दरअसल : कागज के फूल की पटकथा


-अजय ब्रह्मात्मज
    दिनेश रहेजा और जितेन्द्र कोठारी बड़े मनोयोग से फिल्मों पर लिखते हैं। उनके लेखन में शोध से मिली जानकारी का पुट रहता है। सच्ची बातें गॉसिप से अधिक रोचक और रोमांचक होती हैं। इधर फिल्म पत्रकारिता प्रचलित फिल्मों की तरह ही रंगीन और चमकदार हो गई है। इसमें फिल्म के अलावा सभी विषयों और पहलुओं पर बातें होती हैं? अफसोस यह है कि स्टार,पीआर और पत्रकार का त्रिकोण इसमें रमा हुआ है। बहरहाल,दिनेश रहेजा और जितेन्द्र कोठारी अपने अध्श्वसाय में लगे हुए हैं। इधर उन्होंने पटकथा संरक्षण का कार्य आरंभ किया है। इसके तहत वे गुरु दत्त की फिल्मों की पटकथा प्रकाशित कर रहे हैं। इस कार्य में उन्हें विधु विनोद चोपड़ा और ओम बुक्स की पूरी मद मिल रही है। इस बार उन्होंने गुरु दत्त की क्लासिक फिल्म ‘कागज के फूल’ की पटकथा संरक्षित की है।
    इस सीरिज में दिनेश रहेजा और जितेन्द्र कोठारी गुरु दत्त की फिल्मों की पटकथा को अंग्रेजी,हिंदी और रोमन हिंदी में एक साथ प्रस्तुत करते हैं। हिंदी की मूल पटकथा को उसके भावार्थ के साथ अंग्रेजी में अनुवाद करना कठिन प्रक्रिया है। संवादों के साथ ही लेखकद्वय फिल्म के गीतों का भी भावानुवाद करते हैं। अपनी रोचक शैली में वे अंग्रेजी में भी तुक मिलाने की सफल कोशिश करते हैं। संवादों के भावानुवाद में कभी-कभी कुछ महत्वपूर्ण शब्द छूट जाते हैं। उन्हें थोड़ा सचेत रहना चाहिए। इसके अलावा पटकथा में निर्देश और एक्शन सिर्फ अंग्रेजी में ही दिए जाते हैं। उन्हें हिंदी में भी लिखा जाना चाहिए। हिंदी पाठक इसकी कमी महसूस करते हैं। ‘कागज के फूल’ के बारे में कहा जाता है कि श्ह गुरु दत्त की आत्मकथात्मक फिल्म है।
    पुस्तक के आरंभ में गुरु दत्त की शैली और संघर्ष पर लिखा लेख उनके द्वंद्वों को जाहिर करता है। प्रसिद्धि और सफलता के साथ गुरु दत्त का सही तालमेल नहीं बैठ पाया। उनकी फिल्में अवसाद और उदासी से भरी हैं। दुनियावी सफलता सभी के लिए आवश्यक होती है। खास कर अगर आप फिल्म जैसे जन उपभोग के माध्यम में सक्रिय हैं तो दर्शकों के बीच पहचान बनाने के साथ ही सराहना की भी उम्मीद रहती है। इस फिल्म के मुख्य किरदार सुरेश सिन्हा के जरिए गुरु दत्त ने एक फिल्ममेकर के एकाकीपन को सही संदर्भ में पेश किया है। सफलता की चढ़ाई मुश्किल होती है। सफलता हासिल होने के बाद की फिसलन तो दर्दनाक होती है। बहुत कम लोग ही इस पीड़ा को संभाल पाते हैं। असंयत हो जाना स्वाभाविक है। दर्प और अभिमान आड़े आता है। नए माहौल और स्थिति से एडजस्ट नहीं कर पाने के दुष्परिणाम भी सामने आते हैं। ‘कागज के फूल’ हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के बैकड्राप पर बनी फिल्म है,जिसमें सफलता के अप्रिय सच को गुरु दत्त ने पेश किया है।
    ऐसी पुस्तकों में अगर संबंधित कलाकारों और तकनीशियनों के अनुभव रहते हैं तो फिल्म समझने में बाहरी मदद मिलती है। आम तौर पर फिल्म या उसकी पटकथा से फिल्म का मर्म समझ में आता है। समकालीनों के अनुभव से उस मर्म की सच्चाई भी पता चलती है। इस पुस्तक में उनके बेटे अरुण दत्त,भाई देवी दत्त,दोस्त देव आनंद,कैमरामैन वी के मूत्र्ति और सहायक श्याम कपूर के साक्षात्कारों के जरिए दिनेश और जितेन्द्र ने ‘कागज के फूल’ से संबंधित अंतर्कथाएं भी दे दी हैं।
कागज के फूल
संरक्षण,अनुवाद,लेख और साक्षात्कार-दिनेश रहेजा और जितेन्द्र कोठारी
ओम बुक्स इंटरनेशनल
विनोद चोपड़ा फिल्म्स की पहल
मूल्य- 595 रुपए

Comments

sanjeev5 said…
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sanjeev5 said…
बड़े ही अफ़सोस की बात है की एक फिल्म जो अपने ज़माने की एक अभूतपूर्व फिल्म थी अब उसकी पटकथा बिकने के लिए बाज़ार में आई है. सवाल ये है की इसके खरीदार कौन होंगे? आज हॉलीवुड की हर स्क्रिप्ट मुफ्त में मिल जाती है बस गूगल करने भर की देर है. फिर ये क्यों एक किताब के रूप में मिल रही है? इसको पढने का फायेदा क्या है? क्या इससे बॉलीवुड के लोग कुछ सीखेंगे? जिस देश के सारे डायरेक्टर मिल जाएँ तो भी एक भी अच्छी फिल्म नहीं बना पाते वो एक मरी हुई स्क्रिपट से अब क्या कर लेंगे? गुरुदत्त का नाम बिकता है बस और कुछ नहीं. यहाँ तक की यशराज फिल्म जो इस समय सबसे अधिक फिल्मे बना रहे हैं उन्होंने एक अरसे से फिल्मों और सबसे अधिक संगीत में कुछ ख़ास नहीं किया है. अब तो अ र रहमान भी कुछ खास नहीं कर पा रहे हैं. इस समय एक भी डायरेक्टर या म्यूजिक डायरेक्टर ऐसा नहीं है जो इस स्क्रिप्ट के साथ न्याय कर सके. इस किताब को कुछ बुधिजीवी खरीद कर अपने बुक शेल्फ में लगा देंगे बस और कुछ नहीं......अगर एक भी फिल्मकार कागज़ के फूल बना दे तो इस स्क्रिप्ट का छापना सार्थक हो जाएगा.....

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