फिल्‍म समीक्षा : रोर

-अजय ब्रह्मात्‍मज 
 निर्देशक कमल सदाना ने नए विषय पर फिल्म बनाने की कोशिश की है। सुंदरवन के जंगलों में यह एक सफेद बाघ की खोज से संबंधित कहानी है। 'रोर' में वास्तविक लोकेशन के साथ वीएफएक्स का भरपूर उपयोग किया गया है। फिल्म के अंत में निर्देशक ने स्वयं बता दिया है कि कैसे शूटिंग की गई है? निर्देशक की इस ईमानदारी से फिल्म का रहस्य टूटता है।
उदय फोटोग्राफर है। वह जंगल की खूबसूरती कैमरे में कैद करने आया है। अपनी फोटोग्राफी के दौरान वह सफेद बाघ के एक शावक को बचाता है। बाघिन अपने शावक की गंध से उदय के कमरे में आ जाती है। वह उसे मार देती है। उदय की लाश तक नहीं मिल पाती। उदय का भाई पंडित सेना में अधिकारी है। वह अपने दोस्तों के साथ भाई की लाश खोजना चाहता है। साथ ही वह बाघिन को मार कर बदला लेना चाहता है। बदले की इस कहानी में बाघिन विलेन के तौर पर उभरती है। फॉरेस्ट ऑफिसर और स्थानीय गाइड के मना करने पर भी वह अपने अभियान पर निकलता है। इस अभियान में बाघिन और पंडित के बीच रोमांचक झड़पें होती हैं।
'रोर' में छिटपुट रूप से सुंदरवन के रहस्य उद्घाटित होते हैं। जंगल की खूबसूरती माइकल वॉटसन की फोटोग्राफी में निखरी दिखती है। फिल्म के एक्शन दृश्य भी ठीक हैं। कमी है तो फिल्म में नाटकीयता और उपयुक्त संवादों की। फिल्म के किरदार ढंग से नहीं गढ़े गए हैं। वे सही प्रभाव नहीं छोड़ पाते। हालांकि अभिनव शुक्ला ने पंडित की जिद को पर्दे पर उतारने की कोशिश की है। 'रोर' में सूफी (आरन चौधरी) और वीरा (सुब्रत दत्‍ता) ही अपने किरदारों के साथ न्याय कर सके हैं।
ढीली पटकथा और कमजोर कहानी की वजह से 'रोर' बांध नहीं पाती। कहानी सुंदरवन में घुसती है, लेकिन इंसानों तक ही सीमित रहती है। बाघिन का चित्रण और फिल्मांकन किसी मनुष्य की तरह किया गया है। अतार्किक दृश्यों और भिड़ंत से फिल्म कमजोर हो गई है।
अवधि-123 मिनट
*1/2 डेढ़ स्‍टार 

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