एंटरटेनमेंट नहीं गंभीर विमर्श की कहानी है 'हैदर' - रवि बुले

किसी भी स्तर पर ‘एंटरटेनमेंट' नहीं है हैदर

-रवि बुले 
विशाल भारद्वाज की ‘हैदर’ देखते हुए आप दो शब्दों पर अटकेंगे। अफ्सपा (आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर्स एक्ट) और चुत्जपा (किसी का दुस्साहसी ढंग से मखौल उड़ाते हुए विरोध दर्ज कराना)।

कश्मीर को अपनी कहानी की पृष्ठभूमि में रखते हुए निर्देशक ने दोनों पर खासा जोर दिया है और इनका मतलब समझाने के लिए ‘विकिपीडिया’ की भी सहायता ली है!

‘हैदर’ नाम से भले नायक की कहानी लगे, मूल रूप से यह उसकी मां गजाला मीर (तब्बू) की कहानी है। जो पति के होते हुए देवर खुर्रम (केके मेनन) की ओर आकर्षित होती है। खुर्रम बड़े भाई को गायब करा देता है। उसकी मौत के बाद खुर्रम और गजाला निकाह करते हैं।

हैदर पिता को खोकर असहज है और चाचा से बदला लेना चाहता है। हैदर और उसकी मां के बीच संबंध तल्ख हो उठते हैं। मां को गलती का भी एहसास है, मगर वह बेटे को किसी सूरत नहीं खोना चाहती।
शेक्सपीयर के नाटकों मैकबेथ और ओथेलो पर क्रमशः ‘मकबूल’ और ‘ओमकारा’ विशाल ने अंडरवर्ल्ड की पृष्ठभूमि पर रची थी। परंतु इस बार वे हैमलेट को लेकर नए पन की तलाश में कश्मीर गए।

लेकिन मुद्दा यह है कि जिस ढंग से विशाल कश्मीर समस्या को पर्दे पर पेश करते हैं (पूरा कश्मीर कैदखाना है मेरे दोस्त) और भारतीय सेना को नकारात्मक छवि में उतारते हैं, वह सोचने को मजबूर करता है।

अंतरराष्ट्रीय मंच पर कश्मीर संवेदनशील मुद्दा है और विशाल ने जिस तरह से इसे उकेरा है, उससे भारत का पक्ष कमजोर ही होता है।
संभव है कि जो लोग कश्मीर मुद्दे पर भारत के विरुद्ध खड़े हैं, उनके रूप में विशाल को नए प्रशंसक मिलें। इससे उनके कैरियर को आगे मजबूती मिलेगी। सेंसर बोर्ड की काफी कतरब्यौंत के बावजूद कुछ संवाद और दृश्य खटक ही जाते हैं।

कश्मीर में दशकों से आतंकवाद की समस्या से निपट रही सेना को अफ्सपा के तहत जो विशेष अधिकार मिले हैं, विशाल उसकी तुक हिब्रू शब्द चुत्जपा (जो कि साहित्य, कला और सिनेमा के माध्यम से अंग्रेजी में काफी लोकप्रिय हो चुका है) से मिला कर मखौल उड़ाते नजर आते हैं।

मजे की बात यह कि एक दृश्य में जब हैदर बने शाहिद सैकड़ों लोगों की भीड़ को अफ्सपा को लेकर संबोधित करते हैं तो अंग्रेजी में! भीड़ को देख कर आप सोच में पड़ते हैं कि क्या ये लोग वाकई हैदर की अंग्रेजी को समझ रहे हैं?
फिल्म की मूल कथा में यह पिरोया गया है कि स्थानीय लोग बड़ी आसानी से गायब कर दिए जाते हैं। इसका अधिकाधिक दोष सेना के मत्थे मढ़ा गया है।

डायलॉग हैः कश्मीर में ऊपर खुदा है, नीचे फौज। एक दृश्य में फौजी अफसर को बिना पूछताछ के कुछ युवकों की हत्या करते हुए दिखाया गया है।

हत्या के बाद अफसर कहता हैः मरा हुआ मिलिटेंट (आतंकी) भी आजकल एक लाख का है। सेना पर एक और तीखा व्यंग्य है। एक दृश्य में व्यक्ति दरवाजे पर खड़ा है। अंदर नहीं जाता। उसकी मां पूछती है कि अंदर क्यों नहीं आ रहा। तब भी वह खड़ा रहता है। तब अलगाववादी रूह की भूमिका निभा रहे इरफान उस व्यक्ति की जामातलाशी लेते हैं और उससे अंदर जाने को कहते हैं। वह चुपचाप घर में चला जाता है।

रूह कहता हैः तलाशी की इतनी आदत हो गई है लोगों को कि जब तक तलाशी ना लो अपने घर के अंदर भी नहीं जाते।
कश्मीर समस्या पर आप गंभीर विमर्श में उतरना चाहते हैं तो ‘हैदर’ आपके लिए है। किसी भी स्तर पर ‘एंटरटेनमेंट’ इसमें नहीं है। छुट्टी के दिनों में भारी सिर और भारी मन से आप सिनेमाघर से बाहर आना चाहें तो अंदर जाएं। वे लोग यह फिल्म देख सकते हैं जिन्हें ऐक्टरों के परफॉरमेंस भाते हैं।

जिन्हें शाहिद, तब्बू, इरफान और केके जैसे कलाकार पसंद हैं। हर कलाकार ने खूब मन और मेहनत से काम किया है। कुछेक हिस्सों को छोड़ दें तो विशाल की फिल्म पर पकड़ बनी रहती है।

फिल्म का सबसे खूबसूरत हिस्सा मां-बेटे के संबंध हैं, जो तमाम उतार-चढ़ाव, सहमतियों-असहमतियों और ठंडी खूनी होली के बावजूद नर्म और गर्माहट भरे बने रहते हैं। आपके दिल को छूते हैं।


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