संस्था भी वैचारिक स्वायत्तता के साथ दिशानिर्देशों का पलन करती रही। इंदिरा गांधी के दौर में आपात्काल लागू होने पर तत्कालीन सूचना एवं प्रसारण मंत्री विद्याचरण शुक्ल ने अवश्य हस्तक्षेप किया। उसके बाद से सत्तारूढ़ पार्टियों ने हमेशा इस बात का खयाल रखा कि बोर्ड में उनकी पसंद के लोग रहें या कम से कम ऐसे सदस्य हों जो किसी प्रकार की खिलाफत न करें। सेंसर बोर्ड को भी सरकारों ने लाइसेंस और परमिट राज के अनुरूप ही संचालित किया। कई बार सेंसर बोर्ड के सुझावों की अवहेलना की गई। सरकारों ने किसी न किसी बहाने अंकुश बनाए रखा। कई बार तो प्रदर्शन का प्रमाणपत्र मिल चुकी फिल्मों का प्रदर्श रोका गया तो कुछ फिल्मों का क्लीन चिट दे दी गई। यही आशंका है कि नई साकार द्वारा गठित सदस्यों ने संस्कृति और सभ्यता के नाम पर अगर संकीर्ण रवैया अपनाया तो फिल्मकारों की समस्याएं बढ़ेंगी। सभी जानते हैं कि भाजपा की सांस्कृतिक नीति क्या और कैसी है?
    यों हिंदी और अन्य भाषाओं की मेनस्ट्रीम भारतीय भारतीय फिल्मों में ठोस विचार नहीं होता,इसलिए मुख्य रूप से प्रेमकहानियों की फिल्मों के अटकने की बात ही नहीं होगी। रही मूल्यों की बात तो उन्हें लेकर दिक्कतें बढ़ेंगी तो फिल्मकार क्रिएटिव रास्ते और विकल्प खोज लेंगे। दरअसल,दमन और अंकुश के दौर में फिल्में अधिक कल्पनाशील और संवेदनशील हो जाती हैं। फिल्मकारों को प्रयोग करने के अवसर मिलेंगे।


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