स्वागत 2015 : हिंदी सिनेमा का नया साल

स्वागत 2015
-अजय ब्रह्मात्मज
    2015 आ गया है। अभी महज एक शुक्रवार गुजरा है। इक्यावन शुक्रवार बाकी हैं। और बाकी हैं सुहाने शुक्रवार के साथ जिंदा होते धडक़ते सपने। जिस देश में मनोरंजन का सबसे सस्ता और सुविधाजनक माध्यम सिनेमा हो,वहां हर शुक्रवार का महत्व बढ़ जाता है। हमें लगता है कि मनोरंजन की धुरी पर नाचती फिल्में अपने स्थान से नहीं खिसकतीं। किंतु यह धारणा प्रकृति के परिवर्तन के सामान्य नियम के खिलाफ है। हर साल फिल्में अपने फार्मूलाबद्ध घूर्णन में भी परिवेश और स्थान बदलती रहती हैं। यह तो सालों बाद पलट कर देखने पर मालूम होता है कि फिल्मों का रूप-स्वरूप कब कितना बदला?
    2015 अनेक मायनों में 2014 से अलग रहेगा। इस साल उन प्रतिभाओं की बड़ी और कमर्शियल फिल्में आएंगी,जिन्होंने हाशिए से शुरूआत की। उनके इस ध्येय और प्रयास को अभी शंकालु निगाहों से देखा जा रहा है। माना जा रहा है कि प्रतिरोध से पहचान बनाने के बाद ये प्रतिभाएं पॉपुलैरिटी के पक्ष में चली गई हैं। मुख्य रूप से दिबाकर बनर्जी और अनुराग कश्यप का उल्लेख लाजिमी होगा। उनकी ‘डिटेक्टिव ब्योमकेश बख्शी’ और ‘बांबे वलवेट’ आएंगी। दोनों ने छोटी और स्टारविहीन फिल्मों से दस्तक दी। अनुराग ने अपनी फिल्मों व बयानों और दिबाकर ने अपनी फिल्मों से जाहिर किया कि वे मेनस्ट्रीम में नहीं होने के बावजूद दर्शकों को आलोडि़त और प्रभावित कर सकते हैं। उन्होंने अपने नए दर्शक तैयार किए। गौर करें तो दोनों ही युवा फिल्मकारों के दर्शक मुख्य रूप से शहरी समाज के पढ़े-लिखे तबके के हैं। वे ग्लोबल हो रही दुनिया के जागरूक सदस्य है। वे संचार माध्यम की नई तकनीकों के साथ विश्व सिनेमा से भी परिचित हैं। अपने देश की फिल्मों की रूढिय़ों से वे उकता चुके हैं। उन्हें लगता हैं कि अनुराग और दिबाकर की फिल्में उन्हें इंटरनेशनल स्तर की फिल्मों के करीब ले आती हैं। निश्चित दर्शकों के इस ठोस और गणनीय संख्या से उनका आधार मजबूत हुआ है। एक पहचान मिली है। इस पहचान का ही नतीजा है कि उन्हें मेनस्ट्रीम सिनेमा में बाइज्जत शामिल किया गया है। यह देखना रोचक होगा कि वे मेनस्ट्रीम में समाहित हो जाते हैं कि अपने विशेष रंग और त्वरा के साथ विशिष्ट छटा बिखेरते हैं। दोनों को बड़े और समर्थ स्टूडियो का समर्थन हासिल है। उन्हें अपेक्षाकृत पॉपुलर स्टार के साथ अपने कथ्य की प्रस्तुति के लिए सारी सुविधाएं मिली हैं। यहां तक उनका पहुंचना ही उल्लेखनीय है। अगर दोनों सफल होते हैं तो यकीनन मेनस्ट्रीम सिनेमा की धारा बदलेगी। उसे नया प्रस्थान मिलेगा।
    इन दोनों के साथ 2015 में फिल्म इंडस्ट्री के बाहर से आई अनेक प्रतिभाओं को अवसर मिल रहा है। ‘तेवर’ में अमित शर्मा,‘डॉली की डोली’ में लेखक उमाशंकर सिंह और निर्देशक अभिषेक डोगरा की जोड़ी,‘हवाईजादा’ में विभु पुरी जैसी नई प्रतिभाओं के प्रयासों के साथ हम लंबे समय के बाद सूरज बडज़ात्या की वापसी देखेंगे। सुधी दर्शक जानते हैं कि पिछली सदी में जब हिंदी सिनेमा अपने ही बोझ से चरमरा रहा था तो सूरज बडज़ात्या की सोच ने ही उसे नई दिशा और गति दी थी,जिसे आदित्य चोपड़ा और करण जौहर के प्रभाव में चमकदार पहचान मिली। हालांकि यह सिनेमा स्वभाव में हिंदी जाति का नहीं था और उसने दर्शकों को विलग कर दिया। बहरहाल,21 वीं सदी में सूरज बडज़ात्या को अपनी खोज प्रेम यानी सलमान खान के साथ देखना मनोरंजक होगा। इस साल श्रीराम राघवन ‘बदलापुर’ में पूरे विश्वास और जोश में दिख रहे हैं। विजय आनंद की परंपरा के श्रीराम राघवन थ्रिलर के मास्टर निर्देशक हैं। सुभाष कपूर ‘गुड्डु रंगीला’ लेकर आएंगे। अरशद वारसी के साथ अमित साध की जोड़ी बनेगी। खबर है कि इस फिल्म में दिब्येन्दु भट्टाचार्य को भी अनोखा अवसर मिला है। सुभाष कपूर का व्यंग्यात्मक लहजा कचोटेगा। नवदीप सिंह और निशिकांत कामथ की फिल्में हम देख चुके हैं। एक अंतराल के बाद उनकी ‘एनएच 10’ और ‘रॉकी हैंडसम’ से उम्मीदें बंधी हैं। शुजीत सरकार की ‘पीकु’ अमिताभ बच्चन और दीपिका पादुकोण के साथ इरफान के होने की वजह से खास हो गई है। दो शैली के अभिनेताओं अमिताभ बच्चन और इरफान को एक ही फ्रेम में देखना अद्भुत अनुभव होगा। इस साल इम्तियाज अली की ‘तमाशा’,मोहित सूरी की ‘हमारी अधूरी कहानी’, राकेश ओमप्रकाश मेहरा की ‘मिरजिया’ और जोया अख्तर की ‘दिल धडक़ने दो’ के प्रति भी जिज्ञासा बनी हुई है। इनकी फिल्मों में प्रेम के नए आयाम दिखेंगे,जो हमारे समय की उग्र और मधुर संवेदनाएं जाहिर करेंगे।
    और अंत में संजय लीला भंसाली कर उद्दाम चेतना और भव्य कल्पना का संयोग ‘बाजीराव मस्तानी’ में दिखेगा। सदियों पहले के परिवेश को जीवंत करती उनकी यह पीरियड फिल्म अब तक की सबसे महंगी फिल्म है। साथ ही इसमें रणवीर सिंह और दीपिका पादुकोण की प्रसिद्ध जोड़ी है। 2015  मनोरंजन की विविधता के साथ आ रहा है। हम ने इस स्वागत लेख में जानबूझ कर स्टारों की बात नहीं की है। वास्तव में फिल्में निर्देशक की सोच का नतीजा होती हैं।  हमें लेखकों और निर्देशकों को उनका अपेक्षित श्रेय देना चाहिए। उनकी कोशिशों को रेखांकित करना चाहिए।

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