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Showing posts from April, 2014

शोमैन सुभाष घई ला रहे हैं ‘कांची’

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-अजय ब्रह्मात्मज     पांच सालों के बाद सुभाष घई ‘कांची’ निर्देशित कर रहे हैं। पिछली फिल्म ‘युवराज’ की असफलता के साथ फिल्म स्कूल ह्विस्लिंग वुडस इंटरनेशनल के विवाद में आने से क्षुब्ध सुभाष घई को फिर से निर्देशक की कुर्सी पर बैठने में वक्त लगा। कमर्शियल मसाला सिनेमा के लब्ध प्रतिष्ठ निर्देशक सुभाष घई को शोमैन भी कहा जाता है। राज कपूर के बाद यह खिताब उन्हें ही मिला है। ‘कालीचरण’  से लेकर ‘युवराज’  तक की निर्देशकीय यात्रा में सुभाष घई ने दर्शकों का विविध मनोरंजन किया है। ‘किसना’ और ‘युवराज’ असफल रहने पर उनके आलोचकों ने कहना शुरू कर दिया था कि ‘परदेस’ के बाद सुभाष घई भटके और फिर चूक गए। निश्चित ही समय बदल चुका है। सुभाष घई को मनोरंजक तेवर दिखाने के मौके नहीं मिल पा रहे हैं। उन्होंने 2008 में ही ‘ब्लैक एंड ह्वाइट’ जैसी छोटी और संवेदनशील फिल्म निर्देशित की थी। अब वह ‘कांची’ लेकर आ रहे हैं।     सुभाष घई की फिल्मों के नाम में फिल्म का कथ्य छिपा रहता है। इस मायने में वे पारंपरिक और शास्त्रीय अप्रोच ही रखते हैं। ‘कांची’ टायटल के बार में बताते समय वे उसके विरोधाभासी नेचर पर जोर देते है

मैं अनपेक्षित भंगिमाओं का अभिनेता हूं-राजकुमार राव

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-अजय ब्रह्मात्मज     हाल ही में सफल हुई  ‘क्वीन’ में राजकुमार राव ने विजय की भूमिका में दर्शकों की घृणा हासिल की। उस किरदार की यही खासियत थी। विजय ऐन शादी के मौके पर रानी को रिजेक्ट कर देता है। इस रिजेक्शन से बिसूरने के पश्चात रानी अकेली हनीमून पर निकलती है। वहां से लौटने के बाद वह रानी से क्वीन बन चुकी होती है। राजकुमार राव इन दिनों नासिक में  ‘डॉली की डोली’ की शूटिंग कर रहे हैं। शूटिंग के लिए निकलने से ठीक पहले उन्होंने झंकार से खास बातचीत की। -  ‘क्वीन’ की कामयाबी के बाद का समय कैसा चल रहा है? 0 पार्टियां चल रही हैं। कभी कंगना की बर्थडे पार्टी तो कभी  ‘क्वीन’ की सक्सेस पार्टी। दोस्तों की छोटी-मोटी पार्टियां बीच-बीच में चलती रहती है। हम सभी बहुत खुश हैं। फिल्म दर्शकों को पसंद आई। फिल्म ने अच्छा बिजनेस किया। ऐसी सफलता से  ‘क्वीन’ जैसी फिल्मों में सभी का विश्वास बढ़ता है। - इस कामयाबी को आप कितना एंज्वॉय कर सके? 0 मेरे लिए हर कामयाबी क्षणिक होती है। बहुत खुश हूं। इससे जयादा नहीं सोचता हूं। अभी  ‘डॉली की डोली’ पर फोकस आ गया है। -  ‘क्वीन’ के विजय को आप कैसे देखते हैं? 0 मेरे

कंगना रनोट का पुरस्कारों से परहेज

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    नए कलाकार पुरस्कार पाने और पुरस्कार समारोहों में जाने के लिए लालायित रहते हैं। यह नेटवर्किंग और रिकॉगनिशन का मौका होता है। ‘क्वीन’ से कामयाब हुई कंगना रनोट ने अभी से कहना आरंभ कर दिया है कि वे पुरस्कार समारोहों में शामिल नहीं होना चाहतीं और न ही पुरस्कारों के लिए लालायित हैं। इंडस्ट्री में चर्चा है कि अगले साल वह अवश्य ही ‘क्वीन’ के लिए सभी पुरस्कारों में नामांकित होगी और उन्हें कुछ पुरस्कार भी मिलेंगे। पुरस्कारों के प्रति इस विरक्ति के बारे में पूछने पर कंगना का जवाब चौंकाने वाला रहा। उन्होंने पुरस्कार संबंधित गतिविधियों के व्यावहारिक पक्ष को उजागर किया। उन्होंने थोड़ा हिचकते हुए पहले कहा कि सभी पुरस्कार उपयुक्त व्यक्तियों को दिए जाते हैं, लेकिन जब बेस्ट स्माइल और बेस्ट साड़ी के पुरस्कार बंटने लगें तो सभी को खुश रखने की इस कोशिश पर संदेह होता है। दूसरे इन दिनों कम से कम 15-16 पुरस्कार समारोह होते हैं। इन समारोहों में शामिल होने के लिए पहले ढाई घंटे तो मेकअप-गेटअप करो और फिर पांच घंटे पुरस्कार समारोह में बैठो। यह एक तरह से समय और पैसे की बरबादी है। पुरस्कार समारोहों में जाने के ल

‘संविधान’ टीवी शो के लेखन की चुनौती-अतुल तिवारी

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-अजय ब्रह्मात्मज  राज्य सभा टीवी से प्रसारित श्याम बेनेगल के टीवी शो ‘संविधान’ के दो लेखकों में से एक हैं अतुल तिवारी। अतुल तिवारी ने श्याम बेनेगल के लिए पहले भी लेखन किया है। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के स्नातक अतुल तिवारी ने मुंबई आने के बाद अभिनय और लेखन पर ध्यान दिया। 1994 में आई गोविंद निहलानी की फिल्म ‘द्रोहकाल’ के संवाद उन्होंने लिखे थे। ‘मिशन काश्मीर’,‘नेताजी सुभाषचंद्र बोस’ और ‘विश्वरूपम’ जैसी फिल्मों के लेखन से जुड़े रहे अतुल तिवारी ‘संविधान’ के लेखन को बड़ी चुनौती मानते हैं। संविधान सभा की सत्रों को टीवी शो में ऐसे नाटकीय रूप में प्रस्तुत करना था,जिसमें दर्शकों की रुचि बनी रहे और संविधान की गरिमा भी बनी रहे अतुल तिवारी ‘संविधान’ में गोविंद वल्लभ पंत की भूमिका भी निभा रहे हैं। घनी मूंछों और हाव-भाव से वे पंत जी की तरह ही लगते हैं। वे बताते हैं कि इस शो में सभी कलाकारों का चयन का मुख्य आधार यही था कि वे कद-काठी और चेहरे से मूल नेताओं के करीब हों। फिर यह भी खयाल रखना था कि वे धाराप्रवाह बोल सकें। ‘संविधान’ देखते हुए दर्शक गौर कर रहे होंगे कि उस दौर के सभी नेता अच्छे वक्ता भी

दरअसल : जल्दी हो जाते हैं प्रैक्टिकल

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-अजय ब्रह्मात्मज     आम जिंदगी में भी ऐसा होता है। मशहूर और व्यस्त होने के साथ व्यक्ति की प्राथमिकताओं के साथ नजरें भी बदल जाती हैं। हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में इस बदलाव का कड़वा अनुभव होता है। दरअसल ़ ़ ़ यह बदलाव ही कथित व्यावहारिकता है। प्रैक्टिकल होना है। पुराना परिचय, संबंध, गर्मजोशी और सारी औपचारिकताएं समय के साथ समाप्त हो जाती हैं। स्थापित और मशहूर तो यों भी परवाह नहीं करते। उनकी नजरों में आने में सालों बीत जाते हैं। अनेक मुलाकातों के बाद हुई भेंट में भी उनके होंठो पर पहचान की मुस्कराहट नहीं होती। पहले बहुत तकलीफ होती थी। विस्मय होता था। ऐसा कैसे हो सकता है? अभी उस दिन तो कैसे हंस-हंस कर बातें कर रहे थे और आज पहचान भी नहीं रहे हैं।     फिल्म स्टारों के इस व्यावहारिक रवैए का खेल रोचक होता है। इवेंट या समारोह में पहुंचते ही उनकी नजरें स्वागत में सामने खड़ी भीड़ को स्कैन कर लेती है। वे सिक्युरिटी गार्ड के घेरे में आगे बढ़ते हुए वहीं रुकते हैं, जहां उन्हें रुकना चाहिए। आप कभी नहीं मिले हो तो संभव है वे प्रत्युत्तर में हाथ हिला दें या मिला लें। थोड़ा भी परिचय है और उस इवेंट में आपक

फिल्‍म समीक्षा : 2 स्‍टेट्स

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-अजय ब्रह्मात्‍मज  अभिषेक वर्मन निर्देशित '2 स्टेट्स' आलिया भट्ट की तीसरी और अर्जुन कपूर की चौथी फिल्म है। दोनों फिल्म खानदान से आए ताजातरीन प्रतिभाएं हैं। उन्हें इंडस्ट्री और मीडिया का जबरदस्त समर्थन हासिल है। फिल्म की रिलीज के पहले प्रचार और प्रभाव से यह स्थापित कर दिया गया है कि दोनों भविष्य के सुपरस्टार हैं। वास्तव में दर्शकों के बीच स्वीकृति बढ़ाने के लिहाज से दोनों के लिए उचित माहौल बना दिया गया है। फिल्म देखते समय लेखक की समझ और निर्देशक की सूझबूझ से '2 स्टेट्स' अपेक्षाओं पर खरी उतरती है। साधारण होने के बावजूद फिल्म श्रेष्ठ लगती है। अगर गानों की अप्रासंगिकता को नजरअंदाज कर दें तो पंजाबी कृष मल्होत्रा और तमिल अनन्या स्वामीनाथन की यह प्रेमकहानी बदले भारतीय समाज में अनेक युवा दंपतियों की कहानियों से मेल खाती है। विभिन्न प्रांतों,जातियों और संस्कृतियों के बीच हो रहे विवाहों में ऐसी अंतिर्निहित समस्याओं से दिक्कतें होती हैं। '2 स्टेट्स' में पाश्‌र्र्व संगीत और विभिन्न अवसरों के गीत की वजह से कुछ चीजें लार्जर दैन लाइफ और झूठ लगने लगती हैं। इस

फिल्‍म समीक्षा : देख तमाशा देख

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-अजय ब्रह्मात्‍मज फिरोज अब्बास खान निर्देशित 'देख तमाशा देख' वर्तमान समय और समाज की विसंगतियों और पूर्वाग्रहों में पिसते आम जन की कहानी है। हालांकि ऐसी कहानियां हम दशकों से देखते आ रहे हैं, लेकिन उनकी प्रासंगिकता आज भी नहीं खत्म हुई है। फिरोज अब्बास खान ने हिंदू-मुसलमान के बीच जारी विद्वेष को नए संदर्भ में पेश किया है। समाज के स्वार्थी पैरोकार दोनों धार्मिक समुदायों के बीच वैमनस्य बढ़ाने का कोई मौका नहीं चूकते। कहानी एक साधारण व्यक्ति की है। उसका नाम किशन है। एक मुसलमान औरत से शादी करने के लिए वह मजहब के साथ नाम भी बदल लेता है। अब उसका नाम हमीद है। शहर के व्यापारी के विशाल कटआउट के भहरा कर गिरने से उसकी आकस्मिक मौत हो जाती है। वह कट आउट के नीचे आ जाता है। इस प्रसंग तक आने में फिरोज अब्बास खान ने चुटीला अंदाज अपनाया है। फिल्म के संवादों की तीक्ष्णता भेदती है। बहरहाल, किशन उर्फ हमीद के अंतिम संस्कार को लेकर विवाद होता है। हिंदू अपने किशन का दाह संस्कार करना चाहते हैं तो मुसलमान हमीद को दफन करना चाहते हैं। एक ही व्यक्ति की दो पहचानों का मामला कोर्ट तक चला जा

किरदार से हो गई है दोस्‍ती-अर्जुन कपूर

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रियल और रिलेटेबल किरदार है मेरा-अर्जुन कपूर -अजय ब्रह्मात्मज     अपनी नई फिल्म ‘टू स्टेट्स’ के प्रचार में व्यस्त अर्जुन कपूर अब पहले की तरह मीडिया से बचने की कोशिश नहीं करते। उन्होंने इसकी जरूरत समझ ली है। ‘टू स्टे्टस’ की रिलीज के पहले उन्होंने अपनी बातें रखीं।     सीखते रहते हैं एक्टिंग हम अपने प्रोफेशन से बड़े नहीं हो सकते। हमेशा सीखते रहना पड़ता है। यह ड्रायविंग और स्विमिंग से अलग है। आप देखें कि अमिताभ बच्चन आज भी सीखने की बात कहते हैं। ‘औरंगजेब’ के समय पहली बार लगा कि मैं किरदार मेंं घुस गया हूं। अपने कैरेक्टर की ओपनिंग के सीन में एहसास हुआ कि मुझे अब एक्टिंग ही करनी है और मैं कर सकता हूं। उसके बाद से मेरी मेहनत बढ़ गई। अब कोशिश रहती है कि कैरेक्टर को क्रैक कर लूं।     मैं ‘गुंडे’ और ‘टू स्टेट्स’ की शूटिंग साथ कर रहा था। ‘टू स्टेट्स’ का हीरो एकदम नार्मल है, जबकि ‘गुंडे’ का किरदार ड्रैमेटिक था। ‘गुंडे’ हिंदी सिनेमा के पापुलर फार्मेट में था। ‘टू स्टेट्स’ में वह आम लडक़ों की तरह होता है। इसके संवाद याद कर के नहीं जाता था। वहीं बोल देता था। ताकि सब कुछ नैचुरल लगे। आप देखेंगे कि मैं

राष्‍ट्रीय फिल्‍म पुरस्‍कारों में युवा प्रतिभाएं छाईं

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-अजय ब्रह्मात्‍मज  फिल्मों के नेशनल अवार्ड के लिए इस साल ‘शाहिद’, ‘जॉली एलएलबी’, ‘थिप ऑफ थीसियस’ और ‘काफल’ के साथ ‘चेन्नई एक्सप्रेस’, ‘धूम 3’ ‘कृष 3’ जैसी फिल्में भी विचारार्थ थीं। सईद अख्तर मिर्जा के नेतृत्व में गठित निर्णायक मंडल ने हिंदी फिल्मों की उपधारा की फिल्मों को गुणवत्ता और कलात्मकता की दृष्टि से पुरस्कारों के योग्य समझा। यही वजह है कि ‘शाहिद’,‘जॉली एल एल बी’ और  ‘शिप ऑफ थिसियस’ और को दो-दो पुरस्कार मिले। पुरस्कारों की भीड़ में आज भी सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के फिल्म फेस्टिवल निदेशालय के अधीन जरी नेशनल अवार्ड का महत्व बना हुआ है। देश भर के फिल्म कलारों और तकनीशियनों को इसकी प्रतीक्षा रहती है। इस बार युवा और योग्य फिल्मकारों, कलाकारों और तकनीशियनों को पुरस्कृत किया है।     सर्वश्रेष्ठ निर्देशक के लिए पुरस्कृत ‘शाहिद’ के निर्देशक हंसल मेहता अपने पुरस्कार का श्रेय शाहिद आजमी को देते हैं। वे कहते हैं, ‘शाहिद आजमी के दृढ़ संघर्ष और जीवट ने मुझे इस फिल्म के लिए प्रेरित किया। भारतीय समाज में अल्पसंख्यकों के साथ हो रहे सामाजिक और सरकारी अत्याचार में शाहिद निहत्थे आरोपियों के

इरशाद कामिल : विभाग के बदले बॉलीवुड जाने का मतलब

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चवन्‍न्‍ाी के पाठकों के लिए विनीत कुमार का विशेष आलेख। इसे रचना सिंह के संपादन में निकली दिल्‍ली विश्‍वविद्यालय की हस्‍तलिखित पत्रिका हस्‍ताक्षर से लिया गया है।                                             -विनीत कुमार  “ ये , ये sss     हो तुम , जिसकी लिखी चीजें छापने से संपादक मना कर दिया करते हैं. असल में तुम यही हो , वह इरशाद कामिल नहीं जिसकी तारीफ लोग करते हैं.   मेरी पत्नी ,   पत्रिकाओं से अस्वीकृत रचनाएं खासकर पहल और उस पर ज्ञानरंजन की चिठ्ठियां दिखाते हुए अक्सर कहती है. ऐसा करके खास हो जाने के गुरुर में जीने से रोकती है. वो तो फिल्मफेयर और रेडियो मिर्ची से मिले अवार्ड से कहीं ज्यादा इन अस्वीकृत रचनाओं और न छापने के पीछे की वजह से लिखी ज्ञानरंजन और दूसरे संपादकों के खत ज्यादा संभालकर रखती है. उनका बस चले तो ड्राइंगरुम में अवार्ड की जगह इन्हें ही सजाकर रक्खे ताकि दुनिया जान सके कि असल में इरशाद कामिल है क्या और उसकी हैसियत क्या है   ?   ” तब इरशाद के गिलास का रंग बदला नहीं था. हम गिलास के आर-पार सबकुछ साफ देख पा रहे थे और साथ ही उन्हें भी. उत्साह और मुस्कराहट के