सरहदें लाख खिंचे दिल मगर एक ही है -महेश भट्ट

महेश भट्ट
    पूजा की मां किरण भट्ट एंगलो इंडियन खातून हैं। उन्होने कहा कि जिंदगी कमाल का चैनल है। उस पर आ रहे पाकिस्तानी सीरियल दिल को छूते हैं। इस चैनल पर आ रहे शोज के कंटेंट भारतीय चैनलों पर आ रहे सीरियल से कई गुना बेहतर हैं। यह सुन कर एहसास हुआ कि चाहे जितना वक्त लगा,लेकिन आखिरकार पाकिस्तानी कंटेंट हमारे टीवी पर आ ही गया। म्यूजिक वगैरह तो पहले से घरों में बजता रहा है।
    किरण की बात से याद आया कि 2003 में हम पाकिस्तान गए थे। तब देश में एनडीए सरकार थी। एक माहौल था कि पाकिस्तान शत्रु देश है। पाकिस्तान जाना तो बहुत दूर की बात थी,उसके बारे में सकारात्मक सोच रखना भी गलत माना जाता था। बहुत लोगों ने कहा था कि क्या कर रहे हो? वहां जाओगे तो गृह मंत्रालय की निगाहों में आ जाओगे। जिंदगी को जोखिम में डाल रहे हो। मैंने यही कहा था कि क्या बम बनाना सीखने जा रहा हूं? मैं तो फिलमों के मंच पर जा रहा हूं। वहां की अवाम और फिल्ममेकर से मिलने जा रहा हूं। निडर होकर वहां जाने का मेरा संवैधानिक अधिकार है। जाने पर वहां जो ऊर्जा और प्यास देखी,वह उस वक्त यहां पर नजर नहीं आती थी। वक्त के साथ पिछड़ गए देश में आगे बढऩे की आतुरता थी। वहां के लोगों की तरह हम भी चाहते थे कि हिंदी फिल्में एक साथ भारत और पाकिस्तान में रिलीज हों। लोगों ने हताश किया कि 50 सालों में यह नहीं हुआ है। तुम क्या सपना देख रहे हो? कहते हैं न कि पाक नियत और इरादा हो तो आप यकीनन उसे हासिल करते हैं। हम ने यह हासिल किया।
    2007 में पहली बार आवारापन भारत-पाकिस्तान में एक साथ दिखाई पड़ी। परवेज मुशर्रफ की कोशिश से यह हो सका। तब वहां लाल मस्जिद का मसला चल रहा था। दहशतगर्द मुशर्रफ के खिलाफ थे। वहां उसे बड़ी कामयाबी मिली। इस से एक नया चैप्टर खुला। 55 सालों में जो नहीं हो सका था। वह हम ने दो सालों में कर दिखाया था। हम ने कुछ विशेष नहीं किया। कारा फिल्म फेस्टिवल जाते रहे। वहां पर माहौल बनाते रहे। यहां खुद को तैयार करते रहे। तब तक हुकूमत बदल गई थी। यूपीए सरकार आ गई थी। मैंने मनमोहन सिंह से बात की थी कि इस मोर्चे पर हम लगातार काम करते रहेंगे। उन्होंने कहा था कि मैं या परवेज मुशर्रफ रहें ना रहें,यह प्रक्रिया चलती रहेगी। दोनों देशों के नौजवान चाहते हैं कि दोनों देशों के बीच की काल्पनिक दीवार टूट जाए।
    आतिफ असलम और राहत फतह अली खान यहां आए? मीरा आईं। उनके साथ हम ने नजर बनाई थी। हुमांयू सईद नाम के एक्टर आए थे। जवाद अहमद आए। पाकिस्तानी टैलेंट को लगता है कि हिंदुस्तान में मौका मिल जाए तो हम अपनी पहचान बना सकते हैं। हमलोगों ने बांग्लादेश से जेम्स को बुलाया था,जिन्होंने गैंगस्टर का गाना गाया था। दक्षिण एशिया में मुंबई की एक अहमियत है। एंटरटेनमेंट के लिए साउथ एशिया का यह सबसे बड़ा हब है। यह उम्मीद जगी है पाकिस्तान में कि वे हिंदुस्तान में आकर नाम और काम कमा सकते हैं। इसमें एक अड़चन यहां कि पाकिस्तान विरोधी राजनीति है। वह वार लॉबी को जिंदा रखती है। उनकी वजह से कुछ लोग डर के पीछे हट गए। हम तो नहीं हटे। हर मौसम में काम करते रहे। 26 11 के बाद दोनों मुल्कों के बढ़ते मेलजोल को धक्का लगा। पहिया पीछे घूम गया। इसके बावजूद लोगों में आए बदलाव की वजह से दोस्ती की प्रक्रिया खामोश तरीके से चलती रही।
    मैंने एक बार परवेज मुशर्रफ से पूछा था कि कला के क्षेत्र में उदारवादी मूल्यों पर अमल करने का खयाल उन्हें कैसे आया? उन्होंने बहुत रोचक बात बतायी था। उन्होंने कहा था कि यह अवाम बताती है। वह हाथ पकड़ कर करवा लेती है। लाहौर में हिंदुस्तान-पाकिस्तान के क्रिकेट मैच में हिंदुस्तान जीत गया था। हमारे खुफिया सूत्रों ने अलर्ट कर दिया था। हमें लग रहा था कि दंगे-फसाद हो सकते हैं,लेकिन लाहौर की पब्लिक ने हिंदुस्तानी क्रिकेटरों को कंधे पर उठा लिया। उन्हें राजाओं की तरह रखा। रात भर दुकाने खुली रहीं। हिंदुस्तानियों को मुफ्त में चीजें मिलती रहीं।  हमारी लाख कोशिशों के बावजूद नफरत कायम नहीं रह सकी। तो हम ने सिनेमा के जरिए दोस्ती को  आगे बढ़ाया।
    आज की बात करें तो हुमाइमा मलिक आई हैं। फवाद खान आया है। पाकिस्तानी सीरियल हिंदुस्तानी दर्शकों के सिर चढ़ कर बोल रहा है। हर चैनल में पाकिस्तानी कंटेंट की की मांग है। मुझ से कहा जा रहा है कि उनके साथ  पार्टनरशिप में कुछ करें। यह अनसुनी बात है। ग्यारह साल लग गए,लेकिन देशों के इतिहास में 10-20 साल कुछ नहीं होते। हमेशा चंद लोग ही पहल करते हैं। कुछ वहां थे। हम यहां थे। बदनामियों और आलोचनाओं के बावजूद हम ने जो रास्ता खोला है,वह रंग दिखा रहा है। अभी नरेन्द्र मोदी ने जब नवाज शरीफ को आमंत्रित किया तो मुझे मनमोहन सिंह की बात याद आ गई कि मैं या परवेज मुशर्रफ रहें ना रहें। यह प्रक्रिया चलती रहेगी। दोनों मुल्कों में दक्षिणपंथी सरकारें आ गई हैं,लेकिन दोनों भारत-पाकिस्तान के सांस्कृतिक संबंधों को तेज करने के लिए आमादा हैं। यह जरूरी भी है,क्योंकि हम दोनों की जबान और तहजीब एक सी है।
    दस साल पहले हम सोच ही नहीं सकते थे कि पाकिस्तान का कंटेंट हिंदुस्तान में इतना कामयाब होगा। हमारी हिंदी फिल्में वहां सिनेमाघरों में रिलीज होंगी। याद करें तो राष्ट्रपिता महात्मा गंाधी ने कहा था - हिंदुस्तान और पाकिस्तान भाई हैं। एक दूसरे के गले मिल कर जिंदगी नहीं गुजारेंगे तो दोनों में से कोई भी चैन से नहीं जी पाएगा। कुछ लोग बहुत पहले चीजों को देख लेते हैं। बाकी लोगों को उसे समझने और अमल करने में सालों साल लग जाते हैं। आप माहौल दें तो आलिया की पीढ़ी कमाल कर देगी। बस,अपनी नफरत की राजनीति से हम इन्हें दूषित न करें। राष्ट्रीय हित को ध्यान में रखें,लेकिन इतिहास का बोझ न डालें।
     एक डर यही है कि किस हद तक हम पाकिस्तानी टैलेंट का इस्तेमाल करें। पाकिस्तान में डर है कि हिंदुस्तानी फिल्मों की रिलीज का रास्ता कितना आसान करें। फिल्में मुख्य रूप से सिनेमाघरों के जरिए दर्शकों तक पहुंचती हैं। कुछ उपद्रवी सिनेमाघरों को नुकसान पहुंचाते हैं तो सभी डर जाते हैं। देशभक्ति के नाम पर घृणा फैलाने की कोशिश की जाती है। बाहरी तत्व ही रोक-टोक करते हैं। मैं याद दिला दूं कि 26 11 के बाद भी पाकिस्तान में हिंदी फिल्मों की रिलीज नहीं रोकी गई थी। वहां के सिनेमाघरों में नई ऊर्जा हिंदुस्तानी सिनेमा से आया है। बातें चल रही हैं कि हिंदी फिल्मों की शूटिंग पाकिस्तान में की जाएं। उसमें अभी वक्त लगेगा। यह शिकायत नावाजिब है कि हिंदुस्तानी टैंलेंट को पाकिस्तान में तरजीह नहीं दी जाती। सच तो यह है कि वहां बाजार नहीं है। दूसरे,वे हिंदुस्तानी टैलेंट को खतरे में नहीं डालना चाहते। इसके अलावा ऐसी ताकतें तो हैं ही जो स्वागत नहीं करतीं। यह तो मानना ही पड़ेगा कि लोकतंत्र की वजह से हम अधिक उदार,सहिष्णु और सुरक्षित हैं। पाकिस्तान में माहौल खुला और उदार नहीं है।
    सरहदें जरूर खिंच गई हैं दोनों देशों के बीच,लेकिन सांस्कृतिक आदान-प्रदान कमोबेश निरंतर जारी है। अभी सिनेमा और मनोरंजन ही लोकप्रिय संस्कृति है। आप यकीन करें कि दक्षिण एशिया को जोड़े रखने में फिल्म और संगीत की बड़ी भूमिकाएं हैं।   



     

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